उत्तराखंड: डबल इंजन से विकास का वादा निकला झूठा, पूर्ण बहुमत के बाद भी ख़त्म नहीं हुई राजनीतिक अस्थिरता
त्रिवेंद्र सिंह रावत का इस्तीफ़ा हुआ तो सबसे पहले कुंभ नगरी से उनकी तस्वीरें हटाई गईं और तीरथ सिंह रावत की तस्वीरें चढ़ाई गईं। कोरोना संक्रमण में दवाइयों की किट बांटने से पहले एएनएम और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को किट के लिफाफे पर पुराने मुख्यमंत्री की जगह नए मुख्यमंत्री की तस्वीरें लगाने के काम में लगाया गया। अब तीसरा मुख्यमंत्री कौन होगा, ये तय होने पर, तस्वीरों की अदला-बदली के काम में युद्धस्तर पर जुटना होगा।
त्रिवेंद्र सिंह रावत को लेकर आम जनता की जो भी प्रतिक्रिया रही हो। लेकिन विकास कार्यों या जनता की अकांक्षाओं को पूरा न कर पाने पर उन्हें नहीं हटाया गया। बल्कि भाजपा की अंदरूनी कलह, कुंभ और देवस्थानम बोर्ड का फ़ैसला उनके इस्तीफ़े की वजह बना।
तीरथ सिंह रावत ने शुक्रवार देररात राज्यपाल को सौंपा इस्तीफ़ा
तीरथ सिंह रावत को लेकर भी जनता के सवाल उनके इस्तीफ़े की वजह नहीं बने। इस्तीफ़े के पीछे उन्होंने संवैधानिक संकट का हवाला दिया। वह विधानसभा सदस्य नहीं थे। मुख्यमंत्री बनने के लिए विधानसभा का सदस्य होना जरूरी है। तो उन्हें उपचुनाव में जाना होता।
उपचुनाव का डर!
10 मार्च को तीरथ सिंह रावत मुख्यमंत्री बने थे। अप्रैल में अल्मोड़ा की सल्ट विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुए। लेकिन तीरथ वहां से चुनाव नहीं लड़े। इस समय भी राज्य में दो विधानसभा सीटें खाली हैं। गंगोत्री विधायक गोपाल सिंह रावत की कोरोना से मृत्यु के बाद सीट खाली हुई। कांग्रेस नेता इंदिरा ह्रदयेश के निधन के बाद हल्द्वानी सीट खाली हुई। माना जा रहा था कि तीरथ गंगोत्री से चुनाव लड़ेंगे।
उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव की तैयारियों में पूरी तरह जुटी आम आदमी पार्टी ने दो दिन पहले ही गंगोत्री से कर्नल अजय कोठियाल के नाम का एलान किया। ये कहकर कि कर्नल कोठियाल गंगोत्री से तीरथ सिंह रावत को चुनौती देंगे। मुकाबला दिलचस्प होता यदि तीरथ चुनाव लड़ते।
संवैधानिक नियम है कि विधानसभा चुनाव में एक साल से कम समय रहने पर उपचुनाव नहीं कराये जा सकते। देहरादून में राजनीतिक विश्लेषक योगेश भट्ट कहते हैं “संवैधानिक दिक्कत का तकनीकी उपचार भी था। ऐसा तो नहीं हो सकता कि भाजपा जैसी बड़ी राजनीतिक पार्टी ने एक सांसद को मुख्यमंत्री बनाने से पहले इस पर विचार नहीं किया गया होगा। चुनाव कराने को लेकर चुनाव आयोग, केंद्र सरकार से पूछती। फिर केंद्र कहता कि हां चुनाव करा दीजिए। वैसे तीरथ सिंह रावत के पास 6 महीने का समय तो था ही”। योगेश कहते हैं कि उपचुनाव में जाने और हार का डर भी भारी रहा।
27 जून को रामनगर में हुए भाजपा के चिंतन शिविर में भी उपचुनाव को लेकर चर्चा की गई थी। तब प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक ने कहा कि पार्टी उपचुनाव के लिए तैयार है। चुनाव आयोग को उपचुनाव की घोषणा करनी चाहिए। कोई संवैधानिक संकट नहीं है।
इस्तीफ़ा देने से पहले रात साढ़े 9 बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस में तीरथ सिंह रावत ने गिनाई 100 दिन के कामकाज की उपलब्धियां
क्यों आए तीरथ, क्यों गए!
