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वॉल मैगजीन कैम्पेन: दीवारों पर अभिव्यक्ति के सहारे कोरोना से आई दूरियां पाट रहे बाल-पत्रकार 

सरकारी स्कूल और कॉलेजों में शिक्षक और बच्चों द्वारा उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के कुंजनपुर प्राथमिक स्कूल से वर्ष 2000 में शुरू किया गया यह कैंपेन आज उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान से होते हुए हिमाचल-प्रदेश के बारह सौ से अधिक स्कूलों में पहुंच गया है।
कोरोना की दूसरी लहर आने से पहले जब कुछ दिनों के लिए उत्तराखंड में स्कूल खोले गए तब बच्चों ने महामारी के दिनों पर अपने अनुभवों पर पत्रिका विशेषांक निकाला। फोटो साभार: सबीना खान।
कोरोना की दूसरी लहर आने से पहले जब कुछ दिनों के लिए उत्तराखंड में स्कूल खोले गए तब बच्चों ने महामारी के दिनों पर अपने अनुभवों पर पत्रिका विशेषांक निकाला। फोटो साभार: सबीना खान।

कोरोना का अदृश्य रोग हमें समाज में जीने का सलीका और दुनिया में जिंदा रहने का तरीका सिखा रहा है। सांसों का चलते रहना ही जब जिंदगी के लग्जरी होने का सबूत बन गया है तब कोरोना महामारी बता रही है कि जिंदा रहने के लिए आबो-हवा के साथ हैंडवॉश, मास्क और उचित दूरी की समझ जरूरी है। इनसे जुड़े सारे दृश्यों को बच्चों की नन्ही निगाहों और मासूम दिलों ने किस तरह देखा और दीवारों पर अभिव्यक्त किया, इसकी एक बानगी है- वॉल मैगजीन कैंपेन।

सरकारी स्कूल और कॉलेजों में शिक्षक और बच्चों द्वारा उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के कुंजनपुर प्राथमिक स्कूल से वर्ष 2000 में शुरू किया गया यह कैंपेन आज उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान से होते हुए हिमाचल-प्रदेश के बारह सौ से अधिक स्कूलों में पहुंच गया है। इसके तहत छोटे बच्चे बतौर पत्रकार और लेखक पढ़ने-लिखने की आदत के अलावा सामूहिकता के मूल्य का विकास कर रहे हैं। इससे बच्चों में रटने की लत की बजाय वैज्ञानिक प्रवृति विकसित हो रही है। इस पूरी प्रक्रिया में बच्चे ज्ञान-सृजन के लिए तीन सबसे जरूरी समझी जाने वाले गुण अवलोकन, चिंतन और कल्पना का मौका मिल रहा है।

इस अभियान के शुरुआत से जुड़े शिक्षक महेश पुनेठा बताते हैं कि पिछले एक दशक में दीवार पत्रिका अभियान से जुड़े कई स्कूलों के बच्चों ने अपने-अपने गांवों में पुस्तकालय भी तैयार किए हैं। ऐसे बच्चों के लिए कोरोना लॉकडाउन में दीवार पत्रिकाएं पढ़ाई की संस्कृति को बनाए रखने का साधन बन रहीं हैं। जब कोरोना लॉकडाउन का असर हर जगह देखने को मिल रहा है तब दीवार पत्रिकाएं कम लागत में बच्चों के बीच, बच्चों द्वारा और बच्चों के लिए रचनात्मक पहल बन गई हैं। दीवार पत्रिकाएं 'घुघूती', 'एक्सप्लोरर', 'पंख', 'बाल-उद्यान', 'इतिहास-बोध', 'यादें', 'धरोहर' और 'नवांकुर' जैसे कई नामों से निरंतर निकल रही हैं।

