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पहुंची वहीं पे ख़ाक जहां का ख़मीर था!

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का फ़ैसला और जनता दल (यूनाइटेड) के नेता नीतीश कुमार की एनडीए में घर वापसी महज़ एक संयोग नहीं है।
nitish kumar

केंद्र की एनडीए सरकार द्वारा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का फ़ैसला और जनता दल (यूनाइटेड) के नेता नीतीश कुमार की एनडीए में घर वापसी महज़ एक संयोग नहीं है। दरअसल इसकी जड़ें, सोशलिस्ट नेता राममनोहर लोहिया द्वारा शुरू की गयी, उस ग़ैर कांग्रेसवाद की राजनीति में हैं जिसे कर्पूरी ठाकुर ने मज़बूत किया और सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण ने अपने सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में आगे बढ़ाया। ग़ैर-कांग्रेसवाद की राजनीती और जेपी मूवमेंट के दौरान आरएसएस से दोस्ती इस रणनीति की अनिवार्य शर्त थी और इन दोनों आंदोलनों की कुंजी आरएसएस के पास थी।

उल्लेखनीय है कि नीतीश कुमार के गुरु कर्पूरी ठाकुर पहले 1967 में संघ-जनसंघ की मदद से उप-मुख्यमंत्री, फिर 1970 में मुख्यमंत्री और 1977 में जनता सरकार में दोबारा मुख्यमंत्री बने थे। अब उन्हीं कर्पूरी ठाकुर को भाजपा सरकार ने भारत रत्न से नवाज़ा है और लोहिया-जयप्रकाश-कर्पूरी ठाकुर के समर्थक अब उसी संघ की चरण वंदना कर रहे हैं और नीतीश इसी भावना को अगले चुनाव में भुनाना चाहते हैं।

यहां यह भी जानना ज़रूरी है कि अप्रैल 1979 में संघ द्वारा मुख्यमंत्री के पद से हटा दिए जाने से पहले सामाजिक न्याय के महान नेता कर्पूरी ठाकुर की संघ परिवार और उसके कारिंदों के बारे में क्या राय थी।

20 अक्टूबर 1977 को दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने कहा था कि "आरएसएस उनकी सरकार को भूमि-सुधारों के कार्यान्वयन और भूमि के पुनर्वितरण में बहुमूल्य सहयोग दे रहा है। आरएसएस की सभी प्रशंसा करते हैं।" उस दिन कर्पूरी ठाकुर ने संवाददाताओं से यह भी कहा कि "आरएसएस से उनकी सरकार को कोई खतरा नहीं है और न ही इस तरह की कोई आशंका है।" उन्होंने आरएसएस को सर्टिफ़िकेट देते हुए कहा "हम इस संगठन को राष्ट्र-विरोधी नहीं मानते, न ही यह किसी अवांछनीय गतिविधि में शामिल रहा है।"

बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने हर्ष और प्रसन्नता की स्पष्ट भावना के साथ पत्रकारों को आगे बताया कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद(ABVP) ने बिहार के ज़्यादातर कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनावों में जीत हासिल की है। ठाकुर ने कहा, जो लोग जीते थे, उनमें ज्यादातर संघ के वे लोग थे जिन्होंने जेपी आंदोलन में हिस्सा लिया था। यह वर्ष 1977 था।

सन 1978 के उत्तरार्ध में मुख्यमंत्रियों का एक सम्मेलन नई दिल्ली में आयोजित किया गया। इसमें केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई सदस्य भी शामिल हुए। इस सम्मेलन में संसद के कुछ विपक्षी नेताओं को भी आमंत्रित किया गया था। फोकस अलीगढ़ (दंगा 1978) की घटनाओं पर था। बोलने वाले कुछ विपक्षी नेताओं ने इन दंगों के लिए आरएसएस को दोषी ठहराया। इस बहस में शामिल हुए कर्पूरी ठाकुर ने प्रभावी ढंग से इस कथन का प्रतिवाद किया और सम्मेलन के बाद, कर्पूरी ठाकुर ने तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री और जनसंघ के अध्यक्ष रह चुके लाल कृष्ण आडवाणी से कृतज्ञ भाव से पूछा कि क्या उन्होंने सही ढंग से अलीगढ की घटनाओं पर आरएसएस का बचाव किया? इस पर आडवाणी ने संतोष व्यक्त करते हुए कर्पूरी ठाकुर का शुक्रिया अदा किया।

फिर 1979 का साल आया। बहुत से लोग इस तथ्य से अवगत नहीं होंगे। अप्रैल 1979 में जनता विधानमंडल दल की बैठक में कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ संघ परिवार द्वारा अविश्वास का प्रस्ताव लाया जाने वाला था। इस प्रस्ताव पर चर्चा होने से एक सप्ताह पहले, कर्पूरी ठाकुर ने आरएसएस प्रमुख बाला साहेब देवरस से बिहार आरएसएस के तत्कालीन संघचालक के.ए.एन. सिंह, के पटना स्थित आवास पर उनसे मुलाक़ात की थी और आरएसएस के सरसंघचालक से जनसंघ के पूर्व सदस्यों को कर्पूरी से अपना समर्थन वापस न लेने के लिए मनाने की एक हताश कोशिश की थी।

