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यूपी: क्या मुस्लिम वोटरों को अपने पाले में रोक पाएगी सपा?  चुनौती बड़ी है!

अपने हर चुनाव में मुस्लिमों का लगभग एकमुश्त वोट पाने वाली सपा फिलहाल संकट में है, क्योंकि पार्टी के मुस्लिम नेता लगातार पार्टी लाइन से उलट बयानबाज़ी कर रहे हैं।  
muslim voters
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

देश में आगामी लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर माहौल गर्म होने लगा है। मौजूदा सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए विपक्ष एकजुट हो रहा है। लेकिन विपक्ष के लिए अभी तक देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य  उत्तर प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर साफ़ नहीं हो पा रही है। जिसका सबसे कारण ये है कि मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (सपा) अपने पत्ते नहीं खोल रही है। यहां से अगर ये कहें कि प्रदेश में सपा किसी और विपक्षी दल को इतना स्पेस देना नहीं चाहती है तो ये काम उसके लिए मुश्किल हो सकता है।

क्योंकि सपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती मुस्लिम वोट बैंक को संभाल कर रखना है, जो अकेले दम पर नहीं हो सकता। दरअसल सपा के मुस्लिम नेताओं के हालिया बयान और निकाय चुनाव में मुस्लिम समाज के रुख से ऐसा लगता है कि अल्पसंख्यक कोई नया विकल्प तलाश कर रहे हैं।

कहा जा रहा है सपा प्रमुख अखिलेश यादव अभी तक यह निर्णय नहीं ले सके हैं कि उनको दूसरी पार्टियों विशेषकर कांग्रेस के साथ गठबंधन करना है या नही। हालांकि अखिलेश, 23 जून को पटना में हुई विपक्षी पार्टियों की बैठक में शामिल हुए थे। उनके बैठक में शामिल होने का कारण यह माना जा रहा है कि वह केवल यह सन्देश देना चाहते हैं कि वह बीजेपी के ख़िलाफ़ बन रहे गठबंधन के विरुद्ध नहीं है।

उत्तर प्रदेश में 90 के दशक के शुरुआत से मुस्लिम सपा के साथ रहे हैं। विधानसभा चुनाव 2022 में भी मुस्लिम समाज ने सपा के लिए लगभग एक तरफ़ा वोट किया था। सपा के पक्ष में मुस्लिम समाज के एकजुट होने का सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को हुआ है। कांग्रेस 403 सीटों वाली विधानसभा में केवल 02 सीटों पर सिमट गई है।

लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि कांग्रेसी नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा और कांग्रेस की कर्नाटक की जीत ने उत्तर प्रदेश के मुस्लिम वोटर पर भी प्रभाव डाला है। जिसके संकेत हाल में हुए निकाय चुनावों में भी देखने को मिले हैं। कई मुस्लिम बाहुल्य सीटों जैसे मुरादाबाद और झाँसी आदि पर कांग्रेस के प्रदर्शन में सुधार हुआ है।

इसके पहले जून 2022 में सपा अपने गढ़ रामपुर और आजमगढ़ में लोकसभा उप-चुनाव हार चुकी है। आजमगढ़ उप-चुनाव में मुस्लिम समाज ने बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के मुस्लिम कैंडिडेट गुड्डू जामाली के में वोट किया था। जिसकी वजह से यादव परिवार के सदस्य धर्मेन्द्र यादव चुनाव हार गए थे। हाल में ही हुए निकाय चुनाव में मेरठ में असदउद्ददीन ओवैसी की एआईएमआईएम मुसलमानों ने तरजीह दी थी ।

संकेत साफ़ हैं की मुस्लिम इस बार किसी एक पार्टी के साथ बंध कर नहीं रहना चाहते हैं। लेकिन राजनीति के जानकर मानते हैं कि सपा को सबसे बड़ा खतरा कांग्रेस से नज़र आता है। क्योंकि मुस्लिम-यादव की पार्टी कहे जाने वाली सपा में मुस्लिम, कांग्रेस से ही टूट कर आये थे। अगर प्रदेश की आबाद़ी के क़रीब 19.26 फीसदी मुस्लिम सपा से निकल वापिस कांग्रेस या किसी और दल की तरफ रुख करते हैं तो सपा के लिए अस्तित्व के संकट पैदा हो जायेगा।

ऐसे में अखिलेश यादव के लिए मुस्लिम समाज को सपा के साथ रोके रखना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। जबकि कांग्रेस भी पहले के मुक़ाबले अब ज़मीन पर ज़्यादा सक्रिय है। यह बात सपा के मुस्लिम नेता भी समझ रहे है कि अगर सपा बिना गठबंधन के चुनावी मैदान में जाती है तो उसको नुकसान हो सकता है।

