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विकास दुबे: छोटे शहर के अपराधियों के सैलाब की महज़ एक लहर

संगठित अपराध ने उत्तर भारत के ग्रामीण और छोटे-छोटे शहरों में क़दम बढ़ाना शुरू कर दिया है और इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है।
विकास दुबे

उत्तर प्रदेश के कानपुर में 2 जुलाई को हुए भीषण और हैरतअंगेज़ हमले में आठ पुलिसकर्मियों की मौत हो गयी थी, जबकि एक भी अपराधी के मारे जाने की ख़बर नहीं है। इससे पता चलता है कि विकास दुबे के ख़िलाफ़ पुलिस की लड़ाई कितनी ग़ैर-बराबरी वाली थी।  

उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री के दर्जे पर काबिज संतोष शुक्ला की 2001 में कानपुर देहात के शिवली पुलिस थाने के अंदर घुसकर हत्या कर दी गयी थी और उसी गैंगस्टर को आरोपी बनाया गया था। हत्या के शिकार हुए संतोष शुक्ला की ताक़तवर हैसियत भी उस हमले में ज़िंदा रह गये लोगों को न्याय नहीं दिला पायी।

उस मामले के चश्मदीद गवाह रहे थाने में मौजूद 25 पुलिसकर्मी, जिनके सामने ही हत्या हुई थी,अगर वे सबके सब गवाही से मुकर गये थे, तो फिर न्यायपालिका के सामने गवाही देने की हिमाक़त कभी कौन जुटा पायेगा? यह सिस्टम की नाकामी के अलावा और कुछ भी नहीं है।

2 जुलाई के मामले को लेकर जो रिपोर्ट बतायी जा रही है,उसमें कहा गया है कि किसी पुलिसकर्मी ने ही इस गैंगस्टर को पहले से आगाह कर दिया था। लेकिन, दुबे ने भागने के बजाय एक बड़े पुलिस बल को छकाने और सज़ा देने की चुनौती का डटकर मुक़ाबला किया।

यह उत्तर प्रदेश के गैंगस्टरों की बेशुमार ताक़त और उसकी गुस्ताख़ी को लेकर एक सिहरा देने वाला मुज़ाहरा है। इसी तरह का घात लगाकर किया गया हमला 16 मार्च 2001 को बिहार के सीवान ज़िले के प्रतापपुर में हुआ था। उस हमले में भी दो पुलिसकर्मियों और दस "नागरिकों" को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इन दोनों ही मामलों में मुख्य अभियुक्त अपनी आपराधिक ताक़त और राजनीतिक दबदबे को बहुत ही अहम तरीक़े से लगातार बढ़ाते चले गये थे।

गैंगस्टरों को लेकर बहुत कम अध्ययन किये गये हैं और यह अध्ययन उन गैंगस्टरों पर किये गये हैं, जो बड़े शहरों में ख़ास तौर पर उभरे हैं और इन अध्ययनों में से ज्यादातर उनकी प्रोफ़ाइल या आत्मकथायें हैं, जो अंजाम तक पहुंचने तक की उनके बढ़ते जाने की कहानी बयान करते हैं।

पत्रकार-लेखक, सैयद हुसैन ज़ैदी ने गैंगस्टरों पर सबसे ज्यादा बिकने वाले कुछ ऐसे लोकप्रिय वृत्तांतों को प्रकाशित किया है, जो अपराध थ्रिलर फ़िल्मों के प्लॉट के रूप में भी अपनी जगह बनायी है। लेकिन,छोटे शहरों के गैंगस्टर और ग्रामीण क्षेत्रों में अपने पांव पसार रहे गंभीर प्रकृति के संगठित अपराध वाले नेटवर्क अब भी अनछुए रह गये हैं।

सितंबर 2018 में जब बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में एक पूर्व महापौर की हत्या हुई, तो बहुत कम संसाधनों के साथ बहुत मामूली सुसज्जित मीडिया घरानों में काम करने वाले चंडीगढ़ के एक हिंदी-पत्रकार और मुजफ्फरपुर में ही पढ़े-लिखे कुणाल वर्मा ने उत्तर बिहार के इस छोटे से शहर "अंडरवर्ल्ड की अंदरूनी कहानी" को छ: वेब श्रृंखला में प्रकाशित किया था।

आज भी किसी को नहीं मालूम है कि आख़िर पूर्व मेयर की हत्या किसने की, लेकिन हम जानते हैं कि जिस दिन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने प्रेस में यह बयान दिया था कि पुलिस जल्द ही हत्यारों के नाम का ख़ुलासा कर देगी, तो बिना समय गंवाये तुरंत उसका तबादला कर दिया गया।

