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उत्तराखंड: भीषण आपदाओं से क्या हम वाक़ई कुछ सीख पाए?

“ऐसा लगता है जैसे उत्तराखंड में जांच कमेटियां केवल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए बनाई जाती हैं क्योंकि इन कमेटियों द्वारा दिए सुझावों पर कभी अमल नहीं किया जाता है।”
Disaster

उत्तराखंड में इस साल मानसून की बारिश आफत बनकर बरसी, जिसके कारण प्रदेश में कई जगह पर आपदा जैसे हालात पैदा हो गए। 21 अगस्त 2023 को टिहरी जिले के चंबा में पुलिस थाने के पास टैक्सी स्टैंड पर भूस्खलन होने से चार महीने के बच्चे समेत पांच लोग मौत के मुंह में समां गए। इस साल उत्तराखंड में भूस्खलन की यह इकलौती घटना नहीं है। रुद्रप्रयाग पुलिस के ट्विटर हैंडल से मिली जानकारी के अनुसार 4 अगस्त को केदारनाथ के नज़दीक गौरीकुंड डाट पुलिया के समीप भूस्खलन होने से 23 लोग लापता हो गए थे, चारधाम रोड पर कई जगह मलबा आने से आवाजाही बाधित हुई, देहरादून के नज़दीक जाखन गांव में आई बाढ़ के कारण कई घर बर्बाद हो गए। इन सभी घटनाओं के अलावा स्टेट डिज़ास्टर रिलीफ फ़ोर्स (SDRF) के ट्विटर हैंडल से दर्जनों लैंडस्लाइड और अचानक आई बाढ़ की घटनाओं की जानकारी मिलती हैं जिनमें जानमाल का काफी नुकसान हुआ है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार मानसून 2023 में अभी तक 96 लोगों की मौत हो चुकी है, इसके अलावा सड़कों और पुलों को भारी नुकसान हुआ है।

लोक निर्माण विभाग, उत्तराखंड की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार 29 अगस्त 2023 तक उत्तराखंड में 3,090 सड़कें मलबा आने या पानी के तेज़ बहाव से प्रभावित हुई हैं जिसमें लोक निर्माण विभाग की 2,322 सड़कें, प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना की 749 सड़कें और 19 नेशनल हाईवे शामिल है, सड़कों के अतरिक्त राज्य में 91 पुल भी क्षतिग्रस्त हुए हैं, हालांकि इनमें से 2,942 सड़कों को यातायात के लिए खोल दिया गया है लेकिन अभी भी 148 सड़कें यातायात के लिए बंद हैं। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इन सड़कों और पुलों को केवल यातायात के लिए खोलने हेतु क़रीब 9,365.94 लाख रूपये की लागत आएगी लेकिन इन आपदाग्रस्त सड़क, पुल और लोक निर्माण के भवनों को पहले जैसी स्थिति में लाने के लिए कुल 53,455.15 लाख रुपये की ज़रूरत होगी।

क्या हैं उत्तराखंड में आने वाली आपदाओं के वैज्ञानिक कारण?

हिमालयी राज्यों खासकर उत्तराखंड में पिछले दो दशकों में भूस्खलन और अचानक आने वाली बाढ़ की घटनाएं तेज़ी से बढ़ी हैं जिनको दैवीय या प्राकृतिक आपदा का नाम दिया जाता है लेकिन क्या ये घटनाएं केवल प्राकृतिक या दैवीय आपदाएं हैं या फिर हिमालय के संवेदनशील क्षेत्रों में बढ़ती मानवीय गतिविधिया इसके लिए ज़िम्मेदार हैं? 

