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हाय महंगाई: आम आदमी को इलाज कराना भी हुआ महंगा, बीते 5 साल में दोगुना हुआ इलाज का खर्च

आलम यह है कि बीते पांच सालों में अस्पताल में भर्ती होने के बाद इलाज में होने वाला खर्च बढ़कर दोगुना हो गया है और हर साल 14% महंगा हो रहा है।
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बेतहाशा बढ़ती महंगाई के चलते आम आदमी को इलाज कराना भी मुश्किल हो चला है। आलम यह है कि बीते पांच सालों में अस्पताल में भर्ती होने के बाद इलाज में होने वाला खर्च बढ़कर दोगुना हो गया है और हर साल 14% महंगा हो रहा है। जरूरी दवाओं के दाम बढ़ने से सिर के साथ दिल भी दुखने लगा है। अच्छे डॉक्टरों की महंगी फीस के बाद अब ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल समेत कई दवाओं पर भी महंगाई का असर हुआ है। इन दवाओं की सूची में एंटीबायोटिक, एंटी-इंफेक्टिव, पेन किलर, दिल की बीमारी की दवाएं सबसे ऊपर हैं।
 
जी हां, रोजमर्रा की जरूरी चीजों के बढ़ते दामों से आम आदमी पहले ही हलकान हो रखा है। तो अब कोरोना महामारी के बाद से अस्पताल में इलाज करना भी महंगा हो चला है। पिछले 5 सालों में अस्पताल में भर्ती होने के बाद इलाज में होने वाला खर्च दोगुना हो गया है। एक तरफ जहां सामान्य महंगाई दर 7 परसेंट के आस पास है वहीं मेडिकल की इंफ्लेशन 14 फीसद की दर यानी दोगुने से भी अधिक तेजी से बढ़ रही है।

5 वर्षों में डबल हो गया इलाज पर खर्च 

संक्रमण वाली बीमारियों और सांस से जुड़े विकार के इलाज के लिए इश्योरेंस क्लेम भी तेजी के साथ बढ़ी है। टीओआई की एक रिपोर्ट में पॉलिसी बाजार के डेटा के हवाले से बताया गया है कि संक्रामक रोग के इलाज के लिए 2018 में औसतन मेडिकल इश्योरेंस का क्लेम 24,569  रुपये हुआ करता था जो 2022 में बढ़कर 64,135 रुपये हो चुका है। यानि 5 वर्षों में इस बीमारी के इलाज पर आने वाला खर्च 160 फीसदी महंगा हो चुका है। मुंबई जैसे महानगरों में ये खर्च 30,000 रुपये से बढ़कर 80,000 रुपये पांच वर्षों में हो चुका है। यही नहीं रिपोर्ट के मुताबिक, सांस से जुडी बीमारियों के लिए औसत क्लेम 2018 में जहां 48452 हुआ करता था। वह क्लेम अब 94125 रुपये हो चुका है। मुंबई में यह खर्च 80000 से बढ़कर 1.70 लाख रुपये हो गया है। यह इलाज प्रति वर्ष 18 परसेंट की दर से महंगा हुआ है।

कोरोना के बाद महंगा हुआ इलाज 

कोरोना महामारी के बाद इलाज खर्च में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। खासतौर से बीमारी का ट्रीटमेंट सबसे ज्यादा महंगा हुआ है। इलाज के लिए इस्तेमाल किए जाने वाली सामग्रियों पर भी खर्च बढ़ा है। पहले कुल बिल में इन सामग्रियों का हिस्सा 3 से 4 फीसदी हुआ करता था जो अब बढ़कर 15 फीसदी हो चुकी है। मेडिकल इंफ्लेशन दूसरी महंगाई से भी डबल तेजी से बढ़ रही है। 7 फीसदी महंगाई दर है लेकिन मेडिकल महंगाई उससे दोगुनी रफ्तार से बढ़ रही है। हेल्थ इंश्योरेंस की मांग में तेजी के चलते भी इलाज महंगा हुआ है।

