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यूपी: मायावती की अलग राह से किसे नफ़ा किसे नुक़सान?

लोकसभा चुनाव में मायावती ने अपनी पार्टी बसपा को अकेले मैदान में उतारने का फ़ैसला किया है। उनका कहना है कि भाजपा और कांग्रेस विश्‍वसनीय नहीं हैं। उनकी कथनी-करनी में बहुत फ़र्क होता है।
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फ़ोटो : PTI

आज से कुछ महीने बाद ये तय हो जाएगा कि सियासत के केंद्र में किसका सिक्का जमने वाला है? प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व एनडीए सत्ता में लौटेगी या देश की जनता ’इंडिया’ के हाथों में अपना भविष्य सौपेंगी? यानी सत्ताधारी गठबंधन एनडीए और विपक्षी दलों का ‘इंडिया’ एक दूसरे के ख़िलाफ अपने-अपने मोहरे सेट करने में जुट गये हैं।

हालांकि इन सबके बीच एक खिलाड़ी ऐसा भी है, ज़िसकी राजनीति इन गठबंधनों से तो अलग है, मग़र सियासत के भंवर में प्रभाव इतना ज़्यादा कि सबसे बड़े प्रदेश के रुझान कभी भी अपनी तरफ मोड़ सकता है। दरअसल हम बात मायावती की कर रहे हैं। जिन्होंने ऐसा पासा फेंका जो एनडीए या ‘इंडिया’ किसी भी खांचे में फिट नहीं बैठता है।

मायावती ने 23 अगस्त यानी बुधवार को लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र एक बैठक की, और ये साफ कर दिया कि उनकी पार्टी अकेले दम पर चुनाव लड़ेगी, और किसी भी गठबंधन में शामिल नहीं होगी।

वैसे मायावती ऐसा फैसले करने वाली हैं, इसका इशारा वो पहले दे चुकी थी, जब उन्होंने कहा था कि उनकी पार्टी राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और तेलंगाना के विधानसभा चुनावों में अकेले लड़ेगी। हालांकि अब उन्होंने लोकसभा चुनाव के लिए भी तस्वीर साफ कर दी है।

मायावती के इस फ़ैसले के लिए पहले उनके तर्क समझते हैं...

बसपा की ओर से एक प्रेस रिलीज़ जारी कर कहा गया है कि पार्टी जब गठबंधन करती है तो उसके पारंपरिक वोट का फ़ायदा गठबंधन में शामिल दूसरे दल को हो जाता है, दावा किया गया है कि गठबंधन करने वाले दूसरे दल का वोट बसपा को ट्रांसफ़र नहीं होता। इसलिए बसपा दूसरों को तो फ़ायदा दिला देती है लेकिन उसको फ़ायदा नहीं मिल पाता, बयान में दावा किया गया है कि गठबंधन करने वाले दल अपना वोट बसपा उम्मीदवारों को ट्रांसफ़र कराने की न नीयत रखते हैं और न ही उनके पास वोट ट्रांसफ़र कराने की क्षमता है। इससे पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता है। इसलिए बसपा न सत्ता पक्ष से और न विपक्षी दलों से गठबंधन करेगी।

हालांकि अगर आंकड़ों को उठा कर देंखेंगे तो बसपा और मायावती की इस बात में ज़रा भी दम दिखाई नहीं देता है। क्योंकि पिछले यानी 2019 चुनाव में बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था, और तब उन्होंने अपने 10 सांसद भी बनाए थे, जबकि सपा के खाते में सिर्फ पांच सांसद ही गए थे।

गठबंधन के दौरान बसपा का वोटबैंक खिसकना इसलिए भी भ्रमित करता है, क्योंकि 2014 में बसपा अकेली चुनाव लड़ी थी, तब इनका खाता भी नहीं खुला था हालांकि वोट प्रतिशत 22 फीसदी था।

इसी साल 2014 में समाजवादी पार्टी भी अकेले ही चुनाव लड़ी थी, तब भी उसे 22.35% वोट और 5 सीटों पर जीत मिली थी। जबकि कांग्रेस को 7.53% वोट पाकर दो सीट से संतोष करना पड़ता है।

