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अमेरिका का विश्व स्तर पर वैक्सीन युद्ध का ऐलान

वह कौन सी चीज़ है,जो किसी भी देश को एक बार विकसित होने के बाद दवायें और टीके बनाने से रोक देती है? क्या यह अमेरिकी धमकी है, या यह धारणा है कि अमेरिका-चीन वैक्सीन युद्ध में उन्हें अमेरिका की तरफ़ होने की ज़रूरत है ?
COVID-19

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इस सप्ताह एक नयी वैक्सीन जंग शुरू कर दी है, लेकिन यह जंग वायरस के ख़िलाफ़ नहीं है। दरअसल यह जंग दुनिया के ख़िलाफ़ है। विश्व स्वास्थ्य सभा में उस घोषणा के ख़िलाफ़ संयुक्त राज्य अमेरिका और यूके केवल दो ही देश हैं, जिसमें कहा गया है कि कोविड-19 के लिए टीके और दवायें लोकहित के रूप में उपलब्ध हों, न कि विशिष्ट पेटेंट अधिकारों के तहत उपलब्ध हों। "महत्वपूर्ण भूमिका, जो बौद्धिक संपदा" अदा करती है-दूसरे शब्दों में कहा जाय,तो टीकों और दवाओं के लिए पेटेंट की बात करने के बजाय अमेरिका ने पेटेंट पूल कॉल से साफ़ तौर पर अपने आपको अलग कर लिया है। कोविड-19 को रोकने के अपने ढीले-ढाले रवैये के चलते बुरी तरह से नाकाम रहने के बाद, ट्रम्प इस साल नवंबर में होने वाले चुनावों से पहले इस टीके के निर्माण का वादा करके अपने चुनावी भाग्य को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। उनका ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ अब ‘हमारे’ लिए टीके हो गया है, लेकिन बाक़ियों को तो कतार में लगना होगा और इसके लिए बड़ी फ़ार्मा कंपनी जो मांग करेगी,उसका भुगतान भी करना होगा, हैं, क्योंकि उनके ही पास पेटेंट होंगे।

इसके ठीक उलट, अन्य सभी देशों ने विश्व स्वास्थ्य सभा के कोस्टा रिका प्रस्ताव के साथ अपनी सहमति जता दी है कि कि कोविड-19 से जुड़े सभी टीकों और दवाओं के लिए एक पेटेंट पूल होना चाहिए। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा है कि चीनी टीके लोकहित के लिए उपलब्ध होंगे, यूरोपीय संघ के नेताओं ने भी इसी तरह के विचारों को रख दिया है। जो आठ वैक्सीन चिकित्सकीय परीक्षण के चरण 1 और चरण 2 में हैं,उनमें से चीन में चार, अमेरिका में दो और यूके और जर्मनी में एक-एक वैक्सीन पर काम चल रहे हैं।

ट्रम्प ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को इस बात की चेतावनी दे दी है कि अगर वह अपनी ग़लती का तीस दिनों के भीतर सुधार नहीं करता है,तो वह अनुदान राशि पर स्थायी रूप से रोक लगा देगा।  इसके ठीक उलट, विश्व स्वास्थ्य सभा में अमेरिका के क़रीबी सहयोगियों सहित लगभग सभी देश, विश्व स्वास्थ्य संगठन के पीछे एकजुट होते दिख रहे हैं। रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (CDC) का वार्षिक बजट विश्व स्वास्थ्य संगठन के वार्षिक बजट से चार गुना ज़्यादा है,लेकिन COVID-19 के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई में सीडीसी की नाकामी दुनिया के सामने सरेआम हो चुकी है। डब्ल्यूएचओ की तरफ़ से 120 से अधिक देशों में सफल परीक्षण किट वितरित करने के दो महीने बाद भी सीडीसी SARS-CoV-2 के लिए एक सफल परीक्षण की सुविधा को मुहैया कराने में नाकाम रहा है।

