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उत्तराखंड 2022: बड़े बांधों से बढ़ा संकट, सड़कों पर उतरे कई गांव

उत्तराखंड में बांधों के चलते संकट में आए रैणी, जोशीमठ, हाट, हेलंग जैसे गांव अपने अस्तित्व पर आए ख़तरे से जूझ रहे हैं। लोहारी गांव का अस्तित्व मिट गया। साल 2022 में बांधों के चलते इन गांवों के गुस्से और दर्द की आवाज़ सुनी जा सकती है।
Joshimath protest
चमोली के जोशीमठ में एनटीपीसी की जलविद्युत परियोजना के खिलाफ नारेबाजी करते हुए लोग। जोशीमठ में हो रहे भू-धंसाव को लेकर लोगों में एनटीपीसी के खिलाफ गुस्सा है। तस्वीर- अतुल सती की फेसबुक वॉल से
 

साल 2022 में बड़े बांधों ने उत्तराखंड के लोगों को कई जख्म दिए। गांव-घर डूबे। गांव दरकने की कगार पर पहुंचे। विरोध प्रदर्शन हुए और हो रहे हैं। गुजरते साल को बांध, पर्यावरण और प्रभावित लोगों की नज़र से देखना जरूरी है।

साल 2023 में भी उत्तराखंड सरकार कुछ नई बांध परियोजनाओं को आकांक्षी नज़र से देख रही है। लखवाड़ बांध परियोजना, जमरानी बांध परियोजना, सौंग बांध परियोजना, किशाऊ बांध परियोजना इनमें से कुछ एक हैं। 13 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने राज्य में अटकी पड़ी 44 जलविद्युत परियोजनाओं को शुरू करने को लेकर चर्चा की। जबकि इसी समय दुनिया के कई देशों में नदियों को बांधों से मुक्त करने की दिशा में कदम बढ़ाए जा रहे हैं।

साल 2021 में चमोली आपदा में कम से कम 204 लोगों ने अपनी जान गंवाई। 13.2 मेगावाट की ऋषिगंगा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट और 520 मेगावाट के एनटीपीसी हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के चलते एक प्राकृतिक आपदा बड़ी मानवीय त्रासदी में तब्दील हो गई।

चमोली आपदा पर अप्रैल 2022 में आई नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए) की रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया- लंबे समय में,ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत तलाशने पर ध्यान देने की आवश्यकता होगी क्योंकि यह क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील प्रतीत होता है। इस पर विद्युत मंत्रालय एक अलग अध्ययन करवा सकता है।

2021 की चमोली आपदा के बाद चिपको आंदोलन के लिए विख्यात रैणी गांव के लोग लगातार पुनर्वास की मांग कर रहे हैं।

चिपको की छांव छोड़ने पर मजबूर रैणी गांव

चमोली आपदा के जख्म बेहद गहरे हैं। ऋषिगंगा नदी के किनारे बसा जनजातीय गांव रैणी ऐतिहासिक चिपको आंदोलन के लिए दुनियाभर में विख्यात है। चिपको आंदोलन का यह पचासवां बरस है।

इस साल रैणी के लोग पुनर्वास की मांग करते रहे। रैणी गांव जिस पहाड़ी पर बसा है, एनटीपीसी की जलविद्युत परियोजना और ऋषिगंगा में आई बाढ़ ने मिलकर उसे अस्थिर कर दिया है। गांव के खेत कट गए हैं और रैणीवासियों ने कई घरों में दरार आने की शिकायत की है। रैणी के लोग अपने पुरखों की ज़मीन छोड़ने का इंतज़ार कर रहे हैं। चिपको आंदोलन की प्रतीक गौरा देवी और उनके साथ की करीब 30 महिलाओं ने जिन पेड़ों से चिपकर कुल्हाड़ी का वार झेलने के लिए खुद को आगे किया, वे जंगल भी छूट जाएंगे।

जल-जंगल-ज़मीन पर प्राकृतिक आपदा और बांधों के खतरे को लेकर चिपको के 50वें वर्ष में चमोली में कई कार्यक्रम हुए। स्थानीय लोगों ने माना कि जिस रैणी गांव से चिपको की गूंज दुनियाभर में सुनाई दी, शायद इस हिमालयी गांव के अस्तित्व पर आए खतरे की गूंज भी पूरी दुनिया में सुनाई देगी।

घरों में आई दरारों से जोशीमठ के लोग सहमे हुए हैं। लोगों का मानना है और वैज्ञानिक भी ये कह चुके हैं कि जलविद्युत परियोजना के चलते जोशीमठ में भूधंसाव की मुश्किल बढ़ी है। तस्वीर- अतुल सती की फेसबुक वॉल से

जोशीमठ बचाओ!

रैणी गांव से करीब 20 किलोमीटर पहले जोशीमठ के घरों में पड़ी बड़ी-बड़ी दरारें इस साल और गहरी हो गईं। वैज्ञानिक विशेषज्ञों की इस साल आई रिपोर्ट में भी यह माना गया कि जोशीमठ भी जिस पहाड़ी पर बसा है, वह धंस रही है। पिछले साल कुछ घरों में दरारें थीं। इस साल कई और घर इसकी जद में आ गए।

भू-धंसाव से भयभीत जोशीमठ के करीब 2 हजार लोग 24 दिसंबर को पुनर्वास की मांग को लेकर सड़कों पर उतरे। सड़क जाम की। बाज़ार बंद रहे। घरों में दरारों के भय से कई लोगों ने अपने घर खाली कर दिए हैं और किराए पर रहने चले गए। कुछ ने रिश्तेदारों के यहां शरण ली है। जबकि बहुत से लोग अनहोनी की आशंका के बीच अपने घरों में बने हुए हैं। जोशीमठ की जनता राज्य सरकार को आंदोलन की चेतावनी दे रही है।

ऋषिगंगा नदी पर बनी रही तपोवन विष्णुगाड जल विद्युत परियोजना समेत अन्य बांध परियोजनाओं ने क्षेत्र को लगातार अस्थिर किया है। जोशीमठ में सीपीआईएमएल कार्यकर्ता और जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक अतुल सती इस मुद्दे पर सक्रिय हैं।

न्यूज़क्लिक से बातचीत में अतुल कहते हैं “भूगर्भ वैज्ञानिकों से लेकर आम लोग तक यह खुलकर कह रहे हैं कि रैणी से लेकर जोशीमठ तक की अस्थिरता में सौ प्रतिशत जलविद्युत परियोजनाओं की भूमिका है। जलविद्युत परियोजनाओं की टनल ने समूचे हिमालयी क्षेत्र को अस्थिर किया है। इसका असर लोगों के जीवन पर पड़ रहा है। हमारे सामने सीधा प्रश्न पुनर्वास को लेकर है। जोशीमठ नगरपालिका ने दरार पड़ने वाले 500 घर गिने हैं”।

अतुल कहते हैं कि 22 दिसंबर को तपोवन विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना की निर्माणदायी संस्था एनटीपीसी ने जोशीमठ के स्थानीय पत्रकारों को अर्धनिर्मित और वर्षों से ठप पड़ी सुरंग दिखाई। अधिकारी ये बताना चाहते थे कि जोशीमठ में भूधंसाव के लिये एनटीपीसी की सुरंग जिम्मेदार नहीं है। जबकि वर्ष 2010 में एनटीपीसी ने यह माना था कि सुरंग निर्माण के चलते जोशीमठ के जलस्रोतों को नुकसान हुआ है। यानी सुरंग का असर जोशीमठ पर पड़ा है।

हेलंग गांव में टीएचडीसी के खिलाफ स्थानीय लोगों ने प्रदर्शन किया। तस्वीर साभार- ईटीवी भारत

