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सरकारी नौकरियों का हिसाब किताब बताता है कि सरकार नौकरी ही देना नहीं चाहती!

जब तक भारत का मौजूदा आर्थिक मॉडल नहीं बदलेगा तब तक नौकरियों से जुड़ी किसी भी तरह की परेशानी का कोई भी मुकम्मल हल नहीं निकलने वाला।
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फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

मुट्ठी भर लोगों की चमचमाती जिंदगी के अलावा भारत की बहुत बड़ी आबादी की कहानी का केंद्र बिंदु गरीबी है। बड़े-बड़े शहरों की आबादी का बड़ा हिस्सा मकानों को किराए पर देकर या किसी  दूसरे तरह के रोजगार का इंतजाम कर अपनी जिंदगी की गाड़ी चलाने के लिए पैसे का जुगाड़ कर लेता है। इसके अलावा भारत के ढेर सारे इलाके में बसने वाले नौजवानों की ज्यादातर आबादी के लिए सरकारी नौकरी मजबूरी भी बन जाती है और जरूरत भी।

आपका पहला सवाल होगा कि आखिरकार सरकारी नौकरी की तलाश करना मजबूरी क्यों है और जरूरत क्यों है?

एक बार आप खुद सोच कर देखिए कि जिनके घर परिवार की इतनी कमाई नहीं है कि वह अपने बच्चे को ढंग से पढ़ा पाए। प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए चार पांच साल तक महीने का 5 - 6 हजार रुपए का खर्चा उठा पाए। वैसे बच्चों के लिए जिंदगी में रोजगार पाने का विकल्प क्या है? हर दिन पेट दबा कर और मन मार कर सोने वाले बच्चे सरकारी नौकरी के अलावा किस तरह की नौकरी के बारे में सोच सकते हैं?

सरकारी नौकरी के अलावा जितने भी तरह के कामकाज के बारे में आप सोच सकते हैं, सोच कर देखिए। दुकान चलाने से लेकर के कोचिंग खोलने तक हर तरह के कामकाज के बारे में सोचिए। एक बार सोच कर देखिए कि जिस भारत में केवल 1 फ़ीसदी आबादी की महीने की कमाई 50 हजार रुपये से अधिक की है। उस भारत में कोई भी नौजवान किस तरह की उद्यमिता कर सकता है?

दो वक्त की रोटी के लिए दिन भर सोचने वाले परिवार का कोई लड़का या लड़की दुकान खोलने के बारे में सोच सकता हैं? कोचिंग खोलकर पढ़ाने के बारे में सोच सकता हैं? किसी स्टार्टअप का हिस्सा बन सकता है? या किसी भी तरह की उद्यमिता कर सकता हैं? इस तरह के तमाम कामों के बारे में सोचते जाइए। आपको जवाब मिलेगा कि वह ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता है। उसके पास इतनी पूंजी नहीं है कि वह अपनी जिंदगी को ले कर इतना बड़ा रिस्क उठाए।

अगर सभी इस तरह का रिस्क उठाने लगे तो उनमें से मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर बहुतों का असफल होना तय है। बहुतों के लिए कामयाब होना असंभव है। इसकी वजह साफ है कि 140 करोड़ की आबादी में उपभोक्ता वर्ग का हिस्सा महज 20 से 25 करोड़ है। भारत के 20 से 25 करोड़ लोग ही अपनी मर्जी के मुताबिक कुछ भी खरीद सकते हैं। बाकी की कमाई इतनी कम है कि उनके लिए सुबह शाम के दाल-भात का जुगाड़ करने का खर्च ही पहाड़ की तरह होता है।

ऐसे में बहुत बड़ी आबादी के लिए नौकरी करना ही एक विकल्प बचता है। प्राइवेट नौकरी में मिलने वाले चंद पदों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर पद जिंदगी भर गुलामी करने वाले पद हैं। सैलरी बहुत कम है। नौकरी की सुरक्षा नहीं है। सामाजिक सुरक्षा के नाम पर खानापूर्ति है। इस तरह के माहौल में गरीबी से पैदा होने वाली कई तरह की सीढ़ियों को पार करने के बाद 12वीं और ग्रेजुएशन की परीक्षा पास कर चुका विद्यार्थी यह सोचता है कि कुछ साल सरकारी नौकरी तलाशने में बीता देना अच्छा है बजाए कि प्राइवेट नौकरी का हिस्सा बनकर जिंदगी भर शोषणकारी माहौल में रहा जाए। सरकारी नौकरी से जुड़े इन सारी बातों को बताने का मतलब यह नहीं है कि सरकारी नौकरी में मौजूद खामियों पर भी सहमति जताई जा रही है। लेकिन इन बातों का मतलब यह है कि यह समझा जाए कि क्यों भारत जैसे गरीब मुल्क में सरकारी नौकरी के प्रति आकर्षण होना एक तरह की मजबूरी भी है और जरूरी भी।

