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नज़रिया: उत्तर प्रदेश आज निरंकुशता और अराजकता का सर्वनाम, 2022 में योगीराज की विदाई तय!

संघ-भाजपा के लिए भी यह जीवन-मरण का प्रश्न है, 2024 में पुनर्वापसी की उम्मीद को ज़िंदा रखना है,  तो 2022 में उत्तर प्रदेश उन्हें हर हाल में जीतना होगा। पश्चिम बंगाल में दुर्गति के बाद उनका desperation और बढ़ गया है।
योगी

राजनीतिक दृष्टि से देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश के चुनाव की अधिसूचना जारी होने में महज 6-7 महीने का वक्त बचा है। जाहिर है, राजनीतिक हलकों में हलचल बढ़ती जा रही है।

पिछले दिनों अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने कहा,  "लगभग सारे हिंदुस्तानी, निश्चय ही वे सारे लोग जिन्हें देश की फिक्र है, 2024 का उसी तरह इंतज़ार कर रहे हैं जैसे भारत ने कभी 1947 का किया था।"

जाहिर है, इस इंतज़ार का सबसे अहम पड़ाव उत्तर प्रदेश का आसन्न चुनाव है।

संघ-भाजपा के लिए भी यह जीवन-मरण का प्रश्न है, 2024 में पुनर्वापसी की उम्मीद को जिंदा रखना है,  तो 2022 में उत्तर प्रदेश उन्हें हर हाल में जीतना होगा। पश्चिम बंगाल में दुर्गति के बाद उनका desperation और बढ़ गया है। पर 7 साल मोदी जी के राज और 5 साल डबल इंजन की योगी जी की सरकार के कार्यकाल के बाद प्रदेश का सच इतना कुरूप है कि आखिर किस मुंह से वे फिर से जनादेश माँगेगे?

योगी-राज में उत्तर प्रदेश आज निरंकुशता और अराजकता का सर्वनाम बन चुका है। हाल-फिलहाल प्रतापगढ़ में पत्रकार सुलभ श्रीवास्तव की कथित तौर पर शराब माफिया द्वारा हत्या और राम मंदिर ट्रस्ट के घोटाले की खबर ने इसी की पुष्टि की है।

अपने राज के विद्रूप चेहरे को ढकने, छिपाने, और एक नकली चेहरा पेश करने के लिए वे तरह तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। गोएबेल्स की शैली में सरकार की कथित उपलब्धियों को लेकर लगातार बड़े बड़े झूठ पूरे आत्मविश्वास के साथ बोले जा रहे हैं और सरकारी खजाने से अंधाधुंध विज्ञापन द्वारा उन्हें सच के बतौर जनता के गले उतारने की कोशिश हो रही है। मीडिया की मदद से नैरेटिव बदलने के लिए रोज नए नए शिगूफे छोड़े जा रहे हैं और जनता की भयावह तबाही से ध्यान भटकाने की कोशिश हो रही है।

सरकार बेरोजगारी से लेकर मौत तक के आंकड़े दबा रही है, पर उत्तर प्रदेश के हालात इतने खराब हैं कि खुद मोदी जी के चहेते नीति आयोग के आंकड़े भी उनकी पर्देदारी नहीं कर पा रहे हैं। सच्चाई 7 पर्दों के पार बाहर आ ही जा रही है।

आइए देखें नीति आयोग की नज़र में उत्तर प्रदेश आज किस हाल में है

नीति आयोग के SDG सूचकांक ( Sustainable Development Goal index ) के अनुसार उत्तर प्रदेश आज देश के सबसे फिसड्डी 5 राज्यों में है बिहार, असम, झारखंड के साथ। रिपोर्ट से यह बात  प्रमुखता से उभरती है कि आय की असमानता, गरीबी और भूख जैसे  मानव विकास के पैमानों पर उत्तर प्रदेश का performance खासतौर से बेहद खराब है।

इन आंकड़ों के हिसाब से प्रदेश की लगभग एक तिहाई आबादी (29.43% ) अर्थात 7. 5 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। (वैसे प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना ( PMGKAY ) के coverage के अनुसार प्रदेश में गरीबों की संख्या लगभग 13 करोड़ है, अर्थात UP की 25 करोड़ आबादी के आधे से अधिक।)

बेरोजगारी का आलम यह है कि चारों ओर तो सन्नाटा है ही, नीति आयोग के अनुसार मनरेगा में भी काम नहीं मिल पा रहा और कोरोना आपदा के दौर में दरअसल उसमें कमी आ गयी है, नीति आयोग के अनुसार मांग की तुलना में मिलने वाला काम एक साल में 84.23 से घटकर 82.15 रह गया है।

प्रदेश में कुपोषण का स्तर यह है कि आधे से अधिक (51%) गर्भवती महिलाएं एनीमिया की शिकार हैं, 31. 6% किशोर भी anaemic हैं।

जिस स्वास्थ्य बीमा योजना का इतना ढोल पीटा गया था, वैसे तो कोरोना काल में सब जगह ही उसकी ढोल फट गई, उत्तर प्रदेश में SDG index के अनुसार तो महज 6.1% आबादी के पास ही स्वास्थ्य बीमा कवर है, 94% आबादी उसके बाहर है।

इस स्थिति में व्यापक बीमा कवरेज वाले अमेरिका की तर्ज़ पर अंधाधुंध निजीकरण को बढ़ावा देकर जब स्वास्थ्य सेवाओं को बेहद महंगा बना दिया गया है और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त हैं, तब स्वाभाविक रूप से विराट आबादी अच्छे इलाज से वंचित हो गयी है,  फलस्वरूप कोरोना काल ने अनगिनत जिंदगियों को लील लिया।

नीति आयोग के विकास सूचकांक के अनुसार उत्तर प्रदेश में आज भी साक्षरता दर 15 से ऊपर के आयुवर्ग के लिये 68.2% है अर्थात देश जब आज़ादी की 75वीं सालगिरह मनाने की तैयारी कर रहा है, तब प्रदेश की एक तिहाई आबादी अभी भी निरक्षर है। हाई स्कूल स्तर पर ड्राप आउट रेट पिछले साल के 12.71% से बढ़कर 15.51% हो गया है।

महिलाओं के खिलाफ अपराध पहले से भी बढ़ गए हैं, प्रति 1 लाख पर 53.2 से बढ़कर 55.40। महिलाओं की औसत मजदूरी/वेतन पुरुषों की तुलना में 1.25 से 25% घटकर 0.94 रह गयी है।

बहरहाल, सच्चाई नीति आयोग के इन आंकड़ों से कई गुना अधिक भयानक है। आर्थिक तबाही का हाल यह है कि मजदूर के साथ साथ मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि तक से लगातार सपरिवार आत्महत्या की खबरें आ रही है। इलाहाबाद जो शिक्षा और प्रतियोगी छात्रों का ऐतिहासिक केंद्र रहा है, वहां प्रतियोगी छात्रों के बीच बेरोजगारी के कारण गहरी हताशा और बेचैनी है, वे सालों से  खाली पड़े लाखों पदों की लंबित भर्ती प्रक्रिया को पूरा कराने के लिए लगातार सड़कों पर उतर रहे हैं, सोशल मीडिया पर रोष व्यक्त कर रहे हैं और बीच-बीच में अवसादग्रस्त युवाओं की वहां से भी खुदकशी की चिन्ताजनक खबरें आती रहती हैं।

प्रदेश में न कहीं नया औद्योगीकरण है, न खाद्य प्रसंस्करण जैसे उद्यमों के लिए कोई पहल है, जहां बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन हो सकता है, न शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी सेवाओं में सार्वजनिक निवेश substantially बढ़ाकर सेवा और रोजगार सृजन का कोई प्रयास है। यहां तक कि वर्षों से खाली पड़े लाखों पद भी नहीं भरे जा रहे हैं।

किसान पिछले 6 महीने से जीवन-मरण संग्राम में जूझ रहे हैं। मूलतः उपभोग के लिए उत्पादन करने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान लागत सामग्री की अंधाधुंध बढ़ती कीमतों से बेहाल हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश के गन्ना उत्पादक किसानों का 13 हजार करोड़ मिलों पर बकाया है। किसानों की आत्महत्या अब उत्तर प्रदेश की भी परिघटना बनती जा रही है।

समाज के कमजोर तबके दलित-आदिवासी, महिलाएं, मुसलमान लगातार हमलों और हर तरह की हिंसा के शिकार हो रहे हैं। जो अति पिछड़े, दलित अच्छे दिन और सामाजिक न्याय की उम्मीद में भाजपा से जुड़े थे, उनके वे सारे सपने धूल-धूसरित हो चुके हैं। नौकरशाही के उच्चतर पदों पर नियुक्ति में जाति-समुदायगत भेदभाव किया ही जा रहा है, भर्तियों तक में संवैधानिक प्रावधानों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं।

लोकतांत्रिक ताकतों, निष्पक्ष पत्रकारों, असहमत बुद्धिजीवियों के लिए पूरा प्रदेश 5 साल से जेलखाना ही बना हुआ है।

समाज मे चारों ओर उदासी और निराशा पसरी हुई है, एक मातमी माहौल है। हर कोई सहमा हुआ है, एक अनजाना सा खौफ है, अनिश्चित-असुरक्षित भविष्य का भय, जीवन और आजीविका दोनों का। Super-rich उच्चवर्ग को छोड़कर कोई ऐसा तबका नहीं है, जिसके अंदर आज फील गुड जैसा कोई एहसास हो। दरअसल, समाज जिस जलजले से गुजरा है, उसके shock से उबरने में लंबा वक्त लगेगा, और यहां तो अभी फिर से उसकी वापसी की तलवार लटक रही है।

समाज में  कोई हलचल न होने से किसी को  गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। दरअसल, यह तूफान के पहले की शांति है।

संघ-भाजपा बेशक इस कोशिश में लगे हैं कि सामाजिक-राजनीतिक विमर्श को कृत्रिम सवालों के कुहासे से ढक दिया जाय और समाज को विभिन्न भावनात्मक सवालों के माध्यम से विभाजित कर दिया जाय।

हाल ही में प्रदेश के बंटवारे की जबरदस्त चर्चा वायरल होने लगी। क्योंकि मोदी-शाह से इस तरह के राजनीतिक फायदे के मनमाने फैसलों और 'सरप्राइज' को अब लोग स्वाभाविक मानने लगे हैं। किसान आंदोलन ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में इनका सूपड़ा जिस तरह साफ किया है, उसमें लोगों को यह खबर एकदम विश्वसनीय लगने लगी। बहरहाल फिलहाल वह ठंडी पड़ चुकी है।

ठीक इसी तरह एक समय अतिपिछड़ों को आकर्षित करने के लिए पिछड़े आरक्षण में से अतिपिछड़ों का हिस्सा अलग करने का मामला जोर शोर से चर्चा में आया था, लेकिन सम्भवतः पिछड़ों में जो अगड़े इनके साथ हैं, उनकी नाराजगी के मद्देनजर उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। दरअसल, इनके लिए उसूल कोई मुद्दा नहीं है। इनके सारे फैसले चुनावी फायदे-नुकसान के तराजू पर, विभाजनकारी राजनीति के तकाजों से तय होते हैं।

यहां-वहां मुसलमानों और मस्जिदों पर हमलों के माध्यम से लगातार Low Intensity communal conflict को हवा देने और अयोध्या राम-मंदिर के साथ काशी मथुरा को गर्माने का खतरनाक खेल जारी है। 5 साल चूसने और लूटने के बाद अंतिम घड़ी में जनता को घूस देकर वोट खरीदने के लिए कुछ लोकलुभावन घोषणाएं भी जारी हैं।

पर यह कोशिश सफल नहीं होगी, क्योंकि अबकी बार चोट सीधे मर्म पर लगी है, अबकी बार जो हादसे की जद में है, वह सीधे जीवन ही है। लोगों ने अपनों को खोया है, शायद ही कोई व्यक्ति, परिवार, मुहल्ला, गांव बचा हो जिसे अपने मित्रों, परिजनों का विछोह न सहा हो।

और यह सबका साझा गम है। लोगों ने एक दूसरे को संभाला है, प्राणवायु और जीवनरक्षक दवाएं देकर उस समय एक दूसरे को बचाया है, जब सरकार अनुपस्थित हो गयी थी, hibernation में चली गयी थी। इस साझे गम और साझी लड़ाई के एहसास से सराबोर समाज को, जो अभी भी जीवन की उस ठोस ( concrete ) लड़ाई के बीच में है, उसे फिर से पहले जैसे नकली, हवाई भावनात्मक सवालों पर बांट देना आसान नहीं है।

जनता बदलाव के मूड में है, जरूरत है एक नई आशा की, एक नए विकल्प की।

हम जानते हैं संघ-भाजपा के पुनरुत्थान के मूल में centrist-liberal-regional-identity politics का हिंदुत्व-कारपोरेट एजेंडा के आगे समर्पण है। जाहिर है जबतक इस एजेंडा का वैचारिक-राजनीतिक निषेध करता सुसंगत लोकतांत्रिक विकल्प नहीं उभरेगा, तब तक इनकी निर्णायक शिकस्त नहीं होगी और एक चुनाव हारने के बाद भी नव-उदारवाद के मौजूदा संकटापन्न दौर में बारम्बार इनकी पुनर्वापसी का खतरा बना रहेगा।

जहां तक आसन्न चुनाव का प्रश्न है, आज जरूरत है, विपक्षी, वाम व लोकतांत्रिक ताकतें एकताबद्ध होकर प्रदेश के आर्थिक पुनर्जीवन, चौतरफा कृषि विकास, रोजगार सृजन, जनतांत्रिक सुधार, सबके लिए इंसाफ और सौहार्द तथा सुसंगत सामाजिक न्याय के साझा न्यूनतम राजनीतिक कार्यक्रम के साथ जनअभियान में उतरें और भाजपा विरोधी ताकतों का व्यापकतम सम्भव संयुक्त मोर्चा बनाएं।

यह जनता के बीच नई आशा जगायेगा और न सिर्फ 2022 में प्रदेश से योगीराज का अंत करेगा बल्कि 2024 में दिल्ली में पुनर्वापसी की भाजपा की राह भी बंद करेगा तथा 2025 में संघ के शताब्दी वर्ष में हिन्दराष्ट्र की स्थापना के उनके सपने को भी चकनाचूर करेगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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