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यूपी चुनाव: कोविड संकट, महंगाई पर जनता के गुस्से से पार पाने के लिए भाजपा की विभाजनकारी रणनीति

विपक्षी दल भले ही कमज़ोर लगते हों, लेकिन अगर वे सही मुद्दों को उठाते हैं, तो उत्तर प्रदेश में कामयाब हो सकते हैं क्योंकि अपनाये जा रहे सांप्रदायिक रणनीति को लेकर जनता का धैर्य अब चुकता जा रहा है।
यूपी चुनाव: कोविड संकट, महंगाई पर जनता के गुस्से से पार पाने के लिए भाजपा की विभाजनकारी रणनीति

अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश जीतने की क़वायद तेज़ हो गयी है। राज्य में जो तस्वीर उभर रही है, वह सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी बनाम समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच के त्रिकोणीय संघर्ष वाली तस्वीर है। भाजपा और पूरा संघ परिवार अपने हिंदुत्व शस्त्रागार के हर हथियार से लैस होकर पूरी ताक़त के साथ मैदान में उतर आये हैं। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ राज्य भर के दौरे कर रहे हैं, विभिन्न तरह की घोषणायें कर रहे हैं और उद्घाटन में भाग ले रहे हैं। उनकी सरकार के दावों और उपलब्धियों को बयां करते विज्ञापन पूरे राज्य में दिखायी दे रहे हैं, जिसमें बीजेपी के बारे में टीवी चैनलों पर प्रसारित या अख़बारों में छपी कुछ 'खबरें' भी शामिल हैं। टीवी चैनल जल्द ही चुनाव पूर्व सर्वेक्षण भी जारी कर देंगे, हालांकि इन सर्वेक्षणों में जो कुछ बताया जायेगा, उसे लेकर लोगों के विचार एकदम साफ़ हैं।

क़रीब डेढ़ साल तक ख़ामोश रहने के बाद सपा और बसपा भी फिर से लोगों के सामने आ गये हैं। ये पार्टियां भी सम्मेलनों और सभाओं के आयोजन में व्यस्त हैं। लेकिन, सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर उन्होंने भी जाति को ही अपना तारणहार बना लिया है। ये पार्टियां या तो ज़मीनी स्तर पर लोगों की परेशानियों और ग़ुस्से को समझ पाने में असमर्थ हैं या जानबूझकर उनकी अनदेखी कर रही हैं या फिर एक ऐसी धारणा को गढ़ पाने में विफल रही हैं, जो उन्हें चुनावी रूप से इस अहम राज्य में ड्राइविंग सीट पर बैठा सकती है। यही वजह है कि कोविड-19 महामारी के कारण जान-माल की भारी क्षति, कमर तोड़ महंगाई और रोज़ी-रोटी और कृषि संकट चुनावी बहस से ग़ायब कर दिये गये हैं।

कांग्रेस पार्टी पिछले दो सालों से यहां सक्रिय है और उसने राज्य में एक संगठनात्मक ढांचा ज़रूर स्थापित कर लिया है, लेकिन अब भी उसके पास ऐसा सामाजिक आधार नहीं है, जिसे वह अपना कह सके। सोमवार को कांग्रेस नेता राहुल गांधी प्रदर्शन कर रहे किसानों के साथ एकजुटता दिखाते हुए ट्रैक्टर से संसद पहुंचे। कोई शक नहीं कि उनकी पार्टी उस उत्तर प्रदेश में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश कर रही है, जहां तीन नये कृषि क़ानूनों ने एक राजनीतिक शून्य पैदा कर दिया है। 2011 की जनगणना के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश की आबादी का तक़रीबन 78% हिस्सा ग्रामीण इलाक़ों में रहता है। इसकी 21 करोड़ आबादी की कम से कम लगभग आधी आबादी खेती बाड़ी से जुड़ी हुई है।

विपक्ष का अंतिम लक्ष्य 2024 के आम चुनाव में बड़ी ताक़त बनना है, जिसके लिए उसे उत्तर प्रदेश के चुनावों में जीत हासिल करने की ज़रूरत है। 80 सांसदों वाले इस राज्य के पास केंद्र में सरकार बनाने की कुंजी है। भाजपा का भी यही सपना है और इसके रास्ते में भी चुनौतियां हैं। ओम प्रकाश राजभर की अगुवाई वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (SBSP) ने असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली अखिल भारतीय मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के साथ मिलकर एक "संकल्प मोर्चा" की घोषणा की है। बहराइच, ग़ाज़ीपुर, बलिया, वाराणसी, मऊ और आज़मगढ़ सहित उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में राजभर और मुस्लिम मतदाता निर्णायक संख्या में हैं। इस समय यह अनुमान लगा पाना मुश्किल है यह नया मोर्चा कितना सफल होगा। हालांकि, इसके सफल होने सका अर्थ यह भी हो सकता है कि इस मोर्चे ने भाजपा विरोधी वोटों में कितनी सेंध लगायी।