अधिशासी निदेशक, उत्तराखंड आपदा प्रबंधक डॉ, पीयूष रौतेला द्वारा मीडिया को दिए बयान के अनुसार "साल 2015 में भूस्खलन या पहाड़ दरकने की महज़ 32 घटनाएं हुई थीं। साल 2016 और 2017 को छोड़ दें तो प्रत्येक साल यह आंकड़ा सैकड़े से नीचे नहीं आया और इस साल तो अगस्त तक ही यह आंकड़ा हज़ार से ऊपर हो गया है। इस साल अभी तक 1173 घटनाएं हो चुकी है। रिपोर्ट के अनुसार 90 प्रतिशत घटनाएं उन इलाकों में हुई है जहां सड़क निर्माण हुआ है।"

(चमोली, नंदप्रयाग के नज़दीक बद्रीनाथ नेशनल हाईवे में भू धसाव)

भूविज्ञानी डॉ. स्वरस्वती प्रकाश सती कहते हैं कि "साल 1970 में अलकनंदा के बहाव को खतरे के निशान से ऊपर देखा गया, जिसके बाद साल 1998 में अलकनंदा में बाढ़ जैसे हालात हुए लेकिन साल 2000 के बाद या फिर पिछले दो दशकों में पांच से भी अधिक बार अलकनंदा नदी के द्वारा श्रीनगर में बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हुई, मतलब उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से राज्य में भूस्खलन और बाढ़ जैसी घटनाएं बढ़ी हैं जिसका सीधा संबंध उत्तराखंड राज्य गठन के बाद उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर होने वाले बड़े निर्माण कार्यों से है।

प्रकाश सती आगे कहते हैं कि "पिछले कुछ दशकों में ग्लोबल वार्मिंग के कारण बारिश के पैटर्न में बदलाव तो ज़रूर देखे गए हैं लेकिन ये सब इन आपदाओं के लिए उतने ज़िम्मेदार नहीं है जितना कि उत्तराखंड में विकास के नाम पर होने वाले सड़क और जल विद्युत बांध परियोजनाएं क्योंकि सड़क और जलविद्युत परियोजनों के निर्माण के समय निकलने वाले मलबे को ढलानों से नीचे गिरा दिया जाता है और तेज़ बारिश के कारण यही मलबा पानी के साथ मिलकर पानी के आयतन को बढ़ाता है और नदी के बहाव को विकराल रूप देता है जिसके बाद राज्य में बाढ़ जैसी घटनाएं होती हैं।"

(लामबगड़ के नज़दीक भूस्खलन)

प्रकाश सती कहते हैं कि “2013 की आपदा को विकराल रूप देने में अलकनंदा और मंदाकनी नदी पर बनी जल विद्युत परियोजनाओं का बड़ा योगदान था क्योंकि आपदा के दौरान इन जलविद्युत परियोजनाओं ने अचानक असंवेदनशील तरीके से पानी छोड़ा जिसके कारण जल विद्युत परियोजनाओं की तलहटी में अधिक नुकसान देखने को मिला। उदाहरण के विष्णु प्रयाग की जेपी जल विद्युत परियोजना से छोड़े गए पानी ने पांडुकेश्वर में अधिक तबाही मचाई। यही सब रुद्रप्रयाग जिले के कुंड और पौड़ी के श्रीनगर में भी देखने को मिला।

शहरों की वहन क्षमता का होगा अध्यन 

जनवरी 2023 में चमोली जिले के जोशीमठ में भू-धंसाव की घटना हुई, वैज्ञानिकों ने जोशीमठ में हो रहे क्षमता से अधिक निर्माण और शहर में सीवरेज के ख़राब प्रबंधन को इस भू-धंसाव का कारण बताया है। जिसके बाद उत्तराखंड के मुख्य मंत्री पुष्कर सिंह धामी ने उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बसे शहरों की वहन क्षमता का अध्यन करने की घोषणा की। अख़बारो से मिली जानकारी के अनुसार राज्य के पर्वतीय शहरों की वहन क्षमता की जांच की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। उत्तराखंड भूस्खलन न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र विशेषज्ञों, सर्वे एजेंसियो की मदद से शहरों की भूमि और पहाड़ो की संरचना का सर्वेक्षण शुरू करने जा रहा है जिससे पर्वतीय क्षेत्रों में बसे शहरों की वहन क्षमता को आंका जा सके और और उचित नीतियां बनाई जा सके, लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या इन नीतियों को लागू भी किया जायेगा? क्योंकि उत्तराखंड में आने वाली प्रत्येक आपदा के बाद जांच कमेटियों द्वारा भविष्य में आपदा से बचने के लिए सुझाव दिए जाते हैं लेकिन इन सुझावों पर अमल नहीं होता है। 

