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उत्तर प्रदेश: पूर्वांचल में पहुंची किसान आंदोलन की आवाज़ें, सरकार में घबराहट 

किसान आंदोलनों की धमक से उत्तर प्रदेश की योगी सरकार खासी बेचैन है। पूर्वांचल के उन किसानों के मन में भी अब खदबदाहट होने लगी है जो राजनीतिक चौहद्दी के बाड़े में बंधकर मूक दर्शको की तरह सिर्फ तमाशा देख रहे थे। किसानों को समझ में आने लगा है कि बिना संशोधन के तीनों नए कृषि कानून लागू कर दिए गए तो उनकी बर्बादी तय है।
तीनों कृषि कानूनों के विरुद्ध मार्च निकालते पूर्वांचल के किसान
तीनों कृषि कानूनों के विरुद्ध मार्च निकालते पूर्वांचल के किसान

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में मोदी सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ स्वतः स्फूर्त आवाजें उठनी शुरू हो गई हैं। ये आवाजें अब सत्ता के गलियारों में भी पहुंचने लगी हैं, जिसकी धमक से योगी सरकार काफी बेचैन है। अब उन किसानों के मन में अपने हितों को लेकर खदबदाहट होने लगी है जो राजनीतिक चौहद्दी के बाड़े में बंधकर खामोशी के साथ तमाशा देख रहे थे। किसानों को एहसास हो गया है कि अगर बिना संशोधन के तीनों नए कृषि कानून लागू कर दिए गए तो उनकी बर्बादी तय है।

अगस्त क्रांति के दिन मऊ जिले के घोसी कस्बे में किसानों ने पैदल मार्च का अलार्म बजाया तो योगी सरकार की नींद उड़ गई। नौ अगस्त को किसानों ने पैदल मार्च शुरू किया तो भारी पुलिस फोर्स ने उन्हें घेर लिया।

आंदोलनकारी किसान पैदल मार्च निकालकर अन्न उपजाने वालों को तीनों नए कृषि कानूनों के दुष्परिणाम के बारे में नफा-नुकसान बताना चाहते थे। किसान नेता विक्रमा मौर्य और चौधरी राजेंद्र की अगुवाई में निकलने वाला यह मार्च 17 अगस्त को बनारस के रविंद्रपुरी में पहुंचता, इससे पहले ही पुलिस ने मुखर किसानों को गिरफ्तार कर लिया। दरअसल, पूर्वांचल के किसान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रविंद्रपुरी (वाराणसी) स्थित संसदीय कार्यालय में पत्रक सौंपकर इत्तिला देना चाहते थे कि पूरबिया अन्नदाता भी तीनों कृषि कानून के प्रबल विरोधी हैं।

इस किसान मार्च में बनारस, गाजीपुर, चंदौली, जौनपुर, मऊ, देवरिया, गोरखपुर, आजमगढ़, बलिया समेत पूर्वांचल के 17 जिलों के किसान शामिल थे। संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में यह मार्च निकाला गया था। इस दौरान भारतीय किसान यूनियन, जनवादी किसान सभा, भारतीय किसान यूनियन, विद्यार्थी युवजन सभा, खेती किसानी बचाओ आंदोलन और समाजवादी जन परिषद ने नए कानूनों को किसान विरोधी बताया और आर-पार की लड़ाई छेड़ने का ऐलान किया।

किसान नेता चौधरी राजेंद्र बताते हैं, "घोसी में ‘करो या मरो’ का नारा बुलंद करते हुए किसान आगे बढ़े तो पुलिस डर गई। शायद योगी सरकार के निर्देश पर हमारी मुहिम को कुचलने के लिए भारी पुलिस फोर्स भेजी गई थी। खाकी वर्दी वालों ने किसानों के साथ धक्का-मुक्की और बदसलूकी की। घंटों चली झड़प के बाद आखिर में 40 पुरुष और 14 महिला किसानों को गिरफ्तार कर लिया गया। सभी को घोसी कोतवाली थाने में लाया गया। किसानों को रात में तब छोड़ा गया जब लालफीताशाही को यकीन हो गया कि वो दोबारा मार्च नहीं निकालेंगे।"

