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कोरोना लॉकडाउन के दो वर्ष, बिहार के प्रवासी मज़दूरों के बच्चे और उम्मीदों के स्कूल

सरकारी स्कूलों में खास तौर से गरीब परिवारों के बच्चे बड़ी तादाद में आ रहे हैं। इनमें से कई बच्चे प्रवासी मजदूर परिवारों से हैं।
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बिहार आदर्श राजकीय माध्यमिक विद्यालय, भरौली में विज्ञान का सत्र

कोरोना महामारी को नियंत्रित करने के लिए भारत में पहली बार घोषित लॉकडाउन को दो वर्ष से कुछ अधिक का समय बीत चुका है। इसी के साथ हमने देखा कि खास तौर पर बिहार के मजदूरों के श्रम की कीमत पर देश भर में चल रहा विकास का पहिया किस तरह थम गया था। इसी भीषण महामारी के बीच करीब 19 लाख लोग देश के कोने-कोने से बिहार लौटे थे। उन दुखद यात्राओं की स्मृतियां अब धूमिल होती जा रही हैं। लेकिन, दुखों ने अब तक अपना घर नहीं छोड़ा है। तभी तो जमीनी रिपोर्ट कहती है कि आज की तारीख में भी राज्य के कई प्रवासी मजदूर की एक बड़ी संख्या वापस काम पर नहीं लौट सकी है।

महानगरों में पहली की तरह काम की स्थितियां न बन पाने से लेकर डर, संशय और अन्य कारण हैं कि प्रवासी मजदूरों की एक बड़ी आबादी गांव में ही ठहर गई है और अच्छे दिनों का इंतजार कर रही है। गांव में यदि रोजगार के साधन होते तो महज पेट की भूख मिटाने की खातिर ये पलायन ही क्यों करते। जाहिर है कि एक बड़ी आबादी घर वापसी के बाद बेरोजगार हो चुकी है।

दूसरी तरफ, महामारी के प्रकोप के दो सत्रों के बाद गांव-गांव में सरकारी स्कूल फिर से खुल गए हैं। सिवान के कुछ सरकारी स्कूलों में हमने दौरा किया। बातचीत में वहां के कई शिक्षकों ने बताया कि सरकारी स्कूलों में खास तौर से गरीब परिवारों के बच्चे बड़ी तादाद में आ रहे हैं। इनमें से कई बच्चे प्रवासी मजदूर परिवारों से हैं। हालांकि, कोरोना महामारी के कारण वंचित तबके के बच्चों को पढ़ाई में हुए नुकसान की भरपाई कर पाना संभव नहीं हो सकेगा और यह भी सही है कि असंख्य बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से अलग हो गए हैं। फिर भी प्रमुख रूप से मिड-डे-मील और शिक्षण से जुड़ी कुछ गतिविधियां हैं, जिनके चलते बेरोजगार, गरीब और प्रवासी मजदूरों के बच्चे स्कूल के प्रति आकर्षित हो सकते हैं।

लिहाजा, सिवान से करीब 15-20 किलोमीटर दूर स्थित भरौली और बेलही पूरब के सरकारी स्कूलों में खाद्य सुरक्षा और पुस्तकालय से जुड़ी दो भिन्न-भिन्न और अनूठी तस्वीरों की कहानियां हमने सहेज लीं। इस प्रकार की पहल बताती हैं कि सरकारी स्कूल किस प्रकार से एक बार फिर वंचित वर्ग के बच्चों के बदलाव के केंद्र के तौर पर स्थापित हो सकते हैं।

सबसे पहले बात आदर्श राजकीय माध्यमिक विद्यालय भरौली की, जहां प्रधानाध्यापक सहित आठ शिक्षक-शिक्षिकाएं हैं। करीब 383 बच्चों के इस स्कूल में अधिकतर दलित और पिछड़ा समुदाय के बच्चे हैं। इस स्कूल के शिक्षक हीरालाल शर्मा बताते हैं कि मिड-डे-मील के कारण कोरोना महामारी से पहले भी ड्रॉप आउट होने वाले बच्चों की संख्या में कमी आ रही थी। हालांकि, कोरोना के कारण नियमित पढ़ाई के लिए आने वाले बच्चों को नुकसान उठाना पड़ा है, लेकिन स्कूल फिर चालू हो गए हैं। ऐसे में मिड-डे-मील जैसी योजना पढ़ाई की गति को दोबारा हासिल करने की राह पर उम्मीद बांध रही है।

