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कुपोषित भारत में पोषण पर सुपर-टैक्स?

पकौड़ानॉमिक्स का विचार काम कर रहा है, क्योंकि सरकार इस बात की अनदेखी कर रही है कि भारत में कुपोषण एक गंभीर स्तर पर पहुँच गया है और लोगों को सस्ती क़ीमतों पर 'कोर्स' अनाज और प्रोटीन से भरपूर आहार की बहुत ज़रूरत है।
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आप अपनी झालमुरी और भुजिया पर जीएसटी टैक्स भरने के लिए तैयार हो जाइए, क्योंकि ईंधन की बढ़ती कीमतों, वैश्विक खाद्य मुद्रास्फीति और समाने खड़े पोषण के संकट के बीच, जीएसटी काउंसिल ने भारत के अधिकांश 'देसी' खाद्य उत्पादों पर टैक्स थोप दिया है। सरकार की अधिसूचना के मुताबिक बाजरा, चावल, पनीर, सेवई, कमल के बीज और गुड़ को 25 किलो से कम की खरीदारी पर जीएसटी देना होगा। जीएसटी, बाजार में मौजूद "प्री-पैकेज्ड" और "लेबल" वाले उत्पादों पर अलग-अलग दरों पर लागू होगा। इसके जरिए लक्ष्य, अंततः वस्तुओं के छोटे खरीदारों को बनाया गया है, क्योंकि 25 किलो से अधिक की खरीद हालिया अधिसूचना के दायरे में नहीं है।

इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, "प्री-पैकेज्ड" शब्द को समझना महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है "एक वस्तु, जो खरीदार के बिना मौजूद है, जिसे किसी भी किस्म के पैकेज में रखा गया है, चाहे वह सील हो या नहीं, ताकि उसमें निहित उत्पाद की पूर्व निर्धारित मात्रा हो"। इसलिए, 25 किलो से कम वजन वाली इन वस्तुओं की किसी भी मात्रा को जीएसटी के दायरे में लाया गया है, और यहां तक कि फेरीवाले, रेहड़ी-पटरी वाले और स्थानीय किराना/किराना स्टोर भी इसका पालन करने को बाध्य होंगे। जीएसटी काउंसिल ने स्थानीय भारतीय खाद्य पदार्थों जैसे फूला हुआ चावल, खोई और नमकीन स्नैक्स को भी नहीं बख्शा है।

एक अजीब ढंग से, जीएसटी काउंसिल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की "पकौड़ा-नॉमिक्स" के दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया है। आखिर बेरोज़गारी एक मिथक है। सही है? क्योंकि उनकी टिप्पणी को संक्षेप में कहा जाए तो, यदि कोई व्यक्ति आपके कार्यालय के सामने पकौड़े की दुकान खोलता है, तो क्या उसे रोज़गार के रूप में नहीं गिना जाएगा? एक व्यक्ति जो प्रतिदिन 200 रुपए कमाता है वह कभी भी किसी भी बहीखाते या खाते में दिखाई नहीं देता है। मोदी ने कहा था की, सच्चाई यह है कि बड़े पैमाने पर लोगों को रोज़गार दिया जा रहा है। और इसलिए सरकार ने नई अधिसूचना के माध्यम से पकौड़ावाला और हर स्ट्रीट फूड विक्रेता पर टैक्स लगाने का फैसला किया है। इस टैक्स के बोझ के माध्यम से छोटे विक्रेताओं को हतोत्साहित करके असंगठित खाद्य क्षेत्र को औपचारिक रूप देने का एक स्पष्ट प्रयास है।

लेकिन यही सब कुछ नहीं है। जैविक खेती को बढ़ावा देने के अपने दावों के विपरीत, सरकार ने जैविक उर्वरकों और जैविक खाद्य पदार्थों पर भी जीएसटी लगाने का फैसला किया है। इसका सीधा असर उन छोटे पैमाने के जैविक किसानों पर पड़ेगा जो जैविक खाद का व्यापार करते हैं या इसे बनाते हैं। उन सभी को अपने उर्वरकों और उपज पर जीएसटी लगानी होगी।  यह टैक्स जैविक खाद्य की लागत बढ़ाएगा और छोटे और मध्यम जैविक किसानों और व्यापारियों के मुनाफे को निगल जाएगा। 

