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यूपी चुनाव, पांचवा चरण : ख़त्म हो सकती है भाजपा की चुनौती

पांचवें चरण के मतदान के साथ यूपी चुनाव 2022 में भाजपा की चुनौती खत्म हो सकती है, क्योंकि इसके बाद पूर्वांचल के आखिरी दो चरणों में बदले सामाजिक समीकरणों के चलते भाजपा की संभावनाएं  क्षीण हो चुकी हैं।
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रविवार, 27 फरवरी को 5वें चरण का मतदान अवध और आसपास के 12 जिलों की 61 सीटों पर होने जा रहा है। इसे 23 फरवरी को सम्पन्न हुए चौथे चरण के मतदान से जोड़ कर देखा जाय, जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) लखनऊ के अपने सुरक्षित किले में भी वह लगभग सभी सीटों पर कांटे की लड़ाई में फंसी दिखी, तो सारे संकेत यह बता रहे हैं कि भाजपा UP के दिल अवध को जीत पाने में नाकाम रही।

5वें चरण के मतदान के साथ UP चुनाव 2022 में भाजपा की चुनौती खत्म हो सकती है, क्योंकि इसके बाद पूर्वांचल के आखिरी दो चरणों में बदले सामाजिक समीकरणों के चलते भाजपा की संभावनाएं  क्षीण हो चुकी हैं।

वैसे तो 5वें चरण का मतदान धर्मनगरी अयोध्या-प्रयागराज-चित्रकूट की उस पट्टी में होने जा रहा है, जिसे संघ अपना स्वाभाविक गढ़ समझता रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि इसने भी दुर्दिन में भाजपा को त्याग दिया है। अवध से भाजपा की उम्मीदें स्वाभाविक थीं क्योंकि शुरू के 3 चरणों के विपरीत यहां सपा-गठबंधन के परम्परागत सामाजिक आधार की बड़ी आबादी नहीं है, उल्टे अवध का गोंडा से लेकर प्रतापगढ़ तक का सामंती दबदबे वाला पूरा इलाका भाजपा के अनुकूल माना जाता है।

लेकिन अब यहां हालात कितने बदले हुए हैं, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री योगी को लंबे समय से nurture की जा रही अयोध्या सीट से लड़ने का इरादा आखिरी क्षणों में त्यागना पड़ा और गोरखपुर लौटना पड़ा, वहीं उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य प्रयागराज-कौशाम्बी के सिराथू में घिर गए हैं।

सच तो यह है कि राम मंदिर निर्माण ही पिछले 3 दशक से संघ-भाजपा के हिंदुत्व प्रोजेक्ट की धुरी रहा है जिसने भाजपा को फर्श से अर्श पर पहुंचाया है। स्वाभाविक रूप से संघ-भाजपा के रणनीतिकारों को उत्तर प्रदेश की चुनावी वैतरणी पार लगाने में राम-मंदिर निर्माण से भारी उम्मीदें थीं, यहां तक कि विपक्षी भी इसकी सम्भावनाओं को लेकर भयभीत थे।  मौके पर चौका मारने के माहिर केजरीवाल ने तो अपना चुनाव अभियान ही यहीं से शुरू किया।

पर योगी सरकार के ख़िलाफ़ जनाक्रोश इतना गहरा है कि स्वयं अयोध्या की सीट जीतना भी अब भाजपा के लिए टेढ़ी खीर हो गया है, पूरा इलाका या प्रदेश जीतने की तो बात तो बहुत दूर की है। जाहिर है राम-मंदिर निर्माण के दौर में अयोध्या में भाजपा की पराजय के हिंदुत्व के पूरे मिशन के लिए दूरगामी निहितार्थ होंगे।

बुलडोज़र राज से मुक्ति की छटपटाहट

भाजपा को अपने इस सबसे मजबूत परम्परागत गढ़ में मिल रही चुनौती के पीछे  मूल कारण योगी शासन का जो बुलडोजर मॉडल है, उससे मुक्ति पाने की जनता की गहरी आकांक्षा है। इस बुलडोजर-राज का स्वाद समाज के सभी तबकों को मिला। यह अनायास नहीं है कि 5वें चरण में "बाबा के बुलडोजर" के पोस्टर बाकायदा बुलडोजर के साथ चस्पा हो रहे हैं।

दरअसल, इलाहाबाद को छोड़ दिया जाय तो यह पूरा क्षेत्र मूलतः खेती-किसानी का इलाका है। योगी सरकार ने महज साम्प्रदयिक एजेंडा सेट करने के लिए, बिना किसी सुचिंतित नीति के, किसानों के खेत और फसलों को सांड और छुट्टा जानवरों के हवाले कर दिया।

5 साल से गाँवों में हाहाकार मचा रहा, कोई सुनने वाला नहीं था। जिन छोटे किसानों के लिए 3 कृषि कानूनों के समय से मोदी जी अक्सर अपने प्रेम का इजहार करते रहते हैं, वे इस तबाही के सबसे ज्यादा शिकार हुए।

पूरे मामले को धार्मिक-साम्प्रदायिक रंग देकर सबको डरा कर चुप करा दिया गया। इसकी आड़ में गौशाला के नाम पर सत्ताधारी दल के चट्टे-बट्टों के बीच सरकारी धन की बंदरबांट होती रही।

अब 5 साल बाद चुनावी नुकसान देखकर मोदी जी को इसकी सुध आयी है।  क्या सचमुच देश के प्रधानमन्त्री को जो उत्तर प्रदेश से ही सांसद भी हैं, यहाँ के किसानों की जो सबसे बड़ी समस्या थी, उसकी 5 साल तक जानकारी ही नहीं मिल पाई? जाहिर है, अब इसके समाधान की बात और "छुट्टा जानवरों का गोबर बेचकर कमाई के नए विकल्प" का उनका वायदा किसानों को एक और जुमला लग रहा है।

इलाहाबाद जो ऐतिहासिक तौर पर उत्तरी भारत के शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं के सबसे बड़े केंद्रों में रहा है, वहां आज जो सभी तबकों के, यहां तक भाजपा के कोर सामाजिक आधार-सवर्ण समुदाय- के युवा भी-रोजगार के सवाल को लेकर भाजपा के खिलाफ खड़े हो रहे हैं, उसके पीछे योगी का यही दमन राज है जिसमें दसियों लाख खाली पद होने के बावजूद, उन्हें नौकरियां और रोजगार तो नहीं ही मिला, उल्टे जब जब वे इसकी जायज मांग और शिकायत लेकर आगे आये, उन्हें बर्बर पुलिस दमन-लाठी और जेल-का सामना करना पड़ा।

किसानों और जवानों की भारी नाराजगी और इस सरकार से निजात पाने की बेचैनी ने संघ-भाजपा की करीब एक दशक से कामयाब सोशल इंजीनियरिंग के परखच्चे उड़ा दिए हैं।

पूरे 5 साल दलित समाज को जिस तरह बुलडोजर राज में सत्ता-संरक्षित दबंगों और पुलिसिया जुल्म का शिकार होना पड़ा, उनका रोजी-रोजगार खत्म हुआ, उनके आरक्षण के संवैधानिक अधिकार पर डाकाज़नी हुई, सरकारी नौकरियां छीनी गईं, उनकी बहन-बेटियों के साथ बलात्कार की घटनाओं की बाढ़ आ गयी, उसी का नतीजा है कि दलित समाज का बड़ा हिस्सा आज भाजपा के खिलाफ खड़ा है, उनकी सभी उपजातियों के पढ़े-लिखे  सचेत तबके, छात्र-युवा योगी सरकार को हटाने के लिए वोट कर रहे हैं, अवध में बहुसंख्य आबादी वाला पासी दलित समुदाय, जो पिछले चुनावों में अवध में भाजपा की जीत का मुख्य आधार था, वह आज पूरे अवध में बड़े पैमाने पर सपा गठबंधन के साथ खड़ा हो गया है।

बुलडोजर राज में 5 साल अल्पसंख्यकों का रणनीति के तहत बेमिसाल दमन, उत्पीड़न, अपमान किया गया, उनकी पहचान, खानपान, कारोबार, धार्मिक आज़ादी और पूजा स्थलों पर हमला बोला गया, उनके समान नागरिकता के अधिकार को छीनने, उन्हें  नफरत का पात्र बनाने और अलगाव में डालने की नंगई  की गई। नागरिकता कानून CAA-NRC का पूरा प्रोजेक्ट और उसके खिलाफ खड़े आन्दोलन का बर्बर दमन उसका चर्मोत्कर्ष था। आज भाजपा सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए अल्पसंख्यकों का एकजुट भारी मतदान उसी के खिलाफ backlash है।