पॉलिसी बाजार के मुख्य व्यवसाय अधिकारी अमित छाबड़ा का कहना है कि इंटरवेंशन की लागत से ज्‍यादा, इलाज का खर्चा बढ़ गया है। कोविड के बाद से कंज्‍यूमेबल चीजों की हिस्सेदारी में भी वृद्धि हुई है। पहले ये बिल का 3-4% होते थे, लेकिन अब, कभी-कभी, ये 15% तक हो जाते हैं। अन्‍य जानकारों का कहना है कि चिकित्सा मुद्रास्फीति सामान्य दर से आगे निकल गई है। नई दवाओं और प्रक्रियाओं के साथ इंटरनेट के बढ़ते इस्‍तेमाल के चलते इलाज ज्‍यादा महंगा हो गया है। बीमा पहुंच में वृद्धि से स्वास्थ्य सेवाओं की मांग और उपयोग में इजाफा होता है, जिसकी वजह से भी लागत बढ़ती है। इसके अलावा डायग्नोस्टिक सेवा मुहैया कराने वालों की ओर से सामान्य आबादी में परीक्षणों पर जोर देने से भी इलाज कराने वालों की संख्‍या में इजाफा होता है।

दूसरा, हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियों का प्रीमियम लगातार बढ़ रहा है। साल भर में इसमें 10-25% बढ़ोतरी हो चुकी है। बीमा कंपनियों का दावा है कि इलाज की लागत और इंश्योरेंस क्लेम बढ़ रहे हैं। ऐसे में प्रीमियम बढ़ाना मजबूरी है। लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि भारत कितना स्वस्थ है? महामारी के बाद, यह प्रश्न और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। तो, क्या हमारे स्वास्थ्य ढांचे में सुधार हुआ है? क्या देखभाल अधिक सुलभ है?। इसके साथ ही सवाल, स्वास्थ्य बीमा अब इतना महंगा क्यों है? का भी है।

भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 के अनुसार, बीमा पहुंच में 2.7% से 4% तक लगातार वृद्धि हुई है। हालांकि, अन्य देशों की तुलना में भारत में स्वास्थ्य बीमा की पहुंच कम है। वैश्विक स्तर पर, भारत दूसरा सबसे कम बीमा वाला देश है। डेटा से पता चलता है कि भारत में यह 0.4% है, जबकि चीन में 0.7% और अमेरिका में 4.1% है। और इसका सबसे बड़ा कारण विश्वास, ज्ञान और जागरूकता की कमी है। 

स्वास्थ्य बीमा लागत में वृद्धि की बात करें तो पिछले कुछ वर्षों में, स्वास्थ्य देखभाल की लागत में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, जो लगभग खुदरा मुद्रास्फीति के बराबर है। जबकि चिकित्सा मुद्रास्फीति लगभग 14% है। इसका मतलब है कि कोई भी चिकित्सा प्रक्रिया जिसकी लागत आज 3 लाख रुपये है, अगले 5 साल में लगभग 6 लाख रुपये हो सकती है।

जब आप विभिन्न श्रेणियों को करीब से देखेंगे, तो आप देखेंगे कि दवा की लागत में 8.6% की वृद्धि हुई, चिकित्सा परीक्षण की लागत में 6.2% की वृद्धि हुई, अस्पताल में भर्ती शुल्क में 5.9% की वृद्धि हुई, और परामर्श शुल्क में 4.5% की वृद्धि हुई। दुर्भाग्य से, इसका मतलब यह है कि लोगों को स्वास्थ्य देखभाल खर्चों के लिए अधिक भुगतान करना पड़ता है। भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI) के अनुसार, भारत में चिकित्सा व्यय की जेब से की जाने वाली लागत कुल स्वास्थ्य देखभाल लागत का लगभग 62% है।

खास यह भी कि स्वास्थ्य सेवाओं में जबरदस्त वृद्धि के बावजूद, यह अधिकांश भारतीय नागरिकों के लिए अप्राप्य बनी हुई है। आजकल, चिकित्सा प्रक्रियाओं, सर्जरी और दवाओं की लागत कुछ लाख से कम नहीं है। और यदि आपके पास स्वास्थ्य बीमा नहीं है , तो चिकित्सा बिल आपके वित्त पर गंभीर प्रभाव डालते हैं।

दवाओं के दाम भी छू रहे आसमान, सिर से लेकर दिल के दर्द तक, महंगी हुईं ये जरूरी दवाएं 

स्वास्थ्य बीमा के दूसरी ओर, दवाओं के दाम इतने ज्यादा बढ़ रहे हैं कि गरीब और आम लोगों के लिए इलाज कराना ही मुश्किल होने जा रहा है। कई जरूरी दवाओं के दाम बढ़ने से सिर के साथ दिल भी दुखने लगा है। अच्छे डॉक्टरों की महंगी फीस के बाद अब ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल समेत कई दवाओं पर महंगाई का असर हुआ है। इन दवाओं की सूची में एंटीबायोटिक, एंटी-इंफेक्टिव, पेन किलर, दिल की बीमारी की दवाएं सबसे ऊपर हैं।

गौरतलब है कि दवाओं की कीमतें घटाने-बढ़ाने का काम केंद्र सरकार के अधीनस्थ नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी करती है। पिछले साल भी एनपीपीए ने दवाओं की कीमतों में 10.7 फीसदी की बढ़ोतरी की थी। यह लगातार दूसरा साल है, जब दवाओं की कीमतें बढ़ीं हैं। इसका असर ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल, एंटीबायोटिक, एंटी-इंफेक्टिव, पेन किलर, दिल के रोगों की दवाएं, विभिन्न संक्रमणों, किडनी, अस्थमा से संबंधित मरीजों को दी जाने वाली करीब 800 आवश्यक दवाओं पर पड़ा है। इससे दवाओं की कीमतें 12.12 फीसदी बढ़ गई हैं।

जी हां, अप्रैल माह शुरु होने के साथ ही आम आदमी पर महंगाई का बोझ बढ़ गया है। एक अप्रैल 2023 से भारत में जरूरी दवाओं आदि की कीमत को बढ़ा दिया गया है। अब देश में पेनकिलर, एंटीबायोटिक, एंटी-इन्फेक्टिव और कार्डियक की दवाएं पिछली कीमत से 12 प्रतिशत ज्यादा में बेची जाएंगी।

यही नहीं, ये लगातार दूसरा साल है, जब शेड्यूल्ड दवाओं की कीमत में बढ़त नॉन-शेड्यूल्ड दवाओं की तुलना में ज्यादा हुई है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर दवाओं की कीमत इतनी जल्दी क्यों बढ़ जाती है और इसकी कीमत कैसे तय की जाती है?

क्या है शेड्यूल्ड और नॉन-शेड्यूल्ड दवाएं

शेड्यूल दवाएं- ये वो महत्वपूर्ण दवाएं हैं, जिसे कितनी कीमत में बेचना है इस पर सरकार का नियंत्रण होता है. इन दवाओं में पैरासिटामोल, पेनकिलर, एंटी-बायोटिक जैसी जरूरी दवाइयां आती हैं। शेड्यूल दवाओं को एसेनशियल ड्रग्स भी कहा जाता है।

नॉन-शेड्यूल्ड दवाएं- इस कैटेगरी में वो दवाइयां आती है जिस पर सरकार का किसी भी तरह का कोई नियंत्रण नहीं होता। इसका मतलब ये नहीं हो जाता कि दवा कपंनिया कभी भी इनकी कीमत बढ़ा या घटा सकती है। नॉन शेड्यूल्ड दवाओं की कीमत में हर साल 10 प्रतिशत तक बढ़त का ही प्रावधान है।

पिछले 3 सालों में शेडयूल्ड दवाइयों के दाम में कितना हुआ इजाफा 

TOI की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 3-4 सालों में शेड्यूल्ड दवाओं की कीमत में 15-20 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। दवाओं की कीमत बढ़ने का ये सिलसिला भी कोरोना महामारी के बाद शुरू हुआ। पिछले कुछ सालों में जरूरी दवाओं की कीमतों में 15-20 फीसदी तक का इजाफा हुआ है।

कैसे बढ़ती है बाजार में दवाओं की कीमत

किसी भी चीज का दाम तभी बढ़ता है जब उसकी मांग ज्यादा हो। बाजार में भी दवाइयों की कीमत उसकी मांग के अनुसार ही बढ़ती है। आसान भाषा में समझ तो जिस दवा की मांग ज्यादा होती है कंपनी उसकी प्राइस बढ़ा देती हैं। वहीं जब कोई दवा ज्यादा बिक रहा हो तो कंपनियों की तरफ से दवा का एक नया बैच जारी किया जाता है और वह भी बढ़े हुए दाम के साथ।

दिल्ली के एक केमिस्ट के अनुसार, 'दवाओं को बनाने के लिए जिस कच्चे माल की जरूरत पड़ती है उसकी कीमत बढ़ रही है जिसके कारण दवाओं की कीमतों को बढ़ाना पड़ रहा है। यह माल विदेश से आता है। बता दें कि दवाइयों को बनाने के लिए विदेश से आने वाला कच्चा माल या एक्टिव फार्मास्यूटिक इंग्रेडिएंट्स महंगा हो गया है। सिर्फ कच्चा माल ही नहीं बल्कि इनकी पैकेजिंग और किराये के दाम भी बढ़े हैं।

दवाइयों की कीमत कितनी बढ़ेगी कौन तय करता है

भारत में किसी भी ड्रग्स की कीमत तय करने का काम नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (NPPA) करती है। यह अथॉरिटी हर साल होलसेल प्राइस इंडेक्स (WPI) के आधार दवाओं के दाम में बदलाव कर सकती है। राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (NPPA) का काम भारत में बनने वाली दवाओं की कीमत तय करने के साथ साथ उन पर नियंत्रण रखना और उपलब्धता बनाये रखना भी है। बाजार में दवाओं की खुदरा कीमत दवा (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 2013 के आधार पर राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण द्वारा तय की जाती है। जिन दवाओं की सूची दवा (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 2013 में दी गयी है उनकी कीमतें NPPA तय करती है। इसके अलावा जो दवाएं सूची में शामिल नहीं हैं उन पर भी NPPA निगरानी रखता है।

 साल में छह करोड़ लोगों को गरीब बना दे रहा है महंगा इलाज 

क्या आप जानते हैं कि भारत में हर साल 6.3 करोड़ लोगों को सिर्फ इसलिए गरीबी से जूझना पड़ता है क्योंकि उन्हें अपने स्वास्थ्य का खर्चा खुद उठाना पड़ता है। पर ऐसा क्यों होता है? जवाब है सरकार की अनदेखी। जिस देश में एक सांसद के स्वास्थ्य पर सरकार साल भर में 51 हजार रुपये से ज्यादा खर्च कर देती है, उसी देश के आम नागरिक के स्वास्थ्य पर खर्च 18 सौ रुपये के करीब ही है। सरकार की अपनी रिपोर्ट में ये आंकड़े दर्ज हैं।

स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से गत वर्ष जारी 'नेशनल हेल्थ अकाउंट्स' की रिपोर्ट में 2018-19 में स्वास्थ्य पर हुए खर्च की जानकारी दी गई है। इसमें बताया गया है कि 2018-19 में केंद्र और राज्यों की सरकारों ने स्वास्थ्य पर कितना खर्च किया और लोगों ने अपनी जेब से कितने? इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2018-19 में स्वास्थ्य पर 5.96 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हुए थे। इनमें से 2.42 लाख करोड़ रुपये केंद्र और राज्य सरकारों ने खर्च किए। बाकी का खर्च लोगों ने खुद उठाया या फिर निजी संस्थाओं ने किया।

रिपोर्ट के मुताबिक सरकारों ने 2018-19 में एक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर सालभर में 1,815 रुपये खर्च किए। अगर एक व्यक्ति पर हुए खर्च का एक दिन का औसत निकाला जाए, तो ये 5 रुपये से भी कम होता है। वहीं, एक आरटीआई के जवाब में राज्यसभा सचिवालय ने बताया था कि 2018-19 में राज्यसभा सांसदों के स्वास्थ्य पर 1.26 करोड़ रुपये खर्च किए गए। राज्यसभा में 245 सांसद हैं। इस हिसाब से हर सांसद के स्वास्थ्य पर औसतन 51 हजार से ज्यादा रुपये खर्च हुए। इसे और थोड़ा आसान करें तो ऐसे समझ सकते हैं कि अगर आपके स्वास्थ्य पर सरकार 1 रुपये खर्च कर रही है, तो एक सांसद के स्वास्थ्य पर उसकी तुलना में 29 रुपये खर्च हो रहे हैं।

नेशनल हेल्थ अकाउंट्स की रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र सरकार ने 2018-19 में नेशनल हेल्थ मिशन पर 30,578 करोड़ रुपये खर्च किए थे। डिफेंस मेडिकल सर्विस पर 12,852 करोड़ और रेलवे हेल्थ सर्विसेस पर 4,606 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। इसके अलावा हेल्थ इंश्योरेंस की योजनाओं पर 12,680 करोड़, स्वास्थ्य योजनाओं पर 4,060 करोड़ और पूर्व कर्मचारियों के लिए स्वास्थ्य योजनाओं पर 3,226 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे।

स्वास्थ्य खर्च के इन आंकड़ों की 2013-14 से तुलना करें तो सामने आता है कि पांच साल में स्वास्थ्य पर होने वाला कुल खर्चा करीब 32% बढ़ गया है। वहीं, सरकारी खर्च भी लगभग दोगुना हो गया है। 2013-14 में सरकारों ने एक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर सालभर में 1,042 रुपये खर्च किए थे। हालांकि, स्वास्थ्य पर जीडीपी का 1.28% ही सरकारी खर्च हुआ। ये खर्च 2017-18 की तुलना में कम हुआ है। 2017-18 में जीडीपी का 1.35% खर्च हुआ था। स्वास्थ्य पर जीडीपी के खर्च के मामले में भारत अपने पड़ोसी देशों से काफी पीछे है। 

मीडिया रिपोर्ट्स देंखे तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, भूटान अपनी जीडीपी का 2.65% जबकि श्रीलंका 2% खर्च करता है। नेशनल हेल्थ अकाउंट्स 2014-15 में कहा गया था कि सरकार को स्वास्थ्य पर जीडीपी का कम से कम 5% खर्च करना चाहिए। वहीं, इकोनॉमिक सर्वे में सिफारिश की गई थी कि स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5 से 3% खर्च होना चाहिए, ताकि लोगों का खर्च कम किया जा सके। भारत ने 2025 तक स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5% खर्च करने का टारगेट सेट किया है। इकोनॉमिक सर्वे के मुताबिक, 2021-22 में केंद्र और राज्य सरकारों ने स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.1% खर्च किया था।

अपनी जेब से कितना खर्च कर रहे लोग?

नेशनल हेल्थ अकाउंट्स की रिपोर्ट के मुताबिक, 2018-19 में स्वास्थ्य पर कुल जितना खर्च हुआ था, उसमें से 48% से ज्यादा खर्च लोगों ने अपनी जेब से किया था। इसे आउट ऑफ पॉकेट खर्च कहते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में आउट ऑफ पॉकेट खर्च का औसत 18.2% था। हेल्थ अकाउंट्स की रिपोर्ट बताती है कि 2018-19 में लोगों ने अपनी जेब से स्वास्थ्य पर 2.87 लाख करोड़ रुपये खर्च किए थे। इस हिसाब से एक व्यक्ति ने अपनी हेल्थ पर करीब 2000  रुपये खर्च किए।

2020-21 के आर्थिक सर्वे में कहा गया था कि अगर सरकार स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5 से 3% तक खर्च करती है, तो इससे व्यक्तिगत स्वास्थ्य खर्च घटकर 35% के स्तर पर आ सकता है। स्वास्थ्य पर लोगों की जेब से होने वाला खर्च जितना कम होता है, उतना अच्छा माना जाता है। वो इसलिए क्योंकि इससे समझा जाता है कि लोगों तक सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंच रही हैं। आउट ऑफ पॉकेट खर्च में 189 देशों की लिस्ट में भारत की रैंकिंग 66वें नंबर की है। पाकिस्तान (55), बांग्लादेश (52), नेपाल (63), भूटान (37) भी हमसे आगे है।

स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बढ़ना कितना जरूरी?

भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बढ़ना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि यहां 80 करोड़ से ज्यादा लोग गरीब हैं। जबकि, स्वास्थ्य खर्च बढ़ता जा रहा है। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2021 के मुताबिक, अगर गांव में कोई व्यक्ति सरकारी अस्पताल में भर्ती होता है, तो उसका औसतन खर्च 4,290 रुपये होता है। वहीं, गांव में निजी अस्पताल में भर्ती होने पर उसे 22,992 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। इसी तरह शहर में सरकारी अस्पताल में भर्ती होने पर 4,837 और निजी अस्पताल में 38,822 रुपये का खर्चा आता है। जबकि, देश में हर आदमी की सालाना औसत कमाई 1.50 लाख रुपये के आसपास है। अगर ये व्यक्ति तबीयत बिगड़ने पर निजी अस्पताल में भर्ती हो जाता है तो उसकी दो से तीन महीने की कमाई सिर्फ बिल भरने में ही खर्च हो जाती है।

आत्महत्या करने की दूसरी बड़ी वजह बीमारी: एनसीआरबी 

अपनी जेब से खर्च करने की वजह से गरीबी भी बढ़ती है। नेशनल हेल्थ पॉलिसी 2015 में कहा गया था कि स्वास्थ्य पर अपनी जेब से खर्च करने की वजह से हर साल 6.3 करोड़ लोगों को गरीबी से जूझना पड़ता है। इतना ही नहीं, बीमारी से तंग आकर लोग आत्महत्या करने को भी मजबूर हो जाते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 में आत्महत्या करने की दूसरी सबसे बड़ी वजह बीमारी ही थी। पिछले साल 30,446 लोगों ने बीमारी से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी।

साभार : सबरंग 

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