हेलंग और टीएचडीसी

चमोली जिले के ही हेलंग गांव में जंगल से घास लेकर आ रही महिलाओं के साथ केंद्रीय सुरक्षाबलों और पुलिस कर्मियों की अभद्रता पर पूरे राज्य में आक्रोश फैला। चमोली, देहरादून से लेकर नैनीताल तक इस घटना के विरोध में प्रदर्शन किए गए। यह घटना जल-जंगल-ज़मीन पर स्थानीय लोगों का हक छीनने के तौर पर देखी गई।

इस मामले की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में सामने आया कि हेलंग गांव के वन पंचायत की ज़मीन पर टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (टीएचडीसी) की विष्णुगाड पीपलकोटी जलविद्युत परियोजना टनल का मलबा डंप किया जा रहा था। ग्रामीण इसका लगातार विरोध कर रहे थे। इसी घटना की कड़ी में जब हेलंग गांव की महिलाएं सूखी घास लेकर जा रही थीं तो औद्योगिक सुरक्षा बल के जवानों ने उनसे घास छीनने का प्रयास किया। जिसकी चिंगारी पूरे राज्य में फैली।

हाट गांव का विरोध

सांस्कृतिक पहचान रखने वाला चमोली का हाट गांव विष्णुगाड-पीपलकोटी जलविद्युत परियोजना का कचरा डंपिंग साइट बन गया था। यहां 8-9वीं शताब्दी पुराने लक्ष्मी नारायण मंदिर समेत मंदिरों के समूहों के आसपास कचरा डाला जा रहा था। ग्रामीण इसका लगातार विरोध कर रहे थे।

ग्रामीणों ने नैनीताल हाईकोर्ट की शरण ली। सितंबर 2022 में हाईकोर्ट ने इस मामले पर दाखिल जनहित याचिका पर सुनवाई की। गांव में कचरा डालने पर रोक लगाई और संस्कृति मंत्रालय, एएसआई, केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, उत्तराखंड राज्य, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और संस्कृति निदेशालय को नोटिस जारी कर जवाब मांगा।

अप्रैल 2022 में जौनसारी संस्कृति का लोहारी गांव व्यासी जलविद्युत परियोजना की झील में जलमग्न हो गया।

व्यासी बांध की झील में जलमग्न लोहारी

देहरादून के विकासनगर में 120 मेगावाट की व्यासी जलविद्युत परियोजना में इस साल बिजली बननी शुरू हो गई। 70 के दशक में इस परियोजना की नींव पड़ी थी। उस समय लोगों से उनकी ज़मीन को लेकर समझौते किए गए थे। अदालती आदेश समेत कई वजहों से लंबित होती यह परियोजना वर्ष 2022 में शुरू हुई। व्यासी बांध की झील में जौनसारी संस्कृति का जनजातीय गांव लोहारी पूरी तरह जलमग्न हो गया। जबकि कुछ अन्य गांव आंशिक तौर पर प्रभावित हुए।

लोहारी गांव के लोग इस परियोजना का लगातार विरोध कर रहे थे। गांव खाली नहीं करने पर वे अड़े रहे। इस साल अप्रैल में लोगों के विरोध के बावजूद, पुलिस-पीएसी की मौजूदगी में गांव खाली करा लिया गया। जिस यमुना के पानी से वे अपने खेत सींचते थे, वे खेत और और उनके घर, इसी यमुना पर बनाई गई झील में डूब गए। कुछ लोगों को अधिक मुआवजा मिला। कुछ को कम। जो मेहनतकश लोग थे, जिनके पास ज़मीनें नहीं थीं लेकिन गांव में ही जीवन था, उन्हें कुछ भी नहीं मिला। आखिर में प्रशासन ने लोहारी गांव के लोगों के पुनर्वास के लिए 2 कमरे के मकान देने की पेशकश दी। उन दो कमरों में वे खुद रहेंगे या उनके पशु रहेंगे? खेती कहां करेंगे? ऐसे ही सवालों से जूझते किसान परिवार भूमिहीन हो गए।