जिंदगी चलाने के लिए ठीक-ठाक समझ विकसित हो जाए। ठीक-ठाक रोजगार मिल जाए। रोजगार के बदले ठीक-ठाक मेहनताना मिल जाए। बुढ़ापा सुरक्षित रहे। जैसी चिंताएं करना कोई गलत बात नहीं है बल्कि यह किसी भी लोक कल्याणकारी सरकार का कर्तव्य है कि वह अपने राज्य को ऐसी आर्थिक नीतियों में बांधकर चलाएं कि किसी को भी आर्थिक तंगी की वजह से गुलाम ना होना पड़े। इस विचार का मतलब यह है कि बुनियादी तौर पर सरकार का काम है कि काम मांगने वालों को रोजगार दे, रोजगार के बदले सही मेहनताना दे।

लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही है। सरकार ने ऐसा आर्थिक मॉडल अपना लिया है कि नौकरियां कम होती जा रही हैं। सरकार सरकारी नौकरियां देने से भाग रही है। ढेर सारे लोगों को काम नहीं मिल रहा है। जिन्हें काम मिल रहा है वह मामूली कीमत पर काम करने के लिए अभिशप्त हैं।

सरकारी रोजगार से जुड़े आंकड़ों पर थोड़ा विचार कीजिए। सरकार की तरफ से संसद में मार्च 2018 में यह आंकड़ा पेश किया गया कि केंद्र सरकार की नौकरियों के तकरीबन 6 लाख 84 हजार पद खाली हैं। साल 2020 में खाली पदों की संख्या समय बढ़ने के साथ कम होनी चाहिए थी। खाली पड़े पदों पर नियुक्तियां होनी चाहिए थी। लेकिन यह नियुक्तियां नहीं हुईं बल्कि 2 साल बाद दो लाख और बढ़ गईं। मार्च 2020 के संसद में पेश किए गए आंकड़े बताते हैं कि केंद्र सरकार के तकरीबन 8 लाख 72 हजार पद खाली हैं।

न्यूज़क्लिक पर छपे एक लेख में डेटा रिसर्चर पीयूष शर्मा बताते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार की तरफ से मिलने वाली नौकरियों में 60 लाख से ऊपर पद खाली पड़े हुए हैं। यहां पर भर्ती नहीं हो रही हैं। 60 लाख खाली पद तो तब है जब साल 2014 के बाद से मोदी सरकार ने सरकारी कंपनियों को बेचने की नीति बना ली है।

किसी ना किसी बड़ी सरकारी कंपनी को मोदी सरकार बेच रही है। अगर सरकारी कंपनियां न बिकती, प्राइवेटाइजेशन की नीति को पूंजीपतियों के मुनाफे की बजाय लोक कल्याण को ध्यान में रखकर खारिज किया जाता तो भारत में बेरोजगारी की परेशानी भीषण न होती। ज्यादातर परीक्षार्थियों को ठीक-ठाक सरकारी नौकरी मिल जाती। सरकारी नौकरियों की गिरती संख्या को इन आंकड़ों से समझा जा सकता है। साल 1994 में कुल औपचारिक क्षेत्र की नौकरियों के बीच सरकारी नौकरियों का हिस्सा तकरीबन 12 फ़ीसदी के आसपास हुआ करता था। 1994 से घटकर अब साल 2020 में यह हिस्सा 4% के आसपास पहुंच गया है। खुद अनुमान लगा कर देखिए कि कितनी सरकारी नौकरियां कम कर दी गई हैं।

