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विचार: योगी की बल्ले बल्ले, लेकिन लोकतंत्र की…

अंतरराष्ट्रीय पूंजी ने आधुनिक किस्म के हिंदुत्व के साथ एक तालमेल बिठा लिया है। अब इसे मनुवादी कहना और ब्राह्मणवादी कहना एकदम से सटीक नहीं बैठता। इसमें सत्ता में भागीदारी का पूरा इंतजाम किया गया है।
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उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में लगातार दूसरी बार चुन कर आए योगी आदित्यनाथ का शपथ ग्रहण समारोह शक्ति, संपन्नता और राजनीतिक इंद्रधनुष का ऐसा भव्य प्रदर्शन था कि उसे देखकर विपक्षी दल और भाजपा संघ के आलोचक हताश हो सकते हैं। शायद इसीलिए उसमें विपक्ष का कोई नेता गया भी नहीं। भाजपा के प्रवक्ताओं ने कहना भी शुरू कर दिया है कि अब हम गुजरात की ही तरह उत्तर प्रदेश से हटने वाले नहीं हैं। जब उत्तर प्रदेश की सत्ता से नहीं जाएंगे तो दिल्ली की सत्ता से जाने का सवाल ही नहीं है।

लखनऊ के इकाना क्रिकेट स्टेडियम में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षा मंत्री, पार्टी अध्यक्ष अन्य केंद्रीय मंत्रियों भाजपा और उसके गठबंधन शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों के साथ 50,000 की भीड़ से भरे इस मैदान की पिच से ऐसा छक्का लगाया गया कि बाल मैदान के बाहर ही नहीं 2024 के पार जाकर गिरी। प्रतीकों के माध्यम से समय और स्थान के उस पार जाकर बल्लेबाजी करने की कला में भाजपा और संघ परिवार का कोई जवाब नहीं है। उसने भारतीय राजनीति से सादगी, संयम और सद्भाव को बहिष्कृत करके तड़क भड़क, आक्रामकता और विषमभाव का ऐसा आख्यान रचा है कि उसमें जनमानस बह गया है। मीडिया अब यह सवाल नहीं करता कि आखिर इतने बड़े खर्च का स्रोत क्या है और इतने अपव्यय की आवश्यकता क्या है ?  इतनी खर्चीली राजनीति को देखकर कोई सामान्य व्यक्ति राजनीति करने और चुनाव लड़ने के बारे में कैसे सोच सकता है ? 

भारतीय लोकतंत्र राजनीतिक दलों के गिरोहों में पहले ही फंस चुका था और अब धनपतियों के चंगुल में पूरी तरह आ चुका है। इसे हिंदू जातियों की समावेशी राजनीति बताने वाले माध्यम यह बताने को नहीं तैयार हैं कि इसमें पूंजीवाद का कितना हित है और इसमें अल्पसंख्यक समाज एक बिजूके की तरह क्यों खड़ा किया गया है ? लेकिन इन विषयों पर सवाल उठाने का साहस कोई संचार माध्यम कर कैसे सकता है जबकि वह स्वयं इस आयोजन का हिस्सा है।

बस हर कोई यही कहे जा रहा था कि योगी सरकार का यह मंत्रिमंडल 2024 के चुनाव को लक्ष्य करके बनाया गया है। जैसे 2024 का चुनाव मोदी के काम पर नहीं होने वाला है बल्कि योगी के काम पर होने जा रहा है। अब यह कयास लगाने की बात है कि 2024 में देश का प्रधानमंत्री कौन बनेगा। ज्यादातर विश्लेषक यह मानने लगे हैं कि होगा कोई भाजपा से ही और विपक्षी दलों के सत्ता में आने की कोई संभावना नहीं है। यह एक प्रकार का राजनीतिक नियतिवाद है जिसने भारतीय लोकतंत्र को अजगर की तरह लपेट लिया है। लोकतंत्र इससे छूटने के जितने प्रयास करता है वह उतना ही शक्तिहीन और अस्थिहीन होता जा रहा है।

