हम भारतीयों को भी वेंटिलेटर की ज़रूरत है, मिस्टर ट्रंप
अक्सर मुझे यह पहेली सा लगता है कि विश्व के नेताओं की उच्च-स्तरीय यात्राओं के दौरान ऐसा क्या होता होगा। इस तरह की यात्राओं के दौरान होने वाली बैठकों को मुद्दों पर चर्चा करने के लिए बड़े धूमधाम और भव्यता के साथ आयोजित किया जाता है और यह बैठकें अंतर-देशीय संबंधों पर प्रभाव डालती हैं जिन्हें चुपचाप और शांत रूप से शेरपा (नौकरशाह) हैंडल करते हैं। (बेशक, वहाँ शेरपा और शेरपा हैं।) क्या यह पर्यटन है जो मुख्य रूप से वीआईपी नेताओं को आकर्षित करता है? या, क्या वे उम्मीद करते कि व्यक्तिगत स्तर पर ख़ुद की अक्षमता को दूर करने के लिए वे विदेश में बैठे अपने समकालीन नेताओं की कुशलता को देखे और पता करे कि वे कैसे बेहतर ढंग से काम करते हैं?
यह सवाल 2017 में पीएम मोदी की 5 दिनों की विस्तारित इज़रायल यात्रा के दौरान काफ़ी पेचीदा हो गया था। मोदी स्पष्ट रूप से हिंदुत्व और ज़ायोनीवाद के बीच वैचारिक बंधन को मज़बूत करने के लिए गए थे। लेकिन इसके अलावा कुछ और भी है जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
एक बात तो इज़रायल की नीतियों के आलोचक भी स्वीकार करेंगे कि देश का काम करने का तरीक़ा बेहतरीन होने के साथ ही उनकी कार्य नीति की नैतिकता की राष्ट्रीय विशेषता भी है।
पीएम बेंजामिन नेतन्याहू हमेशा अपने विदेश दौरे के दौरान अपने कोट की जेब में इच्छा सूची लेकर चलते हैं ताकि वे अपने समकक्षों से सभी सही सवाल पूछ सकें, फिर सवाल चाहे वे कुछ भी हो, लेकिन वे "इज़रायल" के लिए उपयोगी होने चाहिए। पुतिन भी एक उनकी तरह के एक नेता हैं। और, ज़ाहिर है, डोनाल्ड ट्रंप भी कुछ ऐसे ही हैं।
हमारे मामले में यह विषमता इससे अधिक नहीं हो सकती है। जिस क्षण ट्रंप के संज्ञान में यह बात लाई गई कि भारत ने मलेरिया-रोधी दवा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वाइन के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया हुआ है, जो दवा कोविड-19 रोगियों के इलाज में उपयोगी हो सकती है, ट्रंप ने दूसरे ही क्षण मोदी को फोन कर दिया और मांग की कि वे अमरीका के लिए दावा पर निर्यात प्रतिबंध हटा दे। मोदी ने सहमति जताई और अमेरिका के लिए प्रतिबंध हटा दिया। (मेरा पिछले ब्लॉग पढ़ें, Modi, Trump and the Covid-19 drug.)
लेकिन, क्या ट्रंप के साथ भारत के लिए एक पारस्परिक फ़ैसला नहीं हो सकता था जिसमें भारतीय पक्ष की मांग भी रखी जा सकती थी? विदेश मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति में इसका जवाब 'नहीं' है। मोदी ने इसके बजाय आयुर्वेद के गुणों की चर्चा की।
अब भारत के हाथ एक अवसर है। बीबीसी ने एक घंटे पहले ही ख़बर दी थी कि ट्रंप "हताश देशों" को वेंटिलेटर्स देने पर विचार कर रहा हैं जैसे कि ब्रिटेन को जो अमेरिकी गोदामों में अतिरिक्त संख्या में पड़े हैं। उन्होंने विशेष रूप से यूके का उल्लेख किया। शायद, पीएम रविवार को ट्रंप के नोटिस को ध्यान में रखते हुए खोए हुए अवसर को वापस पा सकते थे और मांग कर सकते थे कि भारत को वेंटिलेटर की "सख़्त" आवश्यकता है। व्हाईट हाउस का स्विचबोर्ड बंद होने से पहले क्यों न आज रात को ही फ़ोन कर दिया होता।
हमारी सरकार कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ अपनी आगामी लड़ाई में मज़बूती से उतरने का दावा नहीं कर सकती है। निश्चित रूप से, बहुत सारी चीज़ें हैं जिनकी वजह से भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली बुरी अवस्था में है। विदेश मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, जब हम "मज़बूत एकजुटता और सहयोग" की बात करते हैं – तो यह हमेशा एक-तरफ़ा ही क्यों होती है?
अगर नेतन्याहू मोदी की जगह होते, तो वे अवसर की इस अवसर के माध्यम से ट्रंप से कुछ भी ऐसा मांगते जो इज़रायल के लिए कोविड-19 के ख़िलाफ़ लड़ाई में फ़र्क़ डालता। दरअसल, इज़रायल कोरोनो वायरस का मुक़ाबला करने के मामले में दीवार से अपनी पीठ लगाए लड़ रहा है। यहाँ आज तक, मरने वालों की संख्या 71 हो गई है और संक्रमित मामलों की संख्या 9404 है। एक छोटे से देश के लिए, ये चौंकाने वाले आंकड़े हैं।
इज़रायल बहुत सख्त लॉकडाउन से गुज़र रहा है। बहरहाल, इसमें जो कुछ बेहद आकर्षक है वह यह देखना है कि इज़रायल किस तरह से इस स्थिति का सामना करता है। इज़रायल के पास भी भारत के समान ही खराब स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली है जो इतने बड़े संकट से निपटने के लिए सक्षम नहीं है। लेकिन यह वह जगह है जहाँ काम की नैतिकता की बात आती है।
यहाँ थाली नहीं पिटी जा रही है, न ही 9 मिनट का अंधेरा रखा जा रहा है, अंतरराष्ट्रीय सर्किट में कोई वीडियो कांफ्रेंस का आयोजन नहीं हो रहा है। नेतन्याहू के कार्यालय आने वाले दिनों में उपकरणों और दवाओं में संभावित कमी का व्यापक मूल्यांकन कर रहा है-जिसमें सर्जिकल मास्क, एन95 श्वासयंत्र मास्क, वेंटिलेटर और जांच किट, एम्बुलेंस कर्मियों के लिए चौग़ा आदि। इसके बाद इस सूची को इजरायल की जासूसी एजेंसी मोसाद को दे दिया जाता है।
रात भर में ही, मोसाद रेड क्रॉस में तब्दील हो गया, और इसने विदेशों से भारी आपूर्ति हासिल कर ली है। इस पूरे के पूरे ऑपरेशन की देखरेख एजेंसी के निदेशक योसी कोहेन ने स्वयं की थी। दिलचस्प बात यह है कि कुछ खरीद ऐसे देशों से भी हुईं जिनके साथ इजरायल के राजनयिक संबंध भी नहीं थे। पिछले हफ्ते ही, मोसाद एक अज्ञात विदेशी स्थान से इज़राइल के लिए 4 लाख कोरोनोवायरस परीक्षण किट ले आया था।
समाचार एजेंसी सिनहुआ ने मंगलवार को बताया कि इज़रायल ने नॉवेल कोरोनोवायरस की जांच करने के लिए उपकरण और पदार्थ की आपूर्ति के लिए चीनी बायोटेक दिग्गज बीजीआई जीनोमिक्स के साथ 25.2 मिलियन डॉलर के समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। यह सौदा इजरायल में एक ही दिन में कम से कम 10,000 कोरोनो वायरस परीक्षणों को करने में मदद करेगा। सिन्हुआ ने गुप्त रूप से बताया कि, "रक्षा मंत्रालय के सहयोग से खरीदे जाने वाले उपकरणों की दो से तीन सप्ताह में छह (इज़रायली) परीक्षण प्रयोगशालाओं में पहुँचने की उम्मीद है।"
नेतन्याहू खुद आइसोलेशन में हैं। लेकिन इज़रायल की संसद में कोरोनॉयरस से निपटने के लिए बनी विशेष समिति इज़रायल में प्रकोप को रोकने के लिए सरकारी प्रयासों की देखरेख कर रही है।
भारत और इज़रायल दोनों ही लोकतांत्रिक देश हैं। लेकिन क्या उनकी कार्य नैतिकता या काम करने के तौर तरीके में कोई अंतर नहीं है? वास्तव में, एक निर्वाचित सरकार के लिए इससे ज्यादा महत्वपूर्ण क्या हो सकता है कि वह जनता की सुरक्षा और कल्याण का ऐसा कम करे जो उसे सत्ता में पहुंचाता है, विशेष रूप से एक आपातकालीन स्थित में जो सार्वजनिक स्वास्थ्य को बड़े रूप में प्रभावित करती है?
इसलिए, जब विदेश मंत्रालय ने ट्रंप-मोदी फोन कॉल पर इस तरह की एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की, तो यह स्पष्ट हो गया कि इसके भीतर बहुत कुछ सड़ा हुआ है। मोदी ट्रंप से ऐसा कुछ भी पूछना या कहना भूल गए, जिसकी भारत को बहुत आवश्यकता हो सकती थी या है – जबकि चारों तरफ़ इतनी कमी है! लेकिन फिर भी बदले में कुछ न मांगना बस समझ से बाहर की बात लगती है।
क्या हम यह उम्मीद जता रहे हैं कि हम इस झमेले से ऐसे ही बाहर आ जाएंगे? तर्क के लिए, यदि विदेश मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति कहती है और अगर वह सच है हमारे नेताओं के दिल इतने उदार है, तो वे विश्व जनमत के साथ शामिल क्यों नहीं हो जाते - संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका और उनके यूरोपीय सहयोगी और रूस और चीन (और पाकिस्तान) – मिलकर ट्रंप से आग्रह क्यों नहीं करते कि ईरान के ख़िलाफ़ प्रतिबंध हटा दें? यह "महामारी के मानवीय पहलुओं" पर उपदेश देना और असल में कुछ न करना एक पाखंड है।
Courtesy: INDIAN PUNCHLINE
अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं
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