ट्रम्प ने अभी तक इस आपराधिक नाकामी के लिए अपने प्रशासन और सीडीसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया है। यह किसी भी दूसरी नाकामियों से कहीं ज़्यादा बड़ी नाकामी है, और इसकी वजह यह है कि कोविड-19 को लेकर जितने मामले अमेरिका में आये हैं, उनकी संख्या अब 1.5 मिलियन से भी ज़्यादा हो गयी है, और यह संख्या कुल वैश्विक संक्रमणों का लगभग एक तिहाई है। इसके उलट, चीन की कामयाबी ज़्यादा बड़ी है,क्योंकि, चीन इस अज्ञात महामारी का सामना करने वाला पहला देश रहा है, जिसने इसे 82,000 मामलों पर ही रोक लगा दी थी और ऐसा ही कुछ वियतनाम और दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने भी किया है।

अब कोविड-19 महामारी पर यह एक अहम मुद्दा बनता जा रहा है। अगर हम इस महामारी में बौद्धिक संपदा अधिकारों के मुद्दे को हल नहीं करते हैं, तो मुमकिन है कि हमें एड्स त्रासदी की पुनरावृत्ति देखने को मिले। दस सालों तक लोगों की मौत इसलिए होती रही, क्योंकि पेटेंट की दवा की क़ीमत एक साल की आपूर्ति के लिए 10,000 से 15,000 डॉलर के बीच थी, जो कि लोगों की पहुंच से बाहर थी। आख़िरकार वह भारतीय पेटेंट क़ानून ही था, जिसने 2004 तक उस तरह के पेटेंट को चलने ही नहीं दिया, इसका नतीजा यह हुआ कि लोगों को एड्स की एक दिन की दवा एक डॉलर से भी कम या 350 डॉलर प्रति वर्ष की आपूर्ति के हिसाब से मिल सकी। आज दुनिया में एड्स की 80% दवायें भारत से आती हैं। बड़ी फ़ार्मा कंपनियां अपना मुनाफ़ा तबतक कमाती रहती हैं, जबतक कि हम दुनिया में बदलाव नहीं लाते हैं। इन कंपनियां के रवैये में आगे भी कोई बदलाव नहीं आने वाला है, चाहे वह कोविड हो या कोविड नहीं भी हों।

ज़्यादातर देशों में ऐसे अनिवार्य लाइसेंसिंग प्रावधान हैं, जो उन्हें महामारी या स्वास्थ्य आपात स्थिति के मामले में पेटेंट को तोड़ने की अनुमति देते हैं। एक तीखे वाद-विवाद के बाद विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ने भी अपने दोहा घोषणा (2001) में इस बात को स्वीकार कर लिया था कि स्वास्थ्य आपातकाल में देशों को किसी भी कंपनी को कोई भी पेटेंट करायी हुई दवा बनाने की अनुमति देने का अधिकार है, और यहां तक कि ऐसी दवाओं को दूसरे देशों से भी आयात किया जा सकता है।

फिर तो यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि कोई भी देश पेटेंट को तोड़ पाने में असमर्थ क्यों हैं, जबकि उनके क़ानूनों और ट्रिप्स समझौते में इसका प्रावधान है? इसके पीछे अमेरिका की धौंस और इस धौंस से इन देशों का लगने वाला डर हैं। अमेरिकी घरेलू व्यापार अधिनियम के तहत, अमेरिका विशेष रिपोर्ट-यूएसटीआर 301 जारी करता है,जिसमें उस किसी भी देश पर व्यापार प्रतिबंधों लगान की धमकी होती है, जो किसी भी उत्पाद को अनिवार्य रूप से लाइसेंस देने की कोशिश करता है। भारत में हर साल के आंकड़े इस तरह के अनिवार्य लाइसेंसिंग की पुष्टि करते हैं। भारत ने 2012 में कैंसर की दवा, नेक्सावर के लिए नैटको फ़ार्मा को अनिवार्य लाइसेंस जारी करने की हिम्मत दिखायी थी,जिसे बायर एजी प्रति वर्ष 65,000 डॉलर में बेच रही थी। बायर के सीईओ, मरिजन डेकर्स को व्यापक रूप से यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि यह एक तरह की "चोरी" है, और "हमने भारतीयों के लिए इस दवा को विकसित नहीं किया है...हमने इसे पश्चिम देशों के उन रोगियों के लिए विकसित किया है, जो इसे ख़रीद सकते हैं।"

इससे यह सवाल बिना जवाब का रह जाता है कि पश्चिमी देशों में भी कितने लोग एक बीमारी के लिए 65,000 डॉलर का बिल का खर्च उठा सकते हैं। लेकिन, इस पर कोई सवाल नहीं किया जाता है कि भारत जैसे देशों में बेहद अमीरों को छोड़कर यह किसी और के लिए मौत की सज़ा की तरह होगी। हालांकि उस समय अनिवार्य लाइसेंस को लेकर कई अन्य दवाएं भी विचाराधीन थीं, लेकिन भारत ने अमेरिका की धमकियों के बाद इस प्रावधान का फिर से इस्तेमाल नहीं किया।

इस बात का डर है कि कोई भी देश अपने अनिवार्य लाइसेंसिंग प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए पेटेंट को तोड़ सकते हैं, जिसके चलते पेटेंट पूलिंग के प्रस्ताव सामने आये। इसके पीछे का तर्क यह था कि चूंकि इनमें से कई बीमारियां अमीर देशों को प्रभावित नहीं करती हैं, इसलिए बड़ी फ़ार्मा को या तो अपने पेटेंट को ऐसे पेटेंट पूल में जाने देना चाहिए, या लोकोपकारी पूंजी को इस पूल में डालने को लेकर नयी दवाओं को विकसित करने के लिए अतिरिक्त धनराशि मुहैया करानी चाहिए। यह पेटेंट पूलिंग का वही विचार है, जिसका अमेरिका और इसके वफ़ादार शिविर के अनुयायी, यूके को छोड़कर हाल ही में विश्व स्वास्थ्य सभा, WHA-73, सभी देशों ने समर्थन किया था। अमेरिका ने इस मुद्दे पर अंतिम रूप से डब्ल्यूएचए के प्रस्ताव के साथ अपनी असहमति जतायी है।

अगर कोई दूसरा उपाय नहीं होता है, तब तो पेटेंट पूलिंग का स्वागत है। इससे यह बात भी सामने आती है कि देशों के पास बड़ी पूंजी की तरफ़ से मिलने वाले दान से अलग कोई दूसरा उपाय भी नहीं है। जैसा कि दान में अक्सर होता है कि बहुत कुछ गुप्त रखा जाता है,  और इस मामले में वह यह है कि लोगों और देशों के पास पेटेंट तोड़ने के लिए ट्रिप्स के तहत भी वैध अधिकार होते हैं।

जब कभी अनिवार्य लाइसेंस किसी भी देश की तरफ़ से जारी किया जाता है, तो अमेरिका चीख़-पुकार मचाता है, जब कभी उसके ख़ुद के हितों को ख़तरा होता है,तो ऐसा करने से उसे कभी गुरेज नहीं होता। 2001 में एंथ्रेक्स की विभिषिका के दौरान, अमेरिकी स्वास्थ्य सचिव ने अन्य निर्माताओं के लिए सिप्रोफ्लोक्सासिन को लाइसेंस देने को लेकर "पेटेंट के विशिष्ट क्षेत्र" के तहत बायर को धमकी दी थी। इसके बाद बायर को नरम होना पड़ा था, और वह उस मात्रा की आपूर्ति के साथ उस क़ीमत पर भी सहमत हो गया था, जिसकी अमेरिकी सरकार ने मांग की थी। और यह सब बिना किसी शोर-शराबे के साथ हुआ था। बिल्कुल, यह वही बायर है, जो अनिवार्य लाइसेंस जारी करने को लेकर भारत को "चोर" मानता है! कोविड-19 के टीके को प्रत्येक वर्ष लेने की ज़रूरत हो सकती है, क्योंकि हमें अब भी इसकी सुरक्षा अवधि के बारे में पता नहीं हैं। इस बात की कम ही संभावना है कि यह चेचक के टीके की तरह आजीवन प्रतिरक्षा प्रदान करे।

एड्स के रोगियों की संख्या जहां छोटी थी, वहीं कोविड-19 के रोगियों की तादाद बहुत बड़ी है, उसी तरह एड्स होने के ख़तरे की वजह ख़ास थी, लेकिन कोविड-19 के ख़तरे की वजह साफ़ तौर पर बहुत सामान्य है। लोगों और सरकारों को कोविड-19 वैक्सीन या दवाओं पर रोक लगाकर पैसे बनाने की किसी भी तरह की कोशिश से TRIPS के उस पूरे पेटेंट का मामला ही ध्वस्त होता दिख सकता है, जिसे उन बड़ी फ़ार्मा ने बनाया है,जिन्हें अमेरिका और प्रमुख यूरोपीय संघ के देशों का समर्थन हासिल है। यही वजह है कि पूंजीवादी दुनिया के अधिक चतुर देश कोविड-19 की दवाओं और उसके वैक्सीन को लेकर एक पेटेंट पूल की ओर बढ़ चले हैं।

