Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

मानवाधिकारों और न्याय-व्यवस्था का मखौल उड़ाता उत्तर प्रदेश : मानवाधिकार समूहों की संयुक्त रिपोर्ट

29 अक्तूबर को जारी हुई एक रिपोर्ट ‘कानून और ज़िंदगियों की संस्थागत मौत: उत्तर प्रदेश में पुलिस द्वारा हत्याएं और उन्हें छिपाने की साजिशें’ हमें उत्तर प्रदेश में मौजूदा कानून व्यवस्था के हालात को बेहद करीब से समझने का अवसर देती है।
LAW AND LIFE

नेशनल एकेडमी ऑफ़ लीगल स्टडीज एंड रिसर्च (NALSAR) के सेंटर फॉर क्रिमिनल जस्टिस रिफार्म एंड रिसर्च द्वारा शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2021 को ‘कानून और ज़िंदगियों की संस्थागत मौत: उत्तर प्रदेश में पुलिस द्वारा हत्याएं और उन्हें छिपाने की साजिशें’ नाम से एक तथ्यान्वेषी रिपोर्ट के विमोचन के अवसर पर 'भारत में हो रही हुई मुठभेड़ हत्याओं' पर चर्चा की गयी।

इसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन बी लोकुर ने की जिसमें आंध्रप्रदेश हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस गोदा रघुराम, बॉम्बे हाई कोर्ट अभिवक्ता डॉ युग मोहित चौधरी ने शिरकत की। मनीषा सेठी ने इस मौंजूं पर कान्फ्रेंस की शुरुआत की।

जस्टिस मदन लोकुर ने ऐसी हत्याओं को कोल्ड ब्लडेड मर्डर कहा और इस बात पर चिंता व्यक्त की कि जिनके ऊपर ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाने की ज़िम्मेदारी है वो इन्हें छिपाने के लिए हर ऐसी घटना के बाद कानून की हत्या करते हैं। जस्टिस गोदा रघुरामन ने कहा कि पीयूसीएल बनाम भारत सरकार के बाद जो दिशा निर्देश बने थे उनसे एक उम्मीद बनी थी कि ऐसी घटनाओं पर न केवल अंकुश लगेगा बल्कि न्याय व्यवस्था मजबूत होगी।

ऐसे समय में जब हिंदुस्तान में मानवाधिकार न केवल सार्वजनिक व्यवहार में बल्कि राजनैतिक विमर्श के केंद्र से जबरन धकिया दिया गया हो। कभी एक सार्वजनिक वैश्विक मूल्य रहे मानवाधिकार को एक ‘गाली’ की तरह बरता जाने लगा हो और देश का प्रधानमंत्री खुद इस मूल्य का इस्तेमाल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की मंशा से करने लगा हो।

देश में न्यायेतर या स्थापित न्यायिक प्रक्रिया को धता बताते हुए पुलिस द्वारा हत्याएं किए जाने को ही ‘न्याय’ समझा जाने लगा हो, फर्जी मुठभेड़ों की घटनाएँ इतनी सामान्य हो चलीं हों कि जिनके होने का पूर्वानुमान सड़क पर चलते लोग, चाय की दुकान पर चुसकियाँ लेते हुए लोग सहज ही लगा पा रहे हों। फर्जी-मुठभेड़, एनकाउंटर मौजूदा न्याय प्रणाली में धीरे धीरे ‘त्वरित न्याय’ के लिए एक समानान्तर व्यवस्था की तरह स्थापित और मान्य होती जा रही हो। तब हमें रुककर, ठहरकर, उन लोगों की नज़र से इन घटनाओं को देखना चाहिए जो इसका शिकार हुए हैं जिन्हें न्याय का अवसर नहीं मिला है और इस मनुष्य केन्द्रित दुनिया में जिनके न्यूनतम मनवाधिकारों का भी बलात हनन हुआ है।

यूथ फॉर ह्यूमन राइट्स डॉक्युमेंटेशन (YHRD) सिटीजन अगेन्स्ट हेट और पीपुल्स वॉच जैसे मानव अधिकारों समूहों के संयुक्त प्रयासों से तैयार हुई एक जांच रिपोर्ट हमें इन हालात को बारीकी से समझने का मौका देती है।

