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इक्कीसवीं सदी में अठारहवीं सदी का जीवन जी रहे कारगिल शहीद के गांव वासी

आज भी कारगिल शहीद अनिल रावत के गाँव कुंडयू वासी बिना सड़क और मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं।
इक्कीसवीं सदी में अठारहवीं सदी का जीवन जी रहे कारगिल शहीद के गांव वासी

पौड़ी गढ़वाल: सदियां बदली, सरकारें बदली, जनप्रतिनिधि बदले, अगर कुछ नहींं बदला है तो देवभूमि उत्तराखंड के शहीदों के परिवार और उनकी जन्मभूमि के हालात। आज भी देश पर मर मिटने वाले शहीदों के नाम पर हुई न जाने कितनी ही घोषणाएं ऐसी हैं जो परवान ही नहीं चढ़ी हैं और वो शहीदों के प्रति सरकारों और उनके जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा की वज़ह से सिर्फ़ कागजों और भाषणों में ही सिमट कर रह गयी हैं। इसी विषय पर पेश है अजीत सिंह की यह रिपोर्ट।

उत्तराखंड राज्य का आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद का अपना अलग ही इतिहास है। उत्तराखंड के साथ-साथ राज्य के पौड़ी गढ़वाल जिले ने भी अपनी अलग ही पहचान बनाई है। पौड़ी गढ़वाल के लैंसडाउन में स्तिथ गढ़वाल राइफ़ल्स रेजिमेंट की सन 1887 यानी ब्रिटिश आर्मी के जमाने से अपनी अलग ही पहचान रही है। उत्तराखंड की गढ़वाल राइफ़ल्स रेजिमेंट ने न जाने कितने शूरमाओं को पैदा किया है जिन्होंने अपनी बहादुरी और वीरता का लोहा पूरी दुनिया में मनवाया है। चाहे फर्स्ट वर्ल्ड वार में ब्रिटिश आर्मी में वीरता और अदम्य साहस के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान विक्टोरिया क्रास पाने वाले नायक दरबान सिंह नेगी हों, या चम्बा के राइफ़लमैन गबर सिंह नेगी रहे हों, या सेकंड वर्ल्ड वार में बहादुरी से लड़ते हुए दुश्मनों के छक्के छुड़ाने वाले वीर चंद्र सिंह गढ़वाली रहे हों, जिन्होंने निहत्थे पठान सैनिकों पर गोली चलाने के ब्रिटिश आर्मी के आदेश को मानने से इंकार करते हुए ब्रिटिश आर्मी से ही बग़ावत कर दी थी। वहीं आजाद भारत की सन 1962 के भारत-चीन युद्ध में 72 घंटे तक अकेले चीनी सैनिकों से लोहा लेने वाले और 100 से अधिक चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतारने वाले राइफलमैन जसवंत सिंह रावत हों, या सन 1965 और 1971 में पाकिस्तान से लड़ी गयी लड़ाईयां या दो दशक पहले लड़ा गया कारगिल युद्ध। उत्तराखंड राज्य की गढ़वाल राइफ़ल्स रेजिमेंट के रणबांकुरों ने हमेशा ही साहस और जांबाजी दिखाते हुए दुश्मनों के दांत खट्टे किए हैं, लेकिन दुश्मन को कभी पीठ नहींं दिखायी। कारगिल युद्ध में भी मातृभूमि की रक्षा को समर्पित देश के 527 जांबाज शहीदों में से 75 शहीद उत्तराखंड के वीर सपूत थे और न जाने कितने ही वीर सपूतों ने देश की सीमाओं पर जांबाजी और परम साहस का परिचय देते हुए शहादत पायी और तिरंगे में लिपट कर घर वापिस लौटे और न जाने कितने तो लौटे ही नहींं।

उधर समय-समय पर सत्ता में रही राष्ट्रवादी सरकारों और उनके नुमाइंदों ने इन शहीदों के नाम पर अनेकों राहत भरी घोषणाएं तो की, लेक़िन फ़िर उन्हें धरातल पर लाना भूल गयीं। सरकारों और उनके नुमाइंदों ने कभी ये जानने की कोशिश नहींं की, कि उन शहीदों के परिवार किस हाल में हैं और उनका जीवन जवान बेटे या जवान पति को खो देने के बाद कैसा गुज़र रहा है। शायद राष्ट्रवाद पर सियासत करने वाली सरकार इस बात को अच्छी तरह से जानती हैं कि आख़िर राष्ट्रवाद को कैसे भुनाया जाता है।

उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में लैंसडाउन विधानसभा क्षेत्र का एक छोटा सा गाँव कुंडयू है जो जयहरीखाल ब्लॉक की बरस्वार ग्राम पंचायत में आता है। इसी गाँव में शहीद अनिल सिंह रावत ने 23 सितम्बर 1976 में जन्म लिया। अनिल सिंह रावत के पिता आलम सिंह रावत भी आर्मी में (जो अब रिटायर हैं और अपने पैतृक गाँव कुंडयू में ही रहते हैं) थे, इसलिए बचपन से ही आर्मी में जाकर देश सेवा का सपना संजोए, गाँव की जोख़िम भरी, उबड़-खाबड़ पगडंडियों और पहाड़ों की क़रीब चार किलोमीटर लंबी ख़तरनाक खड़ी चढ़ाई वाले रास्तों पर कड़ी मेहनत करते हुए पढ़ाई की। देशप्रेम का जज़्बा लिए वर्ष 1996 में सेना में भर्ती हो गए। 3 साल तक देश की विभिन्न सीमाओं पर तैनात रहते हुए, कभी दुश्मन की नज़र देश पर नहीं पड़ने दी। वर्ष 1999 में कारगिल में तैनाती के दौरान पाकिस्तान के साथ हुए कारगिल युद्ध में देश के इस जांबाज सैनिक ने उत्तराखंड के 75 कारगिल शहीदों के साथ लड़ते-लड़ते शहादत दी और वीरगति को प्राप्त हो गए।

कारगिल युद्ध में देश की सेना के जवान बहादुरी से लड़े और पाकिस्तान की सेना के दांत खट्टे करते हुए उसे जबरदस्त शिकस्त दी। तभी केंद्र की राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा सरकार (1999-2004) ने कारगिल युद्ध में हुए शहीद और घायल जवानों के परिजनों की मदद के लिये अनेकों राहत घोषणाएं की। और जनता के बीच वाह-वाही लूटने से भी गुरेज़ नहींं किया। केंद्र में भाजपा की बाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे मेजर भुवन चन्द्र खंडूरी ने उत्तराखंड के शहीद जवानों के नाम पर उनके गाँव को सड़कों से जोड़ने की घोषणा की। तांकि उन शहीदों की शहादत को याद रखा जा सके और साथ ही उनके परिवार में बूढ़े माँ बाप, पत्नी और बच्चों के लिए कई मूलभूत सुविधाएं देने की भी बात कही थी। 

आपको बता दें कि उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से अब तक यानि पिछले दो दशक से लैंसडाउन विधानसभा सीट पर भाजपा ही काबिज़ रही है और यहाँ पहले महंत दिलीप रावत के पिता भारत सिंह रावत भाजपा के विधायक हुआ करते थे और अब इस सीट पर पिछले दस साल से यानी दूसरी बार ख़ुद महंत दिलीप रावत भाजपा की डबल इंजिन सरकार में विधायक हैं। गौरतलब है कि तत्कालीन केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे, मेजर भुवन चन्द्र खंडूरी कारगिल युद्ध शहीदों के नाम पर घोषणाएं करने के बाद, ख़ुद उत्तराखंड राज्य के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। लेकिन मातृभूमि की रक्षा में देश पर अपने प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों को राष्ट्रवादी पार्टी के लोग शायद सरकार में रहते हुए ही भूल गए हैं।

वहीं राष्ट्रवादी होने का दावा और नारा अलापने वाली भारतीय जनता पार्टी की देश के शहीदों के प्रति कथनी और करनी के ज़मीनी हालात कुछ और ही बयां कर रहे हैं। आज भी सरकार का रवैया हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और जैसा है। सरकार और जनप्रतिनिधियों की उपेक्षाओं के चलते शहीदों के परिवार विकास से कोसों दूर हैं और मूलभूत सुविधाओं के लिए भी तरस रहे हैं। 

कारगिल शहीद अनिल के पिता आलम सिंह रावत का कहना है कि सरकारें शहीदों के परिवारों के लिए बहुत कुछ करने की बात कहती रही हैं, पर मदद करने के नाम पर कभी आगे नहींं आयीं। और न ही शहीदों के परिवार को कभी देखने या पता करने आती हैं कि वो कैसे और किन हालातों में रह रहे हैं। एक तो वो ख़ुद ही स्वस्थ नहीं हैं ऊपर से पत्नी भी पैरालाइज है जो चल फिर नहीं सकती। अगर ऐसे हालातों में रह रहे परिजनों को कोई बीमारी या और कोई समस्या हो जाये, तो उन्हें अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं। सड़क ना होने के कारण आसपास के गावों से लोगों को बुलाकर मरीज या परिवार के बूढ़ों को कुर्सी या खाट के जरिये, इन्हीं ख़तरनाक और ऊबड़ खाबड़ पगडंडियों के सहारे चार किलोमीटर ऊपर, सड़क तक ले जाना और लाना पड़ता है। तब कहीं जाकर उन्हें मेडिकल ऐड मिल पाती है, कई बार तो इन्हें और इन इलाके के लोगों को संसाधनों के अभाव में अपनी जान तक गवानी पड़ जाती है।सरकार ने उनके शहीद बेटे के नाम पर उनके गाँव कंडयू को सड़क से जोड़ने की बात कही थी लेक़िन 21 साल बीत जाने के बाद भी कोई उनकी सुध लेने नहीं आया। और ना ही सड़क का कोई काम हुआ है। शहीदों के परिजन आज उनके लालों के नाम पर हो रही सियासत को सही नहीं मानते हैं।

