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बिहार : संसद पहुंचे लाल झंडे के उम्मीदवार, ‘सड़कों पर उठने वाले जनता के सवाल’ अब सदन में भी गूजेंगे!

बिहार से गए लाल झंडे के प्रतिनिधि के रूप में भाकपा माले के दो सांसदों के साथ शेष अन्य वाम सांसदों के द्वारा सड़क पर गूंजने वाले जनता के सवाल-मुद्दे अब पूरी ताक़त से संसद में भी गूजेंगे।
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यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि ‘वामपंथ’ को लेकर मुख्य-मीडिया’ का सारा विमर्श-विश्लेषण, सिर्फ़ उसे “कमज़ोर और हाशिये की राजनीतिक शक्ति” को बताने-दिखाने पर ही केन्द्रित रहता है। उस पर से कई स्वयंभू महारथी राजनीतिक विश्लेषक महानुभावों का रवैया तो ऐसा दोस्ताना रहा करता है, जिसे लेकर प्रचलित कहावत कि “ऐसा दोस्त, जिसके रहते दुश्मनों की कोई ज़रूरत ही नहीं”, सटीक बैठती है।

वामपंथ को लेकर इनके “पुर्वाग्रह-दुराग्रह भरे नैरेटिव” का तो कहना ही क्या, यदि मामला चुनाव से जुड़ा हो तो इनके “अलंकार-उपमा-शीर्षकों” को देख-सुन-पढ़ कर ही लग जाएगा कि वामपंथ को लेकर इनका असल “नजरिया” कैसा है!

इस बार संपन्न हुए लोकसभा 2024 के चुनाव के सन्दर्भ में भी मीडिया-महारथी विश्लेषकों का वामपंथ को लेकर कैसा रुख़ रहा, चंद चर्चा-शीर्षकों से सहज ही देखा जा सकता है। जो बिहार के सन्दर्भ में तो कैसा अद्भुत रहा उसे देखा जाए “बिहार में वामपंथी चिल्ला रहे हैं, हम जीतेंगे, क्या वे जीत पायेंगे?”, “दो दशकों में सिकुड़ गयी वामपंथ की ज़मीन”, “हाशिये पर जा रही वाम दलों की राजनीति” आदि।

तमाम ख़बरों-चर्चा-विश्लेश्नों में मुख्य शोर कुछ इस अंदाज़ में रहता है कि “कभी देश कि प्रमुख विपक्षी दल रही कम्युनिस्ट पार्टी के लिए अब अस्तित्व बचाना कठिन हो रहा है। सीटें घटने से वाम दल राष्ट्रीय राजनीति में भी अप्रासंगिक होते जा रहें हैं, इत्यादि।

हालांकि उक्त चर्चाओं में ये पहलू काफी हद तक सही है कि संसद में वामदलों की उपस्थिति कम होने से मजदूरों, वंचितों के हक़ की लड़ाई कमज़ोर होती दिखती है। वामदलों की मजबूत स्थिति संसद में नीति-निर्माण में एक दबाव समूह का कार्य करती है। यही कारण ही कि मौजूदा आर्थिक नीतियों के ख़राब प्रभावों के ख़िलाफ़ भी संसद में आवाज़ें कमज़ोर हुई हैं।

बिहार से इस बार ‘लाल झंडा प्रतिनितिधि’ के रूप में भाकपा माले के दो सांसद विजयी हुए हैं। गैर भाजपा विपक्षी दलों के INDIA गठबंधन से भाकपा माले के प्रत्याशी के रूप में काराकाट सीट पर राजाराम सिंह और आरा सीट से सुदामा प्रसाद ने जीत हासिल की है।

जिसमें आरा सीट का चुनाव इसलिए चर्चाओं में रहा कि इस सीट से मोदी सरकार में केन्द्रीय मंत्री रहे आरके सिंह दूसरी बार “बड़ी जीत” के दावों के साथ चुनाव लड़ रहे थे। जो बात बात पर INDIA-गठबंधन और माले प्रत्याशी सुदामा प्रसाद के ख़िलाफ़ लगातार अमर्यादित बयान देते हुए और जीत का दावा देते हुए दिखाई पड़ते रहे।

