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उपराष्ट्रपति चुनाव: जातीय समीकरण साधने में जुटा पक्ष-विपक्ष

आने वाली 6 अगस्त को उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होने हैं, ऐसे में पक्ष और विपक्ष ने भविष्य के चुनावों को देखते हुए अपने-अपने उम्मीदवार मैदान में उतार दिए हैं।
Vice Presidential Election

वैसे तो भारत के राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति राजनीतिक समीकरणों के किसी भी हिस्से से स्वतंत्र होते हैं, लेकिन हिंदुस्तान जैसे देश में जहां राजनीतिक शुरुआत ही जाति और धर्म के मुहाने से होती हो, वहां भला कोई स्वतंत्र कैसे रह सकता है।

अब भारतीय जनता पार्टी को ही देख लीजिए... आज़ादी से लेकर अब तक सबसे ज्यादा शोषित आदिवासी समाज से ढूंढकर अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार निकाल लाए। कहने का अर्थ ये कि इस समाज की हालत अब भी जस की तस है, लेकिन हालात पर संवेदनाएं और भावनाएं को ऊंचा दिखाते हुए एक नेता को राष्ट्रपति बनाने के लिए दावेदारी ज़रूर मज़बूत कर दी।

फिर बारी आई उपराष्ट्रपति चुनाव की तो ऐसे उम्मीदवार को ढूंढ निकाला जो आते तो राजस्थान के झुंझुनू से है, लेकिन उत्तर प्रदेश समेत तमाम ज़िलों के जाटों पर अपनी मज़बूत पकड़ रखते हैं।

यानी ये कहना ग़लत नहीं होगा कि राष्ट्रपति का पद भी निष्पक्षता के पैमाने पर ख़रा नहीं रह गया है।

भारतीय जनता पार्टी के इन राजनीतिक खिलाड़ियों को ग़ैर राजनीतिक सबसे बड़े पद पर बैठाने के खिलाफ विपक्ष ने भी अपना दांव चला है, हालांकि विपक्ष के दांव में बहुत ज्यादा दम दिखता नहीं है, चाहे राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार यशवंत सिन्हा की बात हो, या फिर उपराष्ट्रपति पद के लिए मार्गेट अल्वा की बात हो। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं इसके बारे में विस्तार से जानेंगे।

क्योंकि अभी बात हो रही है उपराष्ट्रपति उम्मीदवार की तो सबसे पहले ये जानने की कोशिश करेंगे कि आख़िर जगदीप धनखड़ को उपराष्ट्रपति बनाकर भारतीय जनता पार्टी क्या हासिल करना चाहती है।

तो इसे समझना होगा कि भाजपा ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रह चुके जगदीप धनखड़ को उपराष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर एक तीर से दो निशाने भेदने की कोशिश की है, जिसमें सबसे पहला देश के ओबीसी समाज को एक सियासी संदेश देना है। और दूसरा राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा से नाराज़ जाटों को फिर से साधना है।

जगदीप धनखड़ के ज़रिए खासकर उन जाट किसानों पर ज्यादा नज़र रहेगी जो किसान आंदोलन के बाद से भाजपा से रूठे हुए हुए हैं।

पहले द्रौपदी मुर्मू के ज़रिए कई राज्यों के अति पिछड़ा वर्ग के वोटों पर निशाना और फिर जगदीप धनखड़ के ज़रिए तीन राज्यों के जाटों पर पकड़ बनाने की कोशिश साफ दर्शाती है कि भाजपा ने 2022 और 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव, फिर 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए जातीय ब्लूप्रिंट तो तैयार कर ही लिया है।

क्योंकि राजस्थान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जाटों की आबादी सबसे ज्यादा है, इसलिए सबसे पहले बात करेंगे राजस्थान की...

राजस्थान में जाटों की कुल आबादी करीब 10 फीसदी है, जिसमें बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर, गंगानगर, चुरू, सीकर, नागौर, हनुमानगढ़, जयपुर समेत कई ज़िलों में सबसे ज्यादा जाट हैं। जाटों का रुतबा इस बात से समझा जा सकता है कि प्रदेश की तीनों बड़ी पार्टियों कांग्रेस, भाजपा और आरएलपी के प्रदेश अध्यक्ष जाट ही हैं। जिसमें भाजपा के सतीश पूनिया, कांग्रेस के गोविंद सिंह डोटासरा और आरएलपी के संयोजक हनुमान बेनीवाल हैं।

हालांकि ये बात भी सच है आज़ादी के बाद से आज तक कोई जाट नेता राजस्थान का मुख्यमंत्री नहीं बन सका, लेकिन सरकार उसकी ही बनती है जिसके साथ जाट होते हैं।

आंकड़ों के मुताबिक 200 सीट वाली राजस्थान विधानसभा में औसतन 20 फीसदी जाट विधायक होते हैं। यानी करीब 30 से 40 सीटों पर जाट नेता ही चुने जाते हैं जबकि पांच लोकसभा सीटों पर भी इनका दबदबा होता है।

अब आने वाली 2023 में राजस्थान के विधानसभा चुनाव होने हैं, क्योंकि भाजपा सत्ता से बाहर है, ऐसे में वो इसबार जीत के लिए हर समीकरण साधने की कोशिश में जुट गई है, जिसका एक कदम जगदीप धनखड़ को भी माना जा रहा है।

वहीं बात हरियाणा की करें तो यहां भी करीब 18 से 20 फीसदी आबादी जाटों की है। और पिछले दिनों हुए किसान आंदोलन में सबसे ज्यादा किसान और जाट इसी राज्य से शामिल हुए थे। मोदी सरकार द्वारा एक साल से ज्यादा तक ज़ुल्मों के बाद जाटों में भारी आक्रोश देखा गया था। वहीं अगर पिछले विधानसभा चुनावों की बात करें तब भी भाजपा को सरकार बनाने के लिए सपोर्ट लेना पड़ा था। भाजपा को अच्छे से पता है कि यहां कि विधानसभा में जाटों का सीधा प्रभाव है, यानी उनके बग़ैर चुनाव जीतना बेहद मुश्किल है। यही कारण है कि जगदीप धनखड़ के ज़रिए यहां के जाटों को मनाने की कोशिश शुरू हो गई है।

इसके बाद आता है उत्तर प्रदेश.... जहां जाटों की आबादी तो महज़ दो फीसदी है, लेकिन इनकी नाराज़गी अन्य समाज द्वारा सरकारों के लिए बहिष्कार का कारण बन जाती है। लेकिन बीते विधानसभा चुनाव में जाटों की बहुत ज्यादा नाराज़गी भाजपा से दिखी नहीं। हां ये बात भी सच है कि जाटों के बड़े नेता जयंत चौधरी फिलहाल भाजपा से रूठे हुए हैं, ऐसे में उनका भाजपा के साथ न होना 2024 में मुसीबत ज़रूर खड़ा कर सकता है। यही कारण है कि भाजपा ने इस राज्य के जाटों को भी जगदीप धनखड़ के द्वारा साधने की कोशिश ज़रूर की है।

आपको बता दें कि जगदीप धनखड़ कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन भाजपा को उन्हें उपराष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाए जाने की सबसे अहम वजह ये है कि जाटों को आरक्षण दिलाने में इन्होंने अहम भूमिका निभाई थी।

अब बात करेंगे विपक्ष की राष्ट्रपति उम्मीदवार के बारे में

वैसे तो आंकड़ों के लिहाज़ से विपक्ष के किसी भी उम्मीदवार का जीतना बेहद मुश्किल था, लेकिन आगे आने वाले चुनावों में फायदे को देखते हुए मार्गरेट अल्वा को चुना गया है। कर्नाटक के मंगलूर में रहने वाली मार्गरेट अल्वा लंबे वक्त तक कांग्रेस की सदस्य रही हैं, 1999 में पहली बार लोकसभा सांसद चुनी गई थीं, फिर लगातार पांच बार लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचीं। अल्वा राज्यसभा सांसद भी रह चुकी हैं और राजस्थान, गोवा जैसे राज्यों की राज्यपाल भी रह चुकी हैं।

अल्वा के बारे में कहा जाता है कि वो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की बेहद करीबी हैं।

विपक्ष ने अल्वा को ही क्यों चुना?

क्योंकि अल्वा कर्नाटक से आती हैं, और साल 2023 में कर्नाटक के विधानसभा चुनाव होने हैं, फिलहाल वहां भाजपा की सरकार है जिसका पूरा श्रेय बीएस येदियुरप्पा को जाता है। हालांकि इन दिनों येदियुरप्पा और कांग्रेस नेता सिद्धारमैया की बढ़ती नज़दीकियां भाजपा के लिए परेशानी का कारण बनी हुई हैं। अब ऐसे में कांग्रेस एक बार फिर कर्नाटक में अपनी पकड़ मज़बूत करने में जुटी हैं।

मार्गरेट अल्वा आती हैं ईसाई परिवार से, और कर्नाटक में ईसाइयों की जनसंख्या करीब 1.87 प्रतिशत है। ऐसे में कांग्रेस इसका फायदा लेने की पूरी कोशिश करेगी। इसके अलावा अल्पसंख्यक समाज से किसी को उपराष्ट्रपति बनाया जाता भी मुस्लिमों और अन्य अल्पसंख्यकों को विश्वास दिलाने में मदद करेगा।

सिर्फ कर्नाटक ही नहीं कांग्रेस की नज़र दक्षिण और नॉर्थ ईस्ट के अन्य राज्यों पर भी है। अगले साल त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम और तेलंगाना में भी चुनाव होने हैं। फिर 2024 में आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और महाराष्ट्र में चुनाव हैं। इन राज्यों में ईसाइयों की जनसंख्या ठीक-ठाक है, जबकि पूर्वोत्तर के कई राज्यों में तो ईसाई निर्णायक भूमिका में रहते हैं, ऐसे में मार्गरेट अल्वा का फायदा कांग्रेस को ज़रूर मिल सकता है।

अब कांग्रेस और विपक्ष के इस गणित को व्यापक नज़रिए से देखा जाए तो निशाने पर 2024 लोकसभा चुनाव हैं, क्योंकि अगर कोई ईसाई या फिर कहें कि अल्पसंख्यक इतने बड़े पद के लिए उम्मीदवार बनाया जाता है, इसका फायदा थोड़ा बहुत तो ज़रूर मिलेगा। फिर साल 2011 की जनगणना के हिसाब से देश की तीसरी सबसे बड़ी आबादी 2.30 प्रतिशत ईसाइयों की ही है।

अब इसे ऐसे भी सोच सकते हैं कि मार्गरेट अल्वा कांग्रेस से हैं और राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार यशवंत सिन्हा टीएमसी से हैं, तो कहीं न कहीं विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश भी की जा रही है। जो अपने-अपने क्षेत्र में या राज्य में बेहतर प्रदर्शन कर पार्टी को सत्ता में लाएं।

ख़ैर... उपराष्ट्रपति चुनाव के ज़रिए भी भविष्य में आने वाले चुनावों के लिए पक्ष और विपक्ष अपने-अपने दांव चल रहे है, अब देखना ये होगा कि किसका दांव सटीक बैठता है।

आपको बता दें कि आने वाले 6 अगस्त को उपराष्ट्रपति के चुनाव होने हैं। वहीं मौजूद उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू का कार्यकाल 10 अगस्त को खत्म हो रहा है।

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