मोदी-शाह-योगी तिकड़ी की ध्रुवीकरण की उन्मत्त कोशिशों से भाजपा के पक्ष में तो कोई ध्रुवीकरण नहीं हुआ, उल्टे भाजपा विरोधी ताकतों की, अल्पसंख्यकों की आक्रामक गोलबंदी हो गयी। ओवैसी हवा हो चुके हैं, लखनऊ में शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद की भाजपा के पक्ष में की गई अपील बेअसर हो गयी, यहां तक कि उन्हें अपने समुदाय में ही लोगों की भारी नाराजगी और आलोचना झेलनी पड़ी।

बसपा ने रणनीति के तहत जो भारी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए हैं, वे मतों का विभाजन नहीं करवा पा रहे हैं। यहां तक कि पहले से भिन्न इस बार जहां बसपा के मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार भी हैं, उन्हें भी अल्पसंख्यकों का वोट नहीं मिल रहा है क्योंकि लोग constituency में ही भाजपा को हराने के लिए नहीं, बल्कि प्रदेश में भाजपा की सरकार को बदलने के लिए वोट कर रहे हैं, जहाँ वे सपा-गठबंधन को ही विश्वसनीय और viable विकल्प पा रहे हैं।

इस वोटिंग पैटर्न ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के होश उड़ा दिए हैं। मोदी ने बाराबंकी की अपनी रैली में काफी समय मुस्लिम महिलाओं, यहां तक कि पुरुषों को भी समझाने, मरहम लगाने पर खर्च किये। सबको अपना परिवार और अपने को उनका सबसे बड़ा खैरख्वाह साबित करने की कोशिश की। अमित शाह ने एक इंटरव्यू में मायावती को, जिन्हें सपा-भाजपा की आमने सामने लड़ाई में कमजोर माना जा रहा है,  इस चुनाव में प्रासंगिक बताते हुए दावा किया कि बहुत सी सीटों पर मुस्लिम मत उन्हें मिल रहे हैं। इसके लिए मायावती ने उन्हें धन्यवाद भी दिया।

जाहिर है यह बयान देकर शाह ने मुस्लिम मतों के विभाजन को प्रोत्साहित करने की कोशिश की। हालांकि अधिक सम्भावना यह है कि अमित शाह के इस बयान के बाद, मायावती-शाह की जुगलबंदी देखकर लोग अधिक सतर्क हो जायेंगे और गठबंधन के पक्ष में एकजुटता और बढ़ जाएगी।

UP की बाजी हाथ से फिसलती देख स्वाभाविक रूप से इस समय संघ-भाजपा खेमे में हड़कम्प मचा हुआ है। रणनीति में  बदलाव करते हुए मोदी के चेहरे को आगे किया गया है, अब वे अपने नाम पर वोट मांग रहे हैं और गोरखपुर में होर्डिंग से योगी की फ़ोटो हट गई है। "UP फिर मांगे योगी सरकार" की जगह अब नया नारा है, " UP फिर मांगे भाजपा सरकार"। पिछली बार की तर्ज़ पर मोदी के आखिरी 3 दिन बनारस में प्रवास और प्रचार की योजना इसी घबराहट का नतीजा है। बताया जा रहा है कि सपा-गठबंधन के पक्ष में पिछड़े समुदाय की बढ़ती गोलबंदी की काट के लिए संघ ने उमा भारती जैसे पिछड़े समुदाय के अपने उपेक्षित फायरब्रांड नेताओं को गुहार लगाई है और अब पूर्वांचल में लग रहे पोस्टरों में उनकी फ़ोटो लगाई जा रही है। लेकिन शायद अब बहुत देर ही चुकी है।

राजदीप सरदेसाई जैसे विश्लेषक हिंदुत्व, सोशल इंजीनियरिंग और लाभार्थी कार्ड के परम्परागत अंकगणित के आधार पर जो मूल्यांकन कर रहे हैं कि " BJP has clear edge in UP ", वे मोदी-योगी के डबल इंजन राज के विफल आर्थिक मॉडल की चौतरफा तबाही और दमनकारी बुलडोजर राज के आतंक के खिलाफ़ दबे जनाक्रोश की तीव्रता को नहीं भांप पा रहे हैं और सत्ताविरोधी undercurrent की अनदेखी कर रहे हैं।

यह undercurrent न सिर्फ योगी के खिलाफ है, बल्कि मोदी के भी खिलाफ है। 5 विधानसभा चुनावों, सर्वोपरि UP के नतीजे इस बात की पुष्टि करेंगे कि मोदी लहर देश में पूरी तरह खत्म हो चुकी है।  UP चुनाव के बाद राष्ट्रीय राजनीति में  नये political alignment  के आसार हैं जो अंततः 2024 में केंद्रीय सत्ता से मोदी की विदायी का मार्ग प्रशस्त करेगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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