लेकिन माले प्रत्याशी सुदामा प्रसाद ने आखिरकार उनके दावों को गलत साबित करते हुए उन्हें 59808 वोटों से करारी शिकस्त दे दी। सुदामा प्रसाद को 5,29,382 वोट मिले जबकि आरके सिंह 4,69,574 वोट ही पा सके।

काफ़ी चर्चाओं में रही राज्य की काराकट संसदीय सीट का चुनाव इसलिए भी काफी रोचक कहा जा रहा है कि इस सीट पर वोटिंग में भाजपा-एनडीए गठबंधन प्रत्याशी उपेन्द्र कुशवाहा जी तीसरे नम्बर पर चले गए। उन्हें पीछे धकेलने का काम किया आसनसोल से भाजपा प्रत्याशी घोषित भोजपुरी गायक पवन सिंह ने। जिन्होंने वहां से लड़ने के पार्टी फरमान को लागू करने से साफ़ मन करते हुए इधर स्वयं को “काराकाट का बेटा” घोषित कर दिया और यहां से “निर्दलीय” प्रत्याशी बन गए। चुनाव स्क्रूटनी में किसी कारण से उम्मीदवारी खारिज़ न हो जाए, इसलिए अपनी माता जी का भी नामांकन करा दिया। स्क्रूटनी में सफल होने के उपरांत माता जी को चुपचाप बैठा दिया।

पार्टी के ख़िलाफ़ अनुशासनहीनता का आरोप लगा कर प्रदेश भाजपा ने उन्हें पार्टी से निकालने की घोषणा करके उपेन्द्र जी को आश्वस्त किया कि वे ही एनडीए गठबंधन के उम्मीदवार हैं। लेकिन व्यापक ज़मीनी चर्चा यही रही कि भले ही भाजपा ने उन्हें पार्टी से निकालने की घोषणा कर दी है लेकिन पार्टी का कोर वोटर-जनाधार पवन सिंह के लिए ज़ोर-शोर से काम कर रहा है। चर्चा इसकी भी रही कि स्थानीय से लेकर आस पास के इलाके तक के एक “ख़ास जाति समुदाय” के लोग पूरे “धन और जन बल” के साथ पवन सिंह को जिताने के लिए पूरा ज़ोर लगाए हुए हैं।

इस सीट पर INDIA गठबंधन से भाकपा माले प्रत्याशी राजाराम सिंह ने कुल 3,80,581 वोट हासिल कर 1,05,858 मतों से जीत हासिल की। दूसरे नम्बर पर रहे भोजपुरी स्टार पवन सिंह को कुल 2,74,723 वोट मिले और उपेन्द्र सिंह 2,53,876 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे।

निस्संदेह इस बार भाकपा माले के दो सांसदों का जितना, पार्टी के लिए अच्छी चुनावी सफलता है। क्योंकि महागठबंधन कोटे से उसे सिर्फ़ तीन ही सीटें- आरा, काराकाट और नालंदा सीट मिलीं थीं। जिसमें काराकाट और आरा की सीट पर तो जीत हासिल हुई लेकिन नालंदा की सीट पर वह दूसरे स्थान पर रही।

वहीं, राजनितिक षड्यंत्र के तहत भोजपुर के अगियांव विधायक मनोज मंजिल की विधान सभा सदस्यता “फर्जी केस” में फंसाकर रद्द किये जाने के बाद इस सीट पर उपचुनाव हुआ। जिसमें माले प्रत्याशी शिव प्रकाश रंजन की विश्वस्त जीत ने इस सीट पर फिर से माले का कब्जा बरकरार रखा।

वामपंथ की शेष दो सीट बेगूसराय से सीपीआई और खगड़िया से सीपीआईएम के उम्मीदवार रहे। दोनों ही सीटों पर वाम उम्मीदवारों ने भाजपा-गठबंधन को कड़ी टक्कर तो दी, लेकिन जीत नहीं मिल सकी। बेगूसराय सीट पर सीपीआई प्रत्याशी अवधेश राय 5,67,851 वोट और खगड़िया सीट पर सीपीआईएम के संजय कुशवाहा 3,77,526 वोट लाकर दूसरे स्थान पर रहे।