उत्तराखंड में विज्ञान और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर लेखक मेघा प्रकाश ने 2021 में चमोली जिले में आई आपदा पर अपनी रिपोर्ट का संदर्भ लेते हुए बताया कि "कई बड़ी परियोजनाओं में मानकों का उल्लंघन देखने को मिलता है। 7 फरवरी 2021 को रैंणी गांव में आई आपदा के दौरान एनटीपीसी द्वारा निर्मित हाइड्रो पावर प्लांट के लिए खोदी गई टनल से निकले मलबे का सही तरह से निस्तारण नहीं किया गया। इस आपदा का मुख्य कारण नदी और आस-पास फैले मलबे को माना जा रहा है। सही से मलबा निस्तारण नहीं करने पर कार्रवाई करते हुए उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने एनटीपीसी को समय-समय पर चेतावनी दी और 57,96,000 रूपये का जुर्माना भी लगाया पर उल्लंघन जारी रहा और 7 फरवरी को धौलीगंगा पर बनी इस परियोजना से हुए नुकसान में 200 से अधिक लोगों की जान गई।" प्रकाश दूसरा उदाहरण जोशीमठ का देती हैं। “1976 में एम सी मिश्रा कमिटी द्वारा प्रेषित रिपोर्ट में साफ कहा गया कि यह बसावट नाज़ुक ढलान पर है इसलिए यहां कोई बड़ा निर्माण नहीं होना चाहिए। लेकिन रिपोर्ट को दरकिनार कर यहां कई बहुमंजिला इमारतों के साथ-साथ पानी की निकासी और पेड़ों का कटान होता रहा। उसी तरह टिहरी बांध परियोजना के अंतर्गत ढाल क्षेत्र को स्थिर करने के लिए कुछ घास की प्रजाति और पेड़ लगाने की बात कही गई। लेकिन उन सुझावों को भी नज़रंदाज़ किया गया। परिणाम आज साफ दिखाई दे रहे हैं। हाल ही में टिहरी जनपद की सीमा से सटे चिन्यालीसौड़ (उत्तरकाशी) का 100 मीटर हिस्सा धंस गया और बांध की झील के दायरे में लगातार भू-धंसाव और कटान के मामले सामने आते रहे हैं।"

रिपोर्ट जिनमें उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बड़े निर्माण कार्यों को बंद करने के सुझाव दिए

साल 2013 में उत्तराखंड राज्य में आई केदारनाथ आपदा की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित "असिस्मेंट ऑफ़ एनवायरमेंटल डेग्रेडिशन एंड इम्पैक्ट ऑफ हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट ड्युरिंग जून 2013 डिज़ास्टर इन उत्तराखंड" नामक कमेटी के सदस्य रहे डॉ. हेमंत ध्यानी कहते हैं कि "इस कमेटी का मुख्य उद्देश्य, इस आपदा में जलविद्युत परियोजनाओं की भागीदारी की जांच करना था जिसमें पाया गया कि गंगा के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बने बांधों के द्वारा इस क्षेत्र को जो क्षति हुई है उसकी भरपाई नहीं की जा सकती। भविष्य में इस प्रकार की आपदाओं से बचने के लिए कुछ सुझाव कमेटी के द्वारा दिए गए जिसमें पहला सुझाव था - “मेन सेंट्रल थ्रस्ट(MCT) से ऊपर जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण पर रोक”, जिसमें 24 ऐसी परियोजनाएं थीं जिनके निर्माण पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगायी है। दूसरा मुख्य सुझाव था, यदि कोई जलविद्युत परियोजना पहले बन चुकी है तो उसमे अर्ली वार्निंग सिस्टम की भागीदारी सुनिश्चित की जाए, लेकिन दोनों ही सुझावों को अनदेखा किया गया जिसका परिणाम हमें 7 फरवरी 2021 को चमोली जिले में रैणी गांव में आई आपदा में देखने को मिला, यदि इस परियोजना में अर्ली वार्निंग सिस्टम सही से काम करता तो इतनी जानें नहीं जाती।" 

