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फासीवादी राज को तथ्‍यों से नफ़रत क्‍यों?

फासीवादी हिंदुत्ववादी संगठन का मूलमंत्र बड़ा आसान है। सच वही है जो मोदी बताएं और अगर तथ्य इससे अलग कुछ कहते हैं, तो तथ्य ही ग़लत होंगे।
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सभी फासीवादी संगठनों में एक खासियत एक जैसी होती है। वे जो आख्यान गढ़ते हैं उसके खिलाफ जो भी तथ्य जाते हों उन्हें सीधे-सीधे खारिज ही कर देते हैं। भारत में सत्ता में बैठे हिंदुत्ववादी तत्व भी इसका अपवाद नहीं हैं।

साक्ष्यों के प्रति शत्रुता

उनका आख्यान भारत को दुनिया की सबसे तेजी से विकास कर रही अर्थव्यवस्था बताता है जहां लोग इतने सुखी हैं, जितने पहले कभी नहीं थे। अब अगर अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों और यहां तक कि खुद सरकार की अपनी एजेसियों द्वारा जमा किए गए साक्ष्य इसके खिलाफ जाते हैैं तो उनके हिसाब से तो ये तथ्य ही गलत होने चाहिए। फासीवादी हिंदुत्ववादी संगठन का मूलमंत्र बड़ा आसान है। सच वही है जो मोदी बताए और अगर तथ्य इससे अलग कुछ कहते हैं, तो तथ्य ही गलत होंगे बल्कि ज्यादा संभावना है कि इन्हें किसी खतरनाक आतंकवादी साजिश के हिस्से के तौर पर ही पेश किया गया होगा!

किसी साक्ष्य या तथ्य को सीधे-सीधे खारिज कर देने और उसकी किसी आलोचना में, मौलिक अंतर होता है। अगर हिंदुत्ववादी तत्व, सामने आने वाले साक्ष्यों की आलोचना प्रस्तुत कर रहे होते, तो यह बिल्कुल उचित गतिविधि होती क्योंकि हरेक आलोचना ही, बौद्घिक रूप से उत्पादक होती है। इस तरह की आलोचना के नतीजे में या तो साक्ष्य एकत्रित करने की पद्घति में ही और बेहतरी आती है या फिर इससे उपलब्ध साक्ष्यों का जो अर्थ सामान्य रूप से लगाया जाता है, इन साक्ष्यों की उससे भिन्न व्याख्या सामने आती है या फिर हमारा ध्यान पूरी तरह से नये ही साक्ष्यों की ओर मुड़ता है। और कुल मिलाकर, हमारी समझदारी में ही और गहराई आती है। लेकिन, सामने प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों की आलोचना प्रस्तुत करने जैसी किसी बौद्घिक गतिविधि में जुटना, हिंदुत्ववादी तत्वों के बस की ही बात नहीं है। वे तो अपने गढ़े हुए आख्यान के खिलाफ जाने वाले तमाम साक्ष्यों को सीधे-सीधे खारिज ही कर सकते हैं। ये ताकतें तो यह तक स्पष्ट नहीं करती हैं कि उनके दावों की वैधता की ही जांच करने के लिए किन्हीं खास साक्ष्यों को हिसाब में क्यों नहीं लिया जाना चाहिए?

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षणों का ही अंत

मैं अपनी बात को, मोदी सरकार द्वारा साक्ष्यों के खारिज किए जाने के ऐसे ही तीन प्रकरणों के जिक्र से अपनी बात स्पष्ट करना चाहूंगा। पहला प्रकरण तो, 2017-18 के उपभोक्ता खर्च पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण से ही संबंधित है। याद रहे कि उक्त सर्वेक्षणों को, भारत के जाने-माने सांख्यिकीविद, प्रोफेसर पीसी महलनबीस ने बहुत पहले, 1950 के दशक में तैयार किया था। इसके अंतर्गत हर पांच साल पर वृहद नमूना सर्वेक्षण होता था जो वास्तव में दुनिया का सबसे बड़ा नियमित आवधिक नमूना सर्वेक्षण होता था। यह सर्वेक्षण अपनी सीमाओं के बावजूद और जाहिर है कि ऐसी किसी भी कसरत में सीमाओं का रहना तो तय ही है भारत में और विदेश में भी, शोधकर्ताओं की पीढिय़ों को मूल्यवान सामग्री मुहैया कराता था।

बहरहाल, 2017-18 वाले पंचवर्षीय सर्वे ने देश में गरीबी के मामले में एक निराशाजनक तस्वीर पेश की बतायी जाती है। इसके चलते मोदी सरकार ने न सिर्फ इस सर्वे के नतीजों के सार्वजनिक किए जाने को रोक दिया बल्कि इन सर्वेक्षणों को ही पूरी तरह से बंद करा दिया। इस सर्वेक्षण के इस तरह दबाए जाने से पहले, जो जानकारी ‘रिसकर’ बाहर आ गयी थी, उसके अनुसार प्रतिव्यक्ति ग्रामीण उपभोक्ता खर्च में 2011-12 से 2017-18 के बीच, पूरे 9 फीसद की गिरावट आयी थी और इसके आधार पर यह अनुमान लगाया गया था कि 2200 कैलोरी प्रतिव्यक्ति आहार (जो कि ग्रामीण गरीबी को परिभाषित करने का पुराना पैमाना था) तक पहुंच न पाने वाली ग्रामीण आबादी का अनुपात, 2011-12 के 68 फीसद से बढक़र, 2017-18 तक 78.5 फीसद पर पहुंच चुका था।

बजाय इसके कि सरकार इन साक्ष्यों से चिंतित होती या कोई नया सर्वेक्षण कराने के जरिए इन साक्ष्यों की सत्यता की ही जांच कराती (जैसाकि यूपीए सरकार ने 2011-12 में किया था क्योंकि 2009-10 के मूल पंचवर्षीय सर्वे में गरीबी का स्तर बहुत ज्यादा नजर आ रहा था) या फिर सर्वे के निहितार्थों की जांच करने और उपचार के लिए जो कदम अपनाए जा सकते थे उन्हें सुझाने के लिए सरकार कोई विशेषज्ञ समिति ही गठित करती; इसके बजाए एनडीए सरकार ने तो सीधे-सीधे इस सर्वे के नतीजों को दबा दिया और भविष्य में ऐसे सर्वे कराना ही बंद कर दिया! अपने दावों के खिलाफ जाने वाले साक्ष्यों पर, फासीवाद की सामान्य प्रतिक्रिया यही होती है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5

मेरे दूसरे उदाहरण का संबंध राष्‍ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 से है। यह सर्वे 2019-21 की अवधि में कराया गया था। यह सर्वे यह दिखाता था कि इससे पहले वाले, राष्‍ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 की तुलना में, जो 2015-16 में किया गया था, बच्चों तथा महिलाओं, दोनों के बीच खून की कमी या एनीमिया ग्रसितता का अनुपात जो पहले ही बहुत ज्यादा था, चिंताजनक तरीके से ऊपर चढ़ गया था। जहां 2015-16 के सर्वे के समय 6 महीने से 59 महीने तक आयु के 59 फीसद बच्चे खून की कमी के शिकार थे। 2019-21 के सर्वे तक यह आंकड़ा बढक़र 67 फीसद पर पहुंच चुका था। इतना ही नहीं, उक्त दो तिथियों के बीच साधारण से तीव्र तक एनीमिया से पीडि़त बच्चों का अनुपात 30.6 फीसद से बढक़र 38.1 फीसद हो चुका था जबकि हल्के एनीमिया के शिकारों का अनुपात ज्यों का त्यों बना रहा था और जहां उसका पहले का आंकड़ा 28.4 था बाद का आंकड़ा 28.9 था। इसी प्रकार, 49 वर्ष तक आयु की महिलाओं के मामले में खून की कमी का अनुपात उसी अंतराल में 53 फीसद से बढक़र 57 फीसद हो गया था। महिलाओं के मामले में साधारण से तीव्र तक एनीमिया की शिकार महिलाओं का हिस्सा, 28.4 फीसद से बढक़र, 31.4 फीसद हो गया था। यहां तक कि 49 वर्ष तक आयु के पुरुषों के मामले में भी, हालांकि खून की कमी का अनुपात कहीं थोड़ा था तथा उसमें बढ़ोतरी भी थोड़ी ही हुई थी यानी यह हिस्सा 23 फीसद से बढक़र 25 फीसद ही हुआ था। साधारण से तीव्र तक एनीमिया के शिकारों का हिस्सा 5 फीसद से बढक़र 8 फीसद हो गया था। ग्रामीण बच्चों तथा ग्रामीण वयस्कों के मामले में खून की कमी औसत से ज्यादा रही थी और खून की कमी की शिकार माताओं के बच्चों के खून की कमी का शिकार होने का जोखिम कहीं ज्यादा था।

सर्वे के इन नतीजों पर सरकार ने क्या किया? सर्वे के जरिए सामने आयी इन चौंकाने वाली सचाइयों पर कोई चिंता जताने के बजाए इन नतीजों की विश्वसनीयता व निहितार्थों पर चर्चा करने तथा फौरन ही इन रुझानों को पलटने के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर विचार करने के लिए विशेषज्ञों को बुलाने के बजाए, जोकि जनता की रत्तीभर भी परवाह करने वाली किसी भी सरकार ने किया होता, मौजूदा सरकार ने तो बस इतना किया कि झूठे आरोप में, राष्‍ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे करने वाली संस्था, इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपूलेशन स्टडीज के निदेशक को ही निलंबित कर दिया। (इन आरोपों का झूठा होना एक इसी तथ्य से साफ हो जाता है कि इस संस्था के निदेशक के इस्तीफा देने की देर थी, उनका निलंबन उठा लिया गया।) यह भी सामान्य फासीवादी प्रत्युत्तर का ही मामला था।

वैश्विक भूख सूचकांक

मेरे तीसरे उदाहरण का संबंध वैश्विक भूख सूचकांक से है। 2023 के लिए यह सूचकांक दिखाता है कि भारत, जिन 125 देशों के लिये यह सूचकांक तैयार किया जाता है, उनमें 111वें स्थान पर है। (जाहिर है कि इस सूचकांक में ऐसे देशों को शामिल नहीं किया जाता है, जहां भूख का स्तर बहुत ही नीचा है)। इतना ही नहीं, भारत का स्थान उसके पड़ौसी देशों से भी नीचे है, जिनमें पाकिस्तान 102वें स्थान पर है, बांग्लादेश 81वें स्थान पर, श्रीलंका 60वें तथा नेपाल, 69वें स्थान पर। इसके ऊपर से भारत, समय के साथ इस सूचकांक पर नीचे से नीचे ही खिसकता रहा है।

एक बार फिर, इन बहुत ही चिंताजनक नतीजों पर सरकार की प्रतिक्रिया क्या थी? न उसने रत्तीभर हैरानी जतायी और न ही रत्तीभर चिंता जतायी। सिर्फ सीधे-सीधे वैश्विक भूख सूचकांक को ही खारिज कर दिया। और एक कैबिनेट मंत्री ने तो इस सूचकांक के संबंध में घोर अज्ञानतापूर्ण तथा सतही टिप्पणियां तक कर डालीं। वैश्विक भूख सूचकांक की गणना, चार मानदंडों के आधार पर की जाती है। ये मानदंड हैं: अल्पपोषण, पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर, बच्चों की स्टन्टिंग या ठिगनापन यानी आयु के अनुपात में ऊंचाई का कम होना और बच्चों की वेस्टिंग या दुबलापन यानी लंबाई की तुलना में वजन का कम होना। अब अगर बहस के लिए हम सरकार के इस दावे को सच भी मान लें कि ये मानदंड, वयस्कों की स्थिति के बजाए बच्चों की स्थिति से ही ज्यादा प्रभावित होते हैं, तब भी यह सूचकांक इतना तो दिखाता ही है कि भारत में बच्चों की दशा, शेष दुनिया भर के मुकाबले बदतर है। यानी कम से कम इसका तो कोई आधार नहीं हो सकता है कि वैश्विक भूख सूचकांक के नतीजों को अनदेखा कर दिया जाए।

मंत्री महोदया ने मजाकिया तरीके से कहा कि ऐसे तो वह भी भूखी थीं क्योंकि वह दिन भर से यात्रा में थीं और अगर किसी ने उनसे फोन कर के उनके भूखे होने के बारे में पूछा होता, उन्होंने भी यही कहा होता कि वह भूखी थीं। इसलिए, उनकी दलील के हिसाब से वैश्विक भूख सूचकांक में शामिल होने वाली जानकारी, जोकि भारत में 3000 प्रतिभागियों से हासिल जानकारी पर आधारित होती है, खुद ही संदिग्ध हो जाती है और इसलिए, समूचा वैश्विक भूख सूचकांक ही ठुकराए जाने के लायक है।

तथ्यों को नकारना ही फासी राज की हकीकत

बहरहाल, इस संदर्भ में तीन बातें कहनी जरूरी हैं। पहली तो यही कि अल्पपोषण, वैश्विक भूख सूचकांक तैयार करने में लगने वाले चार सूचकों में से एक ही है। दूसरे, अल्पपोषण का आकलन करने के लिए भी भूख सूचकांक तैयार करने में सिर्फ उत्तरदाताओं से जानकारी ही नहीं ली जाती है बल्कि हरेक देश की खाद्य बैलेंस शीट को भी हिसाब में लिया जाता है और यह बैलेंस शीट खुद सरकार द्वारा जारी किए जाने वाले आंकड़ों पर ही आधारित होती है। और तीसरी बात यह है कि इस सूचकांक के लिए उत्तरदाताओं से सवाल पूछने का सहारा लेना ही इसलिए पड़ रहा है क्योंकि हमारे देश में पहले जो उपभोक्ता खर्च सर्वे हुआ करते थे उन्हें बंद कर दिया गया है और उन्हें बंद कराया है, खुद भाजपा सरकार ने।

यह याद रखा जाना चाहिए कि वैश्विक भूख सूचकांक पर भारत का स्थान, हालांकि वक्त के साथ नीचे खिसकता गया है, फिर भी काफी समय से यह स्थान दयनीय रूप से नीचा बना रहा है। और यह स्थिति भाजपा सरकार द्वारा उपभोक्ता खर्च सर्वेक्षणों के बंद किए जाने तथा मजबूरी में उत्तरदाताओं के जवाबों से काम चलाने का तरीका अपनाए जाने से पहले से थी। दूसरे शब्दों में, एक ओर तीव्र तथा बढ़ती हुई भूख और दूसरी ओर ऊंची जीडीपी वृद्धि‍ दर का साथ-साथ चलना, नवउदारवादी निजाम की स्थायी विशेषता ही बना रहा है। और यह विशेषता, फासीवादी तत्वों के सत्ता में आने से पहले से चली आ रही थी जिसे इन तत्वों ने बरकरार रखा है और उन्होंने इस रुझान को और तेज कर दिया है। इसलिए यह दावा कि भूख का आकलन करने के लिए उत्तरदाताओं से जानकारी लेना, भारत को नीचा दिखाने के लिए जिम्मेदार है, उपरोक्त कारणों के अलावा, दो और कारणों से भी दोषपूर्ण है। पहली बात तो यह है कि इस पद्यति का उपयोग सिर्फ भारत के लिए ही नहीं, सभी देशों के लिए किया जाता है और ऐसा इसलिए है कि अन्य देशों में वैसे विस्तृत नमूना सर्वेक्षण हैं ही नहीं, जैसे भारत में हुआ करते थे। दूसरे, इस सूचकांक पर भारत का दर्जा नीचे रहना, उत्तरदाताओं से जानकारी एकत्र करने की इस पद्धति के उपयोग का नतीजा नहीं है क्योंकि भारत का यह निचला दर्जा तो, उसके मामले में इस पद्धति का उपयोग शुरू होने से पहले से चला आ रहा है।

इस तरह तथ्य यह है कि इतने सारे अलग-अलग सूचकांक जो इतनी सारी अलग-अलग एजेंसियों द्वारा तथा अलग-अलग स्रोतों का उपयोग कर तैयार किए गए हैं भारत में तीव्र तथा बढ़ती हुई पोषणगत वंचितता की स्थिति की ओर इशारा करते हैं और यह स्थिति तब भी बनी रही है जब जीडीपी अपेक्षाकृत ऊंची दर से बढ़ता रहा है। यह एक ऐसी चीज है जिसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। लेकिन, देश की फासीवादी सरकार इस मामले पर कोई चिंता प्रदर्शित करने के बजाए, सिर्फ ऐसा होने के साक्ष्यों को खारिज करने में लगी हुई है जो उसकी असलियत को ही दिखाता है। इस हिसाब से तो यह सरकार इस देश के उस समूचे सांख्यिकीय बुनियादी ढांचे को नष्ट कर देगी जिसे बड़ी मेहनत से खड़ा किया गया था।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Hostility to Evidence is the Hallmark of Fascists

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