मिड-डे-मील के लिए भोजन पकाते रसोइया

बातचीत में हीरालाल बताते हैं कि कोरोना जैसी महामारी ने यह स्पष्ट कर दिया कि गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूल ही आखिरी सहारा होते हैं। यह सच है कि पिछले कुछ वर्षों में कई सारे अभिभावकों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से निकालकर प्राइवेट स्कूलों में दाखिला दिलाया है। इसके बावजूद यदि सैकड़ों बच्चे फिर से सरकारी स्कूलों में हाजिर हो रहे हैं तो इसके पीछे मिड-डे-मील की अहम भूमिका है।

इसी स्कूल की बात की जाए तो वर्ष 2014 से यहां पढ़ने वाले बच्चों की संख्या लगातार घटती गई है। इस स्कूल में 60 प्रतिशत लड़कियां हैं, क्योंकि परिजन लड़कों को प्राइवेट स्कूलों में दाखिला दिलाना पसंद करते हैं। तथ्य यह है कि इस गांव के आसपास एक दर्जन से अधिक प्राइवेट स्कूल संचालित हो रहे हैं। मगर, हीरालाल यह मानते हैं कि सरकारी स्कूलों की उपयोगिता कायम है। कारण यह है कि जो गरीब बच्चे पैसा देकर शिक्षा हासिल नहीं कर सकते, उनके लिए सरकारी स्कूलों के दरवाजे हमेशा खुले हैं और कोरोना महामारी के बाद जब लोग बड़ी संख्या में बेरोजगार हो गए, तब भी सरकारी स्कूलों ने उनके बच्चों का स्वागत किया। इनमें दलित और अति-पिछड़े समुदाय के बच्चे खास तौर पर लड़कियों के लिए मुफ्त शिक्षा के साथ भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है।

यही वजह है कि इस स्कूल में जहां एक ओर बच्चों की संख्या घट रही है, वहीं दूसरी ओर नियमित स्कूल आने वाले बच्चों की संख्या 25 प्रतिशत तक बढ़ी है। वे ड्रॉप आउट नहीं हो रहे हैं, क्योंकि पढ़ाई के लिए उन्हें इस बात की चिंता नहीं रहती है कि आज उन्होंने भोजन नहीं किया तो पढ़ेंगे कैसे?

मिड-डे-मील के दौरान सामूहिक भोजन में शामिल बच्चे।

राज्य के अन्य स्कूलों की तरह इस स्कूल में भी पोषक-वाटिका है, जिसमें मिड-डे-मील के लिए हरी सब्जियां उगाई जा रही हैं। स्कूलों में मिड-डे-मील के अंदर पोषक-वाटिका की अवधारणा अपने-आप में एक रचनात्मक हस्तक्षेप है। इसमें बच्चे भोजन के साथ पोषण आहार के बारे में व्यावहारिक जानकारियां तथा श्रम का महत्त्व समझ सकते हैं। इसके अंतर्गत बीज व पौधा-रोपण से लेकर बगीचे की सामूहिक देखभाल की भावना उन्हें कुछ हद तक पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बना सकती है।

इसी स्कूल के एक अन्य शिक्षक सतीश श्रीवास्तव बताते हैं कि कोरोना लॉकडाउन के बाद जब उनका स्कूल खुला तो सबसे ज्यादा ध्यान मिड-डे-मील पर दिया गया कि यह विशेष तौर से प्रवासी मजदूरों के बच्चों के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकता है। मिड-डे-मील के जरिए परोक्ष तौर पर पोषण को लेकर बच्चों के साथ चर्चा हो ही जाती है। इसमें हम उन्हें कुपोषण, अच्छा पोषण, स्वच्छता और खेलकूद के बारे में बताते हैं। सतीश के अनुसार मिड-डे-मील के जरिए होने वाली चर्चा से बच्चे अच्छी और बुरी खाने की आदतों को लेकर भी सोचते हैं। जैसे कि बच्चे समझ रहे हैं कि ज्यादा चॉकलेट खाना अच्छा नहीं होता, हरी सब्जियां खाने से ताकत आती है। सतीश पोषण विषय पर बच्चों के लिए एक पोस्टर-प्रतियोगिता आयोजित कराने के बारे में भी सोच रहे हैं।