चारधाम सड़क परियोजना जिसे पहले 'ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट' के नाम से जाना जाता था, की शुरुआत उत्तराखंड में चार धाम केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की यात्रा को सभी मौसम के लिए सुगम बनाने के लिए की गई थी। लेकिन पर्यावरण की अनदेखी, बड़ी मात्रा में पहाड़ों और पेड़ों की कटाई और सुरक्षा मानकों की नज़रअंदाज़ी की वजह से यह परियोजना बरसात के मौसम में यात्रियों और स्थानीय रहवासियों के लिए खतरनाक और जानलेवा साबित हो रही है। 

चार धाम सड़क परियोजना को लेकर बनी हाई पावर कमेटी के सदस्य और गंगा आवाहन से जुड़े डॉ. हेमंत ध्यानी बताते हैं कि "पहाड़ी क्षेत्र में साढ़े पांच मीटर से अधिक चौड़ी सड़क नहीं बननी चाहिए, लेकिन चारधाम सड़क में सड़क के काले हिस्से की चौड़ाई 10 मीटर है, इसका मतलब सड़क निर्माण में पहाड़ की अधिक कटाई हुई, हमारे द्वारा सुझाव दिया गया था कि सड़क की चौड़ाई साढ़े पांच मीटर से अधिक न हो लेकिन हमारे सुझाव को नहीं माना गया और इस मुद्दे पर हाई पावर कमेटी दो हिस्सों में टूट गई। इसके अलावा पहाड़ में सड़क निर्माण में ‘कट एंड फिल’ की तकनीक का इस्तेमाल होना चाहिए लेकिन यहां ‘कट एंड डंप’ का इस्तेमाल किया गया जिसके चलते लाखों टन मलबा पहाड़ी ढलानों से नीचे गिरा दिया गया जिसने इन ढलानों पर हरित आवरण को तो नुकसान पहुंचाया ही और साथ ही बरसात के मौसम में अधिक बारिश होने पर यह मलबा पानी के साथ मिलकर नदी के बहाव को भी प्रभावित करता है। हमारे द्वारा पहाड़ की कटिंग तकनीक को लेकर भी सवाल किया गया लेकिन इस को भी नज़रअंदाज़ किया गया। ऑल वैदर रोड जगह-जगह धंस चुकी है जिसके कारण यात्रिओं को यात्रा में और अधिक समय लग रहा है।" डॉ. हेमंत ध्यानी आगे बताते हैं कि "हमारे द्वारा पहले ही प्रशासन को इन सभी समस्याओ से अवगत कराया गया था लेकिन उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और नतीजा आज हमारे सामने है।"

ह्यूमन राइट्स लॉयर और कंज़र्वेशन ऐक्टिविस्ट रीनू पॉल बताती हैं कि "हाल ही में पहाड़ों की रानी कहे जाने वाली मसूरी की वहन क्षमता को लेकर एक अध्ययन हुआ है जिसमें एनजीटी ने मसूरी में होने वाले निर्माण और पर्यटन से बर्बाद होने से बचने के लिए उत्तराखंड सरकार को 19 सिफ़ारिशों का पालन करने का आदेश दिया है। पर्यटकों की संख्या को नियंत्रित करें और उनसे शुल्क लें, इससे आने वाली आय का इस्तेमाल अपशिष्ट प्रबंधन और विभिन्न निर्माण गतिविधियों की निगरानी के लिए करें। हालांकि मसूरी की वहन क्षमता को लेकर यह कोई पहला अध्यन नहीं है, इससे पहले भी दो बार इस प्रकार का अध्ययन हो चुका है और उन अध्ययनों में भी मसूरी में बड़े निर्माण कार्यो पर रोक की बात कही गई लेकिन फिर भी मसूरी में निर्माण होते रहे। ठीक ऐसा ही जोशीमठ के साथ भी हुआ।"

रीनू पॉल आगे कहती हैं कि "ऐसा लगता है जैसे उत्तराखंड में जांच कमेटियां केवल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए बनाई जाती हैं, इन कमेटियों द्वारा दिए सुझावों पर कभी अमल नहीं किया जाता है, कारण चाहे जो भी हो प्रशासन को इन सुझावों पर गंभीरता के साथ कार्य करना चाहिए अन्यथा उत्तराखंड की जिस सुंदरता से आकर्षित होकर पर्यटक यहां आते हैं वह बचेगी ही नहीं।"

(लेखक देहरादून स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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