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यूनिवर्सल बेसिक इनकम: क्यों है ज़रूरी और क्या हैं आपत्तियां?

भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा के सार्वभौमिक अधिकार को सुनिश्चित करने के बजाय, उदारवादी, पूंजीपतियों को बहुत ज़्यादा परेशान किए बिना UBI को संचालित करना चाहते हैं।
basic income

अनेक अर्थशास्त्री भारत के लिए एक ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम (UBI)’ की वकालत करते आए हैं। इस विचार को तो 2016-17 के आर्थिक सर्वे जैसे सरकारी दस्तावेजों तक में पेश किया गया है।

विचार और आपत्तियां:

बेशक, इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए व्यवहारिक प्रस्तावों में काफी भिन्नताएं रही हैं। जहां इस संबंध में कुछ प्रस्ताव इसकी वकालत करते हैं कि एक निश्चित आय स्तर के नीचे के सभी लोगों के पक्ष में, एक समान सार्वभौम हस्तांतरण किया जाए, वहीं कुछ अन्य प्रस्ताव अलग-अलग स्तर के हस्तांतरणों का पक्ष लेते हैं, जिनका स्तर इससे तय हो कि संबंधित व्यक्ति की माली हालत कितनी खराब है। फिर भी, इन सुझावों के पीछे परिकल्पना एक ऐसे समाज की है, जहां हर एक नागरिक को एक निश्चित दर्जे की बुनियादी न्यूनतम आय धन के रूप में हासिल हो और यह समुचित सरकारी हस्तांतरणों के ज़रिए सुनिश्चित किया जाए। इस तरह एक न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित किया जा सकेगा।

इस विचार को लेकर कुछ अवधारणात्मक आपत्तियां हैं, जिन्हें उक्त आर्थिक सर्वे में गिनाया भी गया है और उनका विस्तार से जवाब भी दिया गया है। ये आपत्तियां मुख्यत: दक्षिणपंथ की ओर आती हैं। इनमें सबसे पहली आपत्ति तो यही होती है कि इस तरह के हस्तांतरण तो कमाई के प्रयास को ही हतोत्साहित करते हैं। अगर कोई कमाई का प्रयास करे या नहीं करे, एक न्यूनतम आय तो हासिल हो ही जाने वाली है, तो वह कमाई करने का प्रयास करेगा ही क्यों? लेकिन, इस दलील में यह मानकर चला जा रहा होता है कि हम जिस समाज में रहते हैं, वहां किसी व्यक्ति की कितनी आय होती है, यह सिर्फ और सिर्फ उसके कमाई के प्रयास पर ही निर्भर करता है और इसलिए, इस प्रयास के अलावा कोई भी मदद, मिसाल के तौर पर यूनिवर्सल बेसिक इनकम के रूप में मदद, पूरी व्यवस्था को ही उलट-पुलट कर देगी। लेकिन, यह तो बात ही बेतुकी है क्योंकि सभी जानते हैं कि अमीर, बिना किसी प्रयत्न के ही कैसे भारी आमदनियां बटोरते हैं जबकि गरीब, बहुत ही थोड़ी कमाई लिए जी-तोड़ मेहनत करते हैं।

एक प्रगतिशील विचार

वास्तव में जॉन स्टुअर्ट मिल ने ही यह दर्ज किया था कि एडम स्मिथ के इस सिद्घांत के विपरीत कि सबसे कड़ी मेहनत की मांग करने वाले तथा सबसे ज़्यादा जोखिम वाले कामों में लगे मज़दूरों को कहीं बेहतर मज़दूरी मिलती है, जिससे उनके काम की अतिरिक्त श्रमसाध्यता के लिए क्षतिपूर्ति की जा सके, ऐसे कठिन कामों में लगे मज़दूर वास्तव में सबसे कम मज़दूरी पाने वाले मज़दूर होते हैं। ऐसी सूरत में एक यूनिवर्सल बेसिक इनकम, काम ही नहीं करने के लिए सिर्फ़ आय नहीं मुहैया करा रही होती है बल्कि सबसे गरीब मज़दूरों के मामले में, काम की हर एक इकाई के लिए, मज़दूरी की दर में बढ़ोतरी करने का ही काम करती है। इसके अलावा अगर किसी व्यक्ति को काम ही नहीं मिलता है, तो उसका बेरोज़गार बने रहना व्यक्तिगत रूप से कोई उसका अपना दोष तो होता नहीं है; यह तो उस सामाजिक व्यवस्था का किया हुआ होता है, जिसके अंतर्गत उसे रहना पड़ रहा होता है।