यह तो साफ़ है कि कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के बाद बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी में बढ़ोत्तरी हुई है और महंगाई आसमान छू रही है। लोगों की परेशानी काफ़ी बढ़ गयी है। सरकार को लेकर गहरी नाराज़गी है। यह ग़ुस्सा ही वह वजह है, जिससे हाल के महीनों में सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण की राजनीति को हवा देने की कोशिश चल रही है। पिछले साढ़े चार सालों में राज्य में हुए घटनाक्रमों ने मतदाताओं के ध्रुवीकरण की नींव रख दी है। अब यह विपक्ष पर निर्भर करता है कि अगर वह सफल होना चाहता है, तो वह इस धारणा का मुक़ाबला किस तरह करना चाहता है।

ख़ास तौर पर एनआरसी विरोधी आंदोलन की पहली लहर और इसके बाद कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के दौरान सत्ताधारी पार्टी के नेताओं की बयानबाज़ी और गोदी मीडिया की तरफ़ से परोसी जा रही ज़हरीली ख़बरों ने राज्य के सामाजिक ताने-बाने को गहरी चोट पहुंचायी है। इन प्रकरणों के दौरान पुलिस और प्रशासन की जो भूमिकायें थीं, लोग उन्हें कभी नहीं भूल पायेंगे। "लव जिहाद, "एनआरसी और जनसंख्या से जुड़ी बयानबाज़ी को अगर छोड़ भी दें, तो भाजपा गाह-ब-गाहे सांप्रदायिक भावना को बढ़ावा देने के लिए 'स्थानीय' मुद्दों को भी सामने लाती रही है। रामपुर शहर के पास स्थित मोहम्मद अली जौहर विश्वविद्यालय और सपा नेता आज़म ख़ान का ही मामला ले लें या फिर एनआरसी विरोधी प्रदर्शनकारियों के घरों पर छापेमारी का मामले को ही लें। "पीएफ़आई" से जुड़े होने के नाम पर नौजवानों की गिरफ़्तारी और ऐसे कई मामले पिछले कुछ सालों में भाजपा की बनायी धारणा के तौर पर सामने आते रहे हैं।

सपा के अखिलेश यादव और बसपा की मायावती इन तमाम मुद्दों पर ज़्यादातर समय चुप ही रहे हैं। प्रियंका गांधी तो अक्सर सोनभद्र से लखनऊ और बिजनौर से हाथरस तक राज्य भर का दौरा करती रही हैं। हालांकि, उनकी ये कोशिशें रंग ला पाती हैं या फिर इसका छिटपुट असर होता है, इसे देखा जाना अभी बाक़ी है। हक़ीक़त यही है कि अखिलेश और मायावती ने यह मान लिया है कि वे अपने पक्ष में जाति समीकरण बनाकर चुनावी बाधा से पार पा लेंगे। दूसरा, वे यह मानकर भी चल रहे हैं कि उन्हें मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ जनता के ग़ुस्से का फ़ायदा मिलने वाला है! बेशक, यही वह रणनीति है, जिसे अपनाने का क़सूरवार कांग्रेस पार्टी भी रही है।

2017 में पिछले चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना में माहौल भाजपा नेताओं के कारण गर्म हो गया था। उन्होंने दावा किया था कि इस इलाक़े से हिंदुओं का पलायन हुआ है और बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ है। उस समय एक बड़े नेता ने श्मशान घाटों की तुलना क़ब्रिस्तानों से की थी और दीवाली के लिए "बिजली" को रमजान वग़ैरह के लिए बिजली से अलग माना था। आख़िरकार, इसके ख़िलाफ़ कोई ठोस धारणा सामने नहीं रख पाने से ध्रुवीकरण हो गया था और इसका फ़ायदा भाजपा को मिल गया था। कोई शक नहीं कि ऊपर से जाति के गणित ने उसे और मज़बूती दे दी थी।

