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आपदा के बाद मिले 3800 रुपये,  खेत में बचा दो बोरी धान

“हमको सरकार की तरफ से खाली 3,800 रुपये का एक चेक मिला। जबकि नुकसान तो बहुत ज्यादा हो रखा है। बाथरूम पूरी तरह टूट गया है। गौशाला पूरी तरह टूट गई। एक लाख की तो गौशाला ही होगी।” 
लुमती गांव
26 जुलाई को लुमती गांव में आपदा के बाद का दृश्य। फोटो: रविंदर सिंह

सितंबर के आखिरी हफ्ते में भी आसमान में डटे बादल लुमती गांव के लोगों के ज़ेहन में ख़ौफ़ भर रहे थे। रविंदर सिंह अपने घर के आसपास बिखरा मलबा हटाने में जुटे हैं। करीब सवा महीने बाद 21 सितंबर को वह आपदा राहत शिविर से गांव वापस लौटे। हर तरफ पहाड़ से गिरे पत्थर और बोल्डर बिखरे पड़े हैं। इनमें लोगों के राशन कार्ड, आधार कार्ड, बैंक के काग़ज़, गहने, कपड़े सब कुछ दबे पड़े हैं। स्थानीय विधायक हरीश धामी ने जेसीबी मशीन भी भेजी है। ताकि घरों के सामने पड़े पत्थर हटाए जा सकें। तबाही के बाद अगर कुछ सुरक्षित बचा है तो निकाला जा सके। बारिश-भूस्खलन की आपदा में लुमती गांव पूरी तरह तहस-नहस हो गया।

रविंदर 28 जुलाई की उस सुबह को याद करते हैं। वो एक आम सुबह नहीं थी। तड़के करीब 5 बजे का वक्त रहा होगा। जब एक तेज़ ज़ोरदार आवाज़ से पूरा गांव जाग गया। पिथौरागढ़ के धारचुला विकासखंड के बंगापानी तहसील के लुमती गांव में बादल फटने से भारी तबाही हुई। वह बताते हैं, “27 जुलाई की शाम से ही रुक-रुक कर बारिश हो रही थी। ऐसा लगा मानो पहाड़ ही टूट पड़ा हो। पहाड़ से बड़े-बड़े पत्थर टूट कर गांव की ओर गिरने लगे। टूटी-फूटी आवाज़ें गूंजने लगी- भागो पत्थर गिर रहे हैं। किसी को संभलने का वक्त तक नहीं मिला। जरूरी पेपर या पैसे ले सकें। बच्चों को संभाला और भागने लगे। कई तो बिना चप्पल पहने ही घरों से बाहर दौड़ पड़े”।

लुमती गांव में घर के सामने मलबे का ढेर pic credit Ravindar Singh.jpeg

लुमती गांव में घर के बाहर मलबे का ढेर। फोटो: रविंदर सिंह

चारों तरफ से गांव में पत्थर गिर रहे थे। एक ओर गोरी नदी विकराल रूप लिए बह रही थी। रविंदर बताते हैं कि “हम गांव में ही सुरक्षित जगह पर खेतों के बीच बैठे रहे। बच्चे भूखे रहे। बारिश और भूस्खलन से गांव को आने वाले सारे रास्ते बंद हो गए थे। हम जाते भी तो कहां। करीब पांच दिन बाद जब बारिश थमी तो प्रशासन की मदद हम तक पहुंची। गांव से दस किलोमीटर दूर बरम हाईस्कूल में आपदा राहत शिविर बनाया गया। वहीं गांव के सभी लोगों को ठहराया गया”। पहाड़ों के बीच बसा 700 लोगों की आबादी वाला छोटा सा लुमती गांव इस कुदरती आपदा में पूरी तरह बिखर गया। फिर भी राहत महसूस कर रहा था कि इंसानी जान का कोई नुकसान नहीं हुआ। हालांकि कुछ जानवर मारे गए।

लुमती के ठीक बगल में मोरी गांव में तो इससे भी बुरे हालात रहे। गांव का एक भी घर सलामत नहीं बचा। आपदा प्रभावित गांवों में जिधर नज़र दौड़ाओ कुदरत की विनाशलीला दिखती है।

