मानसिक स्वास्थ्य को जाति के ज़रिये समझना
भारत में ऐसे चिकित्सक कम ही मिलते हैं जो मानसिक स्वास्थ्य और जाति के इंटरसेक्शन पर काम करते हों। जहाँ तक हमें पता है, सिर्फ़ एक संगठन 'ब्लू डॉन' है, जो इस कमी को संबोधित करते हुए सीमित संसाधनों की बात करता है। स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचने में इतना गंभीर अंतर न सिर्फ़ चिकित्सकों की कमी दर्शाता है, बल्कि उस हक़ीक़त को भी उजागर करता है जहाँ 1500-5000 रुपये प्रति घंटा लेने वाले मानसिक चिकित्सक जाति-आधारित संरचनात्मक उत्पीड़न को अनदेखा करते हैं। विभिन्न असमानताओं के कारण एक दलित मरीज़ के लिये समान जातीय पृष्ठभूमि से आने वाले चिकित्सक तक पहुँचने की संभावनाएं बहुत कम हैं। 2015 में हुआ एक विश्लेषण बताता है कि हाशियागत जातियाँ लंबे समय तक रहने वाली बीमारियों, ख़ास तौर पर मानसिक स्वास्थ्य की बीमारियों के प्रति अतिसंवेदनशील रहती हैं। इसके अतिरिक्त, तेज़ी से पूंजीवादी होते समाज में, जहाँ अन्याय लगातार बढ़ रहा है, वहाँ मानसिक स्वास्थ्य को आसानी से सहयोजित कर बेचा जा रहा है। जिसे कुछ लोगों ने 'मैकमाइंडफ़ुलनेस' का नाम दिया है।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य की मौजूदा रूपरेखा उच्च जातीय और उच्च वर्गीय दृष्टिकोण से पीड़ित है। यह हाशियागत समुदायों की मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच को काफ़ी हद तक कम करता है। एक अनुशासन के रूप में, मनोचिकित्सा अपनी सामाजिक हक़ीक़तों के प्रति काफ़ी हद तक 'कल्चर ब्लाइंड' रहती है। (footnote) मनोचिकित्सा की एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से यह धारणा पैदा हो गई है कि कुछ लोग ही मानसिक स्वास्थ्य की तकलीफ़ों से पीड़ित हैं। मौजूदा चिकित्सा व्यावसायिकों के तरीक़ों में दलित जीवन को समझने के लिए ज़रूरी अनुभववाद की कमी है। वह हमारे आधुनिक समय की व्यवस्थित और क्रूर दुर्बलता को पैदा करने वाली सामाजिक संरचना को न तो समझते हैं, न इसके लिए प्रशिक्षित होते हैं। आज के संदर्भ में एक अंतर्विभाजक दृष्टिकोण की ही प्रधानता है क्योंकि उत्पादकता के अनुकूलन के लिए नवउदारवादी ज़रूरत बढ़ रही है।
कम आमदनी वाले ज़्यादातर समुदाय ऐतिहासिक तौर पर उत्पीड़ित समूहों से आते हैं जो अपने मानसिक स्वास्थ्य का बहुत कम ध्यान रख पाते हैं। इसलिए उनके पास स्वास्थ्य मुश्किलों को कम करने वाले प्रभावशाली संसाधन नहीं रहते हैं। यहाँ तक कि उच्च शिक्षा प्राप्त और वेल-प्लेस्ड दलितों की भी ऐसी स्वास्थ्य सेवा और थेरेपी तक पहुँच नहीं है, जिसकी जड़ें हमारी सामाजीक-आर्थिक हक़ीक़तों में हैं। किसी भी चिकित्सक के दृष्टिकोण में हमारे बीते अनुभवों की अभिव्यक्ति ढूंढ पाना अत्यंत दुर्लभ है। जाति के मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के साथ रोज़मर्रा के संबंधों को जातीय अवरोधों की सतही समझ के ज़रिये आसानी से समझा जा सकता है।