मुज़फ़्फ़रपुर वही छोटा सा शहर है,जहां उसी साल सबसे भयानक शेल्टर होम कांड का खुलासा हुआ था। यह वही शहर है,जहां एक 12 साल की लड़की, नवरुणा का अपहरण कर लिया गया था और अभी तक पुलिस उसके बारे में पता नहीं लगा सकी है।

उसके बेबस पिता अतुल्य चक्रवर्ती कभी नहीं मिलने वाले न्याय की अंधीरी गलियों के चक्कर लगा रहे हैं। सवाल है कि 1970 के दशक से इस छोटे से शहर मे ही "अंडरवर्ल्ड" गतिविधियों का एक सिलसिलेवार इतिहास क्यों है, जबकि राजधानी शहर, पटना में "डॉन" की इस तरह की मौजूदगी नहीं है?

स्थानीय निकाय चुनावों की शुरुआत के साथ-साथ ख़ुद को एक शराबबंदी वाला राज्य घोषित किये जाने के बाद से ग्रामीण बिहार में एक उद्योग के रूप में शराब के ग़ैर-क़ानूनी कारोबार के बढ़ते जाने के बाद से पुलिस-आपराधिक सांठगांठ पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत दिखायी दे रहा है।

ये अपराधी या तो नेता हैं या जिन्हें नेताओं/ विधायकों की तरफ़ से संरक्षण मिला हुआ है। इससे ग्रामीण इलाक़ों में भी संगठित अपराध को बढ़ावा मिला है। दुर्भाग्य से यह पहलू अब भी अनछुआ है। हाल ही में गैंगस्टरों ने रोज़मर्रा की राजनीति में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तैयार करने में अहम भूमिका निभानी शुरू कर दी है।

अपने लेख, "रोज़-ब-रोज़ का भ्रष्टाचार और भारतीय राज्य की राजनीतिक दलाली" में जेफ़री विट्सो ने बिहार में पुलिस और अन्य सरकारी कार्यालयों में अड़ोस-पड़ोस / मुहल्ला के दलालों की भूमिका की छानबीन की है। 2011 में प्रकाशित वार्ड बेर्न्सचॉट की किताब, रॉयट पॉलिटिक्स गुजरात के संदर्भ में इसी तरह की घटना पर ग़ौर फ़रमाती है। इन अड़ोस-पड़ोस वाले दलालों में से कई अपराधी बनने के क्रम में होते हैं, यह वह पहलू है,जिस पर आगे खोजबीन किये जाने की ज़रूरत है।

पुलिस और स्थानीय भाषा के दैनिक समाचार पत्रों के उप-क्षेत्रीय संस्करण चलाने वाले लोगों पर इन बाहुबलियों की धौंस इतनी ज़बरदस्त होती है कि अक्सर अपराधियों के संस्करण ही प्रकाशित होते रहते हैं।

उत्तर बिहार के ग्रामीण क्षेत्र में 2019 में हुए एक घटना में पुलिस को उस हिस्ट्री-शीटर को पकड़ने में महीनों लग गये, जिसके बारे में चश्मदीद गवाहों ने मुझे बताया था, “दिन दहाड़े उसने ग़ैर-क़ानूनी शराब का कारोबार करने वाले अपने प्रतिद्वंद्वी के भीतर गोलियां की बोछार कर दी थी”। जिस समय ये सब हो रहा था,उस समय एक दर्जन से ज़्यादा लोग तमाशबीन बने देख रहे थे।

स्थानीय हिंदी दैनिक समाचार पत्रों ने अगले दिन अपनी रिपोर्ट में बताया कि "अज्ञात" नकाबपोश बाइक सवारों ने इस हत्या को अंजाम दिया। अगर ग्रामीणों के गोपनीय रूप से साझा की गयी सूचनाओं पर विश्वास किया जाये, तो ये ग्रामीण गैंगस्टर स्थानीय पुलिस को महिलाओं की भी आपूर्ति करते हैं। अवैध हथियारों का व्यापार, अपराध सिंडिकेट, ग़ैर-क़ानूनी रूप से शराब का कोराबार, और इन "कारोबार" में युवाओं की भर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में एक शक्तिशाली ख़तरे की तरह फैल रहे हैं।

ईमानदार वरिष्ठ पुलिस अफ़सरों को अक्सर आम लोगों के बीच इन ग्रामीण / मुहल्ला गैंगस्टरों की साख़ के बारे में उनके सहयोगियों द्वारा ग़लत सूचना दी जाती है। इन अपराधियों को अक्सर "पुलिस मुख़बिर" कहा जाता है और इस तरह,ये ग्रामीण/ मोहल्ला गैंगस्टर पुलिस बलों के भीतर से सुरक्षा हासिल कर लेते हैं।

इसे लेकर पेशेवर बारीकियों के साथ जांच-पड़ताल करने की ज़रूरत है, क्योंकि जैसा कि अक्सर संदेह जताया जाता है कि ग़ैर-क़ानूनी रूप से जमा की गयी और अवैध रूप से निर्मित शराब से जुटायी गयी यह बड़ी रक़म “चुनावी धन” की शक्ल में सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों की तिजोरी में भी जाती है।

ये आपराधिक ताक़तें न सिर्फ़ जिल़ों के बीच काम करने वाले गिरोह के रूप में,बल्कि सूबों के बीच भी सिंडिकेट के रूप में काम करते हैं। ऐसा ही एक ग्रामीण गैंगस्टर बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के पारो के मेरे अपने पैतृक गांव तुरकौलिया का रहने वाला है।

ये स्थानीय "डॉन्स"अपने सम्बन्धित स्थानीय समाजों में करिश्माई माने जाते हैं,चाहे वे "बदला लेने वालों" (मशहूर इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम से एक शब्द उधार लेकर) की श्रेणी से सम्बन्धित हों या सिर्फ़ बंदूक चलाने वाले झक्की हत्यारे ही क्यों न हों। इस तरह के उभार उस समाज के बारे में गंभीर चिंता पैदा करता है, जो हमारे समय में विकसित हो रहा है। लोग हमेशा ही गैंगस्टरों को या तो रक्षकों के रूप में देखते हैं या जाति और सांप्रदायिक चश्मे के आधार पर ख़तरे की तरह देखते हैं,जिसे ये गैंगस्टर ख़ुद भी धारण करने की कोशिश करते हैं।

एक ऐसे पुलिस अफ़सर को मैं जानता हूं,जिन्होंने कभी उस बातचीत को मेरे साथ साझा की थी,जिसे उन्होंने गुजरात के अहमदाबाद में एक मुस्लिम टैक्सी-ड्राइवर के साथ की थी। उस ड्राइवर ने उन्हें बताया था कि 1997 के बाद लतीफ़ “डॉन” को मार गिराया गया था, और 2002 की तबाही के बाद राज्य में पुलिस ने बड़ी मुस्तैदी के साथ मुस्लिम हुड़दंगियों या बदमाशों का सफ़ाया कर दिया था। इसलिए, अंडरवर्ल्ड अब सिर्फ़ समुदाय के सदस्य को भर्ती किये जाने का सहारा नहीं लेते हैं। क्या यह लेनदेन भारत में पुलिस बल द्वारा क़ानून और व्यवस्था बनाये रखने को लेकर पक्षपात के बारे में कुछ संकेत करती है?

बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ सरकार ने पिछले तीन वर्षों में बड़े पैमाने पर "मुठभेड़ हत्याओं" को अंजाम दिया है। सवाल है कि इससे अपराध और गैंगस्टर को रोक पाने में मदद क्यों नहीं मिल पायी? क्या ऐसा इसलिए तो नहीं है कि यह सरकार ज़्यादातर मुसलमानों के ख़िलाफ़ अपनी पुलिस को खुली छूट दे रही है? इसके अलावे,मीडिया और सामाज की तरफ़ से भी पक्षपात किये जा रहे हैं।

उदाहरण के लिए, 15 साल पहले एक पोर्टल, सुलेखा डॉट कॉम(sulekha.com) ने झारखंड स्थित जमशेदपुर के एक गैंगस्टर, हिदायत ख़ान को "स्टील डॉन",एक "आतंकवादी" कहने की जल्दबाज़ी कर बैठा। क्या ऐसा कहने के पीछे उसकी मुस्लिम पहचान तो नहीं थी? इसी पोर्टल ने उसी जमशेदपुर के ज़िंदा गैंगस्टर,अखिलेश सिंह के लिए "आतंकवादी" शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है।

सीवान के कुख्यात शहाबुद्दीन के लिए भी आम बातचीत में "आतंकवादी" शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन,सोहराबुद्दीन शेख़ गैंगस्टर था या आतंकवादी था? 1997 में मारे गये लतीफ़ डॉन का चरित्र चित्रण कैसे किया जाय? एक आतंकवादी या माफ़िया सरगना के रूप में? फिर छोटा राजन के बारे में क्या कहा जाय?