इसलिए यह जानना जरूरी है कि आखिर वे कौन सी शक्तियां हैं जो अब भारत के सबसे बड़े प्रदेश पर काबिज हो चुकी हैं और वे किस दिशा में इसे ले जा रही हैं। फिर ऐसी स्थिति में विपक्ष की भूमिका निभाने वाले दलों को और सवाल पूछने वालों को क्या करना चाहिए और क्या कहना चाहिए?  निश्चित तौर पर भारतीय जनता पार्टी ने लखनऊ के इकाना स्टेडियम में राजनीतिक टेस्ट मैच का जो आयोजन किया उसके पीछे कमंडल, मंडल और भूमंडल की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक शक्तियों का गहरा गठजोड़ है। बिना उसके न तो इतना भव्य आयोजन हो सकता है और न ही इस तरह से गुणगान हो सकता है। इनमें से दो पिचें तो ऐसी हैं जहां बाकी दल भी टास जीतकर मैच खेलते रहे हैं लेकिन एक पिच तो शुद्ध भाजपा की ही है। इसलिए वहां कोई और पहले तो मैच ही नहीं खेल सकता और अगर उसने कदम बढ़ाए तो उसका आल आउट होना तय है। वह है कमंडल की पिच। उस पिच पर भाजपा की बाउंसर बाल को कोई पार्टी खेल ही नहीं सकती। वह बनाई ही उन्हीं के लिए गई है। उस पर कोई भी सेक्यूलर बल्ला चल ही नहीं पा रहा है। उसी के प्रतिउत्तर में देश के बाकी दलों ने मंडल और भूमंडल की पिच पर मैचों का आयोजन किया था जहां कभी भाजपा को हराया तो कभी मैच ड्रा रहा। लेकिन अब भाजपा ने इन दोनों पिचों पर भी मैच जीतना सीख लिया है।

कहने का तात्पर्य यह है कि दलित और पिछड़ी जातियों की गोलबंदी से बहुसंख्यकवाद को रोकने की कोशिश आरंभ में तो कामयाब हो रही थी लेकिन अब निरंतर नाकाम होती जा रही है और अब तो वह एजेंडा भी भाजपा ने हथिया लिया है। इसलिए सामाजिक न्याय की जनता दली और लोकदली पार्टियां या तो एनडीए के बाड़े में कैद हो गई हैं या अगर बाहर हैं तो लगातार पछाड़ खा रही हैं। रही वैश्वीकरण के माध्यम से अर्थव्यवस्था को ठीक करने की बात तो अब भाजपा ढांचागत सुधार की उस कांग्रेसी जमीन पर धुंआधार बैटिंग कर रही है जिस पर कभी नरसिंह राव और डा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी एक के बाद एक मैच अपनी झोली में डाल रही थी।

शपथ ग्रहण समारोह का हिंदी मीडिया और अखबारों ने ऐसा कवरेज किया है जैसे यह दुनिया की सबसे बड़ी घटना रही हो। फिर उसकी संरचना को ऐसा प्रदर्शित किया है जैसे प्रदेश और देश का सारा समाज इसमें समा गया है। यानी जो इस प्रदेश और देश में है वह सब कुछ योगी मंत्रिमंडल में है और जो इसमें नहीं है वह या संसार में नहीं है या फिर उसका महत्त्व नहीं है। वैसा जैसा महाभारत के बारे में कहा जाता है। कुल 52 सदस्यीय मंत्रिमंडल में 19(36 प्रतिशत) ओबीसी, 7(13.5 प्रतिशत) ब्राह्मण, 7(13.5 प्रतिशत) क्षत्रिय, 8 (15 प्रतिशत) दलित, 5 महिलाएं और बाकी कायस्थ, खत्री, सिख, आदिवासी, वैश्य जातियों का एक-एक व्यक्ति का प्रतिनिधित्व यह बताता है कि अब सबका साथ और सबका विकास सुनिश्चित हो गया है।

लेकिन इस बात का जिक्र नहीं किया जा रहा है कि प्रदेश में 19 प्रतिशत आबादी वाले मुस्लिम समुदाय को महज दो प्रतिशत प्रतिनिधित्व देने के क्या मायने हैं। लोग यह मानकर चल रहे हैं कि यह तो होना ही था। क्योंकि भाजपा की नीति ही राजनीति और सत्ता में मुस्लिमों को दरकिनार करने की है। इसलिए यह सवाल उठाना ही बेकार है। चाहे इसके परिणाम दीर्घकाल में कितने ही भयानक क्यों न हों।