वह कहते हैं, "एक अच्छी बात यह है कि बच्चे अपनी-अपनी दीवार पत्रिकाओं के पिछले कई विशेषांक कोरोना-काल के अनुभव दर्ज कराने के लिए निकाल रहे हैं। इसके लिए बच्चे एक योजना के तहत विषय चुनने से लेकर संदर्भ सामग्री ढूंढ़ने, उनका संकलन, लिखने, संपादन, प्रकाशन, प्रदर्शन, अवलोकन, चर्चा और सुझावों तक की एक पूरी प्रक्रिया से गुजरते हैं। दीवार पत्रिकाओं के प्रकाशन से ज्यादा महत्वपूर्ण है बच्चों द्वारा इसकी पूरी प्रक्रिया से गुजरना। यदि परीक्षा में अंकों के आधार पर भी विचार करें तो इस प्रक्रिया से गुजरने का लाभ यह हुआ है की भाषा से लेकर सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों में बच्चों ने बहुत अधिक अंक हासिल किए हैं, क्योंकि कई स्कूलों के बच्चे अपनी कक्षा के पाठ्यक्रम से जोड़कर दीवार पत्रिकाएं निकाल रहे हैं।"

लॉकडाउन में डिजिटल एडिशन लॉन्च

कोरोना महामारी के कारण लगाए गए लॉकडाउन का असर जब जीवन के हर क्षेत्र में देखने को मिल रहा है तो दीवार पत्रिका अभियान भी इससे बाधित होना ही था। लेकिन, कहते हैं कि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है, ऐसी स्थिति में कई बच्चे अपनी-अपनी दीवार पत्रिकाओं को डिजिटल एडिशन लाने में सफल रहे हैं।

इस बारे में नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के शिक्षक कमलेश जोशी कहते हैं, "डिजिटल प्लेटफार्म पर काम करना आसान नहीं होता है, फिर भी कई बच्चे न सिर्फ यह सब सीख रहे हैं, बल्कि किसी प्रोफेशनल व्यक्ति की तरह काम को अंजाम भी दे रहे हैं। इस दौरान संपादक-मंडल वाट्सऐप और ईमेल के जरिए बच्चों से लेख मंगवा रहे हैं तथा यू-ट्यूब के माध्यम से पत्रिका को पाठकों तक पहुंचा रहे हैं। वॉल मैगजीन के डिजिटलकरण का ही नतीजा है कि बच्चे अपने गांव से लेकर देश-विदेश तक के समाचार-बुलेटिन डिजिटल प्लेटफार्म पर प्रसारित कर रहे हैं।"

वहीं, राजकीय इंटर कॉलेज पौड़ी गढ़वाल के अध्यापक मनोहर चमोली मनु अपने अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, "जो काम ब्लैकबोर्ड और कोर्स की किताबें नहीं कर पातीं वह काम दीवार पत्रिकाएं कर रही हैं, क्योंकि बच्चे मुद्दों के चयन से लेकर लेखों को एक फ्रेम में अच्छी तरह से प्रस्तुत करने तक की कलाओं को सीख रहे हैं। कई बच्चों में पेज डिजाइनिंग की समझ बन रही है तो कई बच्चे अच्छे पाठक के तौर पर भी इस पूरे अभियान से जुड़ रहे हैं। इससे मौलिक लेखन को ही बढ़ावा नहीं मिल रहा है, बल्कि इस प्रक्रिया में बच्चे प्रतिक्रियावादी और सहयोगी भी बन रहे हैं।"

बतौर अध्यापक उन्हें इस अभियान में सबसे अच्छी बात यह लग रही है कि इससे ऐसे बच्चे भी जुड़ रहे हैं जिनके घरों में किताबें नहीं होतीं और न ही आसपास के क्षेत्र में पढ़ाई का माहौल ही होता है। ऐसे बच्चे भी यहां पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं और दीवार पर चिपकी सामग्री को पढ़ते हुए अपनी भाषाई दक्षता का विकास कर रहे हैं।"

इसी तरह, राजकीय इंटर कॉलेज के अध्यापक चिंतामणि जोशी के मुताबिक किसी स्कूल या कॉलेज के बच्चों को यदि दीवार पत्रिका निकालनी है तो उसे इस प्रक्रिया से होकर गुजरना होता है: संपादन-मंडल का निर्माण, पत्रिका का नाम, बच्चों के लिए रचनात्मक लेखन के लिए प्रारंभिक सुझाव, उनके अनुभव, उनके मन की बातें, कविता, कहानी, पहेली, चित्र, कार्टून, चुटकुले, यात्रा-वृत्तांत, संस्मरण, साक्षात्कार, कल्पना आधारित संवाद, चार्ट पर रचनाओं को चिपकाना, हस्तलिखित लेखन, सजावट और प्रस्तुतिकरण।

वहीं, राजकीय इंटर कॉलेज, मुक्तेश्वर के प्रभारी प्राचार्य दिनेश कर्नाटक बताते हैं कि दीवार पत्रिकाओं में बच्चों के लिए गणित के सूत्र, आकृतियों का ज्ञान, लोक-गीत, दादी-नानी की कथाएं, पर्वों, पर्यावरण की जानकारियों और स्थानीय कलाकृतियों के अलावा श्रम-शक्ति जैसे विषयों से जुड़ी सामग्री प्रमुखता से कवर की जा रही है। साथ ही इस अभियान के इर्द-गिर्द कई तरह की शैक्षिक गतिविधियां भी आयोजित हो रही हैं।

राजकीय इंटर कॉलेज देवलथल की दीवार पत्रिका 'मनोभाव' का विमोचन। फोटो साभार: दीवार पत्रिका अभियान

तैयार हो रही साहित्यकारों की नई पौध 

दीवार पत्रिकाओं का प्रकाशन वयस्कों को भी प्रभावित कर रहा है। एक प्रबुद्ध अभिभावक शंकर सिंह बसेड़ा बताते हैं, "बेबाकी से हमारे बाल-कलाकार समाज की घटनाओं को महसूस करते हुए ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे हैं। इसी कड़ी में स्कूली बच्ची ज्योति कुमारी का लेख 'कड़कड़ाती ठंड और कूड़ा बीनते बच्चे' पाठकों को भीतर तक झकझोरता है। वह सवाल करती हुई पूछती है कि जिन बच्चों के मासूम चेहरे बचपन की शरारतों से खिलखिलाते होने चाहिए, उन पर अपने परिवार को पालने की परेशानियों क्यों झलकती हैं।

इसी तरह, बाल-साहित्यकार हीरा सिंह कौशल कहते हैं, "स्कूल की ज्यादातर किताबें अलमारियों में ही कैद रहती हैं, इसलिए बच्चों का बाल-साहित्य के प्रति रुझान कम ही होता है, लेकिन कई शिक्षकों ने बच्चों में साहित्यिक रुझान पैदा करने के लिए दीवार पत्रिका अभियान की शुरुआत की है जिससे साहित्यकारों की नई पौध तैयार होगी।"

इसी तरह, नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में ग्यारहवीं की छात्रा रिया चंद बताती हैं, "इन दिनों वैश्विक महामारी के कारण कुछ जगह दीवार पत्रिकाओं का प्रकाशन रुक गया है। माना कोरोना वायरस ने हमारे इस प्रयास को ठहरा दिया है, लेकिन उम्मीद है हम जल्द ही लौटेंगे, नई ताज़गी के साथ, नए विचारों के साथ।" वह अपनी कविता के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त करती हुई कहती हैं:

लौटेंगे वे दिन 

वे दोपहरें लौटेंगी 

जब बैठा करते थे

गोल घेरे में। 

 

नहीं था कोई केंद्र में 

सब हिस्सा थे 

उस गोल घेरे का

सीखने के पहिए की तरह।

 

कोई छोर नहीं था जिसका

न अंत था कोई

अनंत बिंदुओं से बने गोले में

कुछ अलग ही बात थी! 

 

दीवारें भी हैं इंतज़ार में 

दरियां स्वागत के लिए आतुर

हैं इंतज़ार में वे दोपहरें 

कि कब लौटेंगे वे दिन, वे बातें!

(शिरीष खरे स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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