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ज़मीन और आजीविका बचाने के लिए ग्रामीणों का विरोध, गुजरात सरकार वलसाड में बंदरगाह बनाने पर आमादा

वलसाड में उमरागाम तालुक के स्थानीय लोग प्रस्तावित बंदरगाह के निर्माण का विरोध 1997 से ही करते आ रहे हैं, जब पहली बार इसकी घोषणा की गई थी। 
ज़मीन और आजीविका बचाने के लिए ग्रामीणों का विरोध, गुजरात सरकार वलसाड में बंदरगाह बनाने पर आमादा
छवि केवल प्रतीकात्मक उपयोग के लिए। सौजन्य : दि इंडियन एक्सप्रेस 

गुजरात में वलसाड के उमरागाम तालुक के तटवर्ती गांव नारगोल के स्थानीय निवासी अपने यहां प्रस्तावित बंदरगाह को लेकर एक बार फिर विरोध प्रदर्शन पर उतर आए हैं। इसकी वजह यह है कि गुजरात सरकार ने हाल ही में नारगोल में बहुधंधी बंदरगाह के निर्माण के लिए गुजरात मैरिटाइम बोर्ड (जीएमबी) को वैश्विक निविदाएं मंगाने के लिए अपनी स्वीकृति दे दी है। गांव के लोगों का कहना है कि इससे उनकी भूमि छिन जाएगी और उनकी आजीविका मटियामेट हो जाएगी। 

नारगोल में  प्रस्तावित बंदरगाह को मुंबई में जवाहरलाल नेहरू बंदरगाह या जेएनपीटी का एक विकल्प के रूप में बनाने की अपेक्षा है, जो अपनी पूरी क्षमता से काम कर रहा है। प्रदेश की विजय रूपानी सरकार ने गुजरात मैरिटाइम बोर्ड (जीएमबी) को 3,800 करोड़ रुपये की लागत वाले बहु-धंधी बंदरगाह के निर्माण के लिए विश्व स्तर पर निविदाएं मंगाने के लिए अपनी हरी झंडी दे दी है, जो ठोस, तरल और डिब्बों में माल की ढुलाई के लिहाज से सक्षम होगा। 

गुजरात सरकार द्वारा इस साल 24 जून को जारी किए गए एक बयान के मुताबिक मुंबई के निकट जेएनपीटी से 2025 तक अपने अभीष्टतम परिचालन क्षमता तक पहुंच जाने की अपेक्षा है। इसलिए, दक्षिण गुजरात में एक हरितभूमि बंदरगाह गुजरात, महाराष्ट्र एवं मध्य प्रदेश में उद्योगों को अपनी सेवा देने में सहयोगी हो सकता है। 

गुजरात सरकार ने इसी दृष्टि से अपने वलसाड में एक बंदरगाह विकसित करने की योजना 1997 में ही बनाई । नारगोल गांव में इसकी मौजूदा जगह तय की गई है, जो मुंबई से 140 किलोमीटर एवं सूरत से 120 किलोमीटर की दूरी पर है। 

स्थानीयों का दावा है कि उनके गांव के आसपास की जो जमीन बंदरगाह के लिए चुनी गई है, वहां उपजाऊ समुद्री जीवन है और फलों के बाग हैं, जो इलाके के लोगों की आजीविका के प्राथमिक स्रोत हैं। जून में नारगोल की 14 सदस्यीय ग्राम पंचायत ने एक सामान्य बोर्ड की बैठक बुलाई थी और इस बंदरगाह के यहां बनाए जाने के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया था। 

नारगोल के पूर्व पंचायत प्रमुख यतिन भंडारी ने न्यूजक्लिक से कहा,“नारगोल की आबादी लगभग 16,000 है और इसकी अमूमन आधी आबादी की आजीविका का प्राथमिक स्रोत मछली पकड़ना है। इन मछुआरों को भय है कि तटवर्ती रेखा, जो कि सुरमई, झींगा, प्रान्स, बम्बे डक, लॉबस्टर, पॉमफ्रेट्स आदि मछलियों का प्रजनन स्थल है, वे यहां बंदरगाह के बन जाने से दुष्प्रभावित होंगे। यह क्षेत्र समृद्ध समुद्री जीवन है और यहां की मछलियां अच्छे दामों पर विदेशों में निर्यात की जाती हैं। मालों की ढुलाई के लिए जिस जमीन की मांग की जा रही है, वह गांववासियों और जनजातीय लोगों की है, जो अपनी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर हैं। हम यहां आम, चीकू, बेरी और किसिम-किसिम की साग-सब्जियां तथा अन्नों की फसलें उपजाते हैं। दूसरे, नारगोल अकेला गांव नहीं है, जहां बंदरगाह के बनने से खराब असर पड़ेगा। नारगोल में चार किलोमीटर तटवर्ती रेखा के अतिरिक्त पड़ोस के उमरगाम, ताडगाम, सरोन्डा, मरोली, फंसा, कलाई आदि गांवों की जमीन के भी इस बंदरगाह के विस्तार में आने में उम्मीद है।” 

भंडारी जो खुद पेशे से एक किसान हैं, उनका कहना है, “गुजरात सरकार ने एक दिन घोषित किया कि यहां बंदरगाह बनाने का एक बार फिर निर्णय किया है। पर अभी तक किसी सरकारी अधिकारी ने हमसे या ग्रामपंचायत से संपर्क नहीं किया है। हमसे इस बारे में न तो हमारी राय ही मांगी है और न इस परियोजना की बाबत कोई सूचना या ब्योरा ही दिया गया है। हमें यह भी नहीं बताया गया है कि हमारी जमीन लेने की एवज में क्या हमारे पुनर्वास का भी प्रबंध करेंगे। हम विकास के विरुद्ध नहीं हैं लेकिन यह हमारी आजीविका की कीमत पर नहीं होना चाहिए।"