सवाल यह है भाजपा के इस महाख्यान के जवाब में प्रदेश और देश का विपक्ष किस बात की(क्योंकि पद तो उसके पास है नहीं) शपथ ले और कौन सा आख्यान बनाए ? विपक्ष अगर इस उम्मीद में बैठा है कि भूमंडलीकरण के पुराने मार्ग पर चलकर वह इस महारथ का मुकाबला कर सकता है तो यह उसकी गलतफहमी है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी ने अपने हितों को साधने के लिए भाजपा के राष्ट्रवाद के साथ तालमेल बिठा लिया है। आर्थिक सुधार करने और निजीकरण करने वालों को राष्ट्रवादी और उस पर सवाल उठाने वालों को राष्ट्रद्रोही कहा जाता है। तमाम निवारक नजरबंदी कानून जो देश की सुरक्षा के नाम पर बनाए गए लगते हैं वे दरअसल इसी पूंजी की हिफाजत के लिए बने हुए हैं। इसलिए इस बात की कम ही संभावना है कि वह अंतरराष्ट्रीय पूंजी किसी और दल और शक्ति को निकट भविष्य में इस काम के लिए चुनने वाली है। कांग्रेस को अगर इस प्रकार की कोई गलतफहमी हो तो दूर हो जानी चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय पूंजी ने आधुनिक किस्म के हिंदुत्व के साथ एक तालमेल बिठा लिया है। अब इसे मनुवादी कहना और ब्राह्मणवादी कहना एकदम से सटीक नहीं बैठता। इसमें सत्ता में भागीदारी का पूरा इंतजाम किया गया है। लेकिन एक बात जरूर हुई है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति के केंद्र में पिछड़ा और दलित केंद्रित जो आख्यान उभरा था वह अब सिर के बल खड़ा हो गया है। अब वहां मुलायम सिंह, मायावती और अखिलेश यादव जैसा कोई कद्दावर दलित और पिछड़ा मुख्यमंत्री नहीं आएगा। भाजपा के सवर्ण नेता कल्याण सिंह की दुर्गति करके बता चुके हैं कि उनकी पार्टी के भीतर कोई पिछड़ा नेता स्वतंत्र बनने की कोशिश न करे। वह उप मुख्यमंत्री रह सकता है लेकिन घटी हुई हैसियत के साथ। वह मंत्रिमंडल में रह सकता है लेकिन केंद्रीय नेतृत्व की आंखों में आखें नहीं डाल सकता। उन्हें काम सवर्ण नेताओं के इशारे पर या उनके मातहत ही करना होगा।

अब वहां सामाजिक परिवर्तन की बजाय सामाजिक संतुलन की राजनीति की जाएगी और समाज सुधारकों के क्रांतिकारी विचारों की बजाय हिंदुत्ववादियों की हुंकार सुनाई देगी। अब वहां दलित लोकतांत्रिक क्रांति की बजाय मंत्रिमंडल में दलितों का समावेश होगा। अब वहां कोई कांशीराम यह नहीं कहेगा कि आरक्षण तो हम सवर्णों को देंगे। ये हमें क्या आरक्षण देंगे। न ही कोई उनकी तरह यह कह पाएगा कि हमें केंद्र में मजबूत नहीं मजबूर सरकार चाहिए। मायावती के बनाए वे पार्क वीरान हो गए हैं जिनमें फुले, पेरियार, नारायण गुरु और आंबेडकर की मूर्तियां सुशोभित होती थीं और साल में कम के कम एक दो बार जनता वहां जुटकर सामाजिक बदलाव की प्रेरणा लेती थी। हिंदुत्व ने अपने आख्यान को सिर्फ अयोध्या, काशी और मथुरा तक सीमित नहीं रखा है उसने उसमें केरल, कश्मीर और पूर्वोत्तर को भी जोड़ लिया है। 

रही मंडल की शक्तियों की बात तो उनकी ताकत तो बंट गई है। उन्होंने अपने मंडल आंदोलन में विकास जोड़ने की कोशिश की थी लेकिन उसे भ्रष्ट और परिवारवादी बताकर परास्त कर दिया गया। इस तरह उसकी उर्जा को हिंदुत्व ने अपनी ओर खींच लिया।

आज इकाना स्टेडियम से निकली यह विजय यात्रा कहां जाकर रुकेगी कहा नहीं जा सकता। एक बात जरूर स्पष्ट है कि उन्होंने जिस संविधान की शपथ ली है उसके प्रति उनकी निष्ठा संदिग्ध है। उनका अगला मैच अगर विपक्ष से नहीं हुआ तो वह संविधान से ही होगा। वैसे विपक्ष क्षेत्रीय शक्तियों के तौर पर सिर उठा रहा है लेकिन वह कब सिर झुका कर अपने घरों में बैठ जाए कहा नहीं जा सकता।

