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ख़बरों के आगे-पीछे: चुनाव ख़त्म होते ही महंगाई की मार तेज़

नतीजे का भी इंतजार नहीं हुआ और वस्तुओं व सेवाओं की कीमतें बढ़ने लगीं। इसके अलावा इस चुनाव ने क्या रंग दिखाया और भाजपा और अन्य दलों के लिए क्या सबक़ हैं जानिए वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन से। 
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प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार : Webdunia

लोकसभा का चुनाव खत्म होते ही महंगाई की मार तेज होना शुरू हो गई है। नतीजे का भी इंतजार नहीं हुआ और वस्तुओं व सेवाओं की कीमतें बढ़ने लगीं। एक्जिट पोल के नतीजे आने के अगले ही दिन देश भर में टोल टैक्स बढ़ाने का ऐलान हो गया। बताया जा रहा है कि चुनाव की वजह से सालाना बढ़ोतरी रोक दी गई थी। सवाल है कि जब चुनाव के बीच वस्तुओं की कीमत घटाने पर कोई रोक नहीं थी तो कीमत बढ़ाने पर क्यों रोक लगाई गई थी? 

गौरतलब है कि ठीक एक जून को, जिस दिन आखिरी चरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी सहित 57 सीटों पर मतदान होना था, उसी दिन कॉमर्शियल गैस सिलेंडर की कीमत में 73 रुपए की कमी की गई थी। बहरहाल, एक जून को मतदान खत्म हुआ और दो जून को टोल टैक्स में तीन से पांच फीसदी की बढ़ोतरी कर दी गई। इसका मतलब है कि देश के 1100 से ज्यादा टोल प्लाजा पर पांच से लेकर 25 रुपए तक की बढ़ोतरी हो गई। कहने की जरूरत नहीं है कि टोल वसूलने वाली निजी कंपनियों को इसका सबसे बड़ा फायदा होगा और सरकार का जीएसटी राजस्व बढ़ेगा। दो जून को जिस दिन टोल टैक्स में बढ़ोतरी हुई उसी दिन अमूल दूध की कीमतों मे दो रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी हो गई। अब उसके पीछ-पीछे बाकी सारी दूध कंपनियों के दूध की कीमतें बढ़ेंगी। इसके बाद हो सकता है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतें भी बढ़े और घरेलू रसोई गैस की कीमतों में जो कटौती हुई थी वह वापस बहाल हो जाए।

चुनावी राज्यों में भाजपा पर संकट 

वैसे तो भाजपा को इस बार लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान उत्तर प्रदेश में हुआ है। लेकिन इसके अलावा महाराष्ट्र, राजस्थान, झारखंड और हरियाणा में भी उसे तगड़े झटके लगे हैं। इनमें भाजपा के लिए सबसे ज्यादा चिंता की बात महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा हैं, जहां इस साल विधानसभा के चुनाव होना है। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों ने शानदार प्रदर्शन किया है। महाराष्ट्र में भाजपा ने अपना किला बचाने के पहले शिव सेना को तोड़ा और उसके टूटे हुए धड़े के साथ मिल कर सरकार बनाई। फिर उसने शरद पवार की एनसीपी को भी तोड़ दिया। लेकिन इसके बावजूद उद्धव ठाकरे, शरद पवार और कांग्रेस की साझेदारी ने भाजपा और उसके गठबंधन को करारी शिकस्त दी। चार महीने बाद राज्य में विधानसभा चुनाव हैं और उससे पहले इस नतीजे ने भाजपा की चिंता बढ़ा दी है। इसी तरह हरियाणा में लोकसभा की 10 सीटों में से कांग्रेस ने उससे पांच सीटें छीन लीं। भाजपा के लिए यह नतीजा वहां नवंबर में होने वाले विधानसभा को देखते हुए खतरे की घंटी है। तीसरा राज्य झारखंड है, जहां पिछली बार भाजपा ने 11 सीटें जीती थी और उसकी सहयोगी आजसू को एक सीट मिली थी। आजसू तो इस बार भी अपनी सीट बचाने में कामयाब रही है लेकिन भाजपा ने तीन सीटें गंवा दी है। उसे सिर्फ आठ सीटें मिली हैं। उसे राज्य की सभी पांच आदिवासी सीटों पर हार का सामना करना पडा है जो कि दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी उसके लिए खतरे का संकेत है।