29 अक्तूबर को जारी हुई यह रिपोर्ट ‘कानून और ज़िंदगियों की संस्थागत मौत: उत्तर प्रदेश में पुलिस द्वारा हत्याएं और उन्हें छिपाने की साजिशें’ हमें उत्तर प्रदेश में मौजूदा कानून व्यवस्था के हालात को बेहद करीब से समझने का अवसर देती है। जिस प्रदेश का मुख्यमंत्री ‘ठोक देने की भाषा’ में बात करने को कानून व्यवस्था में सख्ती लाने के लिए इस्तेमाल करता हो वहाँ ऐसी कितनी ही घटनाओं पर पर्दा डाला जा चुका है जो इस भाषा में निहित हिंसक कार्रवाइयों के दस्तावेज़ हैं।

13 अगस्त 21 को इंडियन एक्स्प्रेस ने बताया कि उत्तर प्रदेश में मार्च 2017 से अगस्त 2021 तक उत्तर प्रदेश में पुलिस फायरिंग की लगभग 8,472 घटनाएं हुई हैं। इसके परिणाम स्वरूप, 146 लोग मारे गए हैं और अन्य 3,302 गोलियों से घायल हुए हैं।

ऐसी घटनाओं को बाद में ‘मुठभेड़’ या ‘एनकाउंटर’ बतलाया गया है। इनमें से कुछ मामलों की खूब चर्चा भी हुई और जैसे विकास दुबे या मनीष गुप्ता लेकिन ऐसी कितनी ही घटनाएँ हैं जिनमें मारे गए व्यक्तियों या उनके परिवारों के बारे में किसी को कोई खबर नहीं है। एक बड़ा सामाजिक विभाजन इन हत्याओं को जायज और गैर-वाजिब मानने वालों के बीच भी हुआ है। यह कहना दुखद है लेकिन ज़रूरी है कि इन हत्याओं को व्यापक जन समर्थन भी मिल रहा है। लेकिन यह समर्थन हमें अचंभित नहीं करता क्योंकि सार्वजनिक जीवन में हम एक हिंसक, रक्त पिपासु और बदले की भावना से ग्रसित त्वरित न्याय के लिए लालायित होते समाज में तब्दील होते जा रहे हैं।

न्याय की विधिसम्मत स्थापित प्रक्रिया से गुजरे बिना, केवल पुलिस द्वारा होने वाले एनकाउंटर, गैर-न्यायिक या न्यायेतर हत्याएं कहीं जाती हैं। भारत में ऐसी हत्याओं का इतिहास है, यह महज़ में हाल में घटित हुई घटनाएँ नहीं हैं। पुलिस फायरिंग में, मुठभेड़, आरोपी को अदालत ले जाते समय या किसी और परिस्थिति में पुलिस के हाथों ऐसी हत्याओं को अंजाम दिया जाता है। जिन्हें बाद में एनकाउंटर बतलाया जाता है। हालांकि ऐसी हत्याओं की घटनाएँ अशांत कहे जाने वाले प्रदेशों मसलन, पूर्वोत्तर के राज्यों, कश्मीर या नक्सलवाद से प्रभावित प्रदेश जैसे छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड या ओडीशा में ही में ज्यादा देखने को मिलती थीं लेकिन बीते कुछ वर्षों में ये उन प्रदेशों में भी बड़े पैमाने पर सामने आ रही हैं जिन्हें अशांत नहीं माना जाता क्योंकि वहाँ उग्रवाद, नक्सलवाद या आतंकवाद जैसी परिस्थितियाँ नहीं हैं।

यह रिपोर्ट उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा कथित एनकाउंटर के 17 मामलों में हुई 18 युवकों की मौत की गहन जांच-पड़ताल करती है जिनकी जांच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने की थी। ये हत्याएं पश्चिमी यूपी के 6 जिलों शामली, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ, अलीगढ़ और गौतमबुद्ध नगर में मार्च 2017 से लेकर मार्च 2018 के बीच हुईं हैं। इन 17 घटनाओं में हुई जांच और पड़ताल का मूल्यांकन करती है और जांच एजेंसी, कार्यकारी मजिस्ट्रेट, न्यायिक मजिस्ट्रेट और एनएचआरसी की भूमिका की भी जांच करती है।

अगर इन 18 लोगों के नाम और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि देखें तो ये भी स्पष्ट होता है कि उत्तर प्रदेश पुलिस और वहाँ की सरकार एक विशेष सांप्रदायिक रंजिश के तहत काम कर रही है। इन 18 लोगों में 17 लोग अल्पसंख्यक मुस्लिम हैं जबकि एक हिन्दू है। हालांकि विकास दुबे और मनीष गुप्ता जैसे चर्चित मामलों में यह भेद भी खत्म होता दिखलाई देता है लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2013 के बाद से जिस तरह से साम्प्रादायिक तनाव पैदा हुआ है उसके संदर्भ में भी इन हत्याओं को देखा जाना चाहिए।

रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष एक तरफ ऐसी घटनाओं के खास पैटर्न की तरफ इशारा करते हैं जिसे लेकर समाज में आम स्वीकृति बनती जा रही है। जब हर घटना एक ही तरह से घटती है तब एक ‘संदेह’ पैदा होता है। यही संदेह कानून व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा खतरा भी बनता है और उसकी साख पर गंभीर संकट खड़ा करता है। इन मामलों में जो तथ्य सामने आए हैं वो हैरान केवल इसलिए नहीं करते कि इनमें विधि द्वारा स्थापित न्याय की न्यूनतम कार्यवाइयों का पालन नहीं हुआ बल्कि ये तथ्य हमें इसलिए हैरान करते हैं क्योंकि बिना किसी आचार संहिता के इन घटनाओं को अंजाम दिया गया और उसके बाद इन्हें पूरे तंत्र ने चतुराई और कपटता से छिपाने की कोशिश भी की। कुछ तथ्यों से इन हालातों की गंभीरता को समझा जा सकता है।

रिपोर्ट में जिन 17 घटनाओं का विश्लेषण किया गया है उनमें जो तथ्य कॉमन हैं उन्हें देखें तो इन सभी 17 मामलों में से एक भी मामले में हत्या में शामिल पुलिस टीम के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई। बजाय इसके, सभी 17 मामलों में, मृतक पीड़ितों के खिलाफ आईपीसी की धारा 307 और अन्य अपराधों के तहत हत्या के प्रयास के आरोप में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई।

17 मामलों में से प्रत्येक में मृतक पीड़ितों के खिलाफ दर्ज एफआईआर में हत्या की घटनाओं के एक समान परिस्थिति पैदा होने का दावा किया गया है जैसे पुलिस अधिकारियों और कथित अपराधियों के बीच अचानक गोलीबारी का विवरण जिसमें पुलिस पर गोली चलाई जाती है और फिर (आत्मरक्षा में) पुलिस फायर-बैक करती है, कथित अपराधियों में से एक की मौत हो जाती है जबकि उसका साथी हमेशा भागने में सफल रहता है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और पीयूसीएल में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए, अधिकांश मामलों में, प्रारंभिक जांच उसी पुलिस स्टेशन के एक पुलिस अधिकारी द्वारा कराई गई, जहां की पुलिस-टीम हत्या में शामिल थी। ज्यादातर मामलों में जांच अधिकारी की रैंक "एनकाउंटर" टीम के वरिष्ठ व्यक्ति की रैंक के समररूप पायी गयी। इन सभी मामलों में, सिर्फ पीयूसीएल के दिशानिर्देशों का अनुपालन दिखाने के लिए जांच को बाद में दूसरे पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित कर दिया गया।

रिपोर्ट में अध्ययन किए गए सभी मामलों में, एक अलग थाने के 'स्वतंत्र' जांच-दल द्वारा की गई जांच अपर्याप्त थी। ये जांच पुलिस के कथनों को स्वीकार करती है कि उन्होंने पीड़ितों को "आत्मरक्षा" के प्रयास में मार डाला, नियम यह है कि हत्या के लिए आत्मरक्षा के औचित्य को न्यायिक परीक्षण के माध्यम से साबित और निर्धारित किया जाना चाहिए। पुलिस के बयान से पुलिस के बचाव का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है या इसके माध्यम से इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती है। बल का प्रयोग आवश्यक और आनुपातिक था या नहीं, इस पर कोई जांच नहीं की गई। तथ्यात्मक विसंगतियों और अंतर्विरोधों की भी अनदेखी की गई।

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में घातक बल का प्रयोग साबित हुआ है।17 पीड़ितों में से 12 के शरीर में धड़, पेट और यहां तक कि सिर पर भी गोलियों के कई घाव दिखे। कुछ शवों में फ्रैक्चर होना भी पाया गया। पांच मृतक पीड़ितों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में गोली के घाव के आसपास कालापन और टैटू जैसे निशान थे जो नजदीक से फायरिंग का संकेत देते हैं। यह पुलिस के इस दावे का खंडन करते हैं कि कम से कम बल का प्रयोग किया गया था या कि गोलियों का उद्देश्य पीड़ितों के शरीर के निचले हिस्से को स्थिर करना और उनकी गिरफ्तारी सुनिश्चित करना था।

