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स्मृति शेष: रोहित वेमूला की “संस्थागत हत्या” के 6 वर्ष बाद क्या कुछ बदला है

दलित उत्पीड़न की घटनायें हमारे सामान्य जीवन में इतनी सामान्य हो गयी हैं कि हम और हमारी सामूहिक चेतना इसकी आदी हो चुकी है। लेकिन इन्हीं के दरमियान बीच-बीच में बज़ाहिर कुछ सामान्य सी घटनाओं के प्रतिरोध में इतनी असामान्य परिस्तिथियां इस प्रकार जन्म लेती हैं, कि उन्हें समाजिक परिवर्तन के अध्याय में मील के पत्थर की तरह जोड़ा जा सकता है या वो स्वाभाविक रूप से जुड़ती चली जाती हैं।
Rohit vemula

मुझे विज्ञान से प्यार था, सितारों से प्यार था, प्रकृति से प्यार था, लेकिन मैंने लोगों से प्यार किया और ये नहीं जान पाया कि वो कब के प्रकृति को तलाक़ दे चुके हैं। ये शब्द सितारों की छावं से एक होनहार शोधार्थी रोहित वेमूला के हैं, जो कार्ल सगान की तरह विज्ञान पर लिखने वाला एक लेखक बनना चाहते थे, लेकिन भारत के सदियों से स्थापित सांस्कृतिक आतंकवाद ने उन्हें इसकी इजाज़त नही दी।

हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हैं और हमारा प्रेम बनावटी है, हमारी मान्यताएं झूठी हैं। हमारी मौलिकता वैध है, बस कृत्रिम कला के ज़रिए। यह बेहद कठिन हो गया है कि हम प्रेम करें और दुखी न हों और ये सब कुछ मैं नहीं कह रहा हूँ, बल्कि हैदराबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के उस होनहार रिसर्च स्कॉलर शहीद रोहित वेमूला ने लिखे हैं। 

रोहित वेमूला हैदराबाद युनिवर्सिटी में अंबेडकर स्टूडेंट्स असोसिएशन के सदस्य थे और कैम्पस के अंदर अपने जैसे सदियों से बहिष्कृत उत्पीड़ित समुदाय और पेशवाई सामंती व्यवस्था के दमन और सांस्कृतिक आतंकवाद के विरुद्ध न्याय के संघर्षशील प्रहरी के तौर पर जाने जाते थे। कहा जाता है कि मुजफ्फरनगर दंगों की वास्तविकता पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म *मुजफ्फरनगर बाक़ी है* के कैम्पस में प्रदर्शन को लेकर सत्तारूढ़ दल के छात्र संगठन के एक कथित छात्र नेता से इसी अहिंसक संघर्ष के दौरान उनकी मारपीट हुई थी और सत्ता के अहंकार में चूर उस कथित नेता के राजनैतिक संरक्षणकर्ताओं के द्वारा रोहित वेमूला और उनके साथियों को कथित सबक़ सिखाने का निर्णय लिया गया था। सबक़ सिखाने जैसा शब्द मैं यहां इसलिए प्रयोग कर रहा हूँ क्योंकि घटना के कुछ दिनों के बाद सत्तारूढ़ दल के उस छात्र संगठन से तत्कालीन जुड़े रहे एक कार्यकर्ता ने, जो उस पूरे प्रकरण में रोहित वेमूला के ख़िलाफ़ पक्ष के साथ खड़ा था, उसने अपने एक सोशल मीडिया पोस्ट के माध्यम से इसकी स्वीकारोक्ति की थी कि एबीवीपी नेताओं ने रोहित वेमूला को सबक़ सिखाने की बात कही थी। विद्यार्थी परिषद के उसी कथित राष्ट्रवादी नेता के कहने पर आरएसएस नेता सह स्थानीय सांसद और श्रम मंत्री बंडारु दत्तात्रेय ने तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिख कर रोहित वेमूला और उनके साथियों के ख़िलाफ़ करवाई करने की मांग की थी, और स्मृति ईरानी ने विश्विद्यालय कुलपति अप्पाराव को उसे अमल में लाने का निर्देश दिया था। 

