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उत्तरप्रदेश अध्यादेश: संवैधानिकता को कुचलते हुए नुकसान की भरपाई

सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने के मामले में सिर्फ़ कार्यकर्ताओं और असहमति रखने वालों को ही क्यों निशाना बनाया जाये ? बार-बार ज़मीन पर कब्ज़ा करने और सार्वजनिक संसाधनों की लूट में लगे बड़े कारोबारियों के साथ ऐसा क्यों नहीं किया जाये ?
उत्तरप्रदेश अध्यादेश
यूपी सरकार द्वारा लगाये गये सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के नाम और तस्वीरों वाले होर्डिंग्स। फ़ोटो,साभार: एनडीटीवी

इस साल 1 जुलाई को उत्तर प्रदेश सरकार ने एक ग़ैर-मामूली तत्परता दिखाते हुए लखनऊ में कथित तौर पर सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने वालों की संपत्तियों को कुर्क करना शुरू कर दिया। एक नये और जल्दबाज़ी में बनाये गये क़ानून, उत्तर प्रदेश सार्वजनिक एवं निजी संपत्ति क्षतिपूर्ति वसूली क़ानून अध्यादेश, 2020 के तहत सरकार ने राज्य की राजधानी में राज्य और व्यक्तिगत संपत्ति को नुकसान पहुंचाने को लेकर वसूली करने का प्रयास किया।

संपत्ति को यह नुकसान उस सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान हुआ, जिसने पिछले साल दिसंबर और इस साल के शुरुआती महीनों में देश को हिलाकर रख दिया था। लेकिन,अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों के विपरीत,उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री,योगी आदित्यनाथ ने इस हिंसा के कथित दंगाइयों की तरफ़ से की गयी हिंसात्मक कार्रवाई का बदला लेने की क़सम खायी थी। उन्होंने घोषणा की थी कि उनकी सरकार आन्दोलनकारियों से हर्जाना वसूल करेगी, क्योंकि वे अराजकता, हिंसा और बर्बरता को रोकना चाहते थे।

नया अधिनियमित इस नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के ख़िलाफ़ विरोध व्यापक थे। उत्तर प्रदेश में लोगों के बीच की इस विरोध की लहर ज़बरदस्त थी। 19.3% आबादी वाले मुसलमान इस बात से नाराज़ थे कि इस नये क़ानून में न सिर्फ़ मज़हब के आधार पर भेदभाव किया गया है, बल्कि उन्हें अपनी नागरिकता साबित करना भी ज़रूरी है। उनके भीतर इस बात का डर था कि यह कहीं उन्हें उनकी राष्ट्रीयता से वंचित कर देने की कोई छुपी हुई रणनीति तो नहीं है। दूसरी जगहों पर भी मुसलमानों और धर्मनिरपेक्ष भारतीयों ने बड़ी संख्या में इसका विरोध किया था।

उत्तर प्रदेश सरकार उन बलवों को ख़त्म करने में निर्दयता का सहारा लिया। किसी राज्य के मानकों के मुताबिक़ नियमित पुलिस क्रूरता के हिसाब से भी क़ानून को लागू करने वाली एजेंसियों की तरफ़ से की गयी कार्रवाइयां भीषण थीं। पुलिस की गोलीबारी में कुल 23 लोगों की मौत हो गयी और 5,500 लोगों को निवारक नज़रबंदी में रखे गये।

यूपी सरकार ने सख़्त गैंगस्टर एक्ट के तहत 450 आंदोलनकारियों पर आरोप क़ायम किया और राज्य भर के 372 लोगों को सार्वजनिक संपत्तियों को नष्ट करने को लेकर क्षतिपूर्ति की मांग वाले नोटिस थमा दिये गये। दिसंबर 2019 में जिस समय आंदोलन अपने चरम पर था, उस समय सरकार ने आंदोलनकारियों पर धौंस जमाते हुए मुज़फ़्फ़रनगर में मुसलमानों के स्वामित्व वाली 67 दुकानों को सील कर दिया।

फ़रवरी में इस प्रकरण के सिलसिले में एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए योगी सरकार ने लखनऊ के प्रमुख चौराहों पर 100 से ज़्यादा पोस्टर लगा दिये , जिसमें उन 60 लोगों के फ़ोटो, नाम और पते थे, जिनके बारे में दावा किया गया कि उन्होंने शहर भर की संपत्तियों को नष्ट किया है। जिन लोगों की तस्वीरें उन पोस्टरों में लगी थीं, उनमें से कई लोगों ने कहा कि उनका उन विरोधों से कोई लेना-देना ही नहीं था।