घोसी कोतवाली थाने में बैठे किसान नेता 

किसानों की अगुवाई कर रहे किसान नेता रजनीश भारती, विक्रमा मौर्य, इरफ़ान, क्रांति नारायण, ललित मौर्य, अजय असुर, रुआब, राघवेंद्र, अरविंद मूर्ति, धर्मपाल सिंह, सरोज, मालती, शिव प्रसाद, सुनील, गुंजा, शैलेश कुमार 'मोनू' ने योगी सरकार की नीति और नीयत पर ढेरों सवाल उठाए और कहा, "पुलिस हमारे पीछे तभी से पड़ी थी, जब हम किसान आंदोलन को समर्थन देने के लिए पूर्वांचल में जागरुकता अभियान पर निकले थे।” हमारे आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार ने सिर्फ पैदल मार्च ही नहीं रोका, बल्कि मेनस्ट्रीम मीडिया में भी इस मामले पर कहीं कोई खबर भी नहीं छपने दी गई। अपने अधिकारों के लिए पूर्वांचल के किसान भी पीछे लौटने वाले नहीं हैं। हम योगी सरकार को घेरेंगे और सत्तारूढ़ दल पर दबाव बनाएंगे कि कारपोरेट घरानों को खुश करने के लिए लाए गए तीनों नए कृषि कानूनों को तत्काल वापस लें।" किसान आंदोलन में शरीक गुंजा कहती हैं. "आज भाजपा-आरएसएस की बिल्कुल वही सोच है, 'मोदी ही देश है'...! आगामी विधानसभा चुनाव में यूपी के लाखों अन्नदाता सत्तारूढ़ दल भाजपा की सोच को मटियामेट कर देंगे।"

किसानों से क्यों डर रही योगी सरकार?

किसान आंदोलन को लेकर यूपी की योगी सरकार सचमुच बहुत डरी हुई है। इसकी बड़ी वजह है विधानसभा चुनाव। इस राज्य की करीब तीन सौ सीटें ग्रामीण इलाकों की हैं। इनमें 70 फीसदी वोटर किसान और मजदूर हैं। भाजपा को लगता है कि अगर पश्चिम की तरह पूर्वांचल में भी किसान योगी सरकार के खिलाफ बगावत पर उतर गए तो पार्टी का जनाधार मिट्टी में मिल सकता है।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को आभास है कि भाजपा सरकार में कोई भी ऐसा प्रभावी किसान नेता नहीं है जो किसानों से सीधा संवाद करने की जिम्मेदारी ले सके। इसलिए वह खुद किसानों को साधने में जुटे हैं। योगी की पहल पर भाजपा जगह-जगह किसान सम्मेलन कर रही है। राज्य के सभी जिले में रोल मॉडल के रूप में सौ-सौ किसानों को सम्मानित करने की योजना बनाई गई है। पीएम किसान सम्मान निधि योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड, खेती में नई तकनीकी का इस्तेमाल, जीरो ब्याज पर कर्ज देने के लिए किसान कल्याण मिशन योजना पर जोर दिया जा रहा है। सीएम खुद ब्लैक राइस के साथ गुड़ और स्ट्राबेरी की ब्रान्डिंग कर रहे हैं। किसानों को परंपरागत खेती से व्यावसायिक खेती की ओर मोड़ने की बात कहकर वह उनके रुख को अपनी ओर मोड़ने की जुगत में हैं।

इधर, संयुक्त किसान मोर्चा पूर्वांचल के किसानों में दम भरने में जुटी है। बलिया के सिकंदरपुर और चंदौली के चकिया इलाके में भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता चौधरी राकेश टिकैत दौरा पहले ही दौरा कर चुके हैं। लेकिन अब सरकार उन्हें यूपी में घुसने पर गिरफ्तारी का अल्टीमेटम दे रही है। नए कृषि कानून को लेकर किसानों के मन में स्वतः स्फूर्त विरोध के भाव पैदा हो रहे हैं।

भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत पूर्वांचल दौरे के दौरान 

पूर्वांचल के किसानों ने बनारस के कैंट इलाके में 11 अगस्त 2021 को मैराथन बैठक कर आंदोलन तेज करने की पुख्ता रणनीति बनाई। समाजवादी जन परिषद के अफलातून ने बैठक में कहा, "भूख को हम व्यापार में नहीं बदलने देंगे। किसानों के मुद्दे पर पूर्वांचल में अब नई आजादी की लड़ाई शुरू होगी।" 

भाकियू के लक्ष्मण मौर्य ने कहा, "साल 1977 में 864 ऐसी चीजें थीं, जिसका उत्पादन कुटीर और लघु उद्योग के जरिये ही किया जाता था। मोदी सरकार ने कारपोरेट घराने का फेवर करने के लिए इन वस्तुओं का उत्पादन समेट दिया। किसानों को गर्त में पहुंचाने वाला काला क़ानून जब तक वापस नहीं होगा, आंदोलन जारी रहेगा।"

बैठक की अध्यक्षता कर रहे किसान नेता रामजन्म ने कहा, "किसानों को यह डर है कि सरकार कृषि क्षेत्र में भी निजीकरण ला रही है, जिसकी वजह से फसल बेचने के रहे-सहे सरकारी ठिकाने भी खत्म हो जाएंगे। इससे जमाख़ोरी बढ़ेगी और फसल ख़रीद की ऐसी शर्तों को जगह मिलेगी जो किसान के हित में नहीं होंगी। इन्हीं चिंताओं को लेकर पूर्वांचल में जन-समर्थन जुटाने की कवायद शुरू हो गई है।"

एक्टिविस्ट बल्लभाचार्य ने कहा, "मोदी सरकार को एक नया बिल लाने की ज़रूरत है, जो किसानों को एमएसपी (स्वामीनाथन फ़ॉर्मूला, जिसका भाजपा ने 2014 में वादा किया) की गारंटी दे। साथ ही यह भी तय हो कि बड़े व्यापारी, कंपनियां या कोई 'नए खरीदार' एमएसपी से कम दाम पर माल नहीं खरीद सकेंगे। मुख़्तारी की गारंटी हो ताकि एमएसपी एक मज़ाक़ ना बन जाए और यह नया बिल किसानों के कर्ज को ख़ारिज कर दे। इसके बगैर कोई तरीक़ा ही नहीं है जिसके ज़रिए सरकार 2022 तो क्या, साल 2032 तक भी किसानों की आय दोगुनी नहीं कर पाएगी।"

तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने के लिए रणनीति बनाते पूर्वांचल के किसान 

किसान आंदोलन के पक्ष में मुखर होकर मुहिम चला रहे मनीश शर्मा, जागृति, आकांक्षा, युद्धेश, अनुपम ने कहा, “भाजपा सरकार जब किसानों को एमएसपी की गारंटी नहीं दे रही है तो उस पर भला कोई क्यों भरोसा करेगा।"

सिर्फ बनारस ही नहीं, समूचे पूर्वांचल में किसान नए कृषि कानून के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ने के मूड में दिख रहे हैं। किसान हितों के लिए आवाज उठा रहे लोक विद्या आंदोलन से जुड़े सुनील सहस्रबुद्धे, चित्रा सहस्रबुद्धे, रामजन्म, पंकज भाई, ख़ुर्शीद, डॉ राजेश यादव, डॉ संतोष पूर्वांचल के किसानों और कामगारों के बीच घूम-घूमकर नए कृषि कानून के काले पक्ष को गिना रहे हैं।

क्यों ख़ामोश हैं पूर्वांचल के किसान?

कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन को लेकर पूर्वांचल में एक बात जो बार-बार कही जा रही है कि इस इलाके के अन्नदाता को नए कानूनों से कोई दिक्कत नहीं है। इसीलिए वो दिल्ली के किसान आंदोलन में शरीक होने नहीं जा रहे हैं। पंजाब में कृषि पर निर्भर आबादी की 75 फीसदी है, जबकि यूपी में यह 65 फीसदी है। किसान आंदोलनों के जनक रहे पूर्वांचल में पिछले आठ दशक में न तो कोई किसान संगठन सक्रिय दिखा और न ही इस इलाके में किसानों का कोई नुमाइंदा नजर आता है। यह स्थिति तब है जब पूर्वांचल की तीन चौथाई आबादी कृषि पर निर्भर है, फिर यहां कोई किसान नेता नहीं है।

मजदूर किसान मंच के चंदौली जिला प्रभारी अजय राय कहते हैं, "पूर्वांचल में खेती-किसानी का पैटर्न बदल गया है। इस इलाके में खेती बटाईदारी और लीज पर ज्यादा आधारित हो गई है। ऐसी जोतें कम हैं जिनके मालिक खुद खेती करते हों। इनकी तादाद सात से दस फीसदी से अधिक नहीं है। जो लोग यह बात कह रहे हैं कि पूर्वांचल के किसानों को नए कृषि कानूनों से कोई दिक्कत नहीं है, दरअसल वो पूंजीपति और सत्तारूढ़ दल भाजपा के समर्थक हैं। इस मुद्दे को वही लोग हवा दे रहे हैं जो खुद कभी खेतों में नहीं जाते, मगर किसान नेता होने का दम भरते जरूर नजर आते हैं।"

चंदौली के एक खेत में काम करते किसान

किसान आंदोलनों के पैरोकार और अन्नदाता के अधिकारों की पैरवी करने वाले बनारस के जाने-माने हृदयरोग विशेषज्ञ डा. ओमशंकर कहते हैं, "पूर्वांचल में छोटे, मझोले और सीमांत किसानों की आबादी सबसे अधिक है, जो दो हेक्टेयर या उससे थोड़ी कम-ज़्यादा में खेती करते हैं। यह तबका सिर्फ इसलिए खेती करता है ताकि उनके परिवार का पेट भर सके। इस तबके को एमएसपी से कोई खास मतलब नहीं है। जिन लोगों को मतलब है भी, उसके यहां उपज खरीदने वाली मंडियां नहीं हैं। कुछ चुनिंदे बड़े किसान कृषि सहकारी समितियों के सचिवों की मिन्नतें करके अपनी उपज सरकार को बेचने में कामयाब हो जाते हैं। छोटे किसान तो पहले से ही साहूकारों के जाल में फंसे हैं। नया कानून लागू होने पर वो साहूकारों के बजाए, बड़े कारपोरेट के हाथ की कठपुतली बन जाएंगे।"

डा.ओमशंकर बताते हैं, "स्वामी सहजानंद सरस्वती ने सबसे पहले पूर्वांचल में किसान आंदोलनों की गौरवशाली परंपरा की नींव डाली थी। वह मूलतः गाजीपुर के रहने वाले थे। अखिल भारतीय किसान महासभा की स्थापना कर उन्होंने पूरे देश में भूमि सुधारों के लिए आंदोलन का सूत्रपात किया था। कितना अजीब है कि इन दिनों पूर्वांचल में किसानों का न कोई नेता है और न ही जमीनी संगठन। इस इलाके में फार्मिंग का मामला बाद में आता है, उससे पहले जमीन का विवाद खड़ा हो जाता है और किसान उसी झमेले में उलझ जाते हैं। वहीं से उनकी सियासत बदल जाती है। आज़ादी के बाद पूर्वांचल में जो भी संगठन बने, उनका मकसद खेत-खलिहान पर अधिकार रहा। किसानों के हितों की चिंता करने वाला कोई नहीं है, लेकिन सभी सियासी दल यही दावा करते है कि वो किसानों के साथ हैं।"

...तो ग़ुलाम हो जाएंगे किसान?

वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार रामजी यादव को लगता है कि मोदी सरकार 'कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग' यानी अनुबंध आधारित खेती को वैध करने में जुटी है। वह कहते हैं, "पूर्वांचल में तमाम किसान अनुबंध पर खेती करते और कराते हैं, जो जुबानी होता है। किसानों को इस बात का डर है कि अगर किसी बड़े कॉरपोरेट ने कॉन्ट्रैक्ट का उल्लंघन किया तब क्या होगा?  मोदी सरकार ने नए कानून में यह साफ कर दिया कि किसान अदालत में नहीं जा सकता। अगर वह कोर्ट में जाता भी है तो कॉरपोरेट के खिलाफ वकील खड़ा करने के लिए किसानों को पैसा कौन देगा?  अगर किसान के पास सौदेबाजी की ताकत नहीं, तो किसी अनुबंध का क्या मतलब? प्रस्तावित अनुबंधों में, किसान न तो सौदेबाज़ी कर पाएगा, न उसके पास ऐसी कोई शक्ति होगी। ऐसे में किसानों के लिए गुलामी करना मजबूरी होगी और वो गुलामी ठेका लेने पर बाध्य होंगे।"

रामजी यह भी कहते हैं, "नए कृषि कानूनों के विरोध में देश भर में बंदी रही, लेकिन पूर्वांचल में कोई असर नहीं दिखा। देश के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह चंदौली के भभौरा गांव के रहने वाले हैं। आज भी इनके गांव-घर में खेती होती है, लेकिन किसानों के मुद्दे पर उनकी जुबान भी बंद है।"

पूर्वांचल में चेरी टमाटर की खेती

साहित्यकार रामजी यादव को इस बात को लेकर कोई अचरज नहीं है कि पूर्वांचल में मीडिया का चरित्र बाकी राज्यों से अलग है। वह कहते हैं, "पूर्वांचल में छुटमुट तौर पर लगातार किसान आंदोलन होते रहते हैं, लेकिन उनकी कवरेज गोदी मीडिया घोंट जाती है। हाल के सालों में कई कॉर्पोरेट घरानों ने चुपचाप कई मीडिया हाउसों को खरीद लिया है, जिसकी आड़ में वो सरकारों से सौदेबाजी करते रहते हैं। सब के सब सत्तारूढ़ दल के चमचे हैं जिनके तमाम उल्टे-सीधे धंधे हैं। वो किसी भी सूरत में मुनाफा कूटते रहना चाहते हैं। दिल्ली में किसान आंदोलन ने जोर पकड़ा तो पूर्वांचल में मेनस्ट्रीम के एक अखबार ने किसानों की छाती पर मूंग दलना शुरू कर दिया। नए कृषि कानूनों के पक्ष में वह अखबार मोदी सरकार के पक्ष में मुहिम चलाने में जुट गया। अखबार के मालिकान ने अपने बंधुआ पत्रकारों से किसान आंदोलन के खिलाफ तमाम नकारात्मक खबरें लिखवाईं, जो मीडिया सरकार के भ्रष्टाचार को ढंकने का बड़ा माध्यम है, वह किसानों-मजदूरों की भलाई की बात भला क्यों करेगा? गोदी मीडिया तो वही करती है जो सरकार कहती है। अगर सोशल मीडिया नहीं होता, तो किसानों का आंदोलन कब का दम तोड़ चुका होता। सरकार कोई भी हो, वह अगर जनांकाक्षाओं के बजाए जिद पर अड़ी रहे तो हमें उसकी नीयत पर शंका जरूर करना चाहिए। साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि किसानों की खबरें जानबूझकर क्यों दबाई जा रही हैं? "

