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ब्रिटेन की राजनीति में नस्लीयअल्पसंख्यक के बढ़ते क़द के क्या मायने हैं?

वे सभी जो ब्रिटेन के सामाजिक-राजनीतिक वातावरण पर निगाह रखे हुए हैं, बता सकते हैं कि टोरी पार्टी कमसे कम अपने बाहरी आवरण में बदलती दिख रही है।
Rishi Sunak and Liz Truss
Image courtesy : Deadline

कौन बनेगा प्रधानमंत्री? फिलवक्त ब्रिटेन में यही सवाल बहस के केंद्र में है। अधिक संभावना यही बतायी जा रही है कि लीज ट्रूस- जिनकी टोरी मतदाताओं के बीच लोकप्रियता ज्यादा है, वह पार्टी की नेत्री चुनी जाएंगी, लेकिन पंजाबी हिन्दू ऋषि सुनाक भी- जिनके माता पिता दक्षिणी पूर्वी अफ्रीका से वहां पहुंचे हैं, अभी भी अपनी कोशिश में मुब्तिला हैं।

तय बात है कि प्रधानमंत्री जो भी बने, उसे टोरी पार्टी की रूढ़िवादी नीतियों का ही अनुगमन करना पड़ेगा, ब्रिटेन की राजनीति में “लोह महिला” के तौर पर जानी जाती मार्गेट थैचर जैसी टोरी पार्टी की प्रधानमंत्री को ही अपनी प्रेरणा बताना पड़ेगा। जिनका कार्यकाल ट्रेड यूनियनों पर हमलों और देश की कल्याणकारी नीतियों में कटौती कर उसे नवउदारवाद के रास्ते पर डालने के लिए जाना जाता है या ब्रिटेन में शरणार्थी बन कर पहुंचे लोगों को- नागरिकत्व प्रदान करने के बजाय, उन्हें रवांडा जैसे अफ्रीकी मुल्क में एक तरफ का टिकट देकर निर्वासित करने की जनविरोधी नीति पर ही अमल करना पड़ेगा, यूरोपीय संघ से ब्रिटेन को अलग करने वाले ‘ब्रेक्जिट’ जैसे फैसले की ही हिमायत करनी पड़ेगी ; लेकिन एक बात काबिलेगौर है कि इन चुनावों के जरिए कभी श्वेत मर्दों का प्रभुत्व प्रतिबिम्बित करने वाले टोरी पार्टी की एक अलग किस्म की छवि उजागर हुई है कि वहां ग़ैर श्वेतों को, यहां तक कि दूसरे देशों से आप्रवासी बनकर पहुंचे लोगों को भी स्थान देने में हिचकिचाहट नहीं है।

निवर्तमान प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के मंत्रिमंडल में तीन सबसे महत्वपूर्ण पद गैर ब्रिटिश मूल के लोगों को मिले थे: ऋषि सुनाक / पब्लिक एक्सचेकर/, प्रीति पटेल  (गृह )और साजिद जाविद / स्वास्थ्य/ और प्रधानमंत्री पद से उनकी विदाई के बाद टोरी पार्टी के नेतृत्व के लिए जिन दस प्रत्याशियों ने अपनी किस्मत आजमाने की कोशिश की जिसमें पांच प्रत्याशी ‘नस्लीय अल्पसंख्यक’ समुदायों से ताल्लुक रखते थे: फिर चाहे ऋषि सुनाक रहे हों ;या पाकिस्तानी मूल के रहमान चिश्ती हों, जो वहां पहली दफा सांसद बने हैं ; केमी बाडेनौक़ (Kemi Badenoch) रही हों जिनके माता पिता नाईजरिया से वहां आए हैं, जो कन्जर्वेटिव पार्टी मे भी राजनीतिक तौर पर अधिक दक्षिणपंथी समझी जाती हैं; सुएला ब्रेवरमैन रही हों, जो भारतीय मूल के माता पिता की संतान हैं, जो केन्या और मौरिशस से वहां पहुंचे हैं ; और कुर्दिश मूल के नादिम जहावी रहे हों, जो बोरिस जॉनसन के प्रधानमंत्री पद के आखिरी दिनों में वित्त मंत्री पद संभाले थे और जिन्होंने महज 48 घंटों में इस्तीफा दिया था।

वे सभी जो ब्रिटेन के सामाजिक-राजनीतिक वातावरण पर निगाह रखे हुए हैं, बता सकते हैं कि टोरी पार्टी कमसे कम अपने बाहरी आवरण में बदलती दिख रही है।