नई सूची में एक और खाद्य-संबंधित टैक्स टेट्रा-पैक में बिकने वाली वस्तुओं को शामिल करना है। उन पर 18 फीसदी की भारी भरकम दर लगाई गई है। उन ग्राहकों की कल्पना करें जो टेट्रा-पैक या शिशु आहार/दूध खरीदते हैं। वे दूध पर 5 प्रतिशत अधिक कर (नई जीएसटी सूची में शामिल) और टेट्रा-पैक पर अतिरिक्त 18 प्रतिशत कर का भुगतान करेंगे। यह कदम मुख्य खाद्य पदार्थों को मध्यम वर्ग और धनी परिवारों के घरेलू बजट को तबाह कर देगा।  लेकिन सिर्फ ये ही श्रेणियां नहीं हैं जो प्रभावित हैं।

सरकार द्वारा टैक्स की घोषणा के तुरंत बाद, अमूल, जो पूरे भारत में दूध और दूध उत्पादों का उत्पादन करता है, ने दही और दही आधारित उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी कर दी है। खबरों के मुताबिक, अमूल के 200 ग्राम कप के दही की कीमत अब 20 रुपए से बढ़ाकर 21 रुपये कर दी है, जबकि दही की कीमत में 2 रुपए का इजाफ़ा होगा। टेट्रा-पैक में बिकने वाले दही उत्पादों की कीमतों में बड़ी बढ़ोतरी देखी गई है। अन्य निर्माता भी कीमतें बढ़ा सकते हैं। इस बीच, किसान और कृषि संगठन पहले ही कह चुके हैं कि डेयरी उत्पादों पर टैक्स उनके लिए "डेथ वारंट" होगा। इसके अलावा, कृषि व्यापार में लगे लोग, देश भर के व्यापारी नाराज़ हैं, उदाहरण के लिए, कर्नाटक में चावल मिलर्स, जो केंद्र द्वारा गैर-ब्रांडेड लेबल वाले चावल पर लगाए गए 5 प्रतिशत कर का विरोध कर रहे हैं।

क्या कुपोषित भारत को पोषण पर टैक्स लगाने की ज़रूरत है?

भारत की भूख और कुपोषण की रेटिंग जो स्थिति को गंभीर बनाती है वह यह है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत को 116 देशों में से 101वें स्थान पर रखा गया है [यह दो साल पहले 107 देशों में 94वें स्थान पर था और भारत में गंभीर रूप से कुपोषित 18 लाख के करीब बच्चे हैं, जबकि कुल मिलाकर 33 लाख बच्चे कुपोषित हैं।] अनाज, बाजरा और दूध आधारित उत्पाद जैसे पनीर अधिकांश भारतीयों के लिए प्राथमिक पोषण के स्रोत हैं। स्थानीय रूप से उत्पादित और पैकेज्ड खाद्य पदार्थों पर टैक्स लगाने से घरेलू बजट बढ़ेगा, और प्रति व्यक्ति पोषण कम होने की संभावना है।

यूक्रेन-रूस संघर्ष से पहले भी, खाद्य अर्थव्यवस्था मुद्रास्फीति की ओर बढ़ रही थी। पंजाब में खाद्यान्नों और रासायनिक उर्वरकों की कमी के कारण फसल खराब हो गई थी और वैश्विक खाद्य तेल संकट ने न केवल भारतीयों को बल्कि दुनिया को एक और अधिक गंभीर कुपोषण के संकट की ओर धकेल दिया था। हाल ही में, मौजूदा खाद्य सुरक्षा चुनौतियों को लेकर देशों ने संयुक्त राष्ट्र में बैठक की है।

खाद्य मुद्रास्फीति के नियमित उतार-चढ़ाव के बावजूद, इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय लोग 2020 से ही भोजन के लिए अधिक भुगतान कर रहे हैं। और, मुद्रास्फीति जून तक छह महीने के लिए सरकार और आरबीआई के तथाकथित 'आराम स्तर' से ऊपर रही है। इसलिए, हमारी प्लेट छोटी और कम पौष्टिक होती जा रही है। नए टैक्स निम्न और मध्यम आय वर्ग के परिवारों के मौजूदा पोषण को गहराई से प्रभावित करेंगे, जैसा कि प्रत्येक व्यक्ति या परिवार, जो खाने पर 100 रुपये खर्च करेगा, उसे कम से कम 5 रुपए टैक्स देना होगा।