सत्ता के निर्देश पर विश्विद्यालय प्रशासन ने अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के नेताओं को हॉस्टल खाली करने का आदेश दिया था। रोहित वेमुला उनमें से ही एक थे। हॉस्टल खाली करके ये छात्र विश्विद्यालय के एक चौराहे पर खुले में रहने लगे जिसे उन्होंने वेलीवाडा (दलित बस्ती) का नाम दिया था। यहीं रहने के दौरान 17 जनवरी 2016 को रोहित वेमुला अपने हॉस्टल के कमरे में गए और कुछ समय बाद वहां उनकी लाश टंगी मिली। रोहित इस क्रूर समाज को अलविदा कह कर तारों की छावं में जा चुके थे।

उस दिन हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक होस्टल में केवल एक लाश नहीं थी, बल्कि इस देश के करोड़ों दलितों बहुजनों मुसलमानों ईसाइयों और धार्मिक समाजिक उत्पीड़ित वर्ग के नौजवानों के लिए एक मार्मिक सन्देश था कि उन्हें बार-बार ये एहसास दिलाया जाता है कि उनका जन्म एक भयंकर हादसा है। ये किसी भी संवेदनशील समाज के माथे पर एक ऐसा कलंक हो सकता है, जो उस समाज को मानवतावादी समाज के दायरे से, बिना किसी किंतु-परन्तु के, बाहर खड़ा कर देता है। 

गौरतलब रहे कि जिस आरोप के तहत रोहित और उनके साथियों दोंता प्रशांत, शेषैया चेमुडुगुंटा, सनकन्ना वेलपुला, विजय कुमार पेदापुडी और रोहित वेमुला को मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) के दबाव में हैदराबाद यूनिवर्सिटी के हॉस्टल से निकाल दिया गया था, उन आरोपों को यूनिवर्सिटी की पहली जांच में  बेबुनियाद पाया गया था, लेकिन सत्ता भय कोतवाल तो डर काहे का की तर्ज़ पर तंन्त्र का इस्तेमाल करते हुए सबकुछ अपने पक्ष में कर लिया गया। देशभर में रोहित वेमूला की सांस्थानिक हत्या के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के स्वर ने तीव्रता इख़्तियार की, तो स्मृति ईरानी का मंत्रालय विभाग बदल दिया गया एवं मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक जांच समिति बनाई गई और समिति ने औपचारिकता मात्र पूरी करते हुए सत्तारूढ़ दल के विधानपरिषद सदस्य रामचंद्र राव, तत्कालीन केंद्र श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय और तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृमि ईरानी को आरोप से मुक्त कर दिया। ये वो लोग थे जिन पर रोहित को आत्महत्या करने के लिए विवश करने के आरोप लगे थे। यही नहीं कथित जांच समिति ने तो यहां तक कह दिया कि रोहित अवसाद में थे और अपनी ग़रीबी से परेशान थे। उनकी आत्महत्या का कारण निजी जीवन था और जन प्रतिनिधि होने के नाते स्मृति ईरानी, बंडारू दत्तात्रेय, कुलपति अप्पाराव सब अपने-अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे थे और इनमें से किसी ने भी विश्वविद्यालय प्रशासन को छात्रों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए किसी तरह से प्रभावित नहीं किया। 

सत्तारूढ़ दल की साइबर आर्मी हमेशा सत्ता के विरोधियों के चरित्रहनन की परम्परा को दोहराते हुए रोहित वेमूला को राष्ट्रविरोधी और ग़द्दार साबित करने में जुट गई और आईटी सेल के वेतनभोगी कर्मचारियों से ये तक प्रचारित करवाया गया कि रोहित वेमूला ने अपने हॉस्टल की मेस का नाम याक़ूब मेमन मेमोरियल हॉल तक रख दिया था। बात यहीं नहीं रुकी, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार महोदय तो रोहित की जाति प्रमाणपत्र तक ढूंढने के काम मे लगा दिए गए।