कई और सवाल भी हैं: भारतीय जेलों में विचाराधीन मुस्लिम क़ैदियों की संख्या आनुपातिक रूप से इतना ज़्यादा क्यों है? सरगनाओं के बीच कितने दलित माफ़िया सक्रिय रहे हैं? राजनीतिक रूप से शक्तिशाली प्रमुख जातियों के बीच से ही ये सरगना क्यों उभरते हैं? क्या जाति और धार्मिक पहचान के आधार पर बदमाशों को लेकर धारणाओं में किसी तरह के सत्ता से सम्बन्धित किसी आधार की खोज नहीं की जा सकती है? ये सभी सवाल बेहद प्रासंगिक हैं।

पिछले कुछ महीनों में सीएए के ख़िलाफ़ संवैधानिक विरोध करने वालों को आईपीसी की धारा 124 A और यूएपीए जैसे कठोर ग़ैर-ज़मानती क़ानूनों के तहत राजद्रोह के आरोप लगाये गये हैं, जबकि साल 2018 में अपने ही चचेरे भाई की हत्या में आरोपी बनाये जाने के बाद विकास दुबे को जमानत दी गयी थी।

[उत्तर प्रदेश पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा है कि वे विकास दुबे के साथ "एक आतंकवादी की तरह" बर्ताव करेंगे, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस तरह की शब्दावली का असरदार तरीक़े से इस्तेमाल 1956 के बाद से ही राज्य में एक विशेष क़ानून, गैंगस्टर अधिनियम, के लागू होने के बावजूद नहीं किया जाता है।]  

एंड्रयू सांचेज ने 2016 में आपराधिक राजधानी जमशेदपुर के इस्पात शहर में सरगनाओं के उदय के अपने अध्ययन में बताया है कि 1991 में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद से गैंगस्टर की परिघटना ने एक ख़तरनाक रंगत अख़्तियार कर ली है। इन गैंगस्टरों के प्रोफ़ाइल पर एक सरसरी निगाह डालने से भी यह साफ़ पत चल जाता है कि ग्रामीण और छोटे शहर वाले ये गैंगस्टर (और उनके शार्प शूटर) पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के छोटे-छोटे शहरों और गांवों से हैं, जो इन औद्योगिक शहरों में आसपास के प्रांतों से आते हैं।

अफ़सोसनाक है कि इन अपराधों के साथ-साथ सांप्रदायिक/जातीय हिंसा को अंजाम देने वाले  ये अपराधी काफ़ी हद तक पुलिस की पहुंच से बाहर हैं या, पुलिस न्यायपालिका के सामने अक्सर सबूत पेश कर पाने में नाकाम रहती है। यही वजह है कि अपराधी अक्सर छूट जाते हैं। यह अब हम सभी के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है, केवल महत्वपूर्ण पुलिस-सुधार ही वास्तव में इस ख़तरे से निजात दिला पायेगा।

डॉक्यूमेंट्री और फ़िल्म-निर्माता,गैंग्स ऑफ़ वासेपुर (धनबाद, झारखंड में स्थित) और मिर्ज़ापुर (उत्तर प्रदेश का एक शहर) जैसी फ़िल्मों के ज़रिये इस मसले पर मंथन ज़रूर करते हैं, मगर अपने मक़सद में वे सूचना देने के बजाय मनोरंजन करने तक ही सीमित या विवश होते हैं।

यही कारण है कि सामाजिक और राजनीतिक नृविज्ञान के स्तर पर अकादमिक लेखा-जोखा को इस सरगनावाद और जनसाधारण के बीच इसके उदय का पता लगाने की ज़रूरत है। हॉब्सबॉम ने 1969 में एक छोटी,मगर बहुत ही अहम वॉल्यूम, बैंडिट्स प्रकाशित की थी, जिसमें उन्होंने क़ानून के ख़िलाफ़ काम करने वालों को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा था। बड़े मीडिया घरानों को अब इन कामों पर अधिक ध्यान देना चाहिए और संगठित अपराध के बारे में गहन पत्रकारीय रिपोर्ट करनी चाहिए।

2018 में किसी शैक्षणिक पत्रिका में "1920 के बाद से गोरखपुर में राजनीति: एक सुरक्षित 'हिंदू निर्वाचन क्षेत्र' का निर्माण" पर एक निबंध दिखायी दिया था, लेकिन यह सही दिशा में स्वागत योग्य महज एक क़दम है। यह पत्र उस गोरखपुर और पूर्वी उत्तर प्रदेश के आसपास की राजनीति के विकास की खोज-बीन करता है, जहां उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री,योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में गोरखपुर के अंक शास्त्र के प्रभुत्व से हिंदू’ प्रभुत्व का उभार हुआ है।

इस तरह के कार्यों को प्रोत्साहन देना मीडिया का एक महत्वपूर्ण अगला क़दम होना चाहिए, क्योंकि वे भीतरी इलाक़े में संगठित अपराध की पहुंच की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। उन्हें कम से कम यह बात साफ़ तौर पर बताना शुरू कर देना चाहिए कि ग्रामीण और छोटे-छोटे शहरों के भारतीयों की रोज़मर्रे की ज़िंदगी कैसे उनके बीच उभर रहे सरगनाओं से त्रस्त है।

लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-

Vikas Dubey: Just One Ripple in Deluge of Small-Town Gangsters

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