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मोदी सरकार 2.O के दो साल: विकास तथा राष्ट्रवाद का झंडा और नफ़रत का एजेंडा!

आज 30 मई को प्रधानमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष पूरे कर रहे नरेंद्र मोदी ने इस पद पर कुल मिलाकर सात साल पूरे कर लिए हैं।
मोदी

प्रधानमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के तीसरे वर्ष में प्रवेश कर रहे नरेंद्र मोदी ने इस पद पर कुल मिलाकर सात साल पूरे कर लिए हैं। प्रधानमंत्री बनने से पहले करीब साढ़े बारह वर्ष तक गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने देश-दुनिया में अपनी छवि विकास पुरुष की बनाई (गढ़ी) थी। इसी छवि के सहारे वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हुए थे। प्रधानमंत्री बनने के पहले उन्होंने देश की जनता से साठ महीने मांगते हुए कई वादे किए थे और तरह-तरह के सपने दिखाए थे, जिनका लब्बोलुआब यह था कि वे पांच साल में भारत को विकसित राज्यों की कतार में ला खड़ा कर देंगे। देश की जनता ने उन्हें न सिर्फ पांच साल का एक कार्यकाल सौंपा बल्कि उस कार्यकाल में तमाम मोर्चों पर नाकामी के बावजूद पूर्ण बहुमत के साथ पांच साल का दूसरा कार्यकाल भी दे दिया। इस दौरान कई राज्यों में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकारें बन गईं- कहीं स्पष्ट जनादेश के साथ तो कहीं विपक्षी विधायकों की खरीद-फरोख्त के सहारे जनादेश का अपहरण करके।

अब मोदी के दूसरे कार्यकाल के भी दो वर्ष बीत गए हैं। कुल सात वर्ष के अभी तक के कार्यकाल में उनका और उनकी सरकार का एक ही मूल मंत्र रहा है- 'विकास तथा राष्ट्रवाद का झंडा और नफ़रत का एजेंडा।’ इसी मंत्र के साथ काम करते हुए मोदी सरकार अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर तो बुरी तरह विफल हो रही है, देश के अंदरुनी हालात भी बेहद असामान्य हैं। पिछले डेढ़ वर्ष से जारी कोरोना की वैश्विक महामारी के दौरान तो अपनी नाकामी और अक्षमता पर पर्दा डालने के लिए सरकार जिस तरह की क्रूरता और निष्ठुरता दिखा रही है, उससे देश में चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है।

सात साल पहले नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के ढाई महीने बाद जब स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से पहली बाद देश को संबोधित किया था तो उनके भाषण को देश-दुनिया ने बडे गौर से सुना था। विकास और हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद की मिश्रित लहर पर सवार होकर सत्ता में आए मोदी ने अपने उस भाषण में देश की आर्थिक और सामाजिक तस्वीर बदलने का इरादा जताते हुए देशवासियों और खासकर अपनी पार्टी तथा उसके सहमना संगठनों से अपील की थी कि अगले दस साल तक देश में सांप्रदायिक या जातीय तनाव के हालात पैदा न होने दें।

प्रधानमंत्री ने कहा था- ''जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, सामाजिक या आर्थिक आधार पर लोगों में विभेद, यह सब ऐसे जहर हैं, जो हमारे आगे बढने में बाधा डालते हैं। आइए, हम सब अपने मन में एक संकल्प लें कि अगले दस साल तक हम इस तरह की किसी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे। हम आपस में लड़ने के बजाय गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा तथा तमाम सामाजिक बुराइयों से लडेंगे और एक ऐसा समाज बनाएंगे जो हर तरह के तनाव से मुक्त होगा। मैं अपील करता हूँ कि यह प्रयोग एक बार अवश्य किया जाए।’’

मोदी ने अपने भाषण में ऐसी ही अपील पाकिस्तान से भी की थी। उन्होंने कहा था- ''दोनों देशों ने अब तक चार युद्ध लड़ लिए हैं लेकिन किसी को हासिल कुछ नहीं हुआ है। दोनों देशों की बुनियादी समस्याएं समान हैं और इसलिए हमें टकराव का रास्ता छोड़ कर, मिलजुल काम करते हुए उन समस्याओं से लड़ना चाहिए।’’

मोदी का यह भाषण उनकी स्थापित और बहुप्रचारित छवि के बिल्कुल विपरीत, सकारात्मकता और सदिच्छा से भरपूर था। देश-दुनिया में इस भाषण को व्यापक सराहना मिली थी, जो स्वाभाविक ही थी। आमतौर पर यही माना गया था कि जब तक देश में सामाजिक-सांप्रदायिक तनाव के हालात रहेंगे, तब तक कोई विदेशी निवेशक भारत में पूंजी निवेश नहीं करेगा और विकास संबंधी दूसरी गतिविधियां भी सुचारु रूप से नहीं चल सकती हैं, इस बात को जानते-समझते हुए ही मोदी ने यह आह्वान किया है।