पिछले चुनाव के दौरान सपा-कांग्रेस गठबंधन ने भी सोशल इंजीनियरिंग की कोशिश की थी। अखिलेश और राहुल गांधी, दोनों ने वाराणसी के प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर में साथ मिलकर पूजा-अर्चना की थी, लेकिन उनकी पार्टियों को इससे कोई फ़ायदा नहीं हुआ था। सच कहा जाये, तो अखिलेश ने विकास की बात भी कही थी और उन्होंने बीजेपी के 'सबका साथ...' के नारे को चुनौती भी दी थी। 2011 में भाजपा न केवल उन्हें अल्पसंख्यक समर्थक, बल्कि सांप्रदायिक होने तक के रूप में भी चित्रित कर रही थी। इसकी मिसाल उस लैपटॉप देने की योजना के रूप में दी जा रही थी, जिसे अखिलेश की सरकार ने अल्पसंख्यक छात्रों के बीच बांटा था। कहा जाता है कि आख़िरकार इस बात को लेकर भाजपा का यह ज़ोरदार प्रचार मतदाताओं के विरोध का आधार साबित हुआ।

इस समय इस चुनाव अभियान के सही मायने में शुरुआत होने से पहले ही भाजपा इसी तरह के विभाजनकारी मुद्दों को उठाती दिख रही है और विपक्षी दलों को इस पर नज़र रखने की ज़रूरत है। कुछ हफ़्ते पहले ग़ाज़ियाबाद में कुछ बदमाशों ने एक बुज़ुर्ग मुस्लिम शख़्स की दाढ़ी काट दी थी। हालांकि, यह अब भी साफ़ नहीं पाया है कि इस मामले में आख़िर हुआ क्या था, लेकिन पुलिस ने इस बात से इनकार किया है कि यह कोई सांप्रदायिक घटना थी और उन पत्रकारों के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज करने की मांग की है, जिन्होंने ऐसा कहा था। इसके बाद आया सहारनपुर में हैंडपंप का मामला। यहां तक कि इस मामले को हिंदू-मुस्लिम विवाद बना दिया गया। एक दक्षिणपंथी संगठन के लोगों ने विवाद स्थल पर हंगामा किया और नारेबाज़ी की।

यहां तक कि "लव जिहाद" और रोहिंग्या शरणार्थी संकट उत्तर प्रदेश अभियान की शुरुआत में ही सामने आ गये हैं। इसके बाद राज्य में तैयार जनसंख्या नीति का मसौदा का मामला आ गया है। टीवी चैनलों में धर्म परिवर्तन और जनसंख्या वृद्धि पर ज़ोरदार बहस चलायी जा रही है। दुर्भाग्य से चुनाव के आख़िर तक इस बहस के जारी रहने की संभावना है।

ख़ास बात यह है कि इस बार इस तरह के मुद्दे का असर जनता के बीच नहीं देखा जा रहा है। इसकी बड़ी वजह यह है कि कोविड-19 महामारी से लोगों के कारोबार और उनकी आमदनी तबाह हो गये हैं। महंगाई बढ़ने से रोजी-रोटी का संकट गहरा गया है। ख़ास तौर पर निम्न मध्यम वर्ग और ग़रीब इससे पहले इतने परेशान कभी नहीं रहे हैं। बीजेपी-आरएसएस के रणनीतिकार भी इस बात से वाक़िफ़ हैं। वे जानते हैं कि अगर वे यह चुनाव हार जाते हैं, तो उनकी पार्टी 2014 के मुक़ाबले बहुत ही अलग रास्ता अख़्तियार करेगी। यही कारण है कि भाजपा का चुनाव प्रचार तेजी से आक्रामक और ध्रुवीकरण करने वाला होता जा रहा है। आने वाले दिनों में बीजेपी को तरकश से ऐसे कई और तीर निकालने पड़ सकते हैं। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के घटनाक्रम पर नज़र रखने वाले पर्यवेक्षक कह रहे हैं कि भले ही विपक्ष संसाधनों और ताक़त के मामले में कमज़ोर दिख रहा हो, लेकिन अगर वह ज़ोरदार मुक़ाबला कर लेता है, तो मतदाताओं ने उस पार्टी को हराने का फ़ैसला कर लिया है, जिसने उन्हें निराश किया है। जनता का एक बड़ा वर्ग यह देखना चाहता है कि क्या ये दल और नेता उन मुद्दों पर लड़ते हुए उनके साथ खड़े हैं, जो उनके लिए मायने रखते हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

UP Polls: Divisive BJP Agenda vs Public Angry after Covid, Eco Crisis

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