दक्षिणी गुजरात के उमरगाम तालुक के स्थानीय लोग इस परियोजना की पहली बार 1997 में घोषणा किए जाने के समय से ही इसका विरोध कर रहे हैं। इस घोषणा के बाद, बंदरगाह को मरोली तटवर्ती गांव में बनाने की योजना थी, जो उमरागांव तालुक के गांव नारगोल से लगभग 10 किलोमीटर दूर है। तत्कालीन केशुभाई सरकार ने इस परियोजना के लिए नाटेल्को-अनोकल कॉन्सटोरियम को एक आशय पत्र (एलआइओ) भी जारी किया था। इसके बाद, 1999 में, परियोजना के विरोध में किनारा बचाओ समिति और उम्बेरगांव तालुक बंदरगाह हटाओ संघर्ष समिति के बैनर तले गांववासियों का प्रदर्शन शुरू हो गया।

सूरत में रहने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता कृष्णकांत चौहान ने न्यूजक्लिक से बातचीत में कहा, "इसके पूर्व, जब परियोजना की पहली बार घोषणा की गई थी तो इलाके के मछुआरे एवं किसान दोनों ही बंदरगाह का एक साथ विरोध किया था। प्रदर्शन की जो वजह 1997 में थी, वह आज भी बनी हुई है। वह कि बंदरगाह बनने से क्षेत्र के समुद्री जीव-जंतुओं एवं तट के आसपास की उपजाऊ जमीन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। स्थानिकों के वर्षों तक बने मजबूत प्रतिरोध को देखते हुए, सरकार ने बंदरगाह परियोजना का स्थल मरोली से नारगोल स्थानांतरित करने का निर्णय लिया।” उन्होंने आगे बताया कि “2012 से 2014 के बीच, एक बार फिर निविदाएं मंगाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी और आशय पत्र कार्गो मोटर प्राइवेट लिमिटेट एवं इस्राइल पोर्ट कम्पनी (आइपीसी) की अंतरराष्ट्रीय शाखा अमरिलिस को दिया गया था। हालांकि एक बार फिर इस परियोजना के विरोध में आसपास के इलाके के लोग इक्ट्ठा हो गए। इसके बाद, इस परियोजना के खिलाफ जन सुनवाई की गई, जहां बड़ी संख्या में ग्रामवासियों ने उपस्थित हो कर अपना विरोध दर्ज कराया। अंततोगत्वा, दोनों कम्पनियां इस परियोजना से अलग हो गईं। अब जा कर पिछले महीने गुजरात सरकार ने इस परियोजना की फिर से घोषणा की है।”

ध्यान देने की बात यह है कि  इस परियोजना के विरोध का नेतृत्व रिटायर लेफ्टिनेंट कर्नल प्रताप सवे कर रहे थे, जो नारगोल के निवासी हैं और किसान बचाओ समिति के अध्यक्ष हैं। 7 अप्रैल  2000 को जब प्रस्तावित बंदरगाह को लेकर विरोध प्रदर्शन अपने चरम पर था, 40 से भी अधिक प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था, जिनमें कई महिलाएं भी थीं। सवे को भी इन प्रदर्शनकारियों के साथ गिरफ्तार किया गया था, उनके होश गंवाने तक बुरी तरह पीटा गया था और वापी में एक स्थानीय अस्पताल में दाखिल कराया गया था। इसके बाद, उन्हें मुंबई के अस्पताल भेज दिया गया था, जहां जख्मों के चलते इलाज के दौरान 20 अप्रैल 2000 को उनका निधन हो गया। उनकी पत्नी सुनीता सवे ने उप पुलिस अधीक्षक एन के अमीन (जो सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में एक आरोपित हैं।) एवं एक कांस्टेबल के खिलाफ हिरासत में मौत का मामला दर्ज कराया था। 

चौहान ने कहा, “एक रात पुलिस ने नारगोल गांव को चारों तरफ से घेर लिया और वहां के लोगों को पकड़ ले गई। जब प्रताप सवे को इसकी खबर मिली, तो वे पकड़े गए लोगों को रिहा कराने के लिए थाने गए। वहां पुलिस ने उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया और एक अलग सेल में रख कर यातनाएं दी। इसके बाद, उन्हें अन्य लोगों के साथ के सेल में ही रख दिया गया। सेल में बंद ग्रामवासियों का कहना था कि सवे खड़े नहीं हो पा रहे थे। इस पर इन लोगों ने हो-हल्ला किया, तब सवे को अस्पताल में दाखिल कराया गया था। बाद में सवे की हालत बिगड़ने पर मुंबई भेजा गया, जहां चोट की वजह से इलाज के दौरान उनका निधन हो गया। प्रताप सवे की मौत के बाद तो प्रदर्शन ने और जोर पकड़ लिया।” 

दिलचस्प है कि बंदरगाह अकेला प्रोजेक्ट नहीं है, जिसकी गुजरात सरकार दक्षिणी गुजरात में निर्माण की योजना बना रही है। इसके अलावा, बुलेट ट्रेन परियोजना एवं डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर की भी योजना भी उसी इलाके में बनाई गई है, जिसमें मुंबई एवं सूरत के बीच बड़ी मात्रा में भूमि की जरूरत है, यह सब भूस्वामियों के विरोध के बीच किया जा रहा है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Villagers Protest to Save Land and Livelihood as Gujarat Govt Set to Build Port in Valsad

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