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भारत में संघर्ष और प्रतिरोध के लिए तीस्ता के मामले के क्या मायने हैं?

यह नागरिक समाज और विपक्षी संगठनों को हिंदुत्ववादी ताक़तों को पीछे धकेलने के लिए हाथ मिलाने और लोकतांत्रिक आंदोलनों को शुरू करने का आह्वान करता है।
Teesta Setalvad

सुप्रीम कोर्ट प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सेतलवाड़ की अंतरिम ज़मानत की अर्ज़ी पर सुनवाई कर रहा है। गुजरात पुलिस ने 2002 के गुजरात दंगा पीड़ित ज़किया जाफरी के मामले में सुप्रीम कोर्ट की परोक्ष लेकिन आलोचनात्मक टिप्पणियों के एक दिन बाद 25 जून को उन्हें गिरफ़्तार किया था। "प्रक्रिया के दुरुपयोग... क़ानून के ख़िलाफ़ प्रक्रिया करने के मामले में" शामिल होने का इन पर आरोप है। तीस्ता के ख़िलाफ़ पुलिस का मुख्य आरोप यह है कि उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित शक्तिशाली लोगों को दंगों से संबंधित जांच में फंसाने की साजिश रची थी।

आने वाले फैसले का पूर्व-निर्धारण करना असंभव है, लेकिन तीस्ता के ख़िलाफ़ मामला जिस तरह आगे बढ़ रहा है ऐसे में भारत में विरोध की संस्कृति के लिए सबसे ज़्यादा प्रासंगिक है।

गुजरात उच्च न्यायालय के वकील और कार्यकर्ता आनंद याज्ञनिक कहते हैं, “ज़किया या तीस्ता ने क्या ग़लत किया? उन्होंने 2012 से सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन किया है।” वे आगे कहते हैं, “अदालत ने कहा कि ज़किया दंगों की जांच कर रहे विशेष जांच दल (एसआईटी) की क्लोजर रिपोर्ट से असहमत होने पर उसके ख़िलाफ़ याचिका दायर कर सकती हैं। इसमें ग़लत उद्देश्य कहां है? सर्वोच्च न्यायालय ने 2002 के दंगों के मामलों को जारी रखा और न्याय मित्र नियुक्त किया जिसकी तीस्ता ने सहायता की।”

याज्ञनिक कहते हैं, “क्या कोई मुझे एसआईटी रिपोर्ट में तीस्ता की ओर से किसी गुप्त मक़सद का समर्थन करने वाला सबूत दिखा सकता है? दरअसल, राजनीतिक व्यवस्था अलोकतांत्रिक है और वह विच-हंटिंग की शिकार है।”

साल 2012 में, सुप्रीम कोर्ट ने ज़किया को निर्देश दिया कि अगर वह 2002 के दंगों के पीछे एक बड़ी साजिश के आरोपों की जांच के लिए नियुक्त एसआईटी के निष्कर्षों से असहमत हैं तो वह इसके ख़िलाफ़ याचिका दायर कर सकती हैं। एसआईटी की रिपोर्ट में मोदी और वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों सहित अन्य 63 लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने योग्य कोई सबूत नहीं मिला था। ज़किया ने 2013 में गुजरात की एक मेट्रोपोलिटन कोर्ट में इस तरह की याचिका दायर की थी। अदालत ने इसे ख़ारिज कर दिया और एसआईटी के रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया जिसने एसआईटी की ही रिपोर्ट को स्वीकार किया। साल 2018 में उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया और इस मामले की अंतिम सुनवाई 24 जून को हुई थी।

जो लोग तीस्ता के लिए न्याय की मांग कर रहे हैं वे भी उनके ख़िलाफ़ इस मामले को नागरिक समाज और विपक्षी राजनीतिक दलों के हाथ मिलाने के संकेत के रूप में देखते हैं या सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) गिरफ़्तारी कराती रहेगी। मानवाधिकार कार्यकर्ता रवि नायर कहते हैं, “पिछली सरकारें ख़ासकर आपातकाल के दौरान दमनकारी थीं। नागरिक समाज ही एकमात्र स्थान है जो अभी भी राज्य की धारणाओं के लिए वैकल्पिक विचारों का प्रस्ताव कर रहा है और इसलिए उस पर हमले हो रहे है।" ॉ

इस साल की शुरुआत में मेधा पाटकर पर धन के दुरुपयोग का आरोप लगाया गया था और पिछले साल स्टेन स्वामी की जेल में मृत्यु हो गई थी। वे कहते हैं, ''ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए पार्टियों को मतभेदों को छोड़कर एक-दूसरे के साथ और नागरिक समाज से साथ हाथ मिलाना चाहिए।''

फ़िल्म निर्माता अविनाश दास और ऑल्टन्यूज़ के सह-संस्थापक मोहम्मद ज़ुबैर की हाल ही में हुई दो अलग-अलग गिरफ़्तारी को लोगों को याद रखना चाहिए। इन दोनों को उनके ट्वीट के लिए गिरफ़्तार किया गया था। दिल्ली पुलिस ने तीस्ता की गिरफ़्तारी के दो दिन बाद 27 जून को ज़ुबैर को गिरफ़्तार किया था और 23 दिनों के बाद अदालत ने उन्हें ज़मानत दी। 20 जुलाई को गिरफ़्तार हुए दास को अगले दिन अहमदाबाद की एक अदालत से ज़मानत मिल गई। लेकिन गुरुवार को तीस्ता को गिरफ़्तार हुए 69 दिन हो गए है।