वहीं ग्राम सभा बरस्वार के प्रधान ध्यान सिंह ने बताया कि कारगिल शहीद अनिल सिंह रावत के नाम से क़रीब चार किलोमीटर सड़क बनाने और शहीद के गाँव कुंडयू को सड़क मार्ग से जोड़ने की बात को 21 साल हो गए हैं। लेक़िन अभी तक चार इंच की सड़क का भी निर्माण नहीं हो पाया है। जबकि इस दौरान ग्रामीणों के प्रयास से कई बार लोकनिर्माण विभाग द्वारा सर्वे भी करवाया जा चुका है, साथ ही ग्रामीणों, वन विभाग या राजस्व विभाग की तरफ़ से कोई आपत्ति भी किसी को नहीं है, पर सड़क बनाने अभी तक कोई नहीं आया है। हालांकि सड़क पर झंडियां तो लगी पर वे भी केवल 100-200 मीटर तक ही लग कर रह गयीं। जब भी लोकनिर्माण के अधिशासी अभियंता विवेक सेमवाल से इस सड़क के बाबत बात होती है, तो उनका कहना हैं कि गाँव बरस्वार से कुंडयू गाँव तक चार किलोमीटर की सड़क का 96.37 लाख रुपये का प्रस्ताव बनाकर प्रमुख सचिव, लोकनिर्माण अनुभाग -2 उत्तराखंड शासन को भेज रखा है। डीपीआर (डेवेलपमेंट प्रोजेक्ट रिपोर्ट) पर क्षेत्रीय विधायक को साइन करने हैं, जो अभी नहीं हुए हैं। विधायक जी जब डीपीआर पर साइन कर देंगे और जैसे ही आदेश उनके पास आ जायेगा, तो सड़क बनाने का काम चालू करा दिया जाएगा।

आपको बता दें कि राष्ट्रवाद का ढिंढोरा पीटने और शहीदों को सम्मान देने की बात कहने वाली भाजपा की डबल इंजिन की उत्तराखंड सरकार में लैंसडाउन विधानसभा सीट पर (उत्तराखंड बनने के बाद से अब तक) भाजपा ही काबिज़ रही है। वर्तमान में यहाँ से महंत दिलीप रावत भाजपा के विधायक हैं। लैंसडाउन विधायक दिलीप रावत का कहना है कि उन्होंने कोरोना काल में भी क्षेत्र का चहुमुंखी विकास कराया है। केंद्र सरकार और राज्य सरकार की तरफ़ से लैंसडाउन विधानसभा के विकास के लिए उनके द्वारा अवमुक्त कराये गये। क़रीब 210 करोड़ रुपये की लागत से उन्होंने क्षेत्र में नयी सड़कों का निर्माण कराया है और क्षेत्र के अधिकतर गाँवों को सड़कों से जोड़ दिया गया है। साथ ही बहुत सी सड़कों का डामरीकरण और अति आवश्यक पुल बनवाएं हैं। जिससे क्षेत्र की जनता को बहुत फ़ायदा हुआ है। और जो कुछ काम कोरोना महामारी के चलते नहीं हो पाए हैं उन्हें एक दो माह बाद शुरू करा देंगे। 

उधर ग्रामीणों का कहना है कि विधायक कभी उनके गाँव को देखने नहीं आये। विधायक का क्षेत्र में जाना तो दूर उन्हें डीपीआर पर साइन करने तक की फुरसत नहीं है। उधर प्रोजेक्ट रिपोर्ट पर विधायक के हस्ताक्षर न होने से सड़क का काम ठप्प पड़ा है। आज भी कारगिल शहीद अनिल रावत के गाँव कुंडयू वासी बिना सड़क और मूलभूत सुविधाओं के अभाव में आस लगाये बैठें हैं कि कब सुधरेंगे उनके हालात और न जाने कब विधायक प्रोजेक्ट रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करेंगे, और न जाने कब बनेगी कारगिल शहीद अनिल रावत के नाम की सड़क?

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