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'हमने अन्न उपभोक्ताओं पर ध्यान दिया है अन्न उत्पादकों पर नहीं'

भारतीय कृषि क्षेत्र की प्रमुख समस्याओं और उनके सुधार के उपायों पर प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा से न्यूजक्लिक के लिये स्वतंत्र पत्रकार राकेश सिंह ने विशेष बातचीत की है।
कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा
image courtesy : Gorakhpur NewsLine

प्रश्न-1. आपके हिसाब से आज भारतीय कृषि क्षेत्र की प्रमुख समस्याएं क्या हैं?  

उत्तर: कई दशकों से मैंने देखा है कि आर्थिक सुधारों को व्यवहार्य बनाए रखने के लिए कृषि को जानबूझकर कैसे कमजोर रखा गया है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि खाद्य महंगाई नियंत्रण में रहे और उद्योगों को उसका कच्चा माल सस्ती कीमत पर मिले, कृषि उत्पादों की कीमतें जानबूझकर कम रखी गई है। इस तरह जब कोई किसान खेती करता है, तो उसे इस बात का एहसास नहीं होता है कि वह वास्तव में घाटे की खेती करने जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप उनके पास हर बार केवल ज्यादा से ज्यादा कर्ज लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। और इस तरह से किसान हर समय कर्ज में रहते हैं। इसलिए मैंने हमेशा कहा है कि कृषि के गंभीर संकट का जवाब फसलों के खराब होने में नहीं बल्कि अर्थशास्त्र में है।

इसके बारे में विस्तार से बात करने के लिए मैं एक अध्ययन का उल्लेख जरूर करना चाहूंगा, जो हमने कुछ साल पहले किया था। 1970 में गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) 76 रुपये प्रति क्विंटल था। उस समय स्कूल के शिक्षकों का वेतन 90 रुपये प्रति माह था। अगले 45 वर्षों में 2015 में गेहूं के लिए एमएसपी बढ़कर 1,450 रुपये प्रति क्विंटल हो गया, जो कि 45 वर्षों की अवधि में 19 गुना बढ़ा था। इसी अवधि में सरकारी कर्मचारियों के वेतन (केवल मूल वेतन और डीए) में 120 से 150 गुना की वृद्धि हुई।  

कॉलेज/ विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों/ व्याख्याताओं का वेतन 150 से 170 गुना तक बढ़ गया और स्कूल के शिक्षकों के वेतन में 280 से 320 गुना की वृद्धि हुई। यह हमें बहुत साफ तौर से बताता है कि यदि कृषि उत्पादों की कीमतें समाज के अन्य वर्गों की आय के समान अनुपात में बढ़ गई होती, तो कृषि को उस तरह के संकट का सामना नहीं करना पड़ता, जो आज मौजूद है।

प्रश्न-2: यदि किसान की आय कर्मचारियों और प्रोफेसरों की आय के अनुपात में बढ़ती तो आपको नहीं लगता है कि भोजन बहुत महंगा हो जाता? ऐसे महंगे खाद्य मूल्यों के साथ एक औसत परिवार अपने मासिक भोजन खर्च का प्रबंध कैसे करेगा?

उत्तर- खैर, यह तो साफ है कि देश में खाद्य कीमतों को कम रखने की वास्तविक लागत का बोझ किसान ही उठा रहे हैं। दूसरे शब्दों में यह सुनिश्चित करने के लिए कि खाद्य मुद्रास्फीति में वृद्धि न हो, क्या हम किसानों को जानबूझकर कम कीमत का भुगतान करके सजा नहीं दे रहे हैं? क्या हमने कभी सोचा है कि एक किसान का भी परिवार होता है। उसे अपने बच्चों को शिक्षित करना होगा, उसके परिवार के भी स्वास्थ्य के खर्चों आदि को पूरा करना होगा। एक बेहतर आजीविका बनाए रखने के लिए उसे एक सम्मानजनक आय की भी जरूरत होती है। आर्थिक सर्वेक्षण 2016 के अनुसार भारत के 17 राज्यों में जो कि लगभग आधे देश के बराबर हैं, खेती की औसत आय प्रतिवर्ष 20,000 रुपये है। यह 1,700 रुपये प्रति माह से भी कम है। आप एक महीने में 1,700 रुपये में एक गाय को पाल भी नहीं सकते। क्या हमने कभी सोचा है कि ये परिवार कैसे जीवित रहते हैं?