हालांकि मायावती की पार्टी बसपा के तर्कों का कुछ मतलब निकलता भी है तो ये कि साल 2014 के चुनाव में समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बसपा के बीच विरोधी वोटों का बिखराव हुआ था और इसका सीधे फायदा भाजपा को मिला था, जो अब भी बरकरार है। लेकिन अगर बसपा, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी तीनों के वोट प्रतिशत को जोड़ दिया जाए तो ये करीब 49 प्रतिशत हो जाते हैं, जो भाजपा और अपना दल (सोनेलाल) को मिले कुल वोटों से करीब 6 फीसदी ज्यादा हो सकते हैं।

कैसे? सपा का 22.35 प्रतिशत वोट+ कांग्रेस का 7.53 प्रतिशत वोट+बसपा का 20 प्रतिशत वोट = 49.88 प्रतिशत वोट... जो भाजपा के 43.63 प्रतिशत वोट से कहीं ज़्यादा है।

और ये भी कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर इतना वोट प्रतिशत बढ़ता है तो सीटों में बढ़ोत्तरी होना भी लाज़मी है। लेकिन इसके लिए मायावती और उनकी पार्टी की ओर से दिए गए सभी तर्क ग़लत साबित होते हैं।

अब सवाल ये उठता है कि अगर गठबंधन के साथ रहने से मायावती को फायदा होगा और देश में सरकार बदल सकती है, तो उनकी पार्टी गठबंधन से दूर क्यों है?

इसके लिए हमने कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान से बात की थी, तब उन्होंने कहा था कि मायावती भाजपा की ईडी और सीबीआई से डर चुकी हैं, ऐसे में मायावती के पास भाजपा के सामने नतमस्तक होने के अलावा कोई चारा नहीं हैं। जब हमने मायावती के इस का कारण पूछा तब उन्होंने साफतौर पर बसपा में टिकट बेचे जाने वाले मामले को सामने रखा।

शरत प्रधान के अलावा सपा के नेता ने क्या कहा और किस परिपेक्ष में कहा ये आप हमारी दूसरी ख़बर के इस लिंक में पढ़ सकते हैं...

इसे भी पढ़ें  : NDA और ‘INDIA’ से मायावती ने क्यों बनाई दूरी?

उत्तर प्रदेश में अगर मज़बूत दलों की गिनती करेंगे सबसे पहले भाजपा और फिर सपा का नंबर आता है, और फिर बसपा। जबकि देश का सबसे बड़ा विपक्षी दल प्रदेश में पूरी तरह से अपना जनाधार खो चुके है।

इस बात का ज़िक्र हम इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि इसबार चुनाव में सपा या बसपा नहीं बल्कि ‘इंडिया’ चुनावी मैदान में होगा, और यूपी में इंडिया का प्रतिनिधित्व मुख्य रूप से सपा और कांग्रेस करेंगे। लेकिन देखा ये गया है कि कांग्रेस और सपा जुगलबंदी प्रदेश की जनता को रास आती नहीं है।

जैसे उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव की बात करें, तो इस चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन था, जबकि मायावती की पार्टी अलग से चुनावी मैदान में थी, इस चुनाव में भाजपा को ऐतिहासिक जीत मिली थी, उसे 403 में से 312 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल हुई थी। वहीं कांग्रेस के साथ के बावजूद समाजवादी पार्टी 177 सीटों के नुकसान के साथ महज़ 47 सीटों पर सिमट गई थी। मायावती की पार्टी को समाजवादी पार्टी से ज्यादा वोट मिले थे, इसके बावजूद बसपा सिर्फ 19 सीट ही जीत पाई थी। बसपा को 22.23%,जबकि समाजवादी पार्टी को 21.82% वोट मिले थे।

लेकिन 2019 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अलग थी, मग़र मायावती और अखिलेश के हाथ मिलाने से ही भाजपा को अच्छा खासा नुकसान उठाना पड़ा था। इस चुनाव में सपा, बसपा और कांग्रेस को मिले वोट को जोड़ दें तो ये करीब 44 फीसदी होता है, जबकि भाजपा को अकेले ही करीब 50 फीसदी वोट हासिल हुए थे। इसके बावजूद भाजपा को 2014 की तरह यहां सफलता नहीं मिली थी।