लोग याद कर सकते हैं कि बमुश्किल तीस साल पहले /1990/ में कभी मार्ग्रेट थैचर के कैबिनेट में वरिष्ठ मंत्री पद रहे नेता नौर्मन टेब्बिट (Norman Tebbit) ने यह कह कर जबरदस्त विवाद पैदा किया था, मतलब कि एक तरफ से देश के प्रति वफादारी साबित करने के लिए यह ऐलान किया था कि जब तक वह इंग्लैंड की क्रिकेट टीम की हिमायत नहीं करते, तब तक उन्हें सही मायने में देशभक्त नही समझा जा सकता।

यह देखा जा सकता है कि उनकी पार्टी में अब ग़ैर ब्रिटिश लोगों को भी जिम्मेदारी के पद मिलते जाने पर नौर्मन टेब्बिट अब क्या सोचते हैं? या टोरी पार्टी के बेहद उग्र नेता इनौक पौवेल जो आप्रवासियों को निशाना बनाते हुए अपने विवादास्पद बयानों के लिए, अपने विभाजक वक्तव्यों के लिए कुख्यात हो गए थे, जिन्होंने वर्ष 1968 में यह भविष्यवाणी की थी कि आप्रवासियों को गले लगाने की नीति ब्रिटेन के भविष्य के लिए अलाभकर होगी, अगर आज जिन्दा होते तो क्या सोचते?

ब्रिटेन की सत्ताधारी पार्टी के बाहरी आवरण में आ रहे बदलाव बरबस भारत की सियासत के हालिया सफर पर सोचने के लिए प्रेरित करते हैं, गौरतलब है अपनी नीतियों में बेहद रूढ़िवादी, आप्रवासियों को लेकर भी गैरजरूरी संदेहों से लिप्त या लेबर पार्टी के बरअक्स अधिक अमीरपरस्त समझी जाने वाली टोरी पार्टी के बिल्कुल विपरीत यहां की वर्चस्वशाली पार्टी की सियासत आगे बढ़ रही है। आज का ब्रिटेन- जिसका ‘आधिकारिक धर्म ईसाईयत’ है, इस बात के लिए तैयार दिखता है वहां कोई गैरईसाई यहां तक कि ऐसा व्यक्ति जिसकी जड़े ब्रिटिश साम्राज्य के गुलाम मुल्कों में रही हों, देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच सकता है, लेकिन भारत जैसा मुल्क, जो अपने आप को ‘विश्वगुरू’ मानता है, तथा जिसके कर्णधारों को यह दावा करने में संकोच नही होता कि वह जनतंत्र की मां’ रहा है, वहां इस बात की कल्पना तक नहीं की जा सकती।

बाहरी मुल्कों में प्रताड़ित रहे लोगों को, भले ही वह किन्हीं अन्य आस्थाओं के हों- भारत के दरवाजे खुले रखने की बात तो दूर की रही (जिसे पहले वह अंजाम देता था ) अब वह खुद संविधान में ऐसे बदलावों को लाने पर आमादा है कि वहां व्यक्ति विशेष के धर्म को नागरिकता का पैमाना बनाने की कवायद चल रही है ; इतना ही नहीं वहां ऐसे रैडिकल बदलावों को आगे बढ़ाया जा रहा है कि सरकार चाहे तो अपने ही नागरिकों को ‘गैरनागरिक' घोषित कर दे या उन्हें मताधिकार से भी वंचित कर दे और उन्हें उन डिटेन्शन सेन्टर्स भेज दे। जहां ऐसे तमाम ‘अनागरिक’ भेजे जा रहे हैं। इन दिनों भारत के कई इलाकों में ऐसे डिटेन्शन सेन्टर्स का निर्माण हो रहा है।

विविधता और अनेकता को बढ़ावा देने के बजाय इन दिनों यहां यही प्रयास जोरों पर है कि मुल्क की ‘सबसे बड़ी  धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी अर्थात मुसलमानों को / जिनकी आबादी देश की कुल आबादी के 15 फीसदी के करीब है / सामाजिक एव राजनीतिक जीवन से हाशिए पर डाल दिया जाए। भले ही इसे प्रतीकात्मक कहा जाए, लेकिन क्या यह विचारणीय नहीं है कि सत्ताधारी पार्टी भाजपा के पास देश के अग्रणी सदनों, राज्यसभा या लोकसभा में कोई चुना हुआ मुस्लिम सदस्य नहीं है। मुख्तार अब्बास नकवी, जो केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य थे, उनकी राज्यसभा सदस्यता का भी नूतनीकरण नहीं कराया गया और उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। तमाम राज्यों के विधानसभा चुनावों में एक भी मुसलमान प्रत्याशी भाजपा की तरफ से खड़ा तक नहीं किया गया था।

लगभग दो दशक पहले देश के प्रधानमंत्राी पद के लिए ‘विदेशी मूल’ का व्यक्ति नहीं होना चाहिए, यह मांग करते हुए इन दक्षिणपंथी जमातों ने जो हंगामा खड़ा किया था, उसे याद किया जा सकता है। फिलवक्त़ वह बात पुरानी पड़ चुकी हों, लेकिन देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी, जो भले ही इतालवी मूल की रही हों, लेकिन कई दशक पहले भारतीय नागरिकता हासिल कर चुकी हैं और देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी की लंबे समय से अध्यक्ष हैं, तथा जिन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता का बार बार परिचय दिया है, उन्हें 2004 में प्रधानमंत्री पद से दूर रखने के लिए उन्होंने जो नाटक किए, वह इतिहास का ऐसा ही स्याह पन्ना है। यहां तक कि भाजपा की एक अग्रणी महिला नेता ने यहां तक कहा था कि अगर सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनीं- जिसकी पूरी संभावना 2004 में थी, जबकि कांग्रेस गठबंधन ने भाजपा को शिकस्त दी थी- तो वह अपने बाल काट देंगी और शेष जीवन ‘विधवा’ की तरह बिताएँगी 

ब्रिटेन की तरह विकसित मुल्कों के लोकतंत्र भी कमसे कम बाहरी आवरण में बदल रहे हैं, इसे कनाडा और अमेरिका जैसे उदाहरणों से समझा जा सकता है। कनाडा की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी जो देश की हाउस आफ कॉमन्स की चौथीसबसे बड़ी पार्टी है - जिसकी अगुआई जगमीत सिंह नामक सिख करते हैं, यहां तक कि प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की हुकूमत में कई मंत्रीसिख हैं। अमेरिका में भी तमिल भारतीय मूल की मां और अफ्रीकी मूल के पिता की संतान कमला हैरिस इन दिनों उपराष्ट्रपति पद पर हैं, जो फिलवक्त अमेरिकी सरकार की दूसरी सबसे ताकतवर व्यक्ति हैं।

अन्त में, वे सभी जो ब्रिटेन में नस्लीय अल्पसंख्यकों के उभार को लेकर अधिक गदगद हैं, ऋषि सुनाक को वजीरे आजम बनते हुए देखना चाहते हैं, उन्हें एक बात के प्रति सचेत होने की भी आवश्यक समझता हूं।

प्रीति पटेल से लेकर ऋषि सुनाक का ब्रिटेन की राजनीति में बढ़ता बोलबाला एक तरह से ‘बॉबी जिन्दल’ की याद ताज़ा करता है, जो भारतीय मूल के व्यक्ति थे और एक अमेरिकी राज्य के गवर्नर भी थे। उनके गवर्नर बनने पर पंजाब के उनके पैतृक गांव में जश्न मनाया गया था, भले ही 1970 में भारत छोड़ने पर उन्होंने कभी भारत का रूख नहीं किया, वे वहीं पले-बढ़े, अमेरिका को इस कदर अपनाया कि ईसाइयों के प्रतिगामी हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाली रिपब्लिकन पार्टी को उन्हें उम्मीदवार बनाने से संकोच नहीं हुआ। 

ध्यान रहे कि खुद सनातनी किस्म के ईसाई होने के नाते वे न केवल गर्भपात का विरोध करते थे, डार्विन द्वारा प्रस्तुत मानवता के क्रमविकास के सिद्धान्त के स्थान पर वह ‘इंटेलीजेंट डिजाइन’ की बात करते हैं जो एक तरह से ईश्वरीय विकास (क्रिएशनिजम) का ही दूसरा नाम है और उन्होंने वहां के स्कूलों में भी इंटेलीजेंट डिज़ाइन’ सीखाने पर जोर दिया था। अश्वेत तथा अन्य श्वेतेतर समुदायों को बढ़ावा देने के लिए साठ के दशक में वहां बनायी गयी एफर्मेटिव एक्शन की नीतियों (जिन्हें हम यहां सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबकों के विकास के लिए कायम आरक्षण की नीतियों के समकक्ष देख सकते हैं) का विरोध करते थे। यही कारण था कि लुइसियाना राज्य की आबादी का एक तिहाई हिस्सा अश्वेतों में से लगभग किसी ने उन्हें वोट नहीं दिया था। इतना ही नहीं वह अमेरिकी सरकार की जालिमाना नीतियां- जिसने अपनी चौधराहट कायम करने के लिए अफगानिस्तान पर एवं इराक पर हमला किया और लाखों लोगों को मार डाला या अपने यहां की जनता पर अंकुश लगाने के लिए तमाम काले कानून बनाए, जिसके चलते वह दुनिया भर में बदनामी बटोरता रहता है, के कट्टर समर्थक बताये गए थे।

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