भ्रमित हैं पूर्वांचल के किसान

उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल भाजपा किसानों के मन में यह बात घुसेड़ने की जुगत में हैं कि नए कृषि कानून से उनके दिन फिर आएंगे। लेकिन क्या किसानों को सचमुच भटकाया जा रहा है? कृषि अर्थशास्त्र में गहरी पकड़ रखने वाली प्रज्ञा सिंह कहती हैं, "जब से कृषि कानून लाया गया है तभी से सुन रहे हैं कि भारतीय किसान अब आज़ाद हो गए हैं और अब वो बाज़ार और मंडी में उपज बेचने के लिए आजाद हैं। सच य़ह है कि मौजूदा अर्थव्यवस्था में किसान ऐसे घटक हैं जो खाद्यान्न का उत्पादन तो करते हैं, लेकिन भाव कभी तय नहीं कर पाते। अन्नदाता को वह दाम स्वीकार करना पड़ता है जो दूसरे तय करते हैं। पूर्वांचल में किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए काफी मोल-भाव करना पड़ता है। नए कानून में कोई ऐसी व्यवस्था नहीं जो किसानों को उनकी फसलों का दाम तय करने और उनकी उपज खरीदने की गारंटी देता हो। पूर्वांचल में धान का कटोरा कहे जाने वाले चंदौली में हजारों कुंतल ब्लैक राइस किसानों के घरों में बर्बाद हो रहा है। ये वो किसान हैं जिन्हें मोदी सरकार ने बंपर कमाई का सपना दिखकार उसने बड़े पैमाने पर ब्लैक राइस की खेती कराई थी।"

प्रज्ञा साफ-साफ कहती हैं, "नए कृषि कानून में एमएसपी विलेन की तरह दिखाता है। हमें यह समझना होगा कि पूर्वांचल की कितनी मंडियों का वजूद है, जहां किसान सीधे अपनी उपज बेचते हैं? इस इलाके के किसान खेत-खलिहान में ही अपनी उपज बेचते आ रहे हैं। बिचौलिए अथवा साहूकार खेतों पर जाते हैं और सीधे किसानों से उनकी उपज खरीद लेते हैं। सरकारी आंकड़ों को देखिए जो खुद गवाही देते हैं कि सिर्फ छह से आठ फीसदी किसान ही अधिसूचित थोक बाज़ारों में जाते हैं। किसानों की असल दिक्कत फसलों के दाम को लेकर है और उन्हें सही व तय दाम मिले,  तभी उनकी मुश्किलें कम होंगी। पूर्वांचल के किसानों की चुप्पी का नतीजा है कि यहां उनकी औसत आमदनी देश भर के किसानों में सबसे कम है।"

मुनाफ़ा कूटना चाहते हैं कॉरपोरेट घराने

बीएचयू में समाजशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफेसर प्रतिमा गोंड़ कहती हैं, "पूर्वांचल के किसानों को यह बात जान लेनी चाहिए कि कॉरपोरेट किसानों को मुनाफा देने के लिए खेती के क्षेत्र में नहीं आ रहे हैं। वह अपने शेयरधारकों को मालामाल करना चाहते हैं। कॉरपोरेट घराने किसानों को उनकी फसल का सीमित दाम देकर,  मोटा मुनाफा कूटेंगे। अगर वो अधिक भुगतान करने लगेंगे, इस धंधे से उन्हें लाभ कैसे होगा? भारी मुनाफे के लिए ही वो खेती-किसानी करने के लिए छटपटा रहे हैं। कॉरपोरेट खेती करने के लिए उद्यमी इसलिए भी लालायित हैं कि इसमें उनकी फूटी कौड़ी नहीं लगेगी। सारा पैसा उनकी कंपनी का शेयर खरीदने वालों का लगेगा।"

प्रतिमा बताती हैं, "कृषि कानून आने से पहले ही अडानी और अंबानी ने सभी बड़े राज्यों में अनाज भंडारण के लिए अपने "साइलो" बनवा दिए थे। किसानों की सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि नए कानून में फसलों के भंडारण की अधिकतम सीमा खत्म कर दी गई है। सभी को पता है कि जब तक उपज किसान के हाथ में रहती है, उसका दाम गिरता रहता है और जैसे ही वह कारोबारी के हाथ में पहुंचती है दाम बढ़ने लगता है। नया कृषि कानून लागू होने के बाद बाज़ार में कुछ कंपनियों का एकाधिपत्य होगा। उस स्थिति में, किसानों को फसल की अधिक क़ीमत कैसे मिलेगी? देश को ऐसे बाजार की जरूरत है, जिस पर किसानों का नियंत्रण रह सके।"

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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