प्रधानमंत्री के इस भाषण के बाद उम्मीद लगाई जा रही थी कि उनकी पार्टी तथा उसके उग्रपंथी सहमना संगठनों के लोग अपने और देश के सर्वोच्च नेता की ओर से हुए आह्वान का सम्मान करते हुए अपनी वाणी और व्यवहार में संयम बरतेंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। प्रधानमंत्री की नसीहत को उनकी पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ता तो दूर, उनकी पार्टी के मुख्यमंत्रियों, केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और पार्टी के प्रवक्ताओं-जिम्मेदार पदाधिकारियों ने भी तवज्जों नहीं दी। इन सबकी ओर से सामाजिक और सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने वाले नए-नए बयानों के आने का सिलसिला जारी रहा।

इसे संयोग कहे या सुनियोजित साजिश कि प्रधानमंत्री के इसी भाषण के बाद देश में चारों तरफ से सांप्रदायिक और जातीय हिंसा की खबरें आने लगी। कहीं गोरक्षा तो, कहीं धर्मांतरण के नाम पर, कहीं मंदिर-मस्जिद तो कहीं आरक्षण के नाम पर, कहीं गांव के कुएं से पानी भरने के सवाल पर तो कहीं दलित दूल्हे के घोडी पर बैठने को लेकर, कहीं वंदे मातरम् और भारतमाता की जय के नारे लगवाने को लेकर। इसी सिलसिले में कई जगह महात्मा गांधी और बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्तियां को भी विकृत और अपमानित करने तथा कुछ जगहों पर नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाने जैसी घटनाएं भी हुईं। हैरानी और अफसोस की बात तो यह है कि इन सारी घटनाओं को सिलसिला कोरोना जैसी भीषण महामारी के दौर में भी नहीं थमा है।

ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटनाएं मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले नहीं होती थीं। पहले भी ऐसी घटनाएं होती थीं, लेकिन कभी देश के इस कोने में तो कभी उस कोने में, लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तो ऐसी घटनाओं ने देशव्यापी रूप ले लिया। संगठित तौर पर ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया जाने लगा। यहां तक कि 2002 की भीषण सांप्रदायिक हिंसा के बाद शांति और विकास के टापू के रूप में प्रचारित मोदी का गृह राज्य गुजरात भी मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ समय बाद ही जातीय हिंसा की आग में झुलस उठा।

अगस्त 2015 में गुजरात में पटेल बिरादरी ने आरक्षण की मांग को लेकर एक तरह से विद्रोह का झंडा उठा लिया। व्यापक पैमाने पर हिंसा हुई। अरबों रुपए की सरकारी और निजी संपत्ति आगजनी और तोड़फोड़ का शिकार हो गई। इस हिंसक टकराव के कुछ ही दिनों बाद उसी सूबे में दलित समुदाय के लोगों पर गोरक्षा के नाम पर प्रधानमंत्री की पार्टी के सहयोगी संगठनों का कहर टूट पड़ा। हालात इतने बेकाबू हो गए कि सूबे की मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी। हालांकि सामाजिक तनाव वहां आज भी बरकरार है।

गुजरात की इस घटना के चंद महीनों बाद ही 2016 के जून महीने में दिल्ली से सटे हरियाणा में भी जाट समुदाय ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया। उस आंदोलन ने जिस तरह हिंसक रूप धारण किया वह तो अभूतपूर्व था ही, राज्य सरकार का उस आंदोलन के प्रति मूकदर्शक बने रहना भी कम आश्चर्यजनक नहीं था। हरियाणा वह प्रदेश है जहां प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के सहारे भाजपा ने पहली बार अपनी सरकार बनाई थी।

प्रधानमंत्री मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाले उत्तर प्रदेश में तो हालात आज तक बेहद गंभीर बने हुए हैं। वहां गोरक्षा के नाम पर भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने पहले से ही आतंक मचा रखा था, जिसका सिलसिला वहां भाजपा की सरकार बनने के बाद और तेज हो गया। लंबे समय से सांप्रदायिक तनाव को झेल रहे इस सूबे को सत्ता परिवर्तन के साथ ही जातीय तनाव ने भी अपनी चपेट मे ले लिया। सांप्रदायिक आधार मुसलमानों का उत्पीड़न तो अब भी पुलिस की मदद से बाकायदा सरकार के स्तर पर हो रहा है।

मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ, बिहार और झारखंड में भी पिछले सात वर्षों के दौरान जातीय और सांप्रदायिक तनाव की अनेक घटनाएं हुई हैं। चूंकि ऐसी सभी घटनाओं को भाजपा के विधायक, सांसद और मंत्री स्तर के नेताओं की शह पर अंजाम दिया जाता है, लिहाजा स्थानीय पुलिस-प्रशासन भी सत्ता-शीर्ष पर बैठे लोगों की भाव-भंगिमा के अनुरूप कदम उठाते हुए मामले पर लीपापोती कर देता है।

चूंकि शुरू में तो यह माना गया था और अपेक्षा की गई थी कि इस तरह की घटनाएं प्रधानमंत्री की मंशा और विकास के उनके घोषित एजेंडा के अनुकूल नहीं हैं, लिहाजा ऐसी घटनाओं पर प्रधानमंत्री राज्य सरकारों और अपने पार्टी कॉडर के प्रति सख्ती से पेश आएंगे, लेकिन इस अपेक्षा के उलट प्रधानमंत्री मोदी न सिर्फ मूकदर्शक बने रहे, बल्कि विभिन्न राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान दिए गए उनके विभाजनकारी भाषणों से भी उनके कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा और इस तरह की घटनाओं में इजाफा होता रहा। कहीं उन्होंने श्मशान और कब्रिस्तान की बात कही, तो कहीं पर कहा कि अगर भाजपा हार गई तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि खुद प्रधानमंत्री ही लालकिले से अपने पहले संबोधन में किए गए आह्वान को भूल गए।

यही नहीं, सांप्रदायिक विभाजन को गहरा करने के मकसद से ही उनकी सरकार ने विवादास्पद नागरिक नागरिकता संशोधन (सीएए) कानून भी पारित कराया और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) तैयार करने का इरादा जताया। जब इसके खिलाफ देशभर में आंदोलन हुआ तो पुलिस के जरिए उस अहिंसक आंदोलन को भी बलपूर्वक दबाने की कोशिशें हुईं। उस आंदोलन को बदनाम करने के लिए कई जगह तो पुलिस के लोगों ने ही सादे कपड़ों में तोडफोड की कार्रवाई को अंजाम दिया और प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से उस तोड़फोड़ के लिए बगैर नाम लिए मुस्लिम समुदाय को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि ऐसे लोगों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग में चले महिलाओं के ऐतिहासिक आंदोलन को बदनाम करने के लिए तरह-तरह के भडकाऊ बयान प्रधानमंत्री की पार्टी के नेताओं और मंत्रियों ने दिए, जिसकी परिणति भीषण दंगों में हुई।

सीएए और एनआरसी के जरिए देश भर में बनाए जा रहे नफरत के माहौल और दिल्ली में हो रहे दंगों के दौरान ही कोरोना महामारी ने भारत में दस्तक दे दी थी। इस महामारी की भयावहता को देखते हुए लगा था कि अब तो सरकार अपना पूरा ध्यान महामारी से निबटने में लगाएगी और उसकी ओर से सांप्रदायिक नफरत को बढ़ावा देने जैसा कोई काम नहीं होगा। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार व पार्टी ने यहां भी निराश किया। महामारी की आड़ में भी नफरत का एजेंडा स्थगित नहीं हुआ। दिल्ली में हुए तबलीगी जमात के एक कार्यक्रम को कोरोना फैलने का कारण बताकर प्रचारित कर टीवी चैनलों और सोशल मीडिया के माध्यम से देशभर में ऐसा माहौल बना दिया गया मानो इस महामारी का संबंध सिर्फ मुसलमानों से ही है और देश में वे ही इसे फैला रहे हैं।

भाजपा शासित राज्यों में इस तरह की नफरत फैलाने में पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने भी अहम भूमिका निभाई। इस सबकी दुनिया भर में प्रतिक्रिया हुई। कई मुस्लिम राष्ट्रों ने आधिकारिक तौर पर भारत सरकार के समक्ष इस नफरत भरे अभियान को लेकर विरोध दर्ज कराया। लेकिन यह अभियान तभी थमा जब यह महामारी देशभर में फैल गई और कई केंद्रीय मंत्री, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक और भाजपा के अन्य बडे नेता भी इसकी चपेट में आने लगे।

सरकार और सत्तारूढ पार्टी ने जैसा रवैया सीएए और एनआरसी के खिलाफ हुए आंदोलन को लेकर अपनाया था, वैसा ही रवैया तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ छह महीने पहले शुरू हुए किसानों के आंदोलन को लेकर भी अपनाए हुए है। सरकार के मंत्रियों और भाजपा के नेताओं ने उसे खालिस्तानियों और पाकिस्तान समर्थकों का आंदोलन बताया। हालांकि इस दौरान सरकार की ओर से किसानों से कई दौर की बातचीत भी गई लेकिन वह बेनतीजा रही। स्थिति यह है कि कोरोना संक्रमण के खतरे के बावजूद किसानों का आंदोलन अभी भी जारी है, लेकिन सरकार पूरी तरह उदासीन बनी हुई है।

इस समय कोरोना महामारी की दूसरी लहर के चलते देश में चारों तरफ भय, शोक, आशंका और अफरातफरी का माहौल है। इस माहौल की चर्चा दुनियाभर में हो रही है। देश ऐतिहासिक आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। बेरोजगारी चरम पर हैं। तमाम विशेषज्ञ और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां आने वाले दिनों में हालात के बेहद भयावह होने की चेतावनी दे रहे हैं। इस सबके बावजूद सरकार और सत्तारूढ पार्टी अपना विभाजनकारी राजनीतिक एजेंडा छोडने को कतई तैयार नहीं है। अफसोस की बात यह है कि मुख्यधारा का मीडिया सरकार का पिछलग्गू बनकर देश के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ रहा है।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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