धारचुला में आपदा राहत शिविर pic credit- Narayan Singh Toliya.jpeg

धारचुला का आपदा राहत शिविर। फोटो: नारायण सिंह

रविंदर सिंह कहते हैं “हमारे गांव के करीब 6-7 परिवार अब भी शिविर में ही हैं। जिनका थोड़ा बहुत घर बचा है, वे आ गए हैं। जिनका कुछ भी नहीं बचा। वे वहीं हैं। हम वापस आ गए हैं। मलबा हटा रहे हैं। इतना मलबा बिखरा है कि तीन-चार मज़दूर मिलकर तीन महीने में भी नहीं हटा सकेंगे। मशीन लगानी पड़ेगी। अभी तो दो-चार आदमी लगा रखे हैं। मशीन से मलबा हटाने में दस दिन लग जाएंगे। हमको सरकार की तरफ से खाली 3,800 रुपये का एक चेक मिला। जबकि नुकसान तो बहुत ज्यादा हो रखा है। बाथरूम पूरी तरह टूट गया है। गौशाला पूरी तरह टूट गई। एक लाख की तो गौशाला ही होगी”।

लुमती गांव में मशीन से हटाया जा रहा पत्थर pic credit Ravindar Singh.jpeg

लुमती गांव में मशीन से हटाए जा रहे पत्थर। फोटो: रविंदर सिंह

इस प्राकृतिक आपदा में जिन लोगों के घर पूरी तरह टूट गये हैं, उन्हें मुआवज़े के तौर पर एक लाख 19 हज़ार रुपये दिए गए हैं। इस दुख में भी रविंदर हंसते हैं कि आज की तारीख में एक लाख रुपये में बाथरूम तक नहीं बनता। घर कैसे बनाएंगे।

लुमती गांव में ज्यादातर लोग खेती करते हैं। इसके अलावा मनरेगा और ग्राम सभा को जिला प्रशासन की तरफ से कोई काम मिला तो उससे भी यहां के लोगों की कुछ आमदनी हो जाती है। भूस्खलन में गांव के ज्यादातर खेत मलबे से पट गए हैं। रविंदर का अनुमान है कि खेती-बाड़ी और मनरेगा के काम मिलाकर महीने में 10-15 हज़ार रुपये की आमदनी हो जाती है। वह बताते हैं “मेरी 81 नाली ज़मीन का आधा से ज्यादा हिस्सा इस समय मलबे के ढेर में दबा हुआ है। उसमें धान-मंडुवा-मक्का लगा था। सब बर्बाद हो गया है। बाकी बचे खेत से महज डेढ़-दो बोरी धान निकला है। खेत में पड़े पत्थर तो हटा ही नहीं पाएंगे। थोड़ी बहुत ज़मीन बची है। आगे उसी पर काम करेंगे। और क्या करेंगे...”।

ये पूछने पर कि क्या स्थानीय प्रशासन गांव और खेत में बिखरा मलबा हटाने में मदद कर रहा है। रविंदर इंकार करते हैं। वह बताते हैं कि यहां बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन के अधिकारी भी रहते हैं। उनसे भी बात की थी। लेकिन अभी तक कहीं से कोई रिस्पॉन्स नहीं मिला।

बादल फटने, अत्यधिक तेज़ बारिश, बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं के लिहाज से उत्तराखंड का पिथौरागढ़ जिला बेहद संवेदनशील है। उत्तराखंड स्टेट ऑफ इनवायरमेंट रिपोर्ट 2020 के मुताबिक वर्ष 2007 में धारचुला में कई जगहों पर बड़े पैमाने पर भूस्खलन हुआ था। वर्ष 2013 की आपदा में पिथौरागढ़ में भी नदियों ने बेहद तबाही मचायी थी। 2007, 2008, 2009 में बादल फटने से यहां भारी तबाही हुई।

बादल फटने की ज्यादातर घटनाएं आधिकारिक तौर पर दर्ज नहीं हो पाती। क्योंकि ये सत्यापित करने के लिए यहां पर्याप्त वेदर स्टेशन नहीं हैं। जीबी पंत इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एनवायरमेंट एंड डेवलपमेंट के वैज्ञानिक डॉ संदीपन कहते हैं कि पिछले एक दशक में तीव्र मौसमी घटनाएं (ज्यादा तेज़ बारिश, बाढ़, बादल फटने जैसी घटनाएं) बढ़ी हैं। लेकिन मौसम में आ रहे बदलावों के अध्ययन और डाटा के लिए हिमालयी क्षेत्र में पर्याप्त वेदर स्टेशन नहीं हैं।

क्या रविंदर सिंह, लुमती गांव, मोरी गांव समेत कुदरत की मार झेल रहे कई गांव क्लाइमेट चेंज के विक्टिम हैं? इनके घर, गांव, खेत और तमाम मुश्किलों के लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार है?