रोहित वेमूला का क़सूर क्या था। ये बहुत महत्वपूर्ण सवाल है जिसे समझना बहुजन समाज के लिए बहुत आवश्यक है। रोहित का संघर्ष फासीवाद और दक्षिणपंथी विचारधारा के विरुद्ध एक विचारधारात्मक राजनीतिक समाजिक संघर्ष था। वो वैश्विक दृष्टिकोण पर मार्क्स को मानते थे, लेकिन भारत में जातिगत असमानता से मुक्ति का रास्ता उन्हें बाबा साहेब डॉक्टर अंबेडकर के दर्शन में मिलता था और इसी लिए वो एसएफआई को छोड़कर अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन में शामिल हुए थे। उनके नेतृत्व में हैदराबाद यूनिवर्सिटी में 2014 के छात्र संघ चुनाव में अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के पैनल ने जीत हासिल की थी। ये जीत वास्तव में  रोहित जैसे करोड़ों छात्रों के द्वारा भारत के ऐकेडमिक कैम्पसेज़ में सामंती दमनकारी ब्रह्मणवाद को खुली चुनौती थी जिसे सत्ता का अहंकार सहन नहीं कर पाया। 

बिहार अंबेडकर-फुले युवा मंच के नेता अमन रंजन यादव कहते हैं, “आज वर्तमान भारत में भले ही बाबा साहेब का संविधान लागू है, लेकिन अगर इस व्यवस्था के द्वारा रोहित वेमुला जैसे युवा दार्शनिक और लेखक को मौत को गले लगाने के लिए विवश होना पड़ता है, तो हम जैसे बहुजन युवाओं को ये एहसास होता है कि देश संविधान से नहीं, बल्कि व्यवहारिक रूप से मनुस्मृति से चलता है। रोहित वेमुला के बारे में जब-जब सोचता हूं, तो भावुक हो जाता हूं। क्या उनकी मौत को हम यूं ही भुला देंगे। नहीं बिल्कुल नहीं, वह हमेशा जिंदा है हमारे दिलों-दिमाग़ में। जब-जब भारत के बहुजन अपने हक़ और अधिकारों के लिए लड़ेंगे तब-तब रोहित वेमुला को याद किया जाएगा और उनकी यादें ही हमारी ताक़त और नैतिक ऊर्जा के रूप में हमारे बीच एक क्रांति की अलख जगाएगी।”

मुंगेर यूनिवर्सिटी के अधीन बी आर एम कॉलेज के हिंदी के विभागाध्यक्ष एवं जेएनयू के पूर्व रिसर्च स्कॉलर डॉक्टर अभय कुमार कहते हैं, “रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या हुई है,यह भी एक तरह से शिक्षा से वंचित करने का प्रयास था, जैसे एक तरफ एकलव्य की तरह अंगूठा काटा गया, तो दूसरी तरफ़ शम्बूक की तरह उनकी हत्या भी की गई। रोहित वेमूला जैसे विद्रोही की जड़ें बहुजन समाज मे अब और तीव्रता से फैल रही हैं एवं विरोध के स्वर भी  तीव्रगति से गूँजने लगे हैं क्योंकि ब्राह्मणवादी शक्तियां इंसानों को मार सकती हैं, लेकिन विचारों को कतई नहीं। वो जानते हैं कि प्रतिरोध की आवाज़ जितनी अधिक होगी, मनुवाद की ताकत उतनी ही कमजोर पड़ेगी, परन्तु साथ ही साथ आधुनिक बहुजन समाज को सोचना होगा कि रोहित वेमुला की तरह फिर कोई और रोहित वेमुला को जान ना गंवानी पड़े। एक जनांदोलन की ज़रूरत है और इसका दायित्व शिक्षित-सम्पन्न समाज पर सबसे ज़्यादा है। ज़रूरी है कि न्याय के रास्ते खुलें और रोहित जैसे क्रांतिकारी न्याय के उन संघर्ष के प्रतीकचिन्हों के तौर पर समाज में स्थापित किये जाएं।”

