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“मेरे राजनीतिक बनने की प्रक्रिया में असमानता को समझना बेहद महत्वपूर्ण रहा” 

“मेरे जीवन में वास्तविक बदलाव तब देखने को मिला जब मैं चार वर्षों से थिएटर में जाने की कोशिश में लगी हुई थी, लेकिन उसके बजाय मैं पूरी तरह से राजनीतिक होती चली गई।”
वृंदा करात

कुछ साल पहले जुबान ओरल आर्काइव्ज प्रोजेक्ट के लिए काम करते हुए, सहबा हुसैन जो कि एक स्वतंत्र शोधार्थी, लेखिका एवं महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं, उन्होनें भारत में महिला आंदोलन को लेकर कई अन्य महिला कार्यकर्ताओं के साथ गुफ्तगू की थी। 

इस बातचीत की श्रृंखला के पहले चरण में सहबा ने प्रखर राजनीतिक एवं महिला अधिकार कार्यकर्ता वृंदा करात से बात की। करात भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की पोलित ब्यूरो सदस्या हैं। और 2005-2011 तक राज्य सभा की सांसद रहीं हैं। करात 1993-2004 के बीच में आल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेंस एसोसिएशन (एआईडीडब्ल्यूए) की महासचिव भी रही हैं। प्रशंगवश, इस साल एआईडीडब्ल्यूए के गठन के 40 वर्ष भी संपन्न होने जा रहे हैं।

निम्नलिखित बातचीत के अंश में वृंदा अपने बचपन के दिनों, अपनी राजनीतिक यात्रा और कई अन्य चीजों के बारे में बता रही हैं।

सहबा हुसैन: वृंदाजी, कृपया हमें अपने बारे में – अपने बचपन, अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत के बारे में बताएं। 

वृंदाकरात: मेरा जन्म 19 अक्टूबर 1947 को कोलकाता में हुआ था, और 1947 वह साल था जब हमें आजादी हासिल हुई थी। उस दौरान मेरी माँ ने ऐसा लगता है कि अपनी दोस्तों से कहा था कि यह एक बेहद ख़ास बोझ है, जिसे उन्हें वहन करना पड़ रहा था क्योंकि उस दौरान जब भारत को आजादी हासिल हो रही थी, तो वे उस प्रकार से ख़ुशी से नहीं नाच सकती थीं, जैसा कि वे चाहती थीं। तो इस प्रकार मेरे बारे में यह पहली टिप्पणी थी! मैं चार भाई-बहनों में से एक हूँ, जिसमें मेरे बड़े भाई और मेरी बहन और एक अन्य बहन हैं। मेरे पिता पंजाब से और मेरी माँ बंगाल से थीं। मेरी माँ की मौत एक भयानक कार दुर्घटना में तब हुई थी जब मैं बेहद छोटी थी। मैं उस समय महज पांच साल की थी और मुझे लगता है कि इसने हमारे जीवन को बुरी तरह से बदल कर रख डाला था। 

मुझे लगता है कि यदि मेरी माँ रही होतीं तो हमें किसी प्रकार के अनुशासन में रहना होता, हालांकि अनुशासन के मामले में मेरे पिता काफी सख्त इंसान थे, लेकिन वे बेहद उदार व्यक्ति भी थे। इसलिए हम मुक्त थे और मैं आपसे कहना चाहती हूँ कि हम वो सब कर सकने के लिए आजाद थे जिसे हम करना चाहते थे। बेशक हमने पढ़ाई की, हम घंटों पढ़ते थे, लेकिन हमारे उपर किसी प्रकार की बंदिश नहीं थी, न ही कोई सांस्कृतिक न ही किसी किस्म की व्यवहारगत बंदिश लागू थी। तो यह रही उन बीते वर्षों की बात जिन्हें अब जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ तो पाती हूँ कि वे मेरी जिंदगी के बेहद महत्वपूर्ण वर्ष थे। कुछ वर्षों के बाद मेरी जिंदगी बदल गई क्योंकि हमें पढ़ने के लिए बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया था। तब मेरी उम्र ग्यारह या बारह वर्ष की रही होगी। हमें देश के दूसरे कोने देहरादून में वेल्हम गर्ल्स स्कूल में डाला गया था। शुरू-शुरू में मुझे हमेशा घर की याद सताया करती थी लेकिन बाद में मैंने कुछ बेहद अच्छे दोस्त बना लिए थे। जब मैंने वेल्हम में प्रवेश लिया तो यह सिलसिला 4-5 साल पहले से शुरू हो गया था। ग्रेस लिननेल जैसी अंग्रेज प्रधानाध्यापिका के साथ स्कूल में बने रहना ही अपने आप में एक शिक्षा थी, जिन्होंने जिन्दगी भर शादी न करने का निश्चय लिया हुआ था। महिलाओं की शिक्षा को लेकर वे दृढ निश्चयी थीं, और इसके लिए उन्होंने इंग्लैंड को त्याग कर हैदराबाद में मुस्लिम लड़कियों को शिक्षित बनाने के काम को चुना,और कई वर्षों के बाद देहरादून आईं। वे लंबी और छरहरी थीं और लड़कियों की परवरिश को लेकर उनके विचार बेहद सख्त थे। लेकिन महिलाओं की भूमिका क्या है या होनी चाहिए को लेकर उनके विचार रुढ़िवादी नहीं थे। मेरी जिन्दगी में ग्रेस लिननेल का अहम प्रभाव रहा है। 