मीडिया-भाषा के लिहाज से भले ही भाकपा माले द्वारा दो संसदीय सीटों पर जीत हासिल करने से “वाम दलों का सूखा” ख़त्म हुआ है, बता रहा है। लेकिन इस सच से भी इंकार नहीं किया जाना चाहिए कि भाकपा माले व सीपीआई-सीपीआईएम के वामपंथी उम्मीदवार उन्हीं क्षेत्रों से चुनावी जंग लड़े जो दशकों से लाल झंडे के सघन आन्दोलन के इलाके रहे हैं।

जिसमें मध्य बिहार वाली सीटों का इलाका तो ‘धधकते खेत खलिहानों’ के नाम से भी चर्चित रहा। जहां ज़मीन व जीने का अधिकार तथा सामाजिक समानता -सम्मान जैसे बुनियादी राजनीतिक-सामाजिक सवालों पर हाशिये के समुदायों-वंचित-दलितों के साथ साथ गावों के गरीब-गुरबों और भूमिहीन किसानों के क्रांतिकारी जनांदोलनों का तांता सा रहा।

यही वे इलाके हैं “वोट देने के” संवैधानिक अधिकार पाने के लिए भी सामन्ती-दबंगों की बंदूकों और उनकी निजी हथियारबंद सेनाओं से लंबे समय तक टकराना पड़ा। सत्ता व मीडिया की नज़रों में ये सभी इलाके “वाम उग्रवाद” प्रभावित क्षेत्र घोषित रहे। जबकि ज़मीनी सच ये है कि इन्हीं इलाकों से ‘भगत सिंह-अम्बेदकर का भारत गढ़ने’ और समता मूलाक राज-समाज बनाने की क्रांतिकारी मुहीम शुरू हुई।

विडंबना है कि ऐतिहासिक काल से ही राजनीतिक-सामाजिक जन आन्दोलनों की धरती कहे जाने वाले बिहार राज्य में होनेवाले चुनाव को लेकर कतिपय “स्थापित मीडिया और महारथी विश्लेषकों” द्वारा हमेशा “जातीय समीकरण” का नैरेटिव थोप दिया जाता है। लेकिन असली सच कि स्वामी सहजानंद जी द्वारा शुरू किये गए किसान आन्दोलन से लेकर बाद के समयों में नक्सलवादी आन्दोलानों जैसे अनगिनत ऐसे कई कई जनांदोलन-सामाजिक अभियान हुए हैं जिसने देश की राजनीति तक में सीधा हस्तक्षेप किया है।

सनद रहे कि मोदी राज और उसके नफ़रत-हिंसा की राजनीति के खिलाफ भाकपा माले व सभी वाम दलों ने लगातार बिहार में सड़क से लेकर विधान सभा तक में ज़ोरदार ज़मीनी अभियान चलाने का काम किया।

भाकपा माले द्वारा 2024 के चुनाव के मद्देनज़र भाजपा हटाओ, देश बचाओ- संविधान और लोकतंत्र बचाओ, का केन्द्रीय नारे ने इतना व्यापक स्वरुप ले लिया कि INDIA गठबंधन व सभी घटकों का भी मुख्य नारा बन गया।

बहरहाल, ये सच है कि केंद्र की सत्ता में जोड़-तोड़ से मोदी जी की सरकार बन गयी है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जिन सवालों को लेकर पिछली सरकार के खिलाफ व्यापक आन्दोलन हुए, वे सारे सवाल और जन मुद्दे आज भी उसी शिद्दत के साथ मौजूद हैं।

जाहिर है कि बिहार से गए लाल झंडे के प्रतिनिधि के रूप में भाकपा माले के दो सांसदों के साथ शेष अन्य वाम सांसदों के द्वारा सड़क पर गूंजने वाले जनता के सवाल-मुद्दे अब पूरी ताक़त से संसद में भी गूजेंगे।

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