यानी 2017 और 2019 के चुनावी विश्लेषण से जाहिर है कि भाजपा को नुकसान पहुंचाने के लिए मायावती का अखिलेश यादव के साथ आना ज्यादा कारगर साबित होता है। इस मामले में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठजोड़ का असर नहीं पड़ता है।

इन समीकरणों को चाहे जैसे बिठा दिया जाए, लेकिन मायावती अपनी पार्टी को अकेले लड़ाना चाहती हैं, इसके पीछे भाजपा के डर के अलावा एक बड़ा कारण पार्टी का अस्तित्व बचाना भी है।

अब हम आपको उस सफर पर ले चलते हैं, जिसने बहुजन समाज पार्टी को अर्श से फर्श पर पहुंचाया। शुरुआत करते हैं साल 2022 से। ये साल शायद मायावती और उनकी पार्टी के राजनीतिक इतिहास का सबसे बुरा साल था, क्योंकि कभी मुख्यमंत्री रहीं मायावती की पार्टी इस साल 403 में से महज़ एक सीट अपनी पार्टी को जिता पाईं। और वोट बैंक भी रह गया महज़ 9.35 प्रतिशत। साल 2017 में भाजपा की लहर के बावजूद मायावती ने अपनी पार्टी को 19 सीटें जिता दी थीं। इसके अलावा 2012 में 80, 2007 में 206, 2002 में 98, 1996 और 1993 में 67-67 सीटें और 1991 में 12 सीटें मिली थीं। बसपा का पहला चुनाव उत्तर प्रदेश में 1989 का विधानसभा चुनाव था, जिसमें उसे 13 सीटों पर जीत मिली थी, यानी पार्टी की स्थापना के करीब 38 साल बाद पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा की जो हालत हुई, उससे नीचे बसपा कभी नहीं गई थी।

अगर आप मायावती की पार्टी के सियासी सफर को ध्यान से देखें और उन्हें मिलने वाली सीटों पर या जो आंकड़े पहले रखे गए उन प्रतिशत पर ग़ौर करेंगे, तो नज़र आएगा कि चुनाव चाहे लोकसभा के हों या विधानसभा के, मायावती को कभी कम तो कभी ज़्यादा सीटें मिलती रही हैं, वहीं अगर सीटें कम भी हो जाएं तो वोट प्रतिशत अच्छा रहा है। यानी ये कहना ग़लत नहीं होगा कि बसपा का एक वोट बैंक अब भी बहुत सुरक्षित है और उनके पाले में है।

लेकिन आंकड़े ये भी कहते हैं कि फिलहाल अब मायावती का अकेले चुनाव जीत पाना बहुत मुश्किल है। ऐसे में अगर वो भाजपा को हराना चाहती हैं, तो उनके लिए ‘इंडिया’ के साथ आ जाना ही ठीक है, अन्यथा उनका बचा-कुचा वोट बैंक भी भाजपा को शिफ्ट होता दिखाई पड़ रहा है।

दरअसल भाजपा ने मायावती के चुनाव में बहुत ज़्यादा सक्रिय न रहने और चुनावी मौसम में सभी के लिए सिर्फ तथाकथित एक हिंदू का नारा देकर बहुत वोट बैंक अपने कब्ज़े में कर लिया, तो दूसरी ओर बची-कुची कसर समाजवादी ने बाबा साहब अंबेडकर की मूर्ति का लोकार्पण कर और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे बड़े नेता को अपने खेमें में लाकर कर पूरी कर दी।

इसके बाद भी अब अगर बसपा के पास कुछ बचता है, तो वो है दबाव, ईडी का सीबीआई का। जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान ने ख़ुद बताया। शायद यही तमाम कारण हैं कि मायावती अकेले चुनाव लड़कर किसी तरह अपने अस्तित्व को बचाए रखना चाहती हैं।

यहां आख़िर में एक बात कह देनी ज़रूरी है कि मायावती के इस अस्तित्व को बचाए रखने में प्रदेश के 21 फीसदी दलित और 20 फीसदी अल्पसंख्यकों की मुख्य भूमिका है, ऐसे में अगर इन वोटरों को कहीं ये लगने लग गया कि मायावती जांच एजेंसियों के डर से या फिर औपचारिक चुनाव लड़ रही हैं, तो इनका बचा हुआ अस्तित्व भी ख़तरे में आ सकता है।

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