मेरे पिता और मेरी चाचियों द्वारा मेरे लालन-पालन के उपरांत वेल्हम्स में पढाई पूरी करने के बाद, आगे की पढ़ाई के लिए मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस कॉलेज गई। 1963-66 के वर्षों में मैं वहां रही। नाटक का मुझे बेहद शौक था इसलिए मैंने अपना सारा खाली समय थिएटर में बिताना शुरू कर दिया था। कालेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं कलकत्ता वापस आ गई और मैंने एक या दो ड्रामा क्लबों में जाना शुरू कर दिया था। इस पर मेरे पिता ने मुझसे कहा कि देखो तुम जो कुछ कर रही हो, वो काफी अच्छा है, लेकिन अब तुम्हें खुद अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए। मेरे पिता इंसान के कर्मयोगी होने को लेकर बेहद प्रतिबद्ध थे। इसलिए उनका कहना था कि चाहे जो कुछ भी हो तुम्हें स्वतंत्र होना होना चाहिए और अपना जीवन-यापन चला पाने में सक्षम होना चाहिए। मैंने एयर इंडिया में ऑफिस जॉब के लिए अप्लाई करने पर विचार करना शुरू किया। मेरा इरादा दुनिया भर में घूमने के लिए नहीं बल्कि ऑफिस में काम करने का था। इसके लिए मैंने एयर इंडिया में आवेदन किया और एक इन्टरव्यू दिया और उन्होंने मुझे काम पर रख लिया। छह महीनों के भीतर मेरी पोस्टिंग लंदन में हो गई और मुझे वहां स्थानांतरित कर दिया गया। लेकिन जब मैं 1967 में वहां गई तो लंदन उन दिनों नौजवानों के बीच में बेहद मजबूत राजनीतिक वातावरण और सत्ता-विरोधी मूड से घिरा हुआ था। लंदन में मेरे सभी दोस्त छात्र थे जिनमें से अधिकतर भारत से थे। उनमें से एक मैं ही थी जो नौकरी कर रही थी। मैंने एयर इंडिया के साथ अपने काम को जारी रखा लेकिन मैं निरंतर अधिकाधिक राजनीतिक गोलबंदी के साथ जुड़ती जा रही थी, वो भी मूलरूप से वियतनाम में अमेरिकी युद्ध के खिलाफ। मुझे लगता है कि यह सब मेरे लंदन आने के दो महीनों के भीतर हुआ होगा और जिस किसी से भी मेरी बातचीत होती थी, वे सभी सिर्फ राजनीति पर ही बातें कर रहे होते थे। मैं इन चार वर्षों में थिएटर में जाने की कोशिश में थी, लेकिन इसके बजाय मेरी जिंदगी में वास्तविक बदलाव पूरी तरह से राजनीतिक हो जाने में हो गई थी। और यह सब कुछ ऐसा था जिसमें मैं करीब-करीब खिंचती चली गई। और फिर मैंने पढ़ना शुरू किया और उस दौरान मेरा परिचय मार्क्सवाद से हुआ। और उस समय तक मैं पूरी तरह से अशिक्षित थी सिवाय राजनीतिक विज्ञान के, जिसे हमें कॉलेज के दिनों में बेहद सतही ढंग से पढ़ाया जाता था।