मोदी के बयानों से भाजपा का नुकसान

लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विवादास्पद बयानों से भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को कई राज्यों में खास कर बिहार में आखिरी चरण में बडा नुकसान हुआ है। गौरतलब है कि आखिरी चरण में बिहार की जिन आठ सीटों पर मतदान हुआ था उनमें से छह सीटें भाजपा और जनता दल (यू) हार गए। पाटलिपुत्र, जहानाबाद और बक्सर में आखिरी चरण में चुनाव हुआ था और ये तीनों सीटें राष्ट्रीय जनता दल को मिलीं। इसी तरह आरा और काराकाट की सीटें भाकपा माले को तथा सासाराम की सीट कांग्रेस को मिली। असल में आखिरी चरण के मतदान से पहले प्रधानमंत्री जब प्रचार करने पहुंचे तो उन्होंने लालू प्रसाद के साथ-साथ तेजस्वी यादव को भी निशाना बनाया। उन्होंने तंज करते हुए कहा कि हेलीकॉप्टर का चक्कर समाप्त होते ही तेजस्वी जेल जाने के लिए तैयार रहें। उनके इस बयान ने यादव मतदाताओं को पूरी तरह से एकजुट कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि पाटलिपुत्र में जीत रहे रामकृपाल यादव हार गए और मीसा भारती जीत गईं। बक्सर में जो यादव वोट निर्दलीय बाहुबली नेता ददन यादव के साथ जा रहे थे, वे राजद के सुधाकर सिंह के साथ एकजुट हुए और भाजपा के मिथिलेश तिवारी हार गए। प्रधानमंत्री के इस बयान ने काराकाट में उपेंद्र कुशवाहा को हरवाया। इस बयान से पहले यादव का वोट भोजपुरी गायक पवन सिंह के साथ जाता दिखाई दे रहा था, लेकिन प्रधानमंत्री के बयान के बाद यादवों के वोट गठबंधन से भाकपा माले के उम्मीदवार राजाराम के साथ चले गए।

कांग्रेस के सौ सांसद हो जाएंगे

लोकसभा चुनाव के नतीजों में कांग्रेस अभी 99 के फेर में फंसी दिख रही है। उसकी गाड़ी 99 सीटों पर अटक गई है। ऊपर से राहुल गांधी वायनाड और रायबरेली दो सीटों से जीते हैं। इनमें से एक सीट से उन्हें इस्तीफा देना होगा, जिससे पार्टी की कुल संख्या 98 हो जाएगी। पार्टी को उम्मीद थी कि उसके सांसदों संख्या तीन अंकों में पहुंच जाएगी। नतीजों में ऐसा नहीं हुआ लेकिन जल्दी ही कांग्रेस के सांसदों की संख्या सौ का आंकड़ा छू लेगी। कांग्रेस के खाते मे एक सीट महाराष्ट्र से और दूसरी सीट बिहार से जुड़ेगी। गौरतलब है कि बिहार के नेता पप्पू यादव ने अपनी जन अधिकार पार्टी का कांग्रेस मे विलय कर दिया था। हालांकि लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव की जिद के चलते कांग्रेस उनको टिकट नहीं दे पाई थी। इसके बाद वे निर्दलीय चुनाव लड़े और जीत गए। उन्होंने ऐलान कर दिया है कि वे जल्दी की कांग्रेस का हिस्सा बन जाएंगे। इसी तरह महाराष्ट्र की सांगली सीट से कांग्रेस के बागी उम्मीदवार विशाल पाटिल निर्दलीय चुनाव लड़े थे। बड़ी जद्दोजहद के बाद वह सीट उद्धव ठाकरे की शिव सेना के खाते में गई थी। लेकिन विशाल पाटिल पांच लाख 71 हजार वोट लेकर भाजपा के संजय पाटिल से जीत गए है। उद्धव के उम्मीदवार को सिर्फ 60 हजार वोट मिले। विशाल पाटिल ने भी जल्दी ही कांग्रेस में शामिल का ऐलान कर दिया है। इस तरह एक सीट से राहुल के इस्तीफ़े के बाद भी कांग्रेस के सांसदों की संख्या 100 हो जाएगी।

झारखंड में भाजपा का आदिवासी नेतृत्व फेल

भाजपा ने झारखंड में पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री का प्रयोग किया था। 2014 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उसने रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाया था। यह प्रयोग काफी हद तक सफल रहा था। हालांकि 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा हार गई और खुद रघुवर दास भी हार गए। लेकिन उसे 25 सीटें मिली थीं और सबने माना था कि कुछ सीटों पर टिकट का फैसला गलत हुआ और आजसू के साथ तालमेल नहीं करना भाजपा को भारी पड़ गया। इसलिए भाजपा ने अपने प्रयोग की दिशा बदली। 2019 की हार के बाद पार्टी ने बाबूलाल मरांडी की वापसी कराई। उन्हें विधायक दल का नेता और पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। इस बार लोकसभा चुनाव में पार्टी के पास उनका आदिवासी चेहरा था और आजसू से तालमेल था, तब भी पार्टी सभी पांच आदिवासी आरक्षित सीटों पर हार गई। ऐसा नहीं है कि भाजपा ने आदिवासी राजनीति साधने के लिए सिर्फ बाबूलाल मरांडी पर भरोसा किया था। उनके साथ-साथ राज्य के मुख्यमंत्री रहे और केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा को भी पार्टी ने बहुत तरजीह दी। लेकिन वे खुद अपनी सीट भी हार गए। तीसरे आदिवासी नेता मधु कोड़ा को भाजपा ने पार्टी में शामिल कराया था और उनकी पत्नी गीता कोड़ा को टिकट दिया गया। लेकिन गीता कोड़ा भी चुनाव हार गईं। झारखंड के सबसे बड़े आदिवासी नेता शिबू सोरेन की बहू और तीन बार की विधायक सीता सोरेन को भाजपा में शामिल करके दुमका से चुनाव लड़ाया गया लेकिन वे भी हार गईं।

तेजस्वी ने अखिलेश से सबक़ नहीं लिया

लोकसभा चुनाव में जिस तरह बड़ी मेहनत के बावजूद आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल को निराशा हाथ लगी है, उसी तरह बिहार में राष्ट्रीय जनता दल को भी निराशा मिली है। तेजस्वी यादव ने अपनी रीढ़ की हड्डी में समस्या और कमर दर्द के बावजूद प्रचार में बड़ी मेहनत की, लेकिन इसका फायदा उनकी पार्टी को नहीं मिला है। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल सिर्फ चार सीटों पर सिमट गया। हालांकि पिछली बार उनकी पार्टी का खाता नहीं खुला था। लगातार दो बार से हार रहीं उनकी बहन मीसा भारती पाटलीपुत्र सीट से चुनाव जीत गईं। लेकिन उनकी पार्टी इससे बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद कर रही थी। उनके गठबंधन में सबसे ज्यादा फायदा सीपीआई एमएल यानी भाकपा माले को हुआ। 

1989 के बाद पहली बार उसके दो सांसद चुने गए। कांग्रेस भी एक से तीन सीट पर पहुंच गई है। अब सवाल है कि गठबंधन का फायदा राजद को क्यों नहीं हुआ? इसकी एक वजह तो साफ है कि तेजस्वी यादव ने अखिलेश यादव से सबक नहीं लिया। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने अपने कोटे की 62 में से सिर्फ पांच सीटों पर यादव और बाकी सीटों पर उन्होंने गैर यादव पिछड़ी जातियो को बड़ी संख्या में टिकट दिए। जबकि तेजस्वी ने बिहार में अपने कोटे की 28 में से 11 सीटों पर यादव उम्मीदवार उतार दिए। इनसे बची हुई सीटों पर ही उन्होंने गैर यादव उम्मीदवारों को तरजीह दी। इससे उनका ए टू जेड जातियों का समीकरण नहीं बन सका। 

हिमाचल में कांग्रेस की सरकार सुरक्षित

कांग्रेस को सिर्फ लोकसभा चुनाव में ही अच्छी सफलता नहीं मिली है, बल्कि हिमाचल प्रदेश में उसकी सरकार भी सुरक्षित हो गई है। हालांकि राज्य की सभी चारों लोकसभा सीटों पर उसे हार का सामना करना पड़ा है लेकिन विधानसभा की छह सीटों पर हुए उपचुनाव में उसने चार सीटें जीत ली है। गौरतलब है कि कांग्रेस के छह विधायकों ने राज्यसभा चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार हर्ष महाजन को वोट दिया था। क्रॉस वोटिंग के आरोप मे कांग्रेस ने विधानसभा स्पीकर से शिकायत कर इन सभी छह विधायको की सदस्यता समाप्त करा दी थी। बाद में ये सभी छह विधायक भाजपा में शामिल हो गए और भाजपा ने उपचुनाव में इन सभी को उम्मीदवार भी बना दिया। भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े छह पूर्व कांग्रेसी विधायकों में से चार चुनाव हार गए। कांग्रेस ने लाहौल स्पीति, सुजानपुर, गरगेट और कुटलेहर सीट जीत ली। भाजपा को सिर्फ बरासर और धर्मशाला सीट मिली।

अभी विधानसभा का जो गणित उसमे कांग्रेस के 34 और भाजपा के 25 विधायक है। तीन निर्दलीय विधायकों का इस्तीफा मंजूर हो गया है। इसका मतलब है कि छह सीटों के नतीजे आने के बाद विधानसभा की संख्या 65 की होगी, जिसमें बहुमत का आंकड़ा 33 का होगा। चार सीटों पर जीत के बाद कांग्रेस की संख्या 38 हो गई है, जबकि भाजपा के पास 27 सीटें हैं। इस तरह राज्य की सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार सुरक्षित हो गई है।

आम आदमी पार्टी, ढाक के तीन पात

लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के अलावा सभी विपक्षी पार्टियों को बड़ा फायदा हुआ। कांग्रेस तीन अंकों तक पहुंच रही है तो ममता बनर्जी ने कमाल का प्रदर्शन किया। सबसे शानदार प्रदर्शन उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का रहा। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और शरद पवार की पार्टी ने भी अच्छा प्रदर्शन किया। लेकिन आम आदमी पार्टी को वैसी सफलता नही मिली, जिसकी उम्मीद की जा रही थी। उसे सिर्फ तीन सीटें मिली और वह भी पंजाब में। आम आदमी पार्टी को दिल्ली, हरियाणा और गुजरात में कोई कामयाबी नहीं मिली। गौरतलब है कि इन तीनों राज्यों में वह कांग्रेस के साथ तालमेल करके लड़ी थी। केजरीवाल ने अंतरिम जमानत पर जेल से बाहर आकर खूब प्रचार किया। उन्होंने ही यह नैेरेटिव बनाया कि नरेंद्र मोदी अपने लिए नहीं, बल्कि अमित शाह के लिए वोट मांग रहे हैं। उन्होंने ही यह दांव चला कि अगर भाजपा जीती तो उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छुट्टी हो जाएगी। इसका असर उत्तर प्रदेश की राजनीति में देखने को मिला। समाजवादी पार्टी को इसका फायदा हुआ। लेकिन खुद उनकी अपनी पार्टी को कोई फायदा नहीं मिल सका। वे पहले चुनाव यानी 2014 का भी प्रदर्शन नहीं दोहरा सके। उस समय उनके चार सांसद जीते थे। उसके बाद उनकी पार्टी एक सीट पर आ गई और इस बार तीन सीट पर रही। कुल मिला यही जाहिर हुआ कि राज्य के चुनाव में तो लोग उनकी पार्टी को वोट देते हैं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में ज्यादा तवज्जो नहीं देते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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