लुमती गांव के ज्यादातर लोग चाहते हैं कि राज्य सरकार उन्हें सुरक्षित जगह विस्थापित करे। उन्हें एक-एक घर के साथ खेती के लिए ज़मीन दी जाए। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के निदेशक पीयूष रौतेला कहते हैं “ ऐसा नहीं कि विस्थापन के लिए हमारे पास कोई नीति नहीं। वर्ष 2011 में ये नीति बनायी गई थी कि ऐसे लोग जो प्राकृतिक आपदाओं से लगातार प्रभावित होते हैं, उन्हें सुरक्षित जगहों पर विस्थापित किया जाएगा। लेकिन विस्थापन इतना आसान नहीं है। पुनर्वास के लिए जगह, बाज़ार, सड़क, स्कूल सब देखना होता है।”

रविंदर सिंह बताते हैं “आपदा के करीब दो महीने बाद मुख्यमंत्री भी हमसे मिलने आए। बोला कि हम लोगों के विस्थापन के लिए नीति बनायी जा रही है।”

तो अब आप लोगों को उम्मीद है कि सरकार आपको सुरक्षित जगह पर बसाएगी? मेरे इस सवाल का जवाब रविंदर बड़े व्यंगात्मक लहजे में देते हैं “हमसे पहले के ही कितने आपदा प्रभावित हैं। उनका तो अभी तक नंबर आया नहीं। हमारा नंबर जाने कब आएगा। तब तक हम क्या करेंगे। हमें यहीं रहना होगा।”

पीयूष रौतेला पर्वतीय क्षेत्रों में बिना किसी भूगर्भीय अध्ययन के सड़क समेत अन्य निर्माण कार्यों को भी इन बढ़ती आपदाओं की वजह मानते हैं। साथ ही सुविधा के लिहाज से सड़क के नज़दीक शिफ्ट होते गांवों को भी ज़िम्मेदार ठहराते हैं।

यहां मल्लिका विर्दी भी सहमत नज़र आती हैं। वह कहती हैं “ पहले समय में लोग पहाड़ की भौगोलिक संवेदनशीलता को समझते हुए, उसी हिसाब से रहा करते थे। अब सड़क ही नदी के किनारे बनाएंगे तो सड़कें बह जाएंगी। मकान और गांव बसा देंगे वहां तो बह जाएंगे। मार्केट के आने से सबको लगता है कि सड़क के नज़दीक रहें। तो हम लोग ही समझदारी से पहाड़ों में नहीं रह रहे। दूसरा, ये भी है कि तीव्र मौसमी घटनाएं बढ़ ही रही हैं। जब आपदा आ जाती है तब सरकार थोड़ा बहुत राहत अभियान चलाती है। आपदा के बाद प्रशासन और सरकार पहुंच रहे हैं। लेकिन जब तक आप आपदा से बचाव के लिए काम नहीं करेंगे, सिर्फ आपदा आने के बाद रिएक्शन तक सीमित रहेंगे, तो ये एक कमी रही है”।

रविंदर सिंह और उनकी पत्नी के पास सरकार से मिले 3800 रुपये और आपदा की मार से बचा दो बोरी धान है। उनके दो छोटे बच्चे हैं। वे तीसरी-चौथी कक्षा में पढ़ते हैं। बूढ़ी मां की ज़िम्मेदारी है। उनके बड़े संयुक्त परिवार में दो भाई और उनके अपने परिवार शामिल हैं। बचे-खुचे खेत और मनरेगा की दिहाड़ी में उनकी बची-खुची उम्मीद छिपी है। बाकी सब पर पहाड़ टूट पड़ा। इस बिखरे पहाड़ को अपने घर-खेत के सामने से हटाने का हौसला वे जमा कर रहे हैं।  

(वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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