यह दलील कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम की व्यवस्था कमाई के प्रयत्न को ही हतोत्साहित करने का काम करेगी, ठीक इस विचार जैसा ही है कि मज़दूरी में बढ़ोतरी से तो लोग आलसी हो जाते हैं। इस दक्षिणपंथी, आपूर्ति-पक्षीय प्रस्थापना का उदारपंथी अमरीकी अर्थशास्त्री, जेके गालब्रिथ ने इसका इशारा कर के मजाक उड़ाया था कि इसका मतलब तो यह हुआ कि, ‘अमीर, ज़्यादा कमाई हो तो अच्छा काम करते हैं और गरीब, कम कमाई हो तो अच्छा काम करते हैं।’ यह नैतिक रूप से गलत भी है और विश्लेषणात्मक रूप से पूरी तरह से निराधार भी।

उदारवादी संकल्पना की सीमाएं

एक यूनिवर्सल बेसिक इनकम का विरोध करने के इस दक्षिणपंथी रुख के खिलाफ, इस प्रस्ताव का रखा जाना अपने एक आप में एक प्रगतिशील, उदारपंथी तकाजे का प्रतिनिधित्व करता है। फिर भी, इस प्रस्ताव के रूप में जो कुछ पेश किया जा रहा है उसके साथ ठीक वही समस्या है, जो समस्या आम तौर पर उदारपंथी रुख के साथ है। और यह समस्या संक्षेप में यह है कि वे ऑमलेट बनाना भी चाहते हैं, लेकिन अंडों को तोड़ना भी नहीं चाहते हैं। यह ऐसा रुख है जो पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में ही काम करता है; वह इस व्यवस्था को मेहनतकश जनता के लिए कहीं ज़्यादा मानवीय तो बनाना चाहता है, लेकिन पूंजीपतियों को ज़्यादा नाखुश भी नहीं करना चाहता है। इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम के रूप में जिस राशि के हस्तांतरण की बात की जाती है, हमेशा बहुत ही मामूली होती है। मिसाल के तौर पर 2016-17 के आर्थिक सर्वे में यह गणना की गयी थी कि सबसे उपरी दर्जे की 25 फ़ीसदी आबादी को छोड़कर, शेष सब के हिस्से में, 2016-17 की कीमतों पर कुल 7620 रूपये सालाना के हस्तांतरण पर, देश के जीडीपी का कुल 4.9 फ़ीसदी खर्च होगा। अगर 2011-12 में, 2011-12 की कीमतों पर इसके तुल्य राशि नीचे से 75 फ़ीसदी आबादी को मुहैया करायी गयी होती, तो उसने संबंधित वर्ष में गरीबी को घटाकर आबादी के कुल 0.5 फ़ीसदी तक सीमित कर दिया होता यानी करीब-करीब खत्म ही कर दिया होता। बहरहाल, आर्थिक सर्वे तिर्यक ढंग से यह इशारा करता है कि सरकार फिलहाल जो अलग-अलग सब्सीडियां देती है, उनमें कटौती कर के इतने संसाधन जुटाए जा सकते हैं।

इस गणना के साथ दो स्पष्ट समस्याएं हैं। पहली तो यही कि 2011-12 में गरीबी की वास्तविक रेखा, जिस पर खुद योजना आयोग ने आवश्यक कैलोरी आहार जोड़े जाने की न्यूनतम लागत का माप किया था, जो अनुमान अपनाया गया था उससे करीब-करीब 50 फ़ीसदी ज़्यादा गरीब दिखाती थी। इसलिए, अगर सरलता के लिए हम यह मान लेते हैं कि ऊपर बताए गए लक्ष्य को हासिल करने के लिए, गरीबों के पक्ष में हस्तांतरण में आवश्यक अनुपात में बढ़ोतरी कर दी जाती, तो उसके लिए जीडीपी के 4.9 फ़ीसदी की नहीं, करीब 7.5 फ़ीसदी की ज़रूरत पड़ी होती। दूसरे, अगर इन हस्तांतरणों के लिए वित्त, पहले से दी जा रही सब्सीडियों में ही कटौतियों से जुटाया जाना था, तो इस तरह के वित्त पोषण से चीजों के और ज़्यादा महंगे हो जाने के चलते, उस सूरत में और भी ज़्यादा हस्तांतरण करने की ज़रूरत होती। संक्षेप में यह कि आर्थिक सर्वे में दिया गया आंकड़ा बहुत ही अपर्याप्त रहा होता। यूनिवर्सल बेसिक इनकम के दूसरे सुझाव जाहिर है कि अपने दायरे में, इसके मुकाबले कहीं कम महत्वाकांक्षी हैं।

