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उत्तराखंड चुनाव : टिहरी बांध से प्रभावित गांव आज भी कर रहे हैं न्याय की प्रतीक्षा!

उत्तराखंड के टिहरी ज़िले में बने टिहरी बांध के लिए ज़मीन देने वाले ग्रामीण आज भी बदले में ज़मीन मिलने की आस लगाए बैठे हैं लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
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टिहरी बांध से प्रभावित कई गांवों के लोग आज भी अपनी ज़मीन के बदले ज़मीन की आस लगाए बैठे हैं परन्तु इतने साल बाद भी उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। टिहरी बांध एशिया का सबसे ऊंचा बांध माना जाता है, इसकी ऊंचाई 835 मीटर से अधिक है। इस बांध के शुरू होने के इतने दिनों के बाद इसके डूब क्षेत्र में आने वाले आंशिक गाँवो को अपने विस्थापन की आस है। हालांकि सरकार ने इस बांध से प्रभावित गाँवो का विस्थापन किया और कुछ गाँवों के किसानों को मुआवज़ा भी दिया। परन्तु सरकार की विस्थापन नीति को दोषपूर्ण बताते हुए कई ग्रामीण कई सालों तक विरोध प्रदर्शन करते रहे है। ग्रामीणों को लगता है कि सरकार ने बांध बनाते समय उनसे जो वादा किया था वो पूरा नहीं हुआ और उनके साथ धोखा किया गया है, वे सभी अपने लिए न्याय की मांग कर रहे हैं।  

पुरानी टिहरी के एक ऐसे ही गांव मल्ला उप्पू जिसका लगभग पूरा गांव ही इस बांध के डूब क्षेत्र में आ गया था, न्यूज़क्लिक की चुनावी टीम ने इस गाँव का दौरा कर उनकी समस्या को विस्तार से जानने का प्रयास किया कि वो सरकार की विस्थापन नीति का विरोध क्यों कर रहे हैं? उनकी क्या मांगे हैं?

जय सिंह राणा जिनकी उम्र लगभग 66 वर्ष है और पीडब्ल्यूडी विभाग से रिटायर कर्मचारी हैं, उनकी भी ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा बांध के डूब क्षेत्र में चली गई है यहाँ तक की उनका घर भी इस झील में डूब गया है। उन्होंने जंगल की ज़मीन पर अपने रहने के लिए एक छोटा सा मकान बनाया है और उनकी कुछ ज़मीन जंगल में है जो खेती करने योग्य नहीं है। सरकार ने तकनीकी वजह से इन्हे पुनर्विस्थापित नहीं किया और इन्हे अपनी ज़मीन के बदले कुछ पैसे लेने को कहा लेकिन इन्होने पैसा लेने से इंकार किया और ज़मीन के बदले ज़मीन की मांग रखी।

इसी तरह इसी गांव के निवासी और राजमिस्त्री का काम करने वाले शंभु लाल भी थे, उनका पांच लोगों का परिवार है और वो अकेले कमाने वाले हैं। उनकी भी लगभग सभी खेती लायक ज़मीन इस बांध के डूब क्षेत्र में समा गई है। वो अपने विस्थापन के लिए अभी भी सरकारी लड़ाई लड़ रहे हैं और उन्हें उम्मीद है उन्हें न्याय मिलेगा।

शंभु ने कहा उनकी जो ज़मीन डूब क्षेत्र में गई वो काफी उपजाऊ थी वो उससे साल में कई बार चार-चार फसल में उपज लिया करते थे। परन्तु अब उनकी कोई उपज नहीं होती और वे पूरी तरह दिहाड़ी पर निर्भर रहते हैं, वो भी महीने में 10 से 15 दिन ही मिल पाती है। पहले दिहाड़ी के साथ ही घर का अनाज और कई अन्य फसल खेती से ही आ जाती थीं जिससे परिवार चलाने में मदद मिलती थी। लेकिन अब स्थति बहुत विकट हो गई है।  

बांध का विकास

आपको बता दें टिहरी बांध उत्तराखंड के टिहरी जिले में बना है। ये इलाका अपने चिपको आंदोलन के लिए भी मशहूर रहा है। साथ ही यहां लोगों का राजा के खिलाफ आज़ादी के संघर्ष का भी इतिहास है। पूरा भारत 1947 में आज़ाद हुआ और ये 1948 में। जब स्थानीय लोगों ने राजशाही के खिलाफ संघर्ष किया तो राजा को पीछे हटना पड़ा था। खैर साल 1972 में टिहरी बांध के निर्माण को मंजूरी मिली थी और 1977-78 में बांध का निर्माण कार्य शुरू हुआ था, हालांकि इसके निर्माण को लेकर सरकार ने पहले से ही मन बना लिया था और इसके लिए कई सर्वे भी कराए गए थे। 29 अक्टूबर 2005 को टिहरी बांध की आखिरी सुरंग बंद हुई और झील बननी शुरू हुई। जुलाई 2006 में टिहरी बांध से विद्युत उत्पादन शुरू हुआ। इस बांध का बिजली के साथ ही देश में कई राज्यों को पानी की सप्लाई करना भी एक काम था।