लंदन में रहते हुए मैं राजनीतिक आंदोलन से काफी हद तक जुड़ चुकी थी। और फिर मैं अमेरिका गई और वहां पर कुछ समूहों से मेरी मुलाक़ात हुई। लेकिन इन सभी ग्रुपों से मुलाक़ात करने पर मैंने पाया कि मैं ऐसे कई अराजकतावादियों से मिल रही थी, जिनमें ब्लैक ब्रदरहुड और अन्य अश्वेत ग्रुप्स शामिल थे, जो बेहद चरमपंथी थे। उन दिनों लंदन में भी ऐसे ढेर सारे बंगाली छात्र आये हुए थे, जिन्हें (भारत) छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था क्योंकि उन्होंने नक्सलबाड़ी आन्दोलन में हिस्सा लिया था और उन सभी के खिलाफ वारंट था। इसलिए मैंने भी विचार करना शुरू कर दिया कि मुझे भी भारत के बारे में निश्चित तौर पर ज्यादा जानने की जरूरत है क्योंकि जो कुछ भी इंग्लैंड, फ़्रांस और जर्मनी में घट रहा था, उस सबसे यह काफी अलग था। क्योंकि जिन सभी लोगों से मैं मिल रही थी वे सभी मूलतः इन सभी घटनाओं को अपने सांस्कृतिक परिवेश और अपने-अपने देशों के सन्दर्भों में व्याख्यायित कर रहे होते थे। मैं मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित तो थी, लेकिन मैं वास्तव में उनके राजनीतिक आंदोलनों से बहुत प्रभावित नहीं हो पा रही थी, इसलिए मुझे महसूस हुआ कि मुझे भारत के बारे में और भी अधिक समझने की जरूरत है। इसलिए, मैंने भारत के बारे में और अधिक पढ़ना शुरू किया और जब कभी मैं भारत वापस आती (एयर इंडिया में होने के कारण मुझे भारत आने के लिए मुफ्त टिकट मिलते थे) तो मुझे यहाँ से कम्युनिस्ट साहित्य मिल जाता था और मैं वापस जाकर उनका अध्ययन करती थी, हालाँकि मुझे यह सब बहुत कम समझ आता था। मुझे तब तक लंदन में एक भी सीपीआई-एम समर्थक नहीं मिला था।

उन दिनों 1966-67 में कलकत्ता में जो कुछ भी हो रहा था, उसमें सीपीआई-एम के नेतृत्व में लोगों की भारी गोलबंदी हो रही थी और उन दिनों ज्योति बासु सीपीआई-एम का चेहरा हुआ करते थे। इसलिए किस प्रकार से जन गोलबंदी संभव हो पार रही है और किस प्रकार से संसद और राज्य विधानसभाओं को राजनीतिक परिवर्तन लाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, इं सब के बारे में पढ़ना और जानना मेरे लिए बेहद प्रेरणादायक अनुभव था। यही वह समय था जब मैंने सीपीआई-एम की ओर देखना शुरू कर दिया था। यही वह समय था जब मैं अपनी नौकरी छोड़ने और भारत वापस आने के बारे में मन बना रही थी। मैं लंदन में चार वर्षों तक रही; और शायद यह 1971 का साल रहा होगा। हालांकि मेरे पिता इस सबसे बेहद खफा थे क्योंकि उन्हें लगता था कि मेरे पास एक अच्छी नौकरी थी और मैं आर्थिक तौर पर आजाद थी। मेरे पिता कॉर्पोरेट क्षेत्र में थे, वे एक बड़ी कंपनी के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक थे। बहरहाल मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी, और कलकत्ता वापस आ गई। उस दौरान भारत में महिलाओं का कोई मुद्दा नहीं होता था। यद्यपि उस दौरान इंग्लैंड में महिला मुक्ति और महिलाओं के आंदोलन का मुद्दा बेहद अहम और बेहद मुखर हुआ करता था। वामपंथियों के बीच में नई सोच और नई विचारधारा के तहत महिलाओं के आंदोलन को ‘ओल्ड लेफ्ट’ या संगठित वाम और कम्युनिस्ट पार्टियों के खिलाफ बढ़ावा दिया जा रहा था।

मैं यह अवश्य कहूँगी कि तब मैं महिलाओं के सवाल पर उतना नहीं जुड़ी थी जितना कि आज हूँ। मैं तब सिर्फ असमानता को समझने की कोशिश कर रही थी। यह तब मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण और बेहद अहम मुद्दा बना हुआ था। मेरे राजनीतिक बनने में यह बेहद अहम था। यह महिलाओं के मुद्दों से बिल्कुल जुदा था। यह गैर-बराबरी वाला मुद्दा था, न्याय का मुद्दा था, वर्ग का मुद्दा था और अमीरी और गरीबी का मुद्दा था, जो मेरे लिए बेहद महत्वपूर्ण बना हुआ था। मुझे लगता है तब यह मेरे लिए मुद्दा नहीं था क्योंकि जो चीज मुझे अंदर से प्रभावित कर रही थी वह थी वर्ग को लेकर बेहद बुनियादी समझ की जिससे मैं आ रही थी और जिस वर्गीय समाज को मैं देख रही थी। यह वास्तव में मुख्य कारक था जिसे मैं समझने की कोशिश में लगी हुई थी।

यह एक साक्षात्कार से संपादित किया हुआ अंश है, जिसे ज़ुबान ओरल आर्काविंग प्रोजेक्ट से लिया गया है। प्रकाशक की अनुमति से इसे यहाँ पर पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है। 

साभार: इंडियन कल्चरल फोरम 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
“Understanding Inequality Was Critical in my Becoming Political”

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