सार्वभौमिक अधिकारों का रास्ता

बहरहाल, एक मुद्दा और भी ज़्यादा निर्णायक है। अगर हम यह भी मान लें कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम को एक संसदीय प्रस्ताव के ज़रिए लागू कराया जाएगा और इसके ज़रिए यह सुनिश्चित किया जाएगा कि सरकार एक निश्चित, कीमतों के साथ वृद्घिशील हस्तांतरण गरीबों के पक्ष में हर साल करेगी और इस वादे से मुकरेगी नहीं (जिस तरह इस समय मगनरेगा के मामले में मुकर रही है), सरकार सामान्य तौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य तथा इसी प्रकार की अन्य मदों में अपने खर्चे में कटौती करने के ज़रिए ही यह हस्तांतरण करेगी। इसका अर्थ यह होगा कि लोगों के हाथ में, सरकार के नकद हस्तांतरण के बल पर कुछ ज़्यादा पैसा तो आएगा, लेकिन उनके लिए न तो उपयुक्त सरकारी स्कूल होंगे जिनमें अपने बच्चों को पढ़ने भेज सकेंगे और न उपयुक्त अस्पताल होंगे जिनमें वे बीमारी में अपने परिवारीजनों को भर्ती करा सकेंगे। और अगर वे निजी स्कूलों तथा निजी अस्पतालों की शरण लेते हैं तो हस्तांतरित की जानी वाली राशियां, जो इस पूर्व-धारणा के आधार पर कीमतों से जोड़ी जा रही होंगी कि लोग मालों तथा सेवाओं के उतने ही बड़े बंडल का उपयोग कर पाएंगे जितने का आधार वर्ष में कर रहे होंगे, वास्तविक मूल्य के लिहाज़ से काफी बौनी रह जाएंगी। दूसरे शब्दों में वित्त-पोषण की प्रक्रिया से ही, वास्तविक मूल्य के पैमाने से यूनिवर्सल बेसिक इनकम मुहैया कराने के बुनियादी लक्ष्य को, भीतर से तोड़ा जा रहा होगा।

इसलिए, अगर सार्वभौम न्यूनतम आय को एक सार्वभौम अधिकार के तौर पर मान भी लिया जाए, जो कि सबको हासिल होगा और उससे सरकार के पीछे हटने की कोई गुंजाइश ही नहीं हो, तब भी इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार द्वारा पैसों का जो हस्तांतरण किया जाएगा, वह वास्तविक रूप से अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएगा। इसका अर्थ यह हुआ कि पैसे के रूप में सार्वभौम न्यूनतम आय के नाम पर अधिकार कायम करने के मुकाबले कहीं बेहतर होगा कि कानून के ज़रिए कुछ अलग-अलग अधिकारों को सुनिश्चित किया जाए, जैसे मुफ्त गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार, मुफ्त गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य का अधिकार, भोजन का अधिकार, रोज़गार का अधिकार और एक पर्याप्त गैर-अंशदान संचालित वृद्घावस्था पेंशन तथा विकलांगता सहायता का अधिकार। दूसरे ढंग से कहें तो वास्तविक अर्थ में सार्वभौम न्यूनतम आय का अर्थ संभवत: इसके सिवा दूसरा नहीं हो सकता है कि इसके घटक के रूप में कुछ खास अधिकारों को सुनिश्चित किया जाए, जैसे स्वास्थ्य का अधिकार, शिक्षा का अधिकार तथा ऐसे ही अन्य अधिकार।