किसानों को उनकी सही आय से वंचित करके हमने किसानों को कर्ज के जाल में धकेल दिया है। यह समय है जब हम उन्हें कर्ज के दलदल से बाहर निकाल सकते हैं और उन्हें मासिक आय पैकेज के रूप में कुछ राहत दे सकते हैं। जिसके वे वास्तव में हकदार हैं, लेकिन उनको देने से इनकार कर दिया गया है। आखिरकार एक किसान को भी हर महीने एक सुनिश्चित आय की जरूरत होती है। उपभोक्ताओं के रूप में यह हमारा कर्तव्य बन जाता है कि हम यह सुनिश्चित करें कि हम उस परिवार के साथ भी खड़े रहें जो हमारी मेज पर भोजन लाने के लिए बहुत संघर्ष करता है।

प्रश्न-3. आपने कहा कि एक किसान को भी एक सुनिश्चित आय की आवश्यकता होती है। यह कैसे संभव है?

उत्तर- आज से करीब 10 से 12 साल पहले जब मैंने पहली बार कहा था कि किसानों को प्रत्यक्ष आय समर्थन की आवश्यकता है, तो अर्थशास्त्रियों ने इसका कड़ा विरोध किया था। वे यह नहीं समझ सके कि मैं किसानों के लिए प्रत्यक्ष आय सहायता क्यों माँग रहा था। मेरा तर्क यह था कि चूंकि इन वर्षों में किसानों को उनकी उचित आय से वंचित किया गया है, इसलिए उनको हुए नुकसान की भरपाई करना बहुत जरूरी है। कृषि उत्पादों की कीमत पिछले दो दशकों से अधिक समय से नहीं बढ़ी है या घटी है। यह समय उस आय असंतुलन को ठीक करने का है, जो लगातार बढ़ता जा रहा है।

उदाहरण के लिए ओईसीडी (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) द्वारा किये गये एक अध्ययन को लें, जिसमें दुनिया का सबसे अमीर व्यापारिक समूह शामिल है। नई दिल्ली स्थित संस्था आईसीआरआईईआर के सहयोग से किए गए इस अध्ययन में पता चला है कि भारतीय किसानों को 2000 से 2016-17 के बीच 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। यह कृषि को प्रभावित करने वाला एक असाधारण संकट था, लेकिन किसानों के सामने आने वाला यह भारी संकट कभी भी राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बना। किसानों के लिए एक आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज की आवश्यकता है, जैसे उद्योग जगत को बहुत बार दिया गया है। लेकिन किसी ने अभी तक इसके बारे में बात नहीं की है।

यह बताता है कि किसानों के सामने आने वाला आर्थिक संकट कितना गंभीर है। अक्सर कीमतों में उतार-चढ़ाव के कारण किसानों को नुकसान का सामना करना होता है। हर बार हम किसानों द्वारा सड़कों पर टमाटर, आलू और प्याज फेंकने की खबरें सुनते हैं। मंडियों में किसानों को सही दाम नहीं मिलने की खबरें आम हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य की तुलना में लगभग सभी कृषि जिंसों की कीमत कम बनी हुई है।

मध्य प्रदेश के शिवनी जिले में मक्का किसानों ने मक्का सत्याग्रह पर बैठकर अपनी मक्का की फसल एमएसपी पर खरीदे जाने की मांग की है। वे मक्का की एमएसपी 1,850 रुपये प्रति क्विंटल के मुकाबले शायद ही मक्का को 950 रुपये से 1100 रुपये प्रति क्विंटल के बीच बेच पा रहे हैं। इन किसानों ने जिले में 600 करोड़ रुपये के नुकसान का आंकलन किया है। इसी तरह विदर्भ में वर्धा के एक किसान नेता ने देश भर में कपास किसानों को इस साल 26,000 करोड़ रुपये का नुकसान होने का अनुमान लगाया है।

इसलिए किसानों को सुनिश्चित मासिक आय प्रदान करना महत्वपूर्ण है। यह एक निश्चित एमएसपी मूल्य के माध्यम से या प्रत्यक्ष आय समर्थन को जोड़कर या कुछ अन्य उपायों के माध्यम से किया जा सकता है। मेरा सुझाव है कि किसानों की आय और कल्याण के लिए एक आयोग का गठन किया जाए। जो यह सुनिश्चित करे कि प्रत्येक किसान प्रति माह 18,000 रुपये की आय प्राप्त करने में सक्षम हो, जो न्यूनतम स्तर के सरकारी कर्मचारी के मूल वेतन के बराबर है। मेरा कहने का मतलब यह नहीं है कि सरकार को हर किसान को हर महीने 18,000 रुपये का चेक जारी करना चाहिए। लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए एक तंत्र तैयार करना होगा कि हर किसान को एक महीने में इतनी कमाई जरूर होनी चाहिए।

प्रश्न 4.आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन और कांट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट जैसी सरकार की मौजूदा कृषि नीतियां किसानों की समस्याओं को हल करने में कितना सक्षम हैं?  
 
उत्तर- हां, सरकार तीन अध्यादेश लाई है। ये अध्यादेश कृषि विपणन, मूल्य आश्वासन और अनुबंध खेती और आवश्यक वस्तु अधिनियम से स्टॉक सीमा हटाने से संबंधित संबंधित हैं। यह विचार कि कोई भी किसान और कहीं भी, किसी को भी अपनी उपज बेच सकता है, बहुत अच्छा लगता है। लेकिन क्या इससे किसानों को बेहतर कीमत मिल पाएगी?

इसी तरह सभी अंतर-राज्यीय बाधाओं को हटाकर किसानों को देश में कहीं भी उपज बेचने की अनुमति मिली है। जबकि 86 प्रतिशत किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है और वे एक जिले के भीतर भी बेचने में असमर्थ हैं, यह कदम कुछ ज्यादा ही आशावादी लगता है। और अंत में अनुबंध खेती को प्रोत्साहित करना और ये उम्मीद करना कि मूल्य अनुबंधों से किसानों को बेहतर मूल्य मिलेगा, सबसे पहले इसका एक मूल्यांकन करने की जरूरत है।

यह हालांकि अच्छा है कि सरकार ने एपीएमसी मंडी प्रणाली को कमजोर नहीं किया है और न ही एमएसपी नियमों को बदलने के बारे में कुछ कहा है। बिहार में कृषि सुधारों को लेकर 2006 में इसी तरह का उत्साह था। बिहार कृषि बाजार सुधारों के लिए आगे बढ़ा था और एपीएमसी अधिनियम को हटा दिया गया था। इसे एक बड़े सुधार के रूप में रेखांकित किया गया था। जिससे बिहार को देश के भविष्य के अन्न के कटोरे में बदलने की उम्मीद थी।

अर्थशास्त्रियों ने आशा जाहिर की थी कि एपीएमसी के रास्ते में नहीं आने से निजी निवेश बढ़ेगा, तकनीकी रूप से उन्नत मंडियों की स्थापना निजी क्षेत्र द्वारा की जाएगी और किसानों को फसलों का बेहतर मूल्य मिलेगा। जिसका अर्थ है कि उन्हें सरकार द्वारा घोषित एमएसपी की तुलना में उच्च मूल्य मिलेगा। बिहार से एपीएमसी मंडियों को हटाए 14 साल हो गए हैं। लेकिन सभी दावे कभी पूरे नहीं हुए और उस समय जिन फायदों को लोकर उत्साह था, वैसा कुछ भी नहीं हुआ है।

अर्थशास्त्रियों ने जैसा दावा किया था, उस तरह की किसी भी निजी मंडी के अभाव में वहां कुछ निजी व्यापारी हैं, जो अब फसलों की खरीद का काम करते हैं। किसानों को भी कम कीमतों का एहसास हो रहा है। प्रत्येक फसल के समय बेईमान व्यापारियों को पंजाब और हरियाणा में बेचने के लिये गेहूं और धान के ट्रक भेजते हम देख रहे हैं, जहां उन्हें कम से कम एक सुनिश्चित एमएसपी मिलता है। अगर केवल इन 14  वर्षों में बिहार ने पंजाब की तरह एपीएमसी मंडियों का एक विशाल नेटवर्क तैयार किया होता तो उसकी कृषि बेहतर स्थिति में पहुंच जाती।अगर केवल कृषि को मजबूत किया गया होता तो बिहार में ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन कम होता।

नाबार्ड के 2015 के एक अध्ययन के अनुसार बिहार में औसत कृषि आय प्रतिमाह 7,175 रुपये है। इसकी तुलना पंजाब में औसत से करें, जो प्रति परिवार 23,133 रुपये है। इसका सबसे बड़ा कारण एमएसपी सिस्टम से फसलों की अधिक कीमत मिलना है। इसलिए केवल एक अवसर पर चूकने के कारण बिहार को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।

प्रश्न-5. लेकिन यह कहा जा रहा है कि ये सुधार किसानों को उपज बेचने की स्वतंत्रता प्रदान करेंगे और जिससे कृषि आय में वृद्धि होगी।

उत्तर- पहले यह समझना महत्वपूर्ण है कि कृषि बाजारों में सुधार कैसे हुआ है या बेचने की स्वतंत्रता अमेरिका में कैसे काम करती है, जहां से हम कृषि बाजार के प्रावधानों की नकल कर रहे हैं। अमेरिकी कृषि विभाग (यूएसडीए) के मुख्य अर्थशास्त्री के अनुसार मुद्रास्फीति के साथ समायोजित करने के बाद  अमेरिका में वास्तविक खेती की आय में 1960 के बाद से लगातार गिरावट आई है। चूंकि अमेरिका में कोई एपीएमसी बाजार नहीं है और न ही एमएसपी है, इसलिये किसानों को कहीं भी और किसी को भी बेचने का अधिकार है। लेकिन वर्षों में अमेरिकी किसानों को एक गंभीर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है।

इतने वर्षों से वहां पर खेती को बड़े पैमाने पर सब्सिडी के माध्यम से आर्थिक सहायता देकर ही बचाया जाता रहा है। यदि अमेरिका के कृषि बाजार इतने कुशल हैं तो मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि 2018 में ओईसीडी देशों को 246 अरब डॉलर की कृषि सब्सिडी देनी चाहिए। इसके अलावा कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग, कमोडिटी ट्रेडिंग और मल्टी-ब्रांड रिटेल के प्रभुत्व के बावजूद अमेरिकन फार्म ब्यूरो फेडरेशन ने 2019 में कहा कि 91 प्रतिशत अमेरिकी किसान दिवालिया हैं और 87 प्रतिशत किसानों का कहना है कि उनके पास खेती छोड़ने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है।

अब भारत खेती और कमोडिटी वायदा बाजार और अनुबंध खेती को कृषि से जोड़ने की कोशिश कर रहा है। मुझे आश्चर्य है कि अमेरिका में सबसे बड़े कमोडिटी स्टॉक एक्सचेंजों के होने के बावजूद किसानों पर 425 अरब डॉलर का कर्ज क्यों होना चाहिए? यदि कमोडिटी ट्रेडिंग अमेरिकी किसानों और यूरोपीय किसानों को लाभ दिलाने के लिए काम नहीं कर सकती है, जहां 110 अरब डॉलर की कृषि सब्सिडी का 50% प्रत्यक्ष आय समर्थन के रूप में होता है, तो यह नहीं बताया गया है कि भारतीय किसानों के लिए यह कैसे रामबाण होगा।

प्रश्न-6. तो आपके विचार से भारतीय किसानों के लिए कौन से कृषि सुधार होने चाहिए?

उत्तर- भारतीय किसानों को सरकार या उद्योग से एक प्रतिबद्धता की आवश्यकता है कि उन्हें हर फसल के बाद एक सुनिश्चित मूल्य मिलेगा। यह तभी संभव है जब हम कृषि बाजार ढांचे को मजबूत करेंगे। भारत में वर्तमान में 7,000 से कम विनियमित एपीएमसी बाजार हैं। अगर कृषि  मंडी को 5 किलोमीटर के दायरे में उपलब्ध कराना है, तो भारत को 42,000 कृषि बाजारों के विशाल नेटवर्क की जरूरत है। इसलिए यह अवसर बहुत बड़ा है। इसके लिए पहले आवश्यक बुनियादी ढाँचे जैसे कि मंडी, कोल्ड चेन, भंडारण, ग्रेडिंग, परिवहन आदि में निवेश करने की चुनौती को लेकर एक सही दिशा निर्धारित करना जरूरी है।

अब सही मूल्य का मुद्दा आता है। यदि भारत में बाजार इतने सक्षम थे, तो कोई कारण नहीं है कि किसान इतनी बड़ी संख्या में आत्महत्या करें। आखिरकार शांता कुमार समिति के अनुसार भारत में केवल 6 प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी मिलता है। शेष 94 प्रतिशत किसान खुले बाजारों पर निर्भर हैं। इससे तो  उनकी आर्थिक स्थितियों में पिछले वर्षों में सुधार होना चाहिए था।

इसलिए यह एपीएमसी नेटवर्क को मजबूत करने का समय है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि एमएसपी को इस मायने में कानूनी अधिकार बन जाए कि एमएसपी से नीचे किसी भी खरीद की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। मैं निजी बाजारों की स्थापना के खिलाफ नहीं हूं और न ही मैं प्रतिस्पर्धा के खिलाफ हूं। निजी मंडियों को बिहार या पूर्वी यूपी में या जहां मंडी की जरूरत है, स्थापित किया जा सकता है। यह एपीएमसी मंडियों को एक प्रतियोगी प्रदान करेगा।

यह कहा जा रहा है कि किसी को भी और कहीं भी बेचने की आजादी से किसानों को बेहतर मूल्य मिलना सुनिश्चित होगा, जिसका अर्थ है कि एमएसपी की तुलना में अधिक कीमत किसानों को मिलेगी। मुझे यकीन है कि ऐसी स्थिति में निजी क्षेत्र को आपत्ति नहीं होगी अगर एमएसपी को किसानों के लिए कानूनी अधिकार बना दिया जाए।

आखिरकार निजी खिलाड़ी पहले से ही दावा कर रहे हैं कि किसानों को अधिक कीमत मिलेगी। इसलिए उन सभी 23 फसलों के लिए एमएसपी को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए, जिसके लिए हर साल इसकी घोषणा की जाती है।निश्चित रूप से इसके बाद किसान आय और कल्याण आयोग का गठन किया जाना चाहिए। यह "सबका साथ सबका विकास" के दृष्टिकोण को पूरा करने के लिए भारतीय कृषि को न केवल बदल देगा, बल्कि इस प्रक्रिया में एक ऐसे वैश्विक मॉडल को भी बनाएगा जिसकी आज दुनिया को भी जरूरत है। 

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