सबसे पहले, जब हम थेरेपी की महँगाई और दुर्गमता को पार कर अगले पड़ाव पर आते हैं, हर चिकित्सक के सामने अपना ट्रौमा बयान करने का एक मुश्किल सफ़र तब तक चलता है जब तक जाति के प्रति एक संवेदनशील मानसिक चिकित्सक न मिल जाए। यह प्रक्रिया थका देने वाली होती है, और रोज़मर्रा की दिक़्क़तों से बचे रहने के लिए लगातार एक मानसिक जंग लड़ना आसान नहीं है, सिर्फ़ इसलिए कि आप भेदभाव को उलट नहीं सकते। यह सफ़र अक्सर बेहद अकेला महसूस करवा देता है, और अगर इसका कोई इलाज है भी, तो निजी तौर पर उसकी काफ़ी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है क्योंकि समस्या संरचनात्मक और निरंतर है। दूसरा, सज़ा देने वाली न्यायिक प्रणाली भी हाशिये पर रह रहे लोगों के जीवन के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करती है, जो लगातार इन सब संस्थानों में भी किनारे पर रहने को मजबूर हैं। उदाहरण के तौर पर, मेंटल हेल्थ केयर एक्ट, 2017 पूरी तरह से अनदेखा पड़ा है, क्योंकि इस बात की अन्तर्विभाजक समझ ही नहीं है कि मानसिक स्वास्थ्य अति संवेदनशील समुदायों के लिए सबसे ज़रूरी क्यों है। आरक्षण नीतियों को ख़त्म करने की निरंतर कोशिशों या शेड्यूल्ड कास्ट एंड शेड्यूल्ड ट्राइब (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज़) एक्ट, 1989 की कठोर धाराओं को ख़त्म करने से यही ज़ाहिर होता है कि कैसे क़ानूनी संस्थान जातिवादी भेदभाव को बढ़ावा देते हैं और उत्पीड़न के लिए नए आधार बनाते हैं।
इस परिस्थिति का कारण 'क्लीनिक' की सैद्धांतिक रूपरेखा में मौजूद है। मनोवैज्ञानिक शुश्रुत जाधव के मुताबिक़, क्लीनिक का नज़रिया हाशियागत जातियों के लोगों के मानसिक स्वासथा मुद्दों के प्रति शत्रुतापूर्ण और अनुचित बनी हुई है। वे एक बीमारी के सांस्कृतिक निर्माण के ज़रिए समझाते हैं कि कैसे कई बार दवाओं के ज़रिये इलाज और असल मुद्दे बिलकुल विपरीत दिशा में खड़े मिलते हैं। असम में वन्यजीवों और मनुष्य के टकराव की वजह से लगातार हो रही मौतों पर उनके अनुसंधान के ज़रिये इसे बेहतर समझा जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों और जंगल के पास रहने वाले समुदाय बेघर होने, शराब की लत लगने और अन्य मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों से ग्रसित होने के ख़तरे पर रहते हैं। इसकी वजह सिर्फ़ रहने के लिए पर्याप्त जगह का न होना, और आजीविका के लिए पर्याप्त अवसरों का न होना ही नहीं है, बल्कि हाथियों के कुचलने से हो रही मौतें भी इसका बड़ा कारण हैं। जंगल के लगातार कम हो रहे क्षेत्रफल की वजह से हाथियों के झुंड भी अधिक आक्रामकता से पीड़ित हैं। इसलिए, ज़मीन पर रहे हाशियागत समुदायों से तीव्र टकराव पैदा होता है। जब एक हाथी ने राजू की झोपड़ी को कुचल दिया और उनके परिवार को मार दिया, तब राजू गंभीर आघात और बीमारी का शिकार हो गए। जब राजू के मेडिकल रिकॉर्ड की जांच की गई, तो पता चला कि डॉक्टरों ने उनकी इस गंभीर मानसिक बीमारी का उल्लेख नहीं किया था, जिसके कारण इस मसले का समय पर निदान और इलाज नहीं किया जा सका। पूंजीवाद और विकास के दोहरे मेल से बने कई ऐसे मुद्दे प्रतिदिन हाशियागत समुदायों के न सिर्फ़ सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों बल्कि बुनियादी मानवाधिकार, ख़ास तौर पर मानसिक स्वास्थ्य का उत्पीड़न करते हैं।
एक और उदाहरण यह है कि जब संरचनात्मक हिंसा होती है, तब दलित महिलाओं के पास आर्थिक स्थिरता और आधार संरचना की कमी की वजह से उपचार का सहारा नहीं रहता। और इसलिए वह थोड़ा सा आराम करने, ध्यान लगाने या कुछ पढ़ने जैसे माइंडफ़ुलनेस के फ़रमानों का इस्तेमाल कर अपने मानसिक स्वास्थ्य मसलों से पूरी तरह निपटने में असमर्थ होती हैं। उपचार के लिए उनके पास सीमित रास्ते हैं - या तो काउंसलिंग या फिर एंटी डिप्रेसेंट दवाइयाँ; यह दोनों ही यह समझने में लगातार नाकाम साबित होते हैं कि कैसे एक ही हाशियागत व्यक्ति कई पहलुओं में हाशिये पर हो सकता है। चिकित्सीय तकनीक इस धारणा पर काम करती है कि परेशानी का कारण व्यक्ति के अंदर ही है। हालांकि, एक व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य अलग-अलग तरह के प्रणालीगत भेदभाव पर भी निर्भर करता है। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य की रूपरेखा उन प्रणालीगत जातीय हक़ीक़तों जैसी ही है, जिसका सामना एक दलित व्यक्ति प्रतिदिन करता है।
इस तरह के फ़ासले को दूर करने वाले किसी भी उपचार के लिए, थेरेपी का सिर्फ़ व्यक्ति-केंद्रित होना फ़ायदेमंद नहीं हो सकता। इसलिए, समुदाय और पीढ़ीगत भेदभाव और ट्रौमा को संबोधित करने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है, जो न्याय, पहुँच और गरिमा में निहित एक उपाय तैयार कर ऐसा कर सके। दुनिया भर में उपचार का प्रमुख ज़ोर, इसकी कार्यप्रणाली और इसके प्रति दृष्टिकोण सांस्कृतिक रूप से अनुकूल चिकित्सा के बजाय दवाओं पर निर्भर रहता है। ज़्यादातर मामलों में, व्यक्ति की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति की जांच किए बिना ही एंटी डिप्रेसेंट दवाइयों से इलाज शुरू कर दिया जाता है, जिसके साथ एंटी साइकोटिक दवाइयाँ भी दी जाती हैं। साइकोमेट्रिक टेस्टों और मूल्यांकन की तकनीकों में भारतीय समाज के कई महत्वपूर्ण पहलुओं जैसे जाति का कोई संदर्भ नहीं है। यह हैरानी की बात नहीं है कि क्लीनिक के अंदर असंतोष लगातार बढ़ रहा है, ख़ास तौर पर ग्रामीण, अल्पसंख्यक या ग़रीब पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों के संदर्भ में। इसके परिणामस्वरूप, दलितों, महिलाओं और क्वीयर लोगों के संदर्भ में ग़लत निदान की घटनाएँ असामान्य नहीं हैं। हाल में, थेरेपी के वैकल्पिक तरीक़ों में आई वृद्धि ने आर्ट थेरेपी, डांस मूवमेंट थेरेपी और ऐसी अन्य विधियों को जगह दी है जो 'शरीर' पर केंद्रित होती हैं। हालांकि, ये भी हाशियागत लोगों के प्रति कोई सरोकार नहीं रखते हैं। हमें अभी तक ऐसे दृष्टिकोण तक पहुँचना बाक़ी है जो दलितों और अन्य हाशियागत समुदायों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देता हो।
वैज्ञानिक स्थापना ने अभी तक मानसिक स्वास्थ्य को जाति-मुक्त(डी-कास्ट) करने के लिए एक वैकल्पिक देशज दृष्टिकोण तैयार करने की ओर ध्यान नहीं दिया है। जल्द ही इसकी शुरूआत करने की आवश्यकता है क्योंकि जाति सामाजिक हार और डिप्रेशन, एंग्ज़ाइटी, बीपीडी, पीटीएसडी, आत्महत्या और अन्य दीर्घकालिक बीमारियों के सबसे ख़तरनाक स्त्रोतों में से एक है। 'निम्न उत्पत्ति' में डूबी इन संस्कृति को विफल करने के लिए सामाजिक विज्ञान और मेडिकल दृष्टिकोण के बीच एक वास्तविक संवाद होना चाहिए। इस संवाद में व्यक्ति के आंतरिक सुधारों को परे रख सुरक्षित वातावरण तैयार करना चाहिए। स्वस्थ जीवन और दिमाग़ की खोज के बीच जाति को जानबूझ कर नज़रअंदाज़ अब मनोचिकित्सा के अभ्यास का बुनियादी नियम नहीं होना चाहिए।
आतिका सिंह एक कलाकार हैं। वह इस समय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से ऑर्टस एंड एस्थेटिक्स में पोस्टग्रेजुएशन कर रहीं हैं।
नोट : यह लेख TheLifeofScience.com के सीज़न 5 का हिस्सा है।
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