इस नए पोषण टैक्स के कारण, सरकार का राजस्व बढ़ेगा, क्योंकि लाखों और अरबों लोगों का  लेनदेन अब जीएसटी के दायरे में आ गया है। यह महसूस करना दुखद है कि यह देश में कुपोषण को बढ़ावा देने के जोखिम जैसा है। 

पोषण टैक्स से किसे फ़ायदा, किसे नुकसान

भारत की पोषण रेटिंग के अलावा, टैक्स से छोटे व्यापारी, महिला समूह, स्वयं सहायता समूह, स्ट्रीट फूड विक्रेता और स्थानीय कम मार्जिन वाले खाद्य व्यवसाय सबसे ज्यादा पीड़ित हो सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे वे नवंबर 2016 में नोटबंदी से प्रभावित हुए थे। हाल ही में, अर्थव्यवस्था के इन क्षेत्रों पर दो अन्य तरीकों से हमला किया गया है। सबसे पहले, सरकार ने "खाद्य-सुरक्षा" कानूनों की एफएसएसएआई (FSSAI) की औद्योगिक धारणाओं का इस्तेमाल करते हुए अधिकांश खाद्य विक्रेताओं पर लगाम लगा दी है। उन्हीं खाद्य कानूनों के तहत, गांधी के गनी, वर्धा, महाराष्ट्र में एक पारंपरिक तेल प्रेस, को 2015-16 में बंद करने का नोटिस जारी किया गया था। तथाकथित स्वच्छता, लेकिन अक्सर छद्म स्वच्छता के नाम पर, एफएसएसएआई  ने उक्त का पालन करने में विफल होने के कारण ऐसे कई उपक्रमों को व्यवसाय से बाहर कर दिया गया था। यहां जीएसटी के तहत दूसरा हमला उन लोगों पर आ रहा है जो किसी तरह ज़िंदा रहने का संघर्ष कर रहे हैं।

व्यावहारिक रूप से, जटिल जीएसटी फाइलिंग सिस्टम का पालन करने और ग्राहक बिल जारी करने में कई विक्रेताओं को वर्षों लगेंगे। बिल बुक की छपाई की लागत उनके द्वारा बेचे जा रहे नाश्ते या भोजन के लागत मूल्य से अधिक हो सकती है। कई विक्रेता और व्यापारी साक्षर नहीं हैं और दूरदराज के इलाकों में रहते हैं और जीएसटी प्रणाली को पूरी तरह से समझने में  सक्षम नहीं होंगे। उन्हे इस दुविधा का सामना करना पड़ेगा, कि वे या तो जीसटी निज़ाम का पालन करें  - जो अपने आप में बहुत कठिन है - या जीएसटी कानूनों के सख्त दायरे में जीएसटी डिफॉल्टर बन सकते हैं। इस तरह के लेन-देन और चूक पर नज़र रखने के मामले में हुकूमत की क्षमता पर सवाल खड़ा होना भी एक और मामला है।

छोटे व्यवसायों को काम से बाहर करने की इस किस्म की रणनीतियाँ हमने और कहाँ देखी हैं? ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें से सबसे प्रमुख संयुक्त राज्य अमेरिका है, जहां कॉर्पोरेट खाद्य प्रोसेसर और बिग एग्रीकेटर्स, छोटे किसानों और खाद्य विक्रेताओं को खत्म करना चाहते थे ताकि कॉर्पोरेट रेस्तरां श्रृंखला और सुपर स्टोर बाजार पर कब्जा किया जा सके।

आज, मुट्ठी भर सुपरस्टोर अमेरिकी खाद्य बाजार पर हावी हैं। और जैसे-जैसे खाद्य टैक्स  व्यवस्था बढ़ेगी, बड़े व्यापारी और प्रोसेसर इसके सबसे बड़े लाभार्थी होंगे। नए करों या औद्योगिक खाद्य सुरक्षा नियमों के अनुपालन की लागत इन निगमों के लिए बहुत आसान या कम है क्योंकि उन्हें अनुपालन को ध्यान में रखकर ही बनाया गया है। झालमुरी विक्रेता के लिए ऐसा नहीं है। पोषण पर इस नए टैक्स को लागू करके जीएसटी काउंसिल ने खाद्य व्यवस्था को बड़ी कंपनियों के पक्ष में झुका दिया है, और छोटे विक्रेता और स्वदेशी खाद्य अर्थव्यवस्था का बलिदान कर दिया है।  

लेखक, स्वतंत्र विश्लेषक और लेखक हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

A Super-Tax on Nutrition in Malnourished India?

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