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यूपी चुनाव दूसरा चरण: अल्पसंख्यकों का दमन, किसानी व कारोबार की तबाही और बेरोज़गारी हैं प्रमुख मुद्दे

दूसरे चरण की सीटों पर विपक्ष ने पिछली बार भी अन्य चरणों की तुलना में सबसे अच्छा प्रदर्शन किया था। सपा को अपनी कुल 47 में 15 अर्थात लगभग एक तिहाई सीटें इसी इलाके में मिली थीं।
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Image courtesy : NDTV

गोवा, उत्तराखंड के साथ ही आज उत्तरप्रदेश में दूसरे चरण का मतदान हो रहा है जिस पर पूरे देश की निगाहें लगी हैं।

क्या पहले चरण से गठबंधन के पक्ष में बना momentum जारी रहेगा ? यदि ऐसा होता है तो यह यह 10 मार्च को आने जा रहे नतीजों के लिए फैसलाकुन साबित होगा और इस चुनाव में भाजपा की चुनौती करीब-करीब खत्म हो जाएगी। दूसरे चरण में यदि वह पहले चरण के नुकसान की भरपाई कर पाती है, तभी चुनाव में वापसी की उसकी उम्मीद बची रहेगी।

स्वाभाविक रूप से मोदी-शाह समेत भाजपा के दिग्गजों ने प्रचार-अभियान में पूरी ताकत झोंकी। सुदूर भाजपा-शासित राज्य कर्नाटक के हिजाब प्रकरण को गोदी मीडिया की मदद से एक बड़े (potent ) विस्फोटक हथियार में बदलने की कोशिश हुई। लेकिन वह भी फुस्स साबित हुआ। शायद यह बदलते वक्त के मिज़ाज और करवट लेती सूबे की सियासत का ही प्रतिबिम्ब है कि इस सारी कोशिश के बावजूद, सूबे की सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाले इस इलाके में भी कोई ध्रुवीकरण नहीं हो पाया।

दूसरे चरण की सीटों पर विपक्ष ने पिछली बार भी अन्य चरणों की तुलना में सबसे अच्छा प्रदर्शन किया था। सपा को अपनी कुल 47 में 15 अर्थात लगभग एक तिहाई सीटें इसी इलाके में मिली थीं।

बहरहाल, इस बार का चुनाव 2017 से एकदम अलग माहौल में हो रहा है। वह चुनाव न सिर्फ मुजफ्फरनगर दंगों के साये में बेहद polarised माहौल में हुआ था, बल्कि तब के विकासपुरुष, काले धन के खिलाफ लड़ते मसीहा नरेंद्र मोदी से आम जनता की उम्मीदों का भी चुनाव था। आज न तो वह ध्रुवीकृत माहौल है और न ही मोदी से अब इस देश को कोई उम्मीद बची है।

आज जिस इलाके में चुनाव हो रहा है, उसका विश्लेषण करते हुए अक्सर मुस्लिम समुदाय की बड़ी आबादी का हवाला दिया जा रहा है और उनकी भाजपा विरोधी गोलबंदी को identity politics के आम खांचे में उसके सम्भावित वोटिंग पैटर्न की व्याख्या कर दी जाती है। पर यहां यह समझना बेहद महत्वपूर्ण है कि यही वह समुदाय हैं जो योगी राज में सबसे बर्बर राज्य-दमन, अपमान और हिंसा  का प्रत्यक्ष शिकार हुआ। यह तबका करीब करीब पूरी तरह असंगठित क्षेत्र में स्वरोजगार और अपने हुनर, धंधे, निजी कारोबार पर निर्भर हैं, जो मोदी-योगी राज में पूरी तरह तबाह हो गया। मुरादाबाद के पीतल उद्योग से लेकर सहारनपुर के विश्वप्रसिद्ध काष्ठ उद्योग तक- सब नोटबन्दी, GST, लॉक डाउन की भेंट चढ़ गया। इनमें लगे लोगों, कारीगरों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया।

जाहिरा तौर पर अगर इनके मन में मौजूदा निज़ाम को बदल देने का जज्बा सबसे अधिक है तो इसमें अस्वाभाविक क्या है ?