विडंबना ये कि यमुना में पानी का प्रवाह कम होने की वजह से व्यासी परियोजना से अपेक्षित बिजली भी नहीं बन पा रही है।

बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध

वर्ष 2022 में उत्तराखंड समेत देशभर में जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर विरोध देखने को मिले। हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन की बढ़ती घटनाओं से परेशान युवाओं ने किन्नौर जिले में प्रस्तावित जंगी थोपन पावरी जलविद्युत परियोजना के खिलाफ “नो मीन्स नो” अभियान चलाया। यह अभियान को लोगों का बड़ा समर्थन मिला। स्थानीय लोग इसे सिर्फ बांधों का विरोध नहीं बल्कि अपना अस्तित्व बचाने का संघर्ष मानते हैं।

2021 की आपदा में प्रभावित तपोवन-विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना

आपदाओं की तीव्रता बढ़ाती जलविद्युत परियोजनाएं

साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स रिवर एंड पीपुल के असोसिएट कोऑर्डनिटेर भीम सिंह रावत कहते हैं “जलविद्युत परियोजनाएँ न केवल हिमालयी क्षेत्रों की आपदाओं की पुनरावृति, तीव्रता, प्रसार और प्रकारों को बढ़ाती हैं, बल्कि जब भी इन क्षेत्रों में आपदा आती है, ये योजनाएं आपदा तबाही को कई गुणा बढ़ाने का काम करती हैं। वर्ष 2013 में हुई केदारनाथ आपदा और 2021 में चमोली आपदा ऐसे कुछ उदाहरण हैं। इन योजनाओं में विश्वसनीय सामाजिक, पर्यावरण प्रभाव आकलनों का अभाव, जमीनी हालात को और भी अधिक बदतर बना देती है”।

जलविद्युत परियोजनाओं के चलते होने वाली आपदा से निपटने के लिए हमारे आपदा प्रबंधन तंत्र भरोसे लायक नहीं हैं। भीम आगे कहते हैं “बिना निष्पक्ष वैज्ञानिक मूल्यांकनों के जल विद्युत योजनाओं से होने वाली आपदाओं की समुचित रोकथाम संभव नहीं है। सबसे चिंताजनक पहलू ये है कि इन योजनाओं से सीधे तौर पर प्रभावित होने वाले लोगों से रायशुमारी नहीं की जाती है। आपदाओं के लिए ना तो किसी की जवाबदेही तय की जाती है, ना ही इससे कोई सबक सीखने का प्रयास किया जाता है”।

बड़ी बांध परियोजनाओं ने स्थानीय लोगों के जीवन पर क्या असर डाला? इसके जवाब में भीम कहते हैं “जलविद्युत योजनाओं से रोजगार, अन्य आर्थिक लाभ बहुत कम स्थानीय लोगों को मिलता है परन्तु बड़ी संख्या में स्थानीय लोग अपनी नदी की बर्बादी, जल, जमीन, जंगल के अधिकार, सभ्यता, पैतृक भूमि, आपदाओं की मार, वर्षों तक विस्थापन, मुआवजा ना मिलने के रूप में एक बहुत बड़ी कीमत चुकाते हैं। चिपको की भूमि रैणी गांव इसका जीता जागता प्रमाण है”।

उत्तराखंड में बांधों के चलते संकट में आए रैणी, जोशीमठ, हाट, हेलंग जैसे गांव अपने अस्तित्व पर आए खतरे से जूझ रहे हैं। लोहारी गांव का अस्तित्व मिट गया। साल 2022 में बांधों के चलते इन गांवों के गुस्से और दर्द की आवाज़ सुनी जा सकती है।

(वर्षा सिंह देहरादून स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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