इस बांध से कुल 2400 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य था, जिसमे से अभी एक हज़ार मेगावाट बिजली उत्पादन होता है और वहीं 400 मेगावाट बिजली का उत्पादन कोटेश्वर बांध से होता है। एक हज़ार मेगावाट उत्पादन के लिए अभी और काम होना है जिसको लेकर काम जारी है। वहीं इसका जलाशय 42 वर्ग किमी लंबा है। टिहरी बांध से सिंचाई के साथ-साथ दिल्ली, यूपी और उत्तराखंड को पेयजल भी उपलब्ध कराया जा रहा है।

हालाँकि इस पूरी परियोजना के लिए पुराने टिहरी शहर को जलमग्न होना पड़ा था। इसमें 125 गांवों पर असर पड़ा था। इस दौरान 37 गांव पूर्ण रूप से डूब गए थे जबकि 88 गांव आंशिक रूप से प्रभावित हुए थे। इन इलाकों में रहने वाले लोगों को नई टिहरी और देहरादून के आस-पास के क्षेत्रों में विस्थापित किया गया है। साथ ही साथ कई ग्रामीण अभी भी अपने विस्थापन की लड़ाई लड़ रहे हैं।

इस पुनर्विस्थापन की लड़ाई को शुरुआती दौर से लड़ने वाले भगवान जी राणा ने न्यूज़क्लिक से विस्तार से बातचीत की और बताया कि कैसे सरकार ने किसानों के हितों को अनदेखा करते हुए काम किया और जो अपनी नीति में लिखा वो भी किसानो को नहीं दिया।

भगवान जी ने कहा कि सरकार ने अपनी नीति बनाई थी कि उनके द्वारा उन किसानों को दो एकड़ ज़मीन दी जायगी जिनकी ज़मीन का आधे से अधिक हिस्सा इस डूब क्षेत्र में आ रहा है परन्तु कई ऐसे किसान थे जिनकी ज़मीन इस नीति के तहत नहीं आ रही थी। उन्होंने बताया कि वे पहाड़ में पहले कबीलायी जीवन जीते थे जिसमे किसान मौसम के हिसाब से अपना प्रवास बदलते थे। इसी कारण लोगो के पास कई जगह ज़मीन थी परन्तु आधुनिकीकरण के बाद पहाड़ के किसान भी अपनी सबसे अधिक उपज वाली ज़मीन के नज़दीक बस गए और दूर दराज़ वाली बंजर ज़मीनो से उनका व्यवहारिक संबंध टूट गया। कई लोगों को तो याद भी नहीं कि उनकी ज़मीन कहाँ है ये तो सरकार ने विस्थापित करते समय ढूढ़कर बताई और कई लोग अपनी ज़मीन की लोकेशन पहचानते थे परन्तु वहां खेती होते देखी नहीं। साफतौर पर कहे तो उन ज़मीनो से इन ग्रामीण किसानों का कोई व्यवहारिक नाता नहीं था। परन्तु सरकार ने उन ज़मीनो को भी जोड़ा जिससे कई सारे किसान परिवार सरकार के विस्थापन के लाभ से वंचित रह गए।  

भारतीय सेना से रिटायर धर्मानंद नौटियाल की पूरी किसानी की जमीन और घर टिहरी झील में समां गई है और वो अभी अपने पुराने गांव से थोड़ा दूर और जंगल के समीप अपना घर बनाकर रह रहे हैं। उन्होंने हमें सरकारी विभाग से उनके पत्राचार का एक पूरा पोथा लाकर दिखाया जिसमे उन्होंने स्थानीय जिलाधिकारी (डीएम) से लेकर देश के प्रधानमंत्री (पीएम) तक को पत्र लिखा है परन्तु हर बार उन्हें आश्वासन ही मिला है। वो भी न्याय के लिए इंतज़ार ही कर रहे हैं। उनके और उनके आसपास के कई किसानो की ज़मीनो का सर्वेक्षण खुद जिलाधिकारी ने किया है और लिखित रिपोर्ट शासन को दिया कि इनकी बची ज़मीन किसानी के योग्य नहीं है और ये भी विस्थापन के पात्र है। परन्तु सरकार इन्हें विस्थापित न करके पांच लाख रूपए मुआवज़ा लेने को कह रही है।

टिहरी झील में डूबे लोगो के पुराने गांव 

उन्होंने सर्वोच्च न्यायलय का भी एक अंतरिम आदेश दिखाया जिसमे माननीय न्यायालय ने भी उनके विस्थापन के ग्राउंड को सही माना और उन्हें विस्थापित करने के लिए सरकार को आदेश दिए। नौटियाल कहते है देश में मनमोहन सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी आ गए परन्तु उनकी समस्या जस की तस बनी हुई है।  

भगवान जी कहते हैं कि सरकार ने जब किसानो से उनकी ज़मीन ली तो कहा था कि इन सभी पीड़ित परिवारों को एक दाम 15 रुपये महीने पर बिजली और पानी दिया जाएगा। परन्तु आजतक किसी भी पीड़ित परिवार को कुछ नहीं मिला है।

मरोड़ा गांव के निवासी और भू वैज्ञानिक डॉ मदन कौंसवाल जो इस पूरे बांध के निर्माण में सहभागी भी रहे हैं। वो एक सरकारी अफसर की तरफ से इस बांध का निर्माण भी करा रहे थे और दूसरी तरफ वो खुद भी इस विस्थापन का शिकार रहे थे। उन्होंने ने भी न्यूज़क्लिक से विस्तार से बात की और इस पूरे बांध के निर्माण की बारीक चुनौतियों को समझाया। साथ ही उन्होंने विस्थापितों की पीड़ा को भी सामने रखा।

उन्होंने कहा कि विस्थापन बहुत बुरा होता है परन्तु यह देश के विकास के लिए था। इसलिए हम लोगों ने इसका साथ दिया परन्तु पीड़ितों को जो मिलना चाहिए वह नहीं दिया गया है। मदन ने भी माना कि सरकार की विस्थापन नीति में दोष है और उसमे सुधार करने की आवश्यकता है।  

मल्ला उप्पी की 2008-2018 तक दस सालों तक प्रधान रही जगदम्बा रावत ने भी न्यूज़क्लिक से बात की और इस पूरे विस्थापन के दर्द को बताया। वो एक बड़ी किसान थीं उनके पास लगभग 60 नाली खेती की ज़मीन थी परन्तु सरकार ने उनकी खेती की ज़मीन का बड़ा हिस्सा अधिग्रहित कर लिया। वो बताती हैं कि इस अधिग्रहण से पहले कभी उनके घर में राशन दुकान से लाने की ज़रूरत नहीं पड़ी क्योंकि सबकुछ घर में ही हो जाता था परन्तु अब खेती के नाम पर कुछ भी नहीं बचा है। हमें अपना घर चलाने के लिए बाहर काम करना पड़ता है, हमारे पति बाहर काम करते हैं और उनके द्वारा भेजे गए पैसों से घर चलता है।  

इसके साथ ही बांध बनने के बाद आसपास के गाँवो में भू-स्खलन जैसी समस्यां हो रही है जिस वजह से वहां के ग्रामीणों को भी सरकार ने हटा दिया है परन्तु उन्हें वो लाभ नहीं दिए गए जो पहले बांध बनने के समय दिया गया गया था। मसलन 50% ज़मीन अधिग्रहण के बदले ज़मीन देने का प्रावधान लागू नहीं किया जा रहा है जबकि ये भूस्खलन जो हो रहे हैं वो सभी इस झील के कारण ही हो रहे हैं। ऐसे में उन्हें विस्थापित नहीं करने के सवाल पर लोग सरकार की आलोचना कर रहे हैं।

पहले इस झील को इस पूरे क्षेत्र के विकास के रूप में देखा गया था परन्तु ये उसे पूरा करता हुआ नहीं दिख रहा है। इससे जो नए रोज़गार के अवसर बन सकते थे सरकारों ने उसे बनाने पर कोई ध्यान नहीं दिया। हालांकि इस झील Water Sports से कई परिवारों की आजीविका चलती है परन्तु उसका दायरा बहुत कम है और उसमे भी बड़े लोगों ने ही निवेश किया है,छोटे ग्रामीण का इससे कोई भी विकास होता नहीं दिख रहा है।

जब हम यहां लोगों से बात कर रहे थे सभी पीड़ित परिवार एक ही मांग दोहरा रहे थे कि उन्हें ज़मीन के बदले ज़मीन ही दी जाए। उन्हें उम्मीद है कभी तो ऐसी सरकार आएगी जिन्हे इनपर दया आएगी और इनके साथ न्याय करेगी। अभी राज्य में चुनाव है, यहाँ के लोग ऐसी एक सरकार की उम्मीद में एकबार फिर मतदान करने के लिए तैयार हैं। अब बस देखना यही होगा क्या सरकार के बदलने से इनके भाग्य में कोई बदलाव होगा?

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