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पश्चिम बंगाल : क्या बंद पड़े कोयला खदानों की ज़मीन को स्थानीय समुदाय की आजीविका से जोड़ा जा सकता है?

हरित अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत को वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड समेत ग्रीन हाउस गैसों की तीव्रता को कम करना होगा। इसके लिए पुराने और प्रदूषण फैलाने वाले कोल थर्मल पावर प्लांट को धीरे-धीरे बंद करना होगा।
Mango orchard
पश्चिम बंगाल के रानीगंज कोयला क्षेत्र में बंद हो चुकी भूमिगत कोयले की खदान पर उगाया गया आम का बगीचा

पश्चिम बंगाल के पश्चिम बर्धमान जिले के रानीगंज कोयला क्षेत्र का इतिहास तकरीबन दो सदियों का है। देश में कोयले की उपलब्धता सुनिश्चित करने वाले इस क्षेत्र को इसका पर्यावरणीय खामियाजा भी भुगतना पड़ा है। देश को रोशनी और आर्थिक तरक्की देने के लिए यहां के कोयले के भंडारों का खनन किया जाता रहा। ये कोयला यहां के लोगों के जीवन का भी आधार है। लेकिन यहां की स्थानीय आबादी के घरों और जीवन को आर्थिक तौर पर रोशन नहीं कर सका।

रानीगंज में तकरीबन 25 वर्ष पहले बंद हुई ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (ईसीएल) की एक अंडरग्राउंड कोयले खान की खोखली जमीन पर खड़े आम के बगीचे हरियाली की उम्मीद बहाल कर रहे थे। यहां की धरती में मौजूद कोयला निकालने के बाद कंपनी ने ये बगीचा तैयार किया। बगीचे के ठीक बगल में छोडी हुई जमीन पर ग्रामीणों ने सरसों की खेती की थी। फरवरी में खिले सरसों के पीले फूलों पर उड़ती तितलियां जैव-विविधता को समृद्ध बना रही थीं।

आम के बगीचे से थोड़ा पहले एक बड़े गड्ढे में काले-मटमैले पानी के तालाब के किनारे कुछ ग्रामीण मौजूद थे। पानी की रंगत बता रही थी कि ये इस्तेमाल योग्य नहीं है लेकिन ग्रामीण कपडे धोने और नहाने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे थे। थोडा आगे एक और तालाब के किनारे ग्रामीण महिलाएं छोटे बच्चों के साथ बैठी हुई थीं।

रानीगंज में ईसीएल के सीनियर मैनेजर कौशिक कुमार खान से ये पूछने पर कि खनन की जमीन पर बने तालाब की सफाई क्या कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी के तहत की गई? खान सीएसआर के तहत किए जाने वाले कार्यों की लंबी सूची की बात करते हैं लेकिन इस तालाब के पानी की सफाई उसमें शामिल नहीं है। वह नाराजगी के साथ कहते हैं कि ग्रामीणों को यहां आने के लिए मना किया जाता है लेकिन वे फिर भी यहां चले आते हैं। 

कोयले की बंद खदान की जमीन पर बिना अनुमति लिए की गई खेती, आम के बगीचे, तालाब और उसके पानी का इस्तेमाल कर रहे ग्रामीण, ये जगह ये सवाल पूछने के लिए बिलकुल सटीक है कि क्या “जस्ट ट्रांजिशन” में कोयला खदानों की जमीन का इस्तेमाल स्थानीय समुदाय के हितों के लिए किया जा सकता है? क्या “जस्ट ट्रांजिशन” की प्रक्रिया में कोयले से जुडी जमीन का उपयोग रोजगार से जुडे अवसर पैदा करने के लिए किए जा सकते हैं? इसके लिए नीतिगत हस्तक्षेप जरूरी होगा।

रानीगंज कोयला क्षेत्र में कोयले की खदान की जमीन पर प्रदूषित पानी का तालाब

क्या है जस्ट ट्रांजिशन?

प्राकृतिक आपदाओं, चरम मौसमी घटनाओं के रूप में जलवायु परिवर्तन के भयंकर नतीजे झेल रही धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला) का उत्पादन और इस्तेमाल  तेजी से कम करने की जरूरत है। इसके लिए कॉप-26 में भारत ने गैर-जीवाश्म और नवीकरणीय ऊर्जा आधारित अर्थव्यवस्था की ओर आगे बढ़ने का लक्ष्य रखा है।

कोयला आधारित अर्थव्यवस्था से हरित अर्थव्यवस्था की ओर बदलाव आसान नहीं होगा। चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बडा कोयला इस्तेमाल करने वाला देश है। जबकि चीन और अमेरिका के बाद तीसरा सबसे बड़ा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जक देश।

हरित अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत को वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड समेत ग्रीन हाउस गैसों की तीव्रता को कम करना होगा। इसके लिए पुराने और प्रदूषण फैलाने वाले कोल थर्मल पावर प्लांट को धीरे-धीरे बंद करना होगा।

कोयला इंडस्ट्री सिर्फ ऊर्जा की मांग को ही पूरा नहीं करती बल्कि लाखों लोगों को रोजगार भी देती है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक 1.3 करोड़ लोगों की आजीविका कोयले पर निर्भर करती है। नेट जीरो (शून्य कार्बन उत्सर्जन) का लक्ष्य हासिल करने के लिए कोयले की खदानें बंद होने का असर इन पर निर्भर रहने वाले लोगों की आजीविका पर भी पडेगा। कोयला क्षेत्र अन्य उद्यमों के साथ-साथ स्थानीय समुदाय से भी जुडा है। जस्ट ट्रांजिशन का उद्देश्य ये सुनिश्चित करना है कि कोयला आधारित उद्योग को बंद करने की ये प्रक्रिया सभी क्षेत्र और समुदाय के लिए न्यायपूर्ण हो। कोयला क्षेत्र में रहने वाले समुदाय की आजीविका, स्वास्थ्य, बुनियादी और सामाजिक ढांचा जैसे क्षेत्रों को मजबूत किया जाए।

रानीगंज कोयला क्षेत्र के बाजार की तस्वीर।

क्या कोयले की खान की जमीन का स्थानीय समुदाय कर सकता है इस्तेमाल

जस्ट ट्रांजिशन की एक अहम कडी कोयला क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनों को नया उद्देश्य देना भी है। जमीन यहां एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। नीति आयोग ने जस्ट ट्रांजिशन से जुड़ी अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि कोयला खनन, खासतौर पर खुले खनन के चलते बडे-बडे गढ्ढों से लेकर खोखली जमीन की स्थिति बन गई है। वनों और जैव विविधता को नुकसान पहुंचा है। जस्ट ट्रांजिशन के तहत कोयला खदानें बंद करने की प्रक्रिया में स्थानीय पर्यावरण में सुधार लाना भी बेहद जरूरी है।

आईआईटी कानपुर में जस्ट ट्रांजिशन रिसर्च सेंटर में प्रोफेसर प्रदीप स्वर्णकार कहते हैं “कोयला खदानों की भू-संपत्ति पर कंपनी का अधिकार है। क्षेत्र और पर्यावरण की बहाली के लिए कोयला कंपनी सीएसआर फंड से कार्य करती है। लेकिन मानवीय दृष्टिकोण से बहुत ज्यादा निवेश नहीं किया गया। स्थानीय समुदाय को उनकी जमीन से जोड़ने का विचार अच्छा है। हरित ऊर्जा की संभावनाओं को देखते हुए भी कोयला क्षेत्र की जमीन का इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके लिए स्थानीय समुदाय को ध्यान में रखते हुए लैंड रियूज यानी जमीन के दोबारा इस्तेमाल से जुड़ी नीति बनाने की जरूरत होगी”।

कोयला क्षेत्र की जमीन स्थानीय लोगों और कोयला कंपनी के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी भी है। रानीगंज में कुनुस्तोरिया कोयला खदान में काम करने वाले छोटेलाल राजभर बताते हैं “यहां बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने कोयले की खदान के लिए अपनी जमीनें कंपनी को दी है। कंपनी जहां कोयले की खदान खोलने के बारे में विचार करती है, लोग अपनी जमीन देने को तैयार हो जाते हैं ताकि बदले में उन्हें नौकरी मिल सके। ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने पैसे देकर कोयला क्षेत्र में जमीन खरीदी है ताकि कंपनी जब भी जमीन का अधिग्रहण करेगी उन्हें नौकरी मिल जाएगी”।

तकरीबन 25 वर्ष पहले बंद हुए तापसी कोयला खदान से लगे तापसी गांव के लोगों का जीवन अब भी कोयले से जुड़ा है।

बंद कोयले की खदान के बाद छूटे लोग

रानीगंज में 25 वर्ष पहले बंद हुई तापसी कोयला खदान से लगी तापसी बस्ती में अधिकांश निम्न आय वर्ग के लोग रहते हैं। यहां के अधिकांश लोग कोयले से आजीविका की बात स्वीकार नहीं करते लेकिन कोयला घर-घर में मौजूद है। महिलाएं कोयले की राख से खाना पकाने के लिए ईंधन तैयार करती मिलीं। ज्यादातर लोगों ने मिस्त्री का काम,  मजदूरी करने या अन्य कोयला खदान में काम करने की बात कही। इस बस्ती की स्थिति दर्शाती है कि यदि कोयले की खदानें बंद हुई और “जस्ट ट्रांजिशन” यानी समुदाय को आजीविका के अन्य साधन से नहीं जोडा गया बल्कि एक बड़ी आबादी को उनके अपने हाल पर छोड़ दिया गया। क्या इस बस्ती के लोगों को आजीविका के लिए बंद खदान की जमीन से जोड़ा जा सकता था?

रानीगंज कोयला क्षेत्र में ईसीएल कोयला कंपनी की कोयले की खदान

जस्ट ट्रांजिशन और कोयला क्षेत्र की जमीन

इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरमेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नॉलजी (आई फॉरेस्ट) के एक अध्ययन के मुताबिक कोयला खनन और थर्मल पावर प्लांट से जुड़ी कंपनियों के पास 24,364 हेक्टेअर से अधिक जमीन है।

देश के कोयला भंडार की 80 प्रतिशत जमीन जनजातीय इलाकों में हैं। इनमें ज्यादातर संविधान की पांचवी अनुसूची के तहत आते हैं। इन पर पेसा और वन अधिकार अधिनियम दोनों लागू होते हैं। यानी ग्राम सभा की सहमति के बिना यहां भूमि अधिग्रहित नहीं की जा सकती।

इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस में ऊर्जा विश्लेषक (Energy Analyst) स्वाति डिसूजा कहती हैं कि कोयला खदानों की जमीन का इस्तेमाल उत्पादक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। इसके लिए इससे जुड़े पक्षों और निजी क्षेत्र के निवेशकों की खातिर प्रोत्साहन योजना लानी होगी। ऐसे उद्यमों की सूची बनानी होगी, जिन्हें वहां शुरू किया जा सके और लोगों को रोजगार दिया जा सके। अगर वहां नौकरियां होंगी, आजीविका का जरिया होगा तो लोग इन जमीनों से जुडेंगे।

स्वाति का सुझाव है कि कोयले की धरती पर हरित अर्थव्यवस्था से जुड़े उद्योग जैसे सौर ऊर्जा या उससे जुडी इंडस्ट्री शुरू करने पर विचार किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए कोयला धारक क्षेत्र (अधिग्रहण और विकास) अधिनियम, 1957 (Coal Bearing Areas (Acquisition and Development) Act, 1957) में बदलाव लाना होगा। अभी कोयला खदान की जमीन का मालिकाना हक कोल इंडिया लिमिटेड के पास है। जो उसे भारत सरकार से 99 वर्षों की लीज पर मिली है।

हालांकि वर्ष 2021 में लोकसभा में इस कानून में संशोधन के लिए दिए गए प्रस्ताव में कोयला खत्म होने या जमीन के आर्थिक तौर पर व्यवहारिक न होने पर इसका इस्तेमाल अन्य सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।

वहीं मीडिया को दी गई एक प्रतिक्रिया में आई-फॉरेस्ट की जस्ट ट्रांजिशन डायरेक्टर श्रेष्ठा बैनर्जी कहती हैं कोयला खनन के लिए इस्तेमाल की गई जमीन का इस्तेमाल जस्ट ट्रांजिशन के दौरान आर्थिक विविधता के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है। इसका इस्तेमाल अक्षय ऊर्जा, हॉर्टीकल्चर, मत्स्य पालन या पर्यटन से जुडे कार्यों के लिए किया जा सकता है। इसके लिए हमें व्यापक भूमि प्रबंधन और पुनर्उद्देश्यीय योजना (repurposing plan) की जरूरत है जो पर्यावरण के साथ-साथ स्थानीय समुदाय की चिंता को दूर करे।

(वर्षा सिंह देहरादून स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

(यह स्टोरी अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के कोलकाता में आयोजित नेट जीरो वर्कशॉप के तहत लिखी गयी है।)

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