इन सभी मामलों में पाया गया कि पुलिस को केवल मामूली चोटें आयीं हैं। इन 17 पुलिस हत्याओं में शामिल लगभग 280 पुलिसकर्मियों में से केवल 20 पुलिस अधिकारी ही घायल हुए। विश्लेषण किए गए 17 मामलों में से 15 में पुलिस को केवल मामूली चोटें आईं।

अपर्याप्त सबूत कि मृतक या उसके साथी के पास हथियार थे या पुलिस पर गोली चलाई गई थी - सात मामलों में, मृतक की उंगलियों के निशान अपराध स्थल से बरामद हथियारों पर नहीं पाए गए थे। इसलिए पुलिस का दावा कि पीड़ितों ने उन पर गोली चलाने के लिए हथियारों का इस्तेमाल किया तथ्य संगत नहीं लगता।

यह साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है कि पुलिस द्वारा जवाबी फायरिंग जरूरी थी - जवाबी फायरिंग की जरूरत के सबूत के तौर पर बुलेट प्रूफ जैकेट को गोलियों के साथ पेश किया गया। कम से कम 16 बुलेट प्रूफ जैकेट में गोलियां दिखाई गईं। हालांकि इन गोलियों का उन हथियारों से कोई संबंध नहीं है जिनके बारे में दावा किया गया है कि ये मृतक के पास से बरामद किए गए हैं। यह भी निर्णायक रूप से नहीं दिखाया गया है कि ये बुलेट प्रूफ जैकेट वास्तव में कथित "मुठभेड़" में ही इस्तेमाल किए गए थे। कुछ मामलों में, पुलिस को लगी गोली के चोटों का मृतक द्वारा कथित रूप से इस्तेमाल किए गए हथियारों से कोई संबंध नहीं है।

विश्लेषण किए गए 17 मामलों में से 16 में जांच-अधिकारी ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष अदालत में क्लोज़र-रिपोर्ट दाखिल करके जांच को बंद कर दिया। सबूतों से उभरने वाले तथ्यात्मक विरोधाभासों को देखते हुए, सभी 16 मामलों में क्लोज़र-रिपोर्ट पुलिस के कथनों की पुष्टि करती है कि फायरिंग आत्मरक्षा में की गई थी। सभी मामलों को इस आधार पर बंद कर दिया गया कि पीड़ित - जिन्हें "आरोपी" के रूप में नामित किया गया था - मर चुके थे, और पुलिस को उस साथी के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली जो अपराध स्थल से भाग गया था। इस प्रक्रिया को अन्य मामलों में उच्च न्यायालयों और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा असंवैधानिक ठहराया गया है।

16 में से 11 मामलों में जहां पुलिस द्वारा क्लोज़र-रिपोर्ट दर्ज की गई थी, ऐसा प्रतीत होता है कि मजिस्ट्रेट ने इन मामलों में मृतक को "आरोपी" के रूप में नामित करके, मामले को बंद करने से पहले पीड़ित परिवार को नोटिस जारी करने की न्यायालय की इस आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया। मजिस्ट्रेट ने प्राथमिकी में शिकायतकर्ता पुलिस अधिकारी को नोटिस जारी किया, जो जांच को बंद करने के लिए "अनापत्ति" पत्र देता है। इस प्रक्रिया के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट जांच को बंद कर देते हैं।