चतुर पूंजी के उलट, कोविड-19 के वैक्सीन को लेकर ट्रम्प की प्रतिक्रिया महज अपने तरीक़े से धमकाने वाली है। ट्रम्प का मानना है कि अकूत धन के साथ वह अब वैक्सीन के प्रयासों में लगने को तैयार हैं, अमेरिका या तो इस प्रयास में लगे किसी भी देश से आगे निकल जायेगा, या इस कोशिश में कामायाब होने वाली कंपनी को वह ख़रीद लेगा। यदि वे इसमें कामयाब हो जाते हैं, तो वह अपने कोविड-19 वैक्सीन' का इस्तेमाल वैश्विक शक्ति के नये हथियार के रूप में कर सकते हैं। ऐसे में अमेरिका ही इस बात तय कर सकेगा कि किन देशों को यह वैक्सीन मिले और किन देशों को नहीं मिले।

ट्रम्प की दिक़्क़त है कि वे नियम-आधारित वैश्विक व्यवस्था में विश्वास नहीं करते हैं, भले ही वह नियम अमीरों के पक्ष में हों। वह विभिन्न हथियार नियंत्रण समझौतों से बाहर का रास्ता अख़्तियार कर रहे हैं और विश्व व्यापार संगठन को एक तरह से लाचार बना दिया है। उनका मानना है कि सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे शक्तिशाली सैन्य शक्ति के रूप में अमेरिका के पास सभी देशों पर अपना हुक़्म चलाने का अघोषित अधिकार होना चाहिए। बमबारी और आक्रमण के ख़तरों को जहां एकतरफा प्रतिबंधों के साथ जोड़ा जा सकता है; वहीं उनके काल्पनिक शस्त्रागार का नवीनतम हथियार टीके पर रोक लगाये रखना है।

असल में उनकी समस्या यही है कि एक एकमात्र वैश्विक आधिपत्य के दिन बहुत पहले ही लद चुके हैं। अमेरिका ने ख़ुद को एक ढहते हुए विशालकाय शक्ति के रूप में दिखाया है और इसकी महामारी को लेकर जो रवैया रहा है, वह शर्मनाक रहा है। यह सही समय पर अपने लोगों को वायरस परीक्षण की सुविधा मुहैया कराने में असमर्थ रहा है, और रोकथाम या शमन के उपायों के ज़रिये इस महामारी को रोकने में वह नाकाम रहा है, जिसे कई दूसरे देशों ने कर दिखाया है।

चीन और यूरोपीय संघ पहले से ही इस बात लेकर सहमत हैं कि उनके द्वारा विकसित किसी भी वैक्सीन का इस्तेमाल लोकहित में किया जायेगा। बल्कि वे तो यहां तक मानते हैं कि अगर कोई दवा या वैक्सीन एक बार सफल हो जाता है, तो एक समुचित वैज्ञानिक बुनियादी ढांचे वाला कोई भी देश उस दवा या वैक्सीन की नक़ल कर सकता है, और इसका स्थानीय स्तर पर उत्पादन कर सकता है। कई दूसरे देशों की तरह भारत के पास भी  इस तरह की वैज्ञानिक क्षमता है। हम जेनेरिक दवा और वैक्सीन निर्माण को लेकर दुनिया की सबसे बड़ी क्षमतावान देशों में से एक हैं। सवाल है कि एक बार जब टीके या दवायें विकसित कर ली जाती हैं, तो उसके बाद इस मामले में हमें या किसी भी देश के आड़े क्या आती है? क्या वह महज पेटेंट को तोड़ने पर चुक चुकी सर्वोच्च शक्ति की ख़ाली-ख़ाली धमकी तो नहीं है? या कि यह धारण कि अमेरिका-चीन वैक्सीन युद्ध के होने की स्थिति में बाक़ी देशों को अमेरिका की तरफ़ होने की ज़रूरत है ?

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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