अक्टूबर 1978 में, कर्पूरी ठाकुर आरएसएस के रक्षक थे क्योंकि बिहार में जनसंघ के सदस्य मुख्यमंत्री के रूप में उनका समर्थन कर रहे थे। 19 अप्रैल 1979, को बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर विधायक दल में विश्वास मत हार गये। अप्रैल 1979 में जब आरएसएस ने मुख्यमंत्री पद के लिए कर्पूरी ठाकुर के बजाय दलित नेता राम सुंदर दास का समर्थन करने का फैसला कर लिया, तो कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि "जनसंघ और आरएसएस दंगे चाहते हैं क्योंकि वे वोटो के लिए हिंदुओं का एकीकरण चाहते हैं।" (संडे-रविवार, 16 सितंबर, 1979)

अब नीतीश कुमार उर्फ़ 'पल्टूराम' ने अपने नेताओं को सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि देते हुए एक बार फिर साबित किया है की वो उसी ख़मीर के बने हैं जिसकी बुनियाद ग़ैर-कांग्रेसवाद की राजनीती और तथाकथित जेपी मूवमेंट के दौरान रखी गयी थी और जिसके लिए आरएसएस से दोस्ती अनिवार्य शर्त थी।

नीतीश कुमार बिहार अभियांत्रिकी महाविद्यालय, के छात्र रहे हैं जो अब राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान, पटना के नाम से जाना जाता हैं। वहाँ से उन्होंने विद्युत अभियांत्रिकी में उपाधि हासिल की थी। वे 1974-1975 के दौरान जयप्रकाश बाबू के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में शामिल रहे थे और उस समय के समाजवादी नेता किशन पटनायक के काफी करीब थे। हालाँकि वे 1977 की जनता लहर में जयप्रकाश नारायण का आशीर्वाद होने के बावजूद एक पुराने समाजवादी नेता भोला प्रसाद सिंह से चुनाव हार गए जो निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़े और नीतीश कुमार को हरा दिया।

ढाई वर्ष बाद जनता सरकार का पतन होने के बाद 1980 में नीतीश कुमार अपने नेता कर्पूरी ठाकुर का आशीर्वाद होने के बावजूद चुनाव हार गए। वे पहली बार 1985 में लोक दल उमीदवार के तौर पर बिहार विधानसभा के लिए चुने गये। 1987 में वे युवा लोकदल के अध्यक्ष बने। 1989 में उन्हें बिहार में जनता दल का सचिव चुना गया और उसी वर्ष वे आरएसएस के समर्थन से नौंवी लोकसभा के सदस्य चुने गये और बीजेपी के समर्थन वाली केंद्र की वीपी सिंह सरकार में कृषि राज्य मंत्री बनाये गए। वीपी सिंह सरकार एक साल में गिर गई। 1991 के लोक सभा चुनावों में नीतीश कुमार, मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू हो जाने और लालू प्रसाद की मदद से चुनाव जीतने में तो कामयाब हो गए लेकिन तभी से उन्होंने लालू प्रसाद की मुख़ालिफ़त शुरू कर दी। 1994 आते-आते वह अपने एक और नेता जॉर्ज फ़र्नान्डेस के साथ समता पार्टी बनाकर जनता दल से अलग हो गए और यहीं से दोबारा उनके आरएसएस के साथ सत्संग की राजनीति शुरू हो गयी।

पहले वे 1998 से 2000 तक वाजपेयी मंत्रिमंडल में कृषि और रेल मंत्री बने और मार्च 2000 में बीजेपी की मदद से दस दिन बिहार का मुख्यमंत्री बनने के बाद दोबारा वाजपेयी मंत्रिमंडल में शामिल हो गए और 2004 तक केंद्रीय मंत्री रहे। फिर 2007 से कुछ अवधि को छोड़कर वह लगातार बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं।

इस बीच 2015 में नीतीश कुमार ने जब बीजेपी से अलग होकर लालूप्रसाद के साथ मिलकर सरकार बनाई तो 'आरएसएस मुक्त भारत' का नारा दिया था। उस वक़्त महान लोहिया-जेपी समर्थक ने दिल्ली के कॉंस्टीटूशन क्लब में नीतीश की मौजूदगी में उनकी तारीफ़ में कसीदे पढ़ते हुए अपने भाषण में कहा था "जिस दिन नीतीश जी, आपने पटना में नरेंद्र मोदी के हाथ से खाने की प्लेट हटा ली थी (जब नीतीश ने बीजेपी नेताओं को दिया जाने वाला डिनर रद्द कर दिया था) उसी समय हम को लग गया था कि देश में 'सेक्युलरिज़्म' ज़िंदा है" लेकिन कुछ दिन बाद ही नीतीश कुमार पलटी मार कर फिर बीजेपी की गोद में जाकर बैठ गए। सत्रह माह पहले उन्होंने फिर पलटी मारी और लालू की गोद में जाकर बैठ गए और अब फिर वहीं पहुंच गए जहां का ख़मीर था यानि आरएसएस की गोद में!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में लिखते हैं और बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के साथ 14 साल काम किया है। विचार निजी हैं।)

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