बिना किसी सबूत के कथित तौर पर ग़लत करने वालों के नामों को सार्वजनिक करते हुए उनके अपराध को अदालत में स्थापित करने से पहले ही यूपी सरकार ने साफ़ तौर पर एक क़ानूनी सीमा पार कर ली। इस कार्रवाई का कोई क़ानूनी आधार नहीं था, और ऊपर से इसने उनकी गोपनीयता का उल्लंघन करके संभावित निर्दोष लोगों के जीवन को ख़तरे में डाल दिया था।

यूपी सरकार के इस निर्लज्ज कृत्य से आज़िज़ आकर 8 मार्च को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान ले लिया और सरकार को 16 मार्च तक तमाम पोस्टर उतार लेने का आदेश दे दिया। कहा गया कि पोस्टर इसलिए ग़ैरक़ानूनी थे,क्योंकि ऐसा करते हुए अभियुक्तों की गोपनीयता का उल्लंघन किया गया था और उन्हें हिंसा फ़ैलाने वालों के तौर पर सरेआम कर दिया गया था। अड़ियल रवैया अपनाते हुए यूपी सरकार ने हाई कोर्ट की इस ह़ुक्म के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

सुप्रीम कोर्ट पहले से ही यूपी सरकार द्वारा जारी इस नुकसान वसूली नोटिसों की वैधता को लेकर वक़ील परवेज़ आरिफ़ टीटू द्वारा दायर की गयी याचिका पर सुनवाई कर रहा था। टीटू की याचिका में दो मुख्य बिंदुओं पर रौशनी डाली गयी थी: पहला, इन नोटिसों के निशाने पर ज़्यादतर मुसलमान थे; और, दूसरा, ज़्यादतर नोटिस मनमाने ढंग से जारी किये गये थे। मिसाल के तौर पर, 94 वर्षीय एक ऐसे शख़्स को भी नोटिस भेजा गया था,जिसकी मौत छह साल पहले ही हो चुकी थी। ज़ाहिर है कि सरकार ऐसे लोगों को परेशान करना चाह रही थी,जो उसके क़ानूनों का विरोध करने का साहस कर रहे थे।

सुप्रीम कोर्ट को यूपी सरकार की अपील में कोई आधार नहीं दिखा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को क़ायम रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसा कोई क़ानून नहीं हो सकता,जो सरकार को दोष सिद्ध होने से पहले ही लोगों के नामों को सार्वजनिक करने का अधिकार देता हो। हालांकि, न्यायालय ने गोपनीयता से जुड़ी चिंताओं और सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखने के बीच के कठिन काम को लेकर सराहना की। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को न्यायायिक फ़ैसले के लिए एक बड़ी पीठ के समक्ष रखने के लिए कहा।

सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से फटकार मिलने के बावजूद, यूपी सरकार पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने अपने क़नून और गृह विभाग को अदालत के आदेशों को नाकाम करने के लिए कहा। इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से सरकार की अपील को ख़ारिज करने के चार दिन बाद और उच्च न्यायालय की समयसीमा से एक दिन पहले, यूपी सरकार ने एक हड़बड़ी में तैयार किया गया सख़्त अध्यादेश जारी कर दिया,जिसमें संपत्ति को नुकसाने पहुंचाने वालों से उसकी वसूली के अधिकार को सशक्त बनाया गया था।

जिस तरह से उत्तर प्रदेश सार्वजनिक और निजी संपत्ति के नुकसान की क्षतिपूर्ति अध्यादेश, 2020 में नुकसान की वसूली के अनुचित प्रावधान हैं, वैसे में इस नये विधान में अंतर्निहित गहरे राजनीतिक एजेंडे की अनदेखी कर पाना मुश्किल है।यह नया विधान किसी पूर्व ज़िला न्यायाधीश और अतिरिक्त पुलिस आयुक्त रैंक के एक अधिकारी की अध्यक्षता में एक दावा न्यायाधिकरण की स्थापना का प्रावधान करता है। किसी सिविल कोर्ट की शक्तियों से संपन्न इस न्यायाधिकरण को उन संक्षिप्त प्रक्रियाओं को भी अपनाने की स्वतंत्रता हासिल है,जिसे लेकर वह उचित समझता है। इस दावा न्यायाधिकरण को संपत्ति के नुकसान की सीमा को निर्धारित करने में मदद करने के लिए एक मूल्यांकनकर्ता नियुक्त करना होता है।

जो कुछ भी पूरा हो सकता है या नहीं हो सकता है, उन सभी के सिलसिले में इस अध्यादेश और न्यायाधिकरण के उपनियम बताते हैं कि यूपी सरकार को संवैधानिकता और क़ानून के शासन से कोई लेना-देना नहीं है।

ज़रा इस पर विचार करें: इस न्यायाधिकरण(Tribunal) के पास किसी सर्कल इंस्पेक्टर की तरफ़ से दायर एफ़आईआर (प्राथमिक रिपोर्ट) के आधार पर ही नुक़सान की वसूली के लिए नोटिस जारी कर देने की शक्तियां हैं। इस प्रकार, किसी सांकेतिक जांच से पहले ही वसूली शुरू हो जाती है। प्राथमिकी में नामित सभी व्यक्तियों को अपने आप ही प्रतिवादी के रूप में मान लिया जायेगा और उन्हें जवाबदेह बना दिया जायेगा।

इस न्यायाधिकरण का एकमात्र कार्य नोटिस भेजना है। यह प्रतिवादी तक पहुंचता है या नहीं,इससे कोई लेना-देना नहीं है,मगर फिर भी  सुनवाई हो जायेगी। निर्धारित तिथि पर न्यायाधिकरण के सामने पेश नहीं होने की स्थिति में अपने आप ही एकतरफ़ा निर्णय हो जायेगा और संपत्ति को कुर्क कर दिया जायेगा। आरोपों को खारिज करने की ज़िम्मेदारी आरोपियों पर है।

सबसे महत्वपूर्ण बात जो इस अध्यादेश में कही गयी है,वह यह है कि इस दावा न्यायाधिकरण का फ़ैसला अंतिम और अपरिवर्तनीय है। इसे किसी भी न्यायिक मंच में चुनौती नहीं दी जा सकती है ! दोषी पाये जाने पर यह न्यायाधिकरण उनके ग़लत आचरण को सरेआम कर सकता है और आम लोगों को प्रतिवादी की संपत्ति नहीं ख़रीदने की चेतावनी दे सकता है।

इस नये अध्यादेश के तहत यूपी के कई ज़िला प्रशासकों ने लक्षित व्यक्तियों और व्यवसायों को नुकसान वसूली के नोटिस भेजे हैं। बिजनौर, फिरोज़ाबाद, मुज़फ़्फ़रनगर, और लखनऊ जैसे सीएए विरोध प्रदर्शनों से सबसे अधिक प्रभावित ज़िलों में यह प्रवृत्ति काफ़ी स्पष्ट है।

अध्यादेश की स्पष्ट विसंगतियों और राजनीतिक रूप से आरोपित परिस्थितियों के अलावा, जिन कारणों से यह अध्यादेश सामने आया, उनमें पांच ऐसे अहम मुद्दे हैं, जो एकदम स्पष्ट तो नहीं हैं,मगर जिन पर ग़ौर करने की ज़रूरत है।

सबसे पहले, उचित जांच-पड़ताल से पहले अभियुक्तों को अपराधी मानने और सबूत इकट्ठा करने से अलग, यह अध्यादेश अतीत के आपराधिक आचरण को लेकर क़ानून के शासन के मूल सिद्धांत के ही प्रतिकूल है। किसी सुबूत की ज़रूरत का नहीं होना राजनीतिक प्रतिशोध को स्थापित करने वाली इस पहल का मुख्य संचालक है।

दूसरा, संपत्ति की रक्षा करने और क़ानून को बनाये रखने की अपनी कथित प्रतिबद्धता के विपरीत, अपराधों को रोकने के लिए आदित्यनाथ सरकार ने क्या बार-बार बहुत सारे अपराध नहीं किये हैं ? इसी तरह, ऐसी व्यापक ख़बरें थीं कि पुलिसकर्मी 19 मार्च को लखनऊ के घंटा घर में शांतिपूर्ण महिला प्रदर्शनकारियों पर अचानक टूट पड़े थे, रात में उन्हें पीटा था, और उनके कंबल और भोजन तक छीन लिये गये थे, इस घटना के सिलसिले में इस एक्ट ने इस सरकार को ‘कम्बलचोर सरकार’ नाम से भी नवाज़ दिया।

तीसरा, अगर यूपी सरकार हर्जाना वसूलने को लेकर वाक़ई गंभीर है, तो उसे सबसे पहले कुछ हिंदुत्व समूहों के बेक़ाबू औऱ खुलेआम घूम रहे उन कार्यकर्ताओं और पुलिस में बैठे उन शरारती तत्वों की तलाश करनी होगी,जिनके हिंसात्मक आचरण सोशल मीडिया में उपलब्ध विभिन्न वीडियो में क़ैद हैं।

चौथा, यूपी सरकार का चल रहा अभियान ख़ास तौर असहमति रखने वालों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ पर निर्देशित है। मिसाल के तौर पर, इसके तहत पूर्व आईपीएस अधिकारी एस.आर. दारापुरी को गिरफ़्तार कर लिया गया,जो इस समय यूपी में पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टीज के उपाध्यक्ष हैं।दानापुरी का नाम भी इन पोस्टरों में भी शामिल है,जिन्हें चौराहों पर चिपकाया गया था। दारापुरी ने 2018 में यूपी में हुई मौतों की जांच के लिए विशेष जांच दल की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल(जनहित याचिका) दायर कर सरकार को नाराज़ कर दिया था।

कई अन्य कार्यकर्ताओं,जिनमें ख़ास तौर पर सदाफ़ जफ़र और मोहम्मद शोएब शामिल हैं,उन्हें भी इसी तरह से परेशान किया गया। लेकिन,इसके ठीक उलट, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के विधायक, जिनका नाम 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में आया था-संगीत सोम और संजीव बाल्यान  जैसे लोग और गौ-रक्षा से जुड़े सभी लोगों पर हाथ तक नहीं डाला गया।

पांचवीं बात कि सभी स्तरों पर सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा के मामले में इस राज्य का रिकॉर्ड उदासीन रहा है। हालांकि अगर कोई यह मानता है कि संपत्ति को नष्ट नहीं किया जा सकता है, तो फिर बार-बार की जाने वाली संपत्ति की लूट को लेकर क्या-क्या बहाने बनाये जा सकते हैं ?

मिसाल के तौर पर, विशेष रूप से निष्कर्षण उद्योगों(Extractive Industry) की सार्वजनिक संसाधनों को हड़पने में बडे-बड़े निगमों की भूमिका को लिया जा सकता है। इस मामले में पता चलता है कि एक-एक राज्य की सरकार इन बड़े-बड़े व्यावसायिक दिग्गजों के साथ इस तरह के अपराध में शामिल है और कॉर्पोरेट के हितों में यह सरकार हमारे व्यापक संसाधनों से पैसे बनाने में लगी हुई है।

कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त, न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े ने खनन क्षेत्र में भाजपा के पूर्व विधायक जी.जनार्दन रेड्डी और मौजूदा मुख्यमंत्री बी.एस.येदुरप्पा के करोड़ों रुपये के घोटाले को उजागर किया था,लेकिन इन दोनों में से किसी को भी इसका गंभीर परिणाम नहीं भुगतना पड़ा।

मीडिया रिपोर्टों में बताया गया है कि ओडिशा में आदित्य बिड़ला समूह अवैध खनन कार्यों में में लिप्त है। न्यायमूर्ति एम.बी.शाह की अध्यक्षता में गठित जांच आयोग ने ओडिशा में लौह अयस्क और मैंगनीज़ के अवैध खनन की जांच की थी। शाह आयोग ने पाया था कि साल 2000 से साल 2010 के बीच बैतरणी नदी के आसपास के सिर्फ चार ज़िलों में ही 59,203 करोड़ का अवैध खनन किया गया था।

जनवरी 2018 तक,ओडिशा सरकार ने अवैध खनन के लिए 2012 में लगाये गये जुर्माने की 60,000 करोड़ रुपये में से सिर्फ 8,223 करोड़ रुपये की ही वसूली कर पायी थी। सरकार पैसे नहीं चुकाये जाने के एवज़ में इन कंपनियों की संपत्तियों को ज़ब्त तक नहीं कर पायी है।

पिछले सात दशकों में कारोबारी दिग्गजों, कॉर्पोरेट मुग़लों और भ्रष्ट राजनेताओं ने मिलकर सार्वजनिक संपत्ति और अरबों रुपये रुपये लूटे हैं। उदाहरण के लिए, इस समय तिहाड़ जेल से पैरोल पर बाहर रह रहे सहारा इंडिया परिवर के सुब्रत रॉय पर जनवरी 2019 तक अपने निवेशकों की 10,621 करोड़ रुपये की देनदारी है। रॉय जैसे कई दूसरे लोग हैं।

इस प्रकार, अमीर और शक्तिशाली लोगों के संसाधनों की लूट पर किसी तरह की कोई बेचैनी नहीं दिखती है। अगर सरकार की यह निष्क्रियता निंदनीय है, तो इस मामले में ज़्यादा शर्मनाक आम लोगों की उदासीनता भी है। यही लोग हैं,जो अपने ही वैध अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले प्रदर्शनकारियों को सरकार की तरफ़ से कलंकित करने की कोशिश पर ख़ामोश हैं, जो सही मायने में हमारी विकृत प्राथमिकताओं और खंडित चेतना का एक प्रतीक है।

यहां तीन कारणों का हवाला दिया जा सकता है,जिससे आदित्यनाथ सरकार का सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा फूट पड़ा है। पहला, अपने हिंदुत्व के एजेंडे को मज़बूती देने के लिए सरकार अपने विरोधियों,ख़ासकर अल्पसंख्यकों और असहमति रखने वालों को बाक़ियों के लिए मिसाल बना देने वाली सज़ा देना चाहती है।

दूसरा, यह हर्जाना वसूली अध्यादेश बहुसंख्यकों की सामाजिक इंजीनियरिंग की एक बड़ी खेल योजना का हिस्सा है। इस एजेंडे के अन्य पहलुओं में उत्तर प्रदेश निजी विश्वविद्यालय अध्यादेश और उत्तर प्रदेश सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं महामारी रोग नियंत्रण अध्यादेश, 2020 जैसी पहल भी शामिल हैं। जहां उत्तर प्रदेश निजी विश्वविद्यालय अध्यादेश, शिक्षा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हिंदुत्व को आगे बढ़ाने की कोशिश है, वहां उत्तर प्रदेश सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं महामारी रोग नियंत्रण अध्यादेश, 2020 तब्लीग़ी जमात के सदस्यों को कोविड-19 के संक्रमण को फ़ैलाने वाले के तौर पर बदनाम  करने का काम करता है।

गौ-रक्षा, लव जिहाद, ऑपरेशन मजनू, एंटी-रोमियो स्क्वॉड, मुठभेड़ों में होती मौत और 38 में से 35 राज्य श्रम क़ानूनों को तीन साल के लिए निलंबित कर दिया जाना ऊपर बताये गयी रणनीति की ही सहायक रणनीतियां हैं। अंतिम लक्ष्य वर्चस्व और अनिश्चितता की स्तिति को बनाये रखना है। इस सबके बावजूद मर्दाना राष्ट्रवाद के नाम पर ये सख़्त रवैया आदित्यनाथ के अनुयायियों के बीच उनकी लोकप्रियता को बढ़ा देते हैं।

तीसरा,आदित्यनाथ कथित तौर पर राष्ट्रीय स्तर के नेता बनने की अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए माहौल बनाना चाहते है। उनका यह ख़्वाब तभी साकार हो सकता है,जब वह संघ परिवार के भीतर अग्रगण्य हिंदुत्व योद्धा के तौर पर अपनी स्थिति को मज़बूत कर लेते हैं। सीएए विरोधियों के ख़िलाफ़ उनका एक सख्त रुख़ इसी मक़सद को पूरा करता है।

उनकी जो भी मजबूरियां हों, मगर उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के ये कार्य लोकतंत्र और भारत में क़ानून के शासन के लिए शुभ तो बिल्कुल नहीं हैं। आदित्यनाथ शासन द्वारा लाये गये हर क़ानून और नये सामाजिक कार्यक्रम ने संवैधानिक मूल्यों, प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों और न्याय में लोगों के विश्वास को ख़त्म कर दिया है। ठीक इसी तरह, असहमतियों को कुचलकर मुख्यमंत्री लोकतंत्र को खोखला बना रहे हैं। अधिनायकवादी नवउदारवाद के साथ जुड़ी इस परिघटना के मानव सुरक्षा और सम्मान के लिहाज से गंभीर परिणाम हो सकते हैं। ज़्यादा चिंताजनक तो यह है कि यह अलगाव और निराशावाद को जन्म देगा।

कुल मिलाकर, बड़े व्यवसाय के हाथों में केंद्रित मीडिया स्वामित्व के ज़रिये असहमति की आवाज़ को दबा दिया जायेगा। कुलीन वर्गों को इसकी फ़िक़्र नहीं होगी। वे अपने आप को जनता के मुखर, बेतरतीब लोकतंत्र से नहीं जोड़ सकते। हालांकि, असहमति की आवाज़ को अपराधिक कृत्य क़रार देना और लोकप्रिय मांगों को कुचल देना लंबे समय तक चल नहीं पायेगा।

लेखक अमेरिका के मिशिगन स्थित फ़्लिंट में केटरिंग विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र और एशियाई अध्ययन को पढ़ाते हैं। वह अमेरिका में लाइसेंस प्राप्त वकील भी हैं। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

UP Ordinance: Recovering Damages While Running Over Constitutionalism

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