ऑल इंडिया रिव्यूलुशनरी फ़ोरम के संयोजक तारिक़ अनवर कहते हैं कि दलितों के अंदर एक व्यापक जागरूकता आ रही है और इसी कारण दलित और गैर-दलित समुदायों के बीच संघर्ष बढ़ रहा है। दलित समाज कॉपी किताब की तरफ़ जा रहा है, जिसकी शिक्षा उसे भीमराव अंबेडकर के उन विचारों से मिल रही है, जिसमें उन्होंने दलितों से शिक्षित होने, एकजुट होने और सम्मानजनक जीवन जीने के लिए संघर्ष करने का संदेश दिया और आज दलितों का प्रतिरोध एक तरह से शोषित वर्ग के लोगों की ओर से मिलने वाली चुनौतियों की शुरुआत भर है। आगे ये प्रतिरोध और इनका स्वरूप और बदलता जाएगा और इतिहासकार लिखेंगे कि मोदी के आक्रामक अंधराष्ट्रवाद ने दलित समाज की सामूहिक चेतना को पुनर्जीवित करने में एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाई थी।

भारत मे सदियों से स्थापित जातिगत असमानता पर आधारित ये सांस्कृतिक आतंकवाद देश के अन्दर आतंक की वह अवधारणा है, जो बिना बम धमाके किये हमारे देश को खोखला कर रही है। देश के समृद्ध विकास,आर्थिक उन्नति, प्रोद्योगिकी सक्षमता,शैक्षिक उन्नयन,उसकी सांस्कृतिक विरासत, जीवन-मूल्यों, मानवतावाद के सकारात्मक विचारों से दूर,भारत के दलितों बहुजनों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के अंदर एक मनोवैज्ञानिक भय का माहौल बनाये रखने वाला ये सांस्कृतिक आतंकवाद जातिगत श्रेष्ठता के कारण अपने जैसे ही किसी आदमी को इंसान मानने से इनकार कर देता है। 

दलित उत्पीड़न की घटनायें हमारे सामान्य जीवन में इतनी सामान्य हो गयी हैं कि हम और हमारी सामूहिक चेतना इसकी आदी हो चुकी है। लेकिन इन्हीं के दरमियान बीच-बीच में बज़ाहिर कुछ सामान्य सी घटनाओं के प्रतिरोध में इतनी असामान्य परिस्तिथियाँ इस प्रकार जन्म लेती हैं कि उन्हें समाजिक परिवर्तन के अध्याय में मील के पत्थर की तरह जोड़ा जा सकता है या वो स्वाभाविक रूप से जुड़ती चली जाती हैं। ऐसा नहीं  है कि रोहित वेमूला की सांस्थानिक हत्या के बाद दलित बहुजन उत्पीड़न की घटनाओं पर रोक लग गयी है, बल्कि पायल तड़वी, डेल्टा मेघवाल से लेकर हाथरस की गुड़िया और झारखंड की मासूम 8 वर्षीय संतोषी जो भूख से बिलख-बिलख कर माँ की गोद में दम तोड़ देती है, तक ये सिलसिला जारी है, परंतु निसंदेह शहीद रोहित वेमूला की मौत के बाद दलित क्रांति को एक नई हवा और दलित उत्पीड़ित वंचित शोषित समाज के पक्ष में राष्ट्रीय प्रतिरोध का एक प्रतीक निश्चित रूप से रोहित वेमूला की वो तस्वीर है, जिसमें वो बाबा साहेब की तस्वीर अपने हाथों में उठाये होस्टल से निकल कर अपने अन्य चार साथियों सहित अस्थायी वेलिवाड़ा (दलित बस्ती) की तरफ़ जाते दिखाई दे रहे हैं। वास्तव में रोहित वेमूला जिस सांस्कृतिक आतंकवाद का शिकार हुए हैं, उसी ख़ूनी विचारधारा ने अख़लाक़ से लेकर गौरी लंकेश तक को मौत की नींद सुलाई है और उसी को चुनौती देने के प्रतिशोध ने सुधा भारद्वाज गौतम नवलखा, वरवर राव, जैसे मानवाधिकार कार्यकताओं को सलाखों के पीछे क़ैद करने की कोशिश की है। लेकिन इस ख़ूनी विचारधारा और राष्ट्रवादी दहशत की जीत की नींव में  भारत के शिक्षित समुदाय के आत्मसमर्पण का बहुत बड़ा हाथ है।

व्यक्त विचार निजी हैं, लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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