साल 2018 के आर्थिक सर्वे का आंकड़ा कहता है कि भारत में तकरीबन 7 करोड़ 50 लाख के आसपास औपचारिक क्षेत्र की नौकरियां हैं। इनमें से महज डेढ़ करोड़ सरकारी नौकरियां हैं। यानी 140 करोड़ वाले हिंदुस्तान में सरकारी नौकरियों की संख्या महज डेढ़ करोड़ है।

इन नौकरियों पर केंद्र सरकार ने साल 2018 -19 के अपनी बजट में तकरीबन 3.23 लाख करोड रुपए खर्च किया था। यह भारत के कुल केंद्रीय बजट का तकरीबन 13 फ़ीसदी हिस्सा है। इसी तरह से केंद्र सरकार ने पेंशन के तौर पर तकरीबन 2.77 लाख करोड रुपए खर्च किए। यह भारत के कुल केंद्रीय बजट का 11 फ़ीसदी हिस्सा है।

इसी इसी तरह से राज्यों के बजट को खंगाल के देखने पर पता चलता है कि उत्तर प्रदेश की सरकार अपनी सरकारी कर्मचारियों पर बजट का 13.3 फ़ीसदी हिस्सा खर्च कर रही है और पेंशन पर तकरीबन 10 फ़ीसदी हिस्सा खर्च कर रही है। राजस्थान की सरकार अपने सरकारी कर्मचारियों पर अपने कुल बजट का तकरीबन 24 फ़ीसदी हिस्सा खर्च कर रही है। तमिलनाडु की सरकार कुल बजट का 20 फ़ीसदी हिस्सा खर्च कर रही है। इसी तरह से भारत के तमाम राज्य अपने बजट का तकरीबन 10 फ़ीसदी से अधिक हिस्सा सरकारी कर्मचारियों के वेतन पर खर्च कर रहे हैं। कमोबेश इतना ही खर्च पेंशन पर खर्च कर रहे हैं।

कहने का मतलब यह है कि सरकार की मौजूदा बजट का बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी नौकरियों के वेतन और पेंशन पर खर्च हो रहा है। इसीलिए सरकार इस नीति के मुताबिक भी चल रही है कि संविदा के आधार पर नौकरियां दी जाए। ताकि सैलरी कम देनी पड़े और पेंशन की झंझट से छुटकारा मिल जाए। चुनाव से पहले नेताओं की जुबान से नौकरियों का एलान का झांसा इस सच्चाई के पार नहीं जा पाता है। झांसा झूठ में तब्दील हो जाता है। जिसका असर नेताओं पर पड़ने की बजाए पटना और प्रयागराज में पढ़ रहे बच्चों पर पड़ रहा है।

असल बात यही है कि भारत ने अपना आर्थिक मॉडल इस तरीके से विकसित कर लिया है कि यहां सरकारी नौकरियां पहले से कम हो रही है। संसाधनों का बंटवारा इस तरह से हुआ है की ऊपर की 10 फ़ीसदी आबादी के अलावा नीचे की 90 फ़ीसदी आबादी का संसाधन छीन लिया गया है। जिससे बजट का ढांचा ही ऐसा बनता है कि कम सरकारी नौकरियां देने के बावजूद भी बजट का बहुत बड़ा हिस्सा नौकरी और पेंशन पर खर्च हो जाता है।

इस बीहड़ परेशानी का हल यही है कि सरकार लोक कल्याण के हिसाब से सोचे। प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्रियों की बात माने। राजकोषीय घाटे से ज्यादा महत्व सबको शिक्षा सबको रोजगार देने जैसे जीवन के बुनियादी जरूरतों को पूरा करे। हर मुमकिन ऐसी व्यवस्था बनाए कि लोगों को रोजगार मिले। रोजगार के लिए उचित मानदेय मिले। काम का माहौल ऐसा हो कि वह गुलामी की जिंदगी न लगे।

देश में लोग महत्वपूर्ण होते हैं। पहले लोग और उनकी जरूरतें आती हैं। उसके हिसाब से आर्थिक मॉडल बनता है। उसके हिसाब से बजट बनता है। अगर आर्थिक मॉडल ऐसा हो चला है जहां पर चंद लोगों के अलावा किसी का भला नहीं हो रहा है तो सबका भला करने के लिहाज से आर्थिक मॉडल को बदलने के बारे में सोचना चाहिए। भारत में रोजगार की समस्या का हल मौजूदा आर्थिक मॉडल के तहत सोचने से नहीं हो सकता।

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