वास्तविक कल्याणकारी राज्य उदारवादी कल्पना से बाहर

इस तरह यूनिवर्सल बेसिक इनकम का विचार, अपने आप में सराहनीय होते हुए भी, अपने वर्तमान रूप में बिल्कुल निरर्थक है। अगर इसकी व्याख्या कुछ निश्चित नकदी हस्तांतरणों के रूप में की जाती है, ये हस्तांतरण चाहे समान हों या फिर अलग-अलग संस्तरों के लिए अलग-अलग हों, तो इससे अनिवार्य रूप से यूनिवर्सल बेसिक इनकम हासिल नहीं होगी, जबकि ऐसी आय सुनिश्चित करना ही इसका लक्ष्य होगा। दूसरी ओर, अगर वास्तविक रूप में एक सार्वभौम न्यूनतम आय सुनिश्चित करने का विचार हो, तो इसे वास्तविक अर्थ तभी मिल सकता है, जब इसके तहत कुछ खास अधिकारों को, जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा तथा इसी तरह के अन्य अधिकारों को सुनिश्चित किया जाए और सरकार द्वारा इन अधिकारों को मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी स्वीकार की जाए। अगर भारत को एक सचमुच कल्याणकारी राज्य स्थापित करना है, तो उसे हर एक व्यक्ति के लिए इन अधिकारों की गारंटी करनी होगी। लेकिन, उसके लिए आर्थिक सर्वे में जो सुझाया गया है, उससे कहीं ज़्यादा खर्चा करने की ज़रूरत होगी।

मिसाल के तौर पर यह अनुमान लगाया गया है कि पीछे हम जिन पांच सार्वभौम अधिकारों का ज़िक्र कर आए हैं उन्हें सुनिश्चित करने के लिए यानी भोजन का अधिकार (जिससे हर एक व्यक्ति को गरीबी की रेखा के नीचे की आबादी के बराबर की हकदारी मिल सके), रोज़गार का अधिकार (या अगर रोज़गार मुहैया नहीं कराया जा सकता है तो उसके बदले में एक वैधानिक रूप से निर्धारित मज़दूरी पाने का अधिकार), राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा के ज़रिए मुफ्त गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य-रक्षा का अधिकार, मुफ्त गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार (कम से कम स्कूली शिक्षा पूरी करने के स्तर तक) और एक सार्वभौम, गैर-अंशदान-संचालित वृद्घावस्था पेंशन तथा विकलांगता सहायता का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए, इन आइटमों पर बजट में पहले से जो खर्च किया जा रहा है उसके ऊपर से, सकल घरेलू उत्पाद का 10 फ़ीसदी और खर्च करने की ज़रूरत होगी। इतनी राशि खर्च करने के लिए, सरकार को जीडीपी के 7 फ़ीसदी के बराबर अतिरिक्त कर राजस्व जुटाना होगा क्योंकि इस अतिरिक्त 7 फ़ीसदी को खर्च करने से ही जीडीपी में जो बढ़ोतरी होगी, उससे कर राजस्व में 3 फ़ीसदी की बढ़ोतरी तो अपने आप ही हो रही होगी।

यह 7 फ़ीसदी अतिरिक्त राजस्व जुटाना किसी भी तरह से मुश्किल नहीं है बशर्ते सरकार धनवानों पर कर लगाने के लिए तैयार हो। सच तो यह है कि सबसे धनी 1 फ़ीसदी आबादी पर सिर्फ दो कर लगाना -2 फ़ीसदी के हिसाब से संपत्ति कर और 33.33 फ़ीसदी विरासत (इन्हेरिटेंस) कर लगाना - ही, इसके लिए काफी होगा कि देश में एक कल्याणकारी राज्य कायम किया जाए, जिसमें उक्त पांच बुनियादी आर्थिक अधिकारों की गारंटी होगी।

लेकिन, यह भारत में एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना को, पूंजीवादी व्यवस्था के बूते से करीब-करीब बाहर की ही चीज़ बना देता है और इसलिए, उदारवादी अर्थशास्त्रियों की कल्पना से भी बाहर की चीज़ बना देता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Universal Basic Income: Making Omelette Without Breaking Egg?

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