30 जून को तीरथ सिंह रावत को अचानक दिल्ली से बुलावा आया। उनके पहले से तय कार्यक्रम रद्द किए गए। उनके साथ राज्य के दो मंत्रियों सतपाल महाराज और धन सिंह रावत को भी दिल्ली बुलाया गया। उनकी मुलाकात भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह से हुई। शनिवार को दिल्ली से लौटकर तीरथ सिंह रावत ने रात साढ़े 9 बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस की। पत्रकारों से उन्होंने इस्तीफ़े पर बात नहीं की। बल्कि अपने 100 दिनों के कामकाज का लेखा जोखा दिया। एक घंटे बाद रात करीब साढ़े 10 बजे तीरथ ने राज्यपाल को इस्तीफ़ा सौंपा।
इस्तीफ़े को लेकर योगेश भट्ट कहते हैं “इस फ़ैसले के पीछे लगता है कि पार्टी फीडबैक पर चल रही है। आंतरिक तौर पर ये बात आ रही है कि त्रिवेंद्र को जिस समय बदला गया उसकी कोई उपयोगिता नहीं रही। जनता की तरफ से तो कोई मांग नहीं थी। ये पार्टी का आंतरिक मामला था। तब हाईकमान को लगा कि एक उदार चेहरा चाहिए। त्रिवेंद्र से ठाकुरवाद की इमेज जा रही थी। ब्राह्मण वर्ग नाराज़ हो रहा है। उदार चेहरे के तौर पर वे तीरथ सिंह रावत को लेकर आए”।
सत्ता में आते ही तीरथ सिंह ने उलट पुलट बयान देने शुरू कर दिए। फटी जींस को लेकर दिये उनके बयान पर देशभर में प्रतिक्रिया हुई।
उन्होंने कहा- “औरतों को फटी हुई जींस देखकर हैरानी होती है। इससे समाज में क्या संदेश जाएगा”।
कुंभ को लेकर कहा- “मां गंगा की कृपा से कोरोना नहीं फैलेगा।”
“20 बच्चे पैदा होते तो ज्यादा राशन मिलता।”
“अमेरिका ने हमें 200 साल तक गुलाम बनाए रखा और दुनिया पर राज किया। आज वही अमेरिका संघर्ष कर रहा है।"
योगेश भट्ट कहते हैं “उनके इस तरह के बयान से उनकी पकड़ लगातार ढीली होती चली गई। ये भी शुरू हो गया कि मुख्यमंत्री की कोई नहीं सुन रहा है। अपने शुरुआती 100 दिनों में तो त्रिवेंद्र के फैसले को पलटकर लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश की। त्रिवेंद्र बुलेटप्रूफ गाड़ी में चलते थे। उन्होंने साधारण इनोवा रखी। देवस्थानम बोर्ड को भंग करने को कहा और कर भी नहीं पाए। कुंभ में लोगों को आने की अनुमति दी। जिस पर कहा गया कि कोरोना की दूसरी लहर कुंभ से ही आई। फिर फर्ज़ी आरटीपीसीआर रिपोर्ट का मामला आ गया”।
“भाजपा रणनीतिकारों को लगता है कि तीरथ के चेहरे के साथ तो हम 2022 का चुनाव नहीं जीत सकते हैं। केंद्र के लिहाज से तो उत्तराखंड की 5 लोकसभा सीटों की बहुत अहमियत नहीं है। लेकिन राज्य के लिहाज से ये अहम है कि एक राज्य पर पार्टी की पकड़ कम हो गई। उत्तराखंड में भाजपा की पकड़ मज़बूत रही है”।
“दिल्ली से मुख्यमंत्री थोपने की नीति पड़ रही भारी”
विधानमंडल दल का नेता चुनने का कार्य विधायकों का होता है। चुनाव में बहुमत हासिल करने वाले दल के विधायक सर्वसम्मति से जिसे अपना नेता चुनें उसे ही मुख्यमंत्री बनाया जाता है। उत्तराखंड में चौथे वर्ष में विधानमंडल दल की बैठक में विधायक अपना नेता चुनेंगे। उसमें भी केंद्रीय पर्यवेक्षक नरेंद्र सिंह तोमर मौजूद होंगे।
भाकपा (माले) के राज्य कमेटी के सदस्य इन्द्रेश मैखुरी कहते हैं “मुख्यमंत्री को तीन महीने में पुनः बदले जाने से भाजपा हाईकमान ने सिद्ध कर दिया कि उसके बैठाए हुए मुख्यमंत्री राज्य को चलाने में नाकाम सिद्ध हुए हैं। मोदी जी का डबल इंजन के जरिए विकास का वायदा झूठा था। प्रचंड बहुमत के बाद भी अस्थिरता के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो वो है भाजपा के अंदरूनी कलह और दिल्ली से मुख्यमंत्री थोपने की नीति। परंतु इसका खामियाजा उत्तराखंड भुगत रहा है”।