शायद यही कारण है कि सपा के मुस्लिम नेता पार्टी लाइन से अलग बयानबाज़ी कर रहे है। सपा के कद्दावर नेता शफीक़-उर-रहमन बर्क ने निकाय चुनाव में सपा उमीदवार के खिलाफ एक निर्दलीय प्रत्याशी को समर्थन देकर सपा प्रमुख की मुश्किलें बढ़ा दी थी। अक्सर सुर्ख़ियों में रहने वाले संभल के संसद बर्क ने बीएसपी सुप्रीमो मायावती की प्रशंसा कर भी सपा में हलचल मचा दी थी।

बर्क ने अपने बयान में कहा था ओबीसी यानी पिछड़े समाज पर होने वाले ज़ुल्म को रोकने के लिए मायावती की अहम भूमिका है। उनके इस बयान को उनकी अखिलेश और सपा से नाराज़गी का नतीजा समझा जा रहा है। जबकि सपा प्रमुख अखिलेश स्वयं को पिछड़े समाज का सबसे बड़ा नेता मानते हैं। ऐसे उनके सांसद द्वारा मायावती की प्रशंसा पार्टी के भीतर की अंतर कलह का साफ सन्देश देती है।

वही सपा के और क़दव्वर नेता डॉ एस टी हसन के सुर भी पार्टी लाइन से अलग हैं। मुरादाबाद के संसद हसन ने हाल में ही ओवैसी का समर्थन कर के खलबली मचा दी थी। पटना में हुई विपक्षी दलों में ओवैसी को नहीं बुलाये जाने पर भी सपा संसद हसन ने एतराज़ जताया। उनका कहना है की 2024 में अगर बीजेपी को हराना है तो सभी विपक्षी पार्टियों को एक साथ लेकर चलना होगा।

सपा नेता हसन के इस बयान पर जम कर चर्चा हो रही है क्योंकि अखिलेश हमेशा ओवैसी को नज़रंदाज़ करते आये हैं। माना जाता है कि अखिलेश को लगता है की ओवैसी के चुनाव लड़ने से मुस्लिम वोटो का बंटवारा होगा और जिसका नुकसान सपा को होगा।

ऐसे में सपा को अन्दर और बाहर दोनों से खतरा है, क्योंकि मुस्लिम वोट अगर सपा से बाहर निकलता है तो उसका जनाधार ख़त्म हो जायेगा। अगर बर्क और हसन जैसे नेता बगावत करते हैं तो सपा के मुस्लिम वोट बैंक पर नकारात्मक असर पड़ेगा।

मुस्लिम के अलावा इस वक़्त केवल 7-8 प्रतिशत यादव ही सपा के साथ है। देखा यह भी गया है कि अक्सर यादव समाज का एक हिस्सा बीजेपी में भी चला जाता है। 2014 में जब नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय राजनीती में एंट्री हुई, तभी से ग़ैर यादव पिछड़ों का अधिकांश हिस्सा बीजेपी के साथ है। जिसको हासिल करने के लिए सपा लगातार प्रयास कर रही है। लेकिन यह प्रयास तभी संभव होगा जब मुस्लिम वोट उनके साथ टिका रहेगा। बता दें प्रदेश में क़रीब 42 प्रतिशत ओबीसी आबादी है, जिस में 7-8 प्रतिशत यादव है और बाक़ी क़रीब 35 प्रतिशत हैं।  

बीबीसी के पूर्व ब्यूरो चीफ रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि मुस्लिम या सेक्युलर वोट उस दल को जायेगा जो बीजेपी को प्रमुख विपक्षी दल बन कर चुनौती देगा। त्रिपाठी मानते हैं कि कांग्रेस को अगर बीजेपी के विरुद्ध मजबूती से विकल्प बन कर खड़ा होना है तो उसको प्रदेश में अपना संगठन मजबूत करना होगा। लेकिन कांग्रेस ऐसा करती फ़िलहाल दिख नहीं रही है। वह मानते हैं कि मुस्लिम समाज कांग्रेस की तरफ देख  ज़रूर रहा रहा है लेकिन वोट उसे ही देगा जिसका ज़मीनी जनाधार मजबूत होगा।

लखनऊ विश्वविद्यालय के अध्यापक प्रोफेसर सुधीर पंवार कहते हैं कि लोकसभा चुनाव में निकाय चुनाव से वोटिंग पैटर्न बदल सकता है। वह भी मानते हैं अल्पसंख्यक समाज का वोट उसी पार्टी को मिलगा जो बीजेपी को बड़ी चुनौती दे सके। प्रो. पंवार मानते हैं शिमला में जुलाई में होने वाली विपक्षी पार्टियों की बैठक के बाद उत्तर प्रदेश में विपक्ष की राजनीतिक तस्वीर साफ़ हो जाएगी।

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