मिड-डे-मील के रसोइया हरी यादव बताते हैं कि बच्चों को घर से अच्छा भोजन पकेगा तो वे पढ़ने के लिए स्कूल क्यों नहीं आएंगे! इतने सारे बच्चे यहां आ रहे हैं तो इसका मतलब है कि उन्हें पढ़ाई और भोजन दोनों की अच्छी खुराक मिल रही है। वे बताते हैं कि सोमवार से लेकर शुक्रवार तक किस प्रकार से बच्चों को बदल-बदलकर, स्वादिष्ट, ताजा और ताकत देने वाला भोजन दिया जा रहा है। वहीं, सतीश बताते हैं कि मिड-डे-मील के कारण बच्चे दोपहर बाद तक भी रुक रहे हैं। लेकिन, बात यही समाप्त नहीं होती। अंत में वे कहते हैं, ''आठवीं में सामाजिक-विज्ञान की किताब के भीतर बच्चे खाद्य-सुरक्षा से जुड़े पाठ्यक्रम के कई पाठ भी पढ़ते हैं। ये पाठ हैं कृषि सहकारिता, दुग्ध सहकारिता और खाद्य भंडारण की प्रणाली।''

दूसरी तरफ, महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित राजकीय माध्यमिक विद्यालय बेलही पूरब में पुस्तकालय का काया-कल्प किया जा रहा है, जिसके तहत एक कलाकार स्कूल की दीवारों पर किताबों के प्रति आकर्षित करने वाले कई चित्र तैयार कर रहा है।

बिहार आदर्श राजकीय माध्यमिक विद्यालय, बेलही पूरब में पुस्तकालय को आकर्षित बनाने के लिए दीवारों पर पढ़ाई के अनुकूल चित्र बनाए जा रहे हैं।

दरअसल, किसी जगह पर बड़ी संख्या में किताबों को जमा करना भर काफी नहीं होता, आवश्यकता होती है कि इन किताबों को पढ़ने के लिए एक संस्कृति विकसित की जाए। ऐसा परिवेश तैयार किया जाए कि ये किताबें बच्चों के हाथों तक पहुंचें, उन्हें अपनी ओर खींचे तथा आपस में चर्चा करें।

यही वजह है कि इन दिनों इस स्कूल में 'परिवर्तन' नाम की संस्था की पहल पर पुस्तक और पुस्तकालय से जुड़ा एक उपक्रम शुरू किया गया है, जिसमें किताबों को प्रदर्शित करने से जुड़े कई सारे विचार हैं। इसके तहत किताबों के बारे में संवाद कराना भी पुस्तकालय के कार्य का हिस्सा बनाया जा रहा है।

'परिवर्तन' से दीपक कुमार सिंह बताते हैं कि पुस्तकालय के अंदर एक रीडिंग कार्नर तैयार किया जा रहा है। जल्द ही किताबों को अलमारियों से बाहर प्रदर्शित करने के लिए अनेक प्रकार की गतिविधियां आयोजित की जाएंगी। कोशिश रहेगी कि बच्चे पहले तो सभी प्रकार की किताबों से परिचित हों, ताकि बाद में वे किताबों के साथ एक अच्छा रिश्ता बना सकें और अच्छे पाठक भी बन सकें।

कोरोना लॉकडाउन के बाद जब स्कूल दोबारा खुले हैं तो इस प्रकार की ऑफलाइन कोशिशों के नतीजों में बदलने में एक लंबा अरसा लगेगा। लेकिन, सुदूर बिहार के एक स्कूल में इस प्रकार की पहल यह स्पष्ट संकेत करती है कि सामान्य पुस्तकालय को किस प्रकार से एक समुदाय आधारित और समुदाय के सहयोग से संचालित पुस्तकालय में बदला जा सकता है।

पुस्तकालय से संबंधित गतिविधियों में बच्चों को शामिल किया जा रहा है।

बता दें कि इस स्कूल के पुस्तकालय में भी सरकारी और गैर-सरकारी सहायता से सैकड़ों की संख्या में पुस्तकें मौजूद हैं। पुस्तकालय से जुड़ी इस पहल का उद्देश्य है पाठ्यक्रम के बाहर की उन पुस्तकों को जो कि पुस्तकालय में रखी हुई हैं, बगैर किसी दबाव के बच्चों से जोड़ना। इसके लिए जो गतिविधियां प्रयोग में लाई जा रही हैं, उनमें शामिल हैं: म्यूजिकल चेयर, बुक टॉक और खजाने के खेल आदि।

इस प्रकार, बच्चे किताब के मुख्य पृष्ठ और किताबों के भीतर की सामग्री के बारे में जान रहे हैं। किताबों को पढ़ने के तौर-तरीकों के साथ ही किताबों की समीक्षा के कौशल भी सीख रहे हैं।

यहां के शिक्षक राजेश कुमार सिंह बताते हैं कि लंबे समय बाद जब स्कूल फिर से खुलने लगे हैं तो बच्चों को शिक्षा से दोबारा जोड़ना जटिल काम हो गया है। लेकिन, इस तरह के उपक्रम के कारण बच्चे मनोरंजन के साथ ज्ञान हासिल कर सकते हैं।

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