इंद्रेश कहते हैं “तीरथ सिंह रावत का तीन महीने का कार्यकाल हास्यास्पद बयानों, कुम्भ टेस्टिंग घोटाले और नर्सिंग भर्ती से पहले घोटाले की चर्चा के लिए याद किया जाएगा”।
“5 साल में तीसरा मुख्यमंत्री उत्तराखंड के साथ भद्दा मज़ाक”
राज्य बनने के बाद से ही उत्तराखंड राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहा है। नारायण दत्त तिवाड़ी ही एक मात्र मुख्यमंत्री रहे जिन्होंने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया। 20 साल में 12 मुख्यमंत्री बने।
भाजपा को उत्तराखंड की जनता ने रिकॉर्ड 57 सीटों का बहुमत दिया था। उसके बावजूद राज्य राजनीतिक अस्थिरता से घिरा हुआ है। प्रदेश कांग्रेस उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना कहते हैं “57 विधायकों का प्रचंड बहुमत देने के बदले भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने राज्य की जनता को इतना बड़ा विश्वासघात तोहफ़े के रूप में दिया है। उन्होंने कहा कि भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने उत्तराखंड को अपनी राजनीतिक प्रयोगशाला बना दिया। ये तीसरी बार है जब उन्होंने किसी मुख्यमंत्री को अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया। राज्य बनने पर गठित 15 महीनों की अंतरिम सरकार में दो मुख्यमंत्री बनाए। वर्ष 2007 में फिर सत्ता पर आने के बाद 5 वर्षों में तीन मुख्यमंत्री बदले। अब एक बार फिर वही इतिहास दोहराते हुए तीसरा मुख्यमंत्री बनाने जा रहे हैं। राज्य के लिए ये बहुत अपमानजनक स्थिति है”।
दिल तोड़ दिया!
राज्य आंदोलनकारी और आम आदमी पार्टी के नेता रविंद्र जुगरान याद करते हैं "उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के लिए एक बड़ा आंदोलन चला। शहादतें हुईं। लगभग 46 मौतें हुईं। मुज़फ़्फ़रनगर, मसूरी, खटीमा के गोलीकांडों में तकरीबन 100 लोग घायल हुए। हजारों लोग जेल गए। हज़ारों लोग चोटिल हुए। अलग राज्य का आंदोलन विश्व की ऐतिहासिक घटना थी। उस उत्तराखंड में 20 साल में 12 मुख्यमंत्री आए। भाजपा ने सबसे ज्यादा मुख्यमंत्री बदले"।
जुगरान कहते हैं "कोई सरकार अल्पमत में हो, या बाहर से कोई दल समर्थन कर रहा हो तो क्राइसेस की स्थिति होती है। लेकिन ये तो बहुमत भी नहीं, प्रचंड बहुमत वाली सरकार है। जनता ने 57 विधायक दिए। केंद्र में भी भाजपा ही है। केंद्र और राज्य की लीडरशिप ने जनादेश का अपमान किया है। इस राजनीतिक गुटबाजी का ख़ामियाजा जनता को उठाना पड़ रहा है। उत्तराखंड को भाजपा ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। नारायण दत्त तिवाड़ी और बीसी खंडूड़ी को छोड़ दें तो उत्तराखंड को अब तक अफ़सरशाही ने चलाया है। ये दिल तोड़ने वाली राजनीतिक घटना है"।
114 दिनों के सीमित कार्यकाल में तीरथ सिंह रावत विधानसभा के एक सत्र में भी शामिल नहीं हो सके। सदन में प्रवेश नहीं कर सके। त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाने की राजनीतिक उठापटक के बीच शुरू हुआ उनका कार्यकाल अब नए मुख्यमंत्री को लाने की उठापटक के बीच खत्म हो गया। ज़ाहिर है चुनाव से पहले के आखिरी महीनों में मुख्यमंत्री का दायित्व जिसे मिल रहा है सच कहा जाए तो उसे कांटों भरा ताज मिल रहा है।
(देहरादून स्थित वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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