मुसलमानों के अतिरिक्त जिस दूसरे तबके पर योगी-राज की सबसे बड़ी गाज गिरी, वह दलित समुदाय है। सत्ता- संरक्षण प्राप्त दबंगों के बर्बर उत्पीड़न तथा पुलिस atrocities, हिंसा, अपमान यहां तक कि physical torture का वे प्रत्यक्ष शिकार हुए हैं। उनकी बहन-बेटियों के साथ बलात्कार की घटनाओं की बाढ़ आ गयी। समाज का यह सबसे कमजोर तबका मोदी-योगी राज में अर्थव्यवस्था के ध्वंस, बेरोजगारी, महंगाई का सबसे बदतरीन शिकार हुआ। इनके परिवार भूखमरी के कगार पर पहुँच गए।

दूसरे चरण के चुनाव में इनकी भी अच्छी आबादी है। उनके वोटिंग पैटर्न पर भी सबकी निगाह रहेगी।

इन जिलों में सिख व जाट किसानों तथा शाक्य- मौर्या-कुर्मी-यादव आदि पिछड़े समुदाय के साथ ही अन्य किसान समुदायों की भी बड़ी आबादी है। दिल्ली बॉर्डर के ऐतिहासिक आंदोलन में इस इलाके के किसानों की उल्लेखनीय भूमिका रही है। यहीं रामपुर के एक युवा किसान अमनदीप 26 जनवरी को दिल्ली में शहीद हुए थे।

इसी से सटे लखीमपुर में किसानों का वह लोमहर्षक  जनसंहार हुआ था, जिसमें मोदी जी के मंत्री का बेटा मुख्य अभियुक्त है, लेकिन मोदी जी ने मंत्री को तो नहीं ही हटाया था, अब सरकार की मिली भगत से मंत्री के हत्यारोपी बेटे को भी जमानत मिल गयी है। जले पर नमक छिड़कने वाली सरकार की इस हरकत को लेकर किसानों में भारी आक्रोश है। किसानों के लिए यह एक टेस्ट केस बन गया है,  जिस पर सरकार का रुख उनके प्रति सरकार की क्रूरता और चरम संवेदनहीनता का बैरोमीटर बन गया है। मंत्री और मंत्रीपुत्र को सजा दिलाना अब उनके स्वाभिमान की लड़ाई बन गयी है।

सरकार ने ऐतिहासिक किसान आंदोलन के समझौते को अपने वायदाखिलाफी से पहले ही तोड़ दिया था, इस वर्ष के बजट में भी एक तरह से किसानों से आंदोलन करने का बदला लिया गया और उनकी पूरी तरह उपेक्षा कर दी गयी। गन्ने का हजारों करोड़ बकाया, कम रेट, उपज की MSP पर खरीद न होना, सबसे महंगी बिजली, आवारा जानवरों द्वारा फ़सलों की बर्बादी ने इस अभूतपूर्व महगाई के दौर में किसानों की कमर तोड़ दी है।

जाट किसानों के राष्ट्रीय लोक दल के साथ ही सैनी-शाक्य-मौर्य किसान समुदाय के बीच अच्छी पकड़ वाला महान दल भी गठबंधन के साथ है। धर्म सिंह सैनी और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं के भाजपा से टूट कर सपा में जाने से इन समुदायों का रुझान गठबंधन की ओर बढ़ा है।

जाहिरा तौर पर दूसरे चरण के वोटिंग पैटर्न पर किसानों के भाजपा से अलगाव और किसान-आंदोलन का impact दिखेगा।

कुछ उदारवादी बुद्धिजीवी दूसरे चरण में मुस्लिम ध्रुवीकरण और उनके geographical domination के दूरगामी परिणामों को लेकर सशंकित हैं। दरअसल यह आशंका निर्मूल है क्योंकि यह कोई communal गोलबंदी तो नहीं ही है, यहां तक कि यह किसी संकीर्ण, exclusivist,  एजेंडा पर भी mobilisation नहीं है, न ही यह किसी गैर-समावेशी मुस्लिम प्लेटफार्म और लीडरशिप में है, यह तो भाजपा के जनविरोधी, फ़ासिस्ट शासन के ख़िलाफ़ जो व्यापक आक्रोश है और बदलाव की urge है, उसी राजनीतिक गोलबंदी का हिस्सा है। स्वाभाविक रूप से जो तबके इसके जितने बड़े शिकार हुए हैं, उनके अंदर बदलाव की इंटेंसिटी और उसके लिए एकजुटता उतनी ही गहरी है। भले ही मुसलमानों की  गोलबंदी सामुदायिक हो, लेकिन यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं है, वरन इसके निहितार्थ पूरी तरह लोकतान्त्रिक हैं-यह गोलबंदी संविधान और लोकतन्त्र की रक्षा के लिए है।

पिछले 8 वर्ष के शासन में मोदी-शाह की जोड़ी ने अपने तमाम कदमों से मुसलमानों को दोयम दर्जे की नागरिकता का अहसास कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनके फ़ासिस्ट प्रोजेक्ट को सबसे नग्न और क्रूर ढंग से हिंदुत्व के नए पोस्टर-ब्वॉय योगी ( जिन्हें उनके भक्त और शायद संघ मोदी का उत्तराधिकारी बनाने के मंसूबे सजोये है ) ने उत्तर प्रदेश में लागू किया।

2 वर्ष पूर्व संविधान-विरोधी नागरिकता कानून के खिलाफ चले राष्ट्रव्यापी लोकतान्त्रिक आंदोलन को योगी ने जिस तरह UP में कुचला था, उसकी  याद आज भी रोंगटे खड़ी कर देती है। दरअसल, वह गोधरा-कांड के बाद हुए जनसंहार के गुजरात मॉडल से प्रेरित संघी प्रयोगशाला के शायद उससे भी आगे के संस्करण " UP मॉडल " को गढ़ने की कोशिश थी।

आन्दोलन के दौरान प्रदर्शन करते एक दर्जन के ऊपर मुस्लिम नौजवान बिजनौर, सम्भल, रामपुर समेत विभिन्न जिलों में पुलिस फायरिंग में मारे गए थे। राजधानी लखनऊ में भयानक लाठीचार्ज आंसूगैस फायरिंग के बल पर शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक विरोध को कुचला गया। अनेक बेगुनाहों के साथ ही लोकतान्त्रिक आंदोलन की तमाम नामचीन हस्तियों-पूर्व पुलिस महानिरीक्षक, सुप्रसिद्ध रैडिकल अम्बेडकरवादी चिंतक दारापुरी जी, एडवोकेट शोएब साहब, संस्कृति कर्मी दीपक कबीर, सामाजिक कार्यकर्त्ता-महिला नेत्री सदफ जफर, छात्र-नेता नितिन राज एवं युवानेत्री पूजा  शुक्ला -को फ़र्ज़ी मुकदमे लगाकर जेल में बंद किया गया।

हद तो तब हो गयी जब जमानत के बाद भी सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए इनमें से अनेक की सम्पत्ति की कुर्की-जब्ती का आदेश करते हुए सरेआम चौराहों पर उनकी बड़ी बड़ी होर्डिंग टांग दी गयी।

हाल ही में यूपी सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी फटकार लगाते हुए CAA-NRC प्रदर्शकारियों के खिलाफ जारी रिकवरी नोटिस को तुरंत वापस लेने का आदेश सुनाया! कोर्ट ने बेहद सख़्त लहजे में कहा कि अगर आप नहीं सुनेंगे तो फिर नतीजे के लिए तैयार रहें। हम आपको बताएंगे कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश कैसे पालन किए जाते हैं !

दूसरे चरण के मतदान में यह बेमिसाल दमन निश्चय ही अहम मुद्दा रहेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि  मोदी-योगी राज में किसानों-युवाओं-मेहनतकशों-हाशिये के तबकों की सर्वांगीण तबाही के खिलाफ निर्णायक मतदान कर जनता फ़ासिस्ट राज से मुक्ति और प्रदेश में लोकतन्त्र बहाली का मार्ग प्रशस्त करेगी।

 (लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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