कवि और सामाजिक कार्यकर्ता शमसुल इस्लाम के मामले में लोगों ने महसूस किया है कि न्याय और सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ाई "प्रतीकात्मक विरोध और प्रदर्शनों के माध्यम से" नहीं जीती जा सकती। वह याद करते हैं कि पिछले साल भारत ने देखा कि पंजाब के शक्तिशाली किसान यूनियनों ने बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाया जिसने केंद्र को अपने तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों को रद्द करने के लिए मजबूर किया। लेकिन जब कृषि आंदोलन सफल हुआ तो तीस्ता की गिरफ़्तारी पर बमुश्किल ही कोई आक्रोश था।

क्या तीस्ता मुश्किल में हैं क्योंकि उनका काम न केवल हिंदुत्व को बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी चुनौती देता है? आख़िरकार, उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के पीड़ितों को न्याय दिलाने में मदद की और हिंदुत्व भाजपा की विचारधारा है जिसने 2014 से केंद्र में और 2002 से गुजरात में शासन किया है। पंजाब में एएफ़डीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) के राज्य सचिव परमिंदर सिंह कहते हैं, "वास्तव में, सांप्रदायिकता एक अलग तरह का जीव है।" वे आगे कहते हैं, “लेकिन एक बार जब कोई जन आंदोलन होता है तो राज्य के लिए उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करना मुश्किल हो जाता है। और जब पुलिस जानती है कि लोग किसी चीज का समर्थन कर रहे हैं तो उसके लिए इसे दबाना मुश्किल हो जाता है।”

पंजाब के किसानों का आंदोलन भी रातों-रात शुरू नहीं हुआ था। इसे उस मुकाम तक पहुंचने में दशकों लग गए जहां पंजाब के किसानों और युवाओं के बीच इसका लोकतांत्रिक और सांप्रदायिक विरोधी दृष्टिकोण अपवाद के बजाय आदर्श बन गया। नतीजा यह हुआ कि पत्रकार राना अय्यूब की किताब गुजरात फाइल्स तुरंत पंजाबी भाषा में उपलब्ध हो गई और इसको व्यापक पाठक वर्ग मिला। यह ये भी बताता है कि क्यों साल 2020 के आख़िर में सभी धर्मों के क़रीब 80,000 लोगों ने सीएए, एनआरसी और एनपीआर के ख़िलाफ़ पंजाब के एकमात्र मुस्लिम-बहुल ज़िले मलेरकोटला में विरोध प्रदर्शन किया। पंजाब के लोगों ने भी शाहीन बाग विरोध प्रदर्शन में भाग लिया। सिंह कहते हैं, "इस तरह के विरोध प्रदर्शन को दोहराया जाना चाहिए और विभिन्न संगठनों और लोगों को तीस्ता और अन्य लोगों के लिए आगे आना चाहिए।"

हाल ही में व्यापक लोकतांत्रिक आंदोलनों को महत्व को फिर से लोगों ने उस समय महसूस किया जब अचानक केंद्र की अग्निपथ योजना ने सैन्य सेवा के लिए भर्तियों की सीमा चार साल तक करी दी। लोकतांत्रिक नेतृत्व के बिना जब युवा उम्मीदवारों का विरोध हिंसक हो गया तो केंद्र ने उन्हें आसानी से पीछे धकेल दिया।

प्रोपगैंडा और ध्रुवीकरण की राजनीति भी एकजुटता को कम करती है और यह तीस्ता और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ है जो लोकतांत्रिक अधिकारों में विश्वास करते हैं। उदाहरण के लिए गुजरात में यह फैलाया गया है कि तीस्ता कांग्रेस पार्टी के क़रीबी थीं और उन्होंने 2002 के दंगों के मामलों में मिलकर काम किया। दो महीने से गुजरात पुलिस की इस दलील को तीस्ता की ज़मानत अर्ज़ी के ख़िलाफ़ सेशन कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक दिया गया।

शमसुल ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा, "तीस्ता की समस्या यह है कि वह मुसलमानों के बारे में ही नहीं बल्कि हिंदुओं और मुसलमानों के बारे में बात करती है। इस तरह की एकजुटता मुस्लिम-हिंदू ध्रुवीकरण की राजनीति को ख़त्म कर देगी।” वे आगे कहते हैं,“ वह सक्रिय रूप से असम में अल्पसंख्यकों के मामलों से जुड़ी हुई थी। उन्होंने मुस्लिम कट्टरवाद से उतना ही संघर्ष किया, जितना कि हिंदू कट्टरवाद से। सरकार उन्हें ये काम करने से रोकना चाहती है।”

सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हमेशा चेतावनी दी है कि मतदान राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण है लेकिन यह राज्य की तटस्थता या जनता की मांगों के प्रति जवाबदेही की गारंटी नहीं देता है। मुकुल सिन्हा जिनकी 2014 में मृत्यु हो गई उन्होंने अहमदाबाद में मुस्लिम-बहुल शाहपुर से चुनाव लड़ा लेकिन शायद ही उन्हें एक भी वोट मिला हो। हालांकि उन्होंने अपना जीवन अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए लड़ते हुए बिता दिया। मणिपुर की इरोम शर्मिला ने सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम के ख़िलाफ़ 16 साल की भूख हड़ताल की लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्हें सिर्फ 90 वोट मिले।

यही कारण है कि पूरे भारत में लोकतांत्रिक विचारधारा वाले लोग हिंदुत्व के हमले के ख़िलाफ़ संगठित हों और लोगों की जायज़ मांगों को उठाएं। अब सभी की निगाहें सुप्रीम कोर्ट में तीस्ता की ज़मानत की सुनवाई पर हैं कि उनके ख़िलाफ़ आरोपों की जांच में क्या नया मोड़ आता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

What Case Against Teesta Setalvad Means for Protest in India

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