कानून (सीआरपीसी की धारा 176(1-ए)) के मुताबिक मौत के कारणों की जांच न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा की जानी चाहिए, हालांकि कम से कम आठ मामलों में, यह जांच कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा की गई थी जो सीआरपीसी के प्रावधानों का उल्लंघन है। यह उल्लंघन यह भी दर्शाता है कि जवाबदेही से बचने के लिए पीयूसीएल दिशानिर्देशों में स्पष्टता की कमी का फायदा उठाया जा रहा है। कार्यकारी मजिस्ट्रेटों ने पुलिस हत्याओं को "वास्तविक" माना, जो उनकी शक्तियों और अधिकार क्षेत्र से परे है। उनका काम केवल मृत्यु के कारण को निर्धारित करना है न कि यह तय करना है कि कोई अपराध किया गया है या नहीं। कार्यकारी मजिस्ट्रेट के निष्कर्ष और रिपोर्ट पुलिस कथनों पर आधारित हैं जिनमें से अधिकांश रिपोर्ट फॉरेंसिक या बैलिस्टिक साक्ष्य पर विचार तक नहीं करती। परिवार के सदस्यों के बयान या तो दर्ज नहीं किए गए हैं और यदि किए हैं तो सही तरीके से नहीं ।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा इस रिपोर्ट में विस्तृत 17 मामलों की जांच के निर्देश के तीन साल बाद, 14 मामलों का फैसला किया गया है जिनमें से दो मामले अब भी लंबित हैं और एक मामले की स्थिति सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा तय किए गए 14 मामलों में से 12 मामलों को बंद कर दिया गया है। पुलिस की ओर से कोई गड़बड़ी नहीं पाई गई और एक मामला उत्तर प्रदेश राज्य मानवाधिकार आयोग को स्थानांतरित कर दिया गया। केवल एक मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने माना कि मृतक पुलिस द्वारा 'फर्जी मुठभेड़' में मारा गया था। सिर्फ यही नहीं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा की गई अन्य पूछताछ में पुलिस की कहानी में तथ्यात्मक विरोधाभासों और विसंगतियों की अनदेखी की गई है। यह प्रक्रियात्मक और मूल रूप से कानून के उल्लंघन पर भी आंखें मूंद लेता है। उदाहरण के लिए, मृतक पीड़ितों के खिलाफ सभी प्राथमिकी दर्ज करना और पुलिस के खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं करना; आत्मरक्षा के पुलिस के कथन के आधार पर जांच को बंद करना, आत्मरक्षा के औचित्य का कोई न्यायिक निर्धारण न होना, अपराध की जगह से सबूत इकट्ठा करने और उसे सहेजने में उल्लंघन करना, अक्सर उसी पुलिस स्टेशन से सम्बंधित पुलिस अधिकारियों द्वारा जांच करना जहां कि पुलिस हत्याओं में शामिल थी।

जांच और जवाबदेही सुनिश्चित करने का भार पूरी तरह पीड़ित परिवारों पर पड़ता है। परिवारों को झूठे और मनगढ़ंत आपराधिक मामलों के जरिए डराया-धमकाया जाता है और उनका उत्पीड़न किया जाता है। राज्य और गैर-राज्य अभिकर्ता द्वारा पीड़ित परिवारों और कानूनी-सहायता प्रदान करने वाले मानवाधिकार रक्षकों के उत्पीड़न के बारे में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को कम से कम 13 पत्र दिए गए। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पीड़ितों के परिवारों के उत्पीड़न से संबंधित पत्रों का न तो कोई जवाब दिया और न ही रिकॉर्ड में लिया। मानवाधिकार रक्षकों के उत्पीड़न के मामलों में जांच का निर्देश दिया लेकिन उन पूछताछों को भी बंद कर दिया।

यह रिपोर्ट पुलिस हत्याओं के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने में आपराधिक न्याय प्रणाली की घोर विफलता को उजागर करती है। यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे न्याय-प्रणाली मौत का कारण बनने वाले, बल के उपयोग के लिए पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही तय करने में असमर्थ है। यह पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों में अस्पष्टता और अंतर को उजागर करती है जो प्रभावी रूप से हत्याओं के लिए दण्ड मुक्ति की बात करते हैं। इनमें पुलिस के खिलाफ दर्ज की जाने वाली प्राथमिकी पर अनिश्चितता और अस्पष्टता का परिचय देना शामिल है ताकि जांच के स्तर पर ही आत्मरक्षा की दलील का दुरुपयोग किया जा सके। इनमें पुलिस हत्याओं में न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा अनिवार्य जांच के सम्बंध में अस्पष्टता भी शामिल है। अंततः यह भी असंभव है कि राज्य पुलिस विभाग द्वारा अपने ही सहयोगियों द्वारा किए गए अपराधों की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच की जाए।

मंगला वर्मा, विपुल कुमार और रत्ना अपेंदर जो इस दस्तावेज़ को सामने लाये हैं कहते हैं कि, यह एक भयानक और डरावना अनुभव है कि जिस देश में कानून का राज कायम हो वहाँ खुद कानून के पहरेदार किस तरह से सभी स्थापित व्यवस्थाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। यह रिपोर्ट अगर समाज को इस गंभीर होती स्थिति के बारे में जागरूक कर पाये तो इस डरावने माहौल में कुछ बदलाव संभव होगा।

_____________

(लेखक डेढ़ दशकों से जन आंदोलनों से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest