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भारत और मुसलमानों के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का महत्व
100 वर्षों के बाद भी, एएमयू में पढ़ाए जाने वाले कोर्स से परे भी उसका एक महत्व है क्योंकि यह उन तरक़्क़ियों का प्रतीक है जिनके लिए मुसलमान अभी भी संघर्ष करते हैं।
सैयद उबैदुर्रहमान
16 Dec 2020
Translated by महेश कुमार
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय

हाल ही में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) ने केंद्रीय विश्वविद्यालय के रूप में अपने सौ साल पूरे कर लिए हैं। मूल रूप से इसे सर सैयद अहमद खान ने सन 1875 में मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के रूप में स्थापित किया था, फिर 1920 में संसद के एक अधिनियम के द्वारा इसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना दिया गया था। 

जबकि इस वर्ष के समारोहों को ज्यादातर एएमयू द्वारा शुरू किए गए टाइम कैप्सूल की खबरों के साथ चिह्नित किया गया है, जिस बात का उल्लेख नहीं किया गया वह यह कि आज भी ये विश्वविद्यालय भारत में मुस्लिम हितों के लिए किस कद्र महत्वपूर्ण है। मुस्लिम मानस पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ा है, मुख्यतः पूरी एक सदी से मुस्लिम राजनीति और शिक्षा में इसका अभूतपूर्व योगदान रहा है। 

विश्वविद्यालय एक भावनात्मक मुद्दा भी है, विशेष रूप से पिछले कुछ दशकों से यह एक प्रबल मुद्दा भी बना है। मुसलमानों को एएमयू के अलावा किसी अन्य संस्था के साथ नहीं जोड़ा जाता है, यहां तक कि दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया को भी नहीं, जिसे महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन के दौरान सरकार द्वारा वित्त पोषित संस्थानों के बहिष्कार के आह्वान के बाद स्थापित किया गया था। एएमयू केवल सरकार द्वारा आंशिक रूप से वित्त पोषित था, फिर भी, स्वतंत्रता आंदोलन का इस पर काफी असर था, इसलिए सैकड़ों छात्रों ने इसे छोड़ दिया और जामिया को अलीगढ़ की एक शानदार इमारत से लॉन्च किया गया था। सनद रहे कि एएमयू को 1857 के विद्रोह के आठ साल बाद स्थापित किया गया था। इसके विचित्र या बहुरंगी इतिहास पर कुछ प्रकाश डालना चाहिए कि क्यों, जब भी इसके अल्पसंख्यक चरित्र को बहस का मुद्दा बनाया जाता है तो मुस्लिम हमेशा एएमयू के साथ खड़े होते हैं।

आज एक उच्च स्तर के शैक्षिक संस्थान के रूप में, एएमयू देश भर के छात्रों को अपनी तरफ आकर्षित करता है; न सिर्फ मुस्लिम स्कॉलर बल्कि हर समुदाय के छात्र इससे आकर्षित होते हैं। इंडिया टुडे पत्रिका द्वारा किए गए एक हालिया सर्वेक्षण ने इसे तीसरे सर्वश्रेष्ठ भारतीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिया है। एएमयू पारंपरिक और आधुनिक अध्ययन में 300 से अधिक पाठ्यक्रम प्रदान करता है, और संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत आने से यह एक राष्ट्रीय महत्व का संस्थान बन गया है। यह उस समय की इसकी विनम्र शुरुआत से बहुत दूर की बात है जब आजादी की पहली लड़ाई के बाद बड़े पैमाने पर हुए विनाश के बाद मुस्लिम और राष्ट्र दोनों ही नुकसान की भावना से पीड़ित थे। सैयद के इतने प्रतिबद्ध समर्थक थे कि जब वे सरकारी नौकरी छोड़कर अलीगढ़ पहुंचे, तो नवाब, समीउल्लाह खान ने उनके स्वागत में एक स्कूल की स्थापना की।

18 वीं शताब्दी के अंत में, भारतीय मुस्लिम समाज ने जड़ता और पतन का एक दुखद तमाशा देखा। विद्रोह के धुंधलके में, उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों में मुस्लिम समुदाय को राजनीतिक और आर्थिक रूप से बर्बादी का सामना करना पड़ा था। बंगाल और लखनऊ से लेकर मैसूर और मद्रास तक, सत्ता से सत्ताविहीनता की ओर बढ़ने के असभ्य झटके ने मुस्लिम समाज को ऐसी उलझन भरे ताने-बाने में छोड़ दिया था, जो वर्तमान और भविष्य के भय को समझने में असमर्थ था। अज्ञात कारण से अचानक हुई गिरावट को सहन करना कठिन था, जिसने मुसलमानों में व्याप्त अज्ञानता, रूढ़िवाद और परंपरावाद को और अधिक बढ़ा दिया और बदतर बना दिया था। आधुनिक शिक्षा की कमी ने उनकी पहचान की नींव को और अधिक कमजोर कर दिया था और मुस्लिम समाज को पतन के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया था।

इस संदर्भ में, अलीगढ़ आंदोलन, जिसने भारतीय मुसलमानों के लिए आधुनिक शिक्षा को आगे बढ़ाया, वह किसी क्रांतिकारी साहस से कम का काम नहीं था। सैयद ने एक आधुनिक शैक्षणिक संस्थान की शुरुआत की जिसमें इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों से बड़ी संख्या में शिक्षकों को नियुक्त किया गया था, वे इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों से बहुत प्रभावित थे, क्योंकि वे भारत में मुसलमानों द्वारा प्रबंधित एक संस्था को चलाने का सपना देखते थे।

एएमयू ने पूर्व और पश्चिम के सर्वश्रेष्ठ संगम की पेशकश की। मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली, मुहसिन अल-मुल्क और अल्लामा शिबली नुमानी जैसे शीर्ष इस्लामिक विद्वानों और ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज के विद्वानों जैसे कि टी बेक, मॉरिसन और अर्नोल्ड ने यहां के छात्रों को पढ़ाया, और ये सब एएमयू के परिसर में ही रहते थे। विश्वविद्यालय ने एक ऐसा माहौल बनाया जो न केवल भारत में बल्कि तथाकथित मुस्लिम दुनिया में अद्वितीय था या देखने लायक था।

सैयद के करीबी लोगों में से कई इंग्लैंड से इस नवजात कॉलेज के लिए शिक्षकों को आयात करने की जरूरत के बारे में बहुत आश्वस्त नहीं थे, क्योंकि कॉलेज पहले से ही धन की कमी से जूझ रहा था। ऐसे विश्वस्तरीय कॉलेज को चलाने के लिए धन जुटाना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। अल्ताफ हुसैन हाली ने सैयद पर लिखी अपनी जीवनी, “हयात-ए-जावेद” में लिखा है कि दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ उनके संबंध उस कॉलेज के प्रति उनके समर्थन पर आधारित थे जिस की वे योजना बना रहे थे। अगर कोई दोस्त या रिश्तेदार मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज को फंड नहीं देता तो उनसे उनका कोई रिश्ता नहीं होता फिर चाहे वह कितना भी करीबी क्यों न हो।

जब सैयद फंड मांगने हैदराबाद गए तो एक उच्च पद पर बैठे निज़ाम के अधिकारी ने उनके और अन्य गणमान्य लोगों के लिए एक गार्डन पार्टी की पेशकश की। सैयद ने उसे उस धन को कॉलेज के लिए दान करने को कहा जिसे वह पार्टी पर खर्च करना चाह रहे थे। अधिकारी ने कहा कि वह पार्टी का आयोजन भी करेंगे और कॉलेज को दान भी देंगे। प्रतिबद्ध सैयद ने जवाब दिया कि अधिकारी को उस पैसे को भी दान में जोड़ देना चाहिए जिसे उन्हौने पार्टी पर खर्च करने की योजना बनाई थी। आधिकारिक तौर पर उन्हें उस समय की एक राजसी राशि 1,000 रुपए दान की गई थी। 

एएमयू मुस्लिम परियोजना होने के बावजूद इसे सैयद अहमद खान ने अकेले हाथों बनाया था,  लेकिन पहले दिन से ही इसे सभी के लिए खोल दिया गया था। एएमयू के पूर्व छात्रों में से एक राजा महेंद्र प्रताप सिंह थे, जो काबुल में निर्वासित भारत की पहली अस्थायी सरकार के राष्ट्रपति बने थे। उन्होंने और कई अन्य हिंदू राजाओं ने मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के निर्माण के लिए भूमि और विशाल रकम दान में दी थी। उदाहरण के लिए, दरभंगा के महाराजा, एक प्रमुख परोपकारी व्यक्ति थे, जिन्होंने इस नव-स्थापित संस्थान के लिए भारी धनराशि दान की थी। वास्तव में, एएमयू के कुछ सबसे बड़े दानदाताओं में हिंदू राजा और नवाब थे। इसमें बनारस के राजा शंभु नारायण से 60,000 रुपये और पटियाला के महाधर सिंह महादार बहादुर से 5,00,000 रुपये का राजसी दान मिला था। इस अर्थ में देखा जाए तो हिंदू और मुस्लिम दोनों ने शुरू से ही एएमयू के निर्माण और पोषण में योगदान दिया है। 

एएमयू और इसके अल्पसंख्यक चरित्र को लेकर बेकार का विवाद पैदा करने के प्रयास के बावजूद एएमयू में इतिहास के प्रोफेसर अली नदीम रिजवी जो खुद यहाँ से पढे हैं, कहते हैं, “मुझे लगता है कि एएमयू एक मिश्रित उपलब्धियां का केंद्र है। हां, कुछ खास पहलुओं में इसने वो हासिल किया जो इसे हासिल करना था, जिसमें शिक्षा का प्रसार किया, लेकिन हमें यह भी पहचानना होगा कि हम कहां पिछड़ गए हैं, या हम इसमें कहां सुधार नहीं कर सके। 

हालांकि एएमयू ने बड़ी संख्या में मुसलमानों के उत्थान में मदद की है, फिर भी समुदाय का पिछड़ापन इतनी अधिक है कि तरक्की एक निराशाजनक काम लगता है! संक्षेप में कहा जाए तो किसी भी समुदाय के उत्थान के लिए हरक्यूलिस काम किसी एक अकेली संस्था से परे की बात है। रिजवी कहते हैं, "हमने कुछ तो किया-हालाँकि अभी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है।"

रिज़वी ने आगे कहा कि इस बात से कोई इंकार नहीं कि सफलताओं के साथ-साथ आज एएमयू के असंख्य दुश्मन भी हैं। उन्होंने कहा, "आगे बढ़ने के लिए, हमें पहले दुश्मन से निपटना होगा।" उनका कहने का मतलब यह है कि जो लोग राजनीतिक संरक्षण और सत्ता की हांकते हैं, "जो बाहर बैठे हैं, वे एएमयू के असफल होने की कामना करते हैं"। “हर शिक्षक को एक शिक्षक और हर एक छात्र को ज्ञान हासिल करने वाला होना चाहिए! यदि हम सांप्रदायिक, संकुचित और इसके दर्जे संबंधी चिंताओं के बजाय, केवल ज्ञान हासिल करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो हम अपने झंडे के साथ और सौ साल तक आगे जाने में सक्षम हो सकते हैं, ”रिजवी कहते हैं।

इसलिए यह आश्चर्य की बात है कि एएमयू के छात्रों को खलनायक बना कर पेश किया जाता है जो आज तक किसी के साथ नहीं किया गया। जब एएमयू छात्रों ने सीएए आंदोलन का समर्थन किया, तो उनके विरोध को राज्य प्रशासन ने क्रूरता से दबा दिया था और वास्तव में बहुत कम लोग उनके समर्थन में सामने आए थे। एक अकेले बेहतरीन शिक्षण संस्थान के छात्रों को इस तरह से अपमानित करना बहुत दुखी करने वाला दृश्य था।

एएमयू की महान उपलब्धियों के बावजूद, यह एक दुखद सच्चाई है कि मुसलमान इसके  संस्थापकों की उम्मीदों पर खारा उतरने में नाकाम रहे हैं। इस तरह की और संस्थाएँ बनाने के बजाय, समुदाय के नेता सर सैयद की प्रशंसा और उनके द्वारा बनाई उस संस्था की रक्षा करने की कोशिश में लगे हैं जिसे उन्होंने 145 साल पहले बनाया था। एएमयू के दृष्टिकोण पर आधारित अन्य नए संस्थान बनाने से समुदाय और देश को अधिक लाभ मिलता। शायद मुसलमान बहुत लंबे समय से टाइम वार्प में फंसे थे, और मदरसों में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किए हुए थे और जैसे कि वे कुछ दशक पहले ही जागे हो और खुद को एक ऐसी जमीन पर पाया जहां उसे बदले हुए समाज में जद्दोजहद करने की जरूरत पड रही है। अब मुसलमान अपनी जड़ता से उभर रहे हैं और आधुनिक शिक्षा पर फिर से ध्यान केंद्रित करने की कोशिश कर रहे हैं- और उम्मीद है शायद अभी बहुत देर नहीं हुई है।

लेखक एक कॉलमिस्ट हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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