इस विजय से असहमत राजनीति दलों और देशभक्तों का एक ही दायित्व है कि वे इसका वैकल्पिक आख्यान रचें और इसके जवाब में अपनी सक्रियता दिखाएं। वह सक्रियता कमंडल और भूमंडल के आधार पर नहीं बन सकती। भले ही उसमें मंडल का पूरा तत्व रहे लेकिन केवल उससे भी नहीं बात बनने वाली है। आज जरूरत है एक लोकतांत्रिक आंदोलन की जो इससे कदम कदम पर सवाल कर सके और कह सके कि कानून व्यवस्था का प्रतीक बुलडोजर कैसे हो गया?  लोकतंत्र तो बिना दमन के अपने नागरिकों को कानून का पालन करना सिखाता है। इसलिए बुलडोजर के विरुद्ध इंसाफ के प्रतीकों को उठाया जाना चाहिए। लोकतंत्र नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा की धारणा पर टिका है। चुनाव होते रहना उसका एक हिस्सा है। लेकिन चुनाव के दौरान न तो किसी नागरिक के अधिकारों का दमन होना चाहिए और न ही चुनाव के बाद।

वैकल्पिक राजनीति का दूसरा तत्व सद्भाव या समभाव का होना चाहिए। याद रखना होगा कि महात्मा गांधी को सहिष्णुता शब्द से बहुत परेशानी थी। वे कहते थे कि इसका अर्थ है कि हम किसी को पसंद नहीं करते लेकिन बर्दाश्त करते हैं। इसलिए वे समभाव या सद्भाव को बहुत पसंद करते थे। हम इसे कैसे निर्मित करें उसके लिए बहुत विचार मंथन और कर्म की जरूरत है। लेकिन वह नहीं हो पाएगा ऐसा सोचना मानवता में अविश्वास करना है। मनुष्य एक दूसरे के प्रति जितनी घृणा रखता है उससे कहीं ज्यादा प्रेम रखता है। जिस तरह से प्रकृति के तमाम ग्रह और वस्तुएं गुरुत्वाकर्षण शक्ति से बंधे हैं उसी तरह से मनुष्य और तमाम जीव जंतु प्रेम की शक्ति से बंधे हैं।

लेकिन इन सबसे आगे जरूरत है विकास की मौजूदा अवधारणा पर बहस करने और एक नया आख्यान रचने की। समाजवादी आख्यान का एक रूप ध्वस्त हो चुका है। लेकिन फिर भी वह किसी न किसी रूप में इस्तेमाल होता रहता है। समाजवाद को गालियां देते हुए भी सरकारें लाभार्थी योजनाओं को चलाती रहती हैं और उसके आधार पर वोट लेती रहती हैं। इसकी साफ वजह यह है कि विकास के मूल में जन कल्याण नहीं बल्कि धन कल्याण और धनपतियों का कल्याण है। जन विकास की परिधि पर है इसलिए वह महंगे सिलेंडरों से पका हुआ मुफ्त का राशन खाकर और भाषण पीकर संतुष्ट है। जबकि पूंजीपति खामोशी से सत्ता और संसाधनों को अपनी मुट्ठी में करता जा रहा है। असमानता सूचकांक और भूख सूचकांक इसके प्रमाण हैं। इसलिए तीन दशकों से चल रही विकास की उन अवधारणाओं पर सवाल उठाते हुए उन्हें खारिज करने की है जो दुनिया के अन्य हिस्सों में विफल हो चुकी हैं और यहां भी असमानता और पर्यावरण की समस्याएं पैदा कर रही हैं।

विकास के लघु और बृहत्त सैद्धांतिक और व्यावहारिक सभी पहलुओं पर चर्चा की आवश्यकता है। एक ओर वैश्वीकरण और निजीकरण के दुष्परिणामों पर चर्चा की जरूरत है तो जरूरत है उत्तर प्रदेश के विकास माडल पर गंभीर बहस की। उत्तर प्रदेश अगर हिंदुत्व का माडल बन सकता है तो यह भी सवाल उठना चाहिए कि उसका विकास का माडल क्या होगा ?  वह गुजरात का माडल होगा या केरल का ?  पश्चिम बंगाल का माडल होगा या तेलंगाना का ?  छत्तीसगढ़ का माडल होगा या सिक्किम और भूटान का ?  बिहार का माडल होगा या महाराष्ट्र का ? जब यह सवाल उठेंगे तो `सबका साथ सबका विकास’ का नारा एक खोखला नारा साबित होगा ?  तब यह धारणा भी खंडित होगी कि इससे पहले किसी ने कुछ किया दिया क्या ?  तब यह बात भी खारिज होगी कि इससे अच्छा कुछ करके तो दिखाओ। तब मजदूर किसानों की आय दोगुनी करने की बात भी उठेगी। तब युवाओं के रोजगार की बात भी आएगी और तब प्रति व्यक्ति आय की बात भी उठेगी।

आज के समय में विपक्ष और विकल्प का रास्ता आसान नहीं है। वह मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं है।    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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