चमोली हादसे के सवाल और सबक़ क्या होंगे, क्या अब भी हिमालय में हज़ारों पेड़ कटेंगे!
चमोली में प्राकृतिक हादसा यानी ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदी में अचानक आए सैलाब के लिए दुनियाभर के वैज्ञानिक अपनी-अपनी थ्योरी दे रहे हैं। जिसमें इसरो के साथ देहरादून का वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी भी शामिल है। शुरुआत में ग्लेशियर टूटने का आकलन किया गया। अब वाडिया इंस्टीट्यूट के मुताबिक प्राथमिक तौर पर करीब 5,600 मीटर की ऊंचाई से पहाड़ की बड़ी-बड़ी चट्टानें सीधे 3800 मीटर तक नीचे गिरी। इन बेहद वज़नी चट्टानों से लाखों टन बर्फ तेजी से नीचे गिरी। जिससे ऋषिगंगा नदी का जलस्तर अचानक कई गुना बढ़ गया। ये नदी आगे जाकर धौलीगंगा में मिली और उसमें भी उफान आया।
वाडिया संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. प्रदीप श्रीवास्तव बताते हैं कि ये ऋषिगंगा कैचमेंच एरिया में ग्लेशियर के ऊपर से करीब 0.2 वर्ग किलोमीटर का हिमस्खलन था। जब ये लुढ़कता हुआ नीचे आया तो ग्लेशियर की सतह के ऊपर बड़ा मलबा बना गया। जिसके दबाव से ग्लेशियर का एक हिस्सा पिघलने लगा। इस बीच 6 फरवरी को ताज़ा बर्फ़बारी हुई थी। वो भी धूप निकलते ही पिघलने लगी थी। ताज़ा बर्फ़बारी और हिमस्खलन ने मिलकर स्नो और रॉक एवलांच का कॉम्बीनेशन पैदा किया।
ऋषिगंगा घाटी की पहाड़ियां असामान्यतौर पर स्टीप यानी सीधी चढ़ाई वाली हैं। ये इस हिमालयी क्षेत्र की खासियत है। 2500 मीटर से ऊपर हिमालयी पहाड़ियां सीधी खड़ी होती हैं। रॉक एवलांच ने इस हादसे को ट्रिगर किया। हालांकि इस पर अब भी अध्ययन की जरूरत है कि नदी का जलस्तर इतना अधिक कैसे बढ़ा। कुछ ही घंटों में ये बहाव सामान्य हो गया।
यहां तक की घटना प्राकृतिक तौर पर भयावह थी। लेकिन इससे आगे ऋषिगंगा और तपोवन पावर प्रोजेक्ट पर जो विनाश हुआ उसकी ज़िम्मेदारी हम प्रकृति पर नहीं थोप सकते।
इतने संवेदनशील दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में ऐसे पावर प्रोजेक्ट क्या लगने चाहिए? इन प्रोजेक्ट से जुड़े पर्यावरणीय अध्ययन की कितनी अहमियत है? इन जलविद्युत परियोजनाओं की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट यानी डीपीआर किस एजेंसी ने तैयार की? हिमालयी क्षेत्र में विकास परियोजनाओं में वैज्ञानिकों की राय को कितनी अहमियत दी जाती है? क्योंकि इन दोनों पावर प्रोजेक्ट को पर्यावरणीय अध्ययन रिपोर्ट और डीपीआर के बाद ही सरकार ने मंजूरी दी होगी। इन सवालों पर एक वैज्ञानिक की क्या राय है। इस पर वाडिया संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. प्रदीप श्रीवास्तव से बातचीत के कुछ अंश यहां दिए जा रहे हैं।
बांधों ने बढ़ायी स्थानीय लोगों की मुश्किलें
सवाल: संवेदनशील क्षेत्रों में पावर प्रोजेक्ट हों या सड़क परियोजनाओं जैसे कार्य। इसमें वैज्ञानिकों की राय ली जाती है। ऋषिगंगा और तपोवन प्रोजेक्ट में भी वैज्ञानिकों की मंजूरी के बाद ही निर्माण शुरू हुआ।
डॉ. प्रदीप: किसी प्रोजेक्ट की डीपीआर या पर्यावरणीय अध्ययन के लिए सरकार के पास कई एजेंसी होती हैं। आईआईटी, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, सेंट्रल वाटर कमीशन, सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टीट्यूट, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिग, वाडिया हिमालयन जियोलॉजी, जीबी पंत इस्टीट्यूट जैसे कई राष्ट्रीय और राज्य स्तर के संस्थान हैं।
मान लीजिए किसी डैम के लिए आईआईटी रुड़की को अप्रोच किया गया कि हमारा डीपीआर तैयार कर दीजिए। आईआईटी की विशेषज्ञता इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हैं। उन्होंने अपनी विशेषज्ञता के लिहाज से डीपीआर बना दिया। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी होगा तो वो डैम के हाइड्रोलॉजिकल यानी जल-प्रवाह से जुड़े फैक्टर पर फोकस कर डीपीआर तैयार करेगा।
अलग-अलग संस्था की अलग-अलग विशेषज्ञता है। उनके अध्ययन का क्षेत्र अलग है। इस तरह के प्रोजेक्ट्स की मंजूरी के लिए जरूरी है कि इन सभी विशेषज्ञ संस्थाओं का एक संयुक्त प्लेटफॉर्म तैयार हो। जहां सबकी विशेषज्ञता के लिहाज से प्रोजेक्ट को मंजूरी दी जाए या रद्द किया जाए।
यानी ऋषिगंगा पर पावर प्रोजेक्ट की डीपीआर कोई एक आईआईटी वाला ही न तैयार करे। बल्कि सभी संस्थान मिलकर उस पर अपनी रिपोर्ट दें। यदि वो प्रोजेक्ट मौजूदा परिस्थितियों में संभव लगता हो तभी उस पर कार्य आगे बढ़े।
किन्हीं दो एजेंसी की राय लेने पर जो भी प्रोजेक्ट को लेकर हामी भरता है, सरकार उसको सलेक्टिविली आगे ले जाएगी। सभी संस्थाओं का एक प्लेटफॉर्म होगा तो सबकी जिम्मेदारी तय होगी।
उदाहरण के लिए चारधाम परियोजना के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बनी कमेटी में मत-भिन्नता है। सड़क की चौड़ाई को लेकर कमेटी के अध्यक्ष और कुछ अन्य सदस्यों की राय अलग है।
सवाल: क्या चमोली में ऋषिगंगा या धौलीगंगा जैसी तेज़ बहाव वाली नदियों और संवेदनशील क्षेत्र में ऐसे बांध बनने चाहिए?
डॉ. प्रदीप: वर्ष 2013 की आपदा के बाद वैज्ञानिकों ने पूरे गंगा बेसिन की मैपिंग की थी। चारोधाम के ऊपर हमने अध्ययन किया था और बताया था कि हिमालयी क्षेत्र में तीव्र प्राकृतिक घटनाएं होनी तय हैं। वैज्ञानिकों ने कहा था कि यहां कोई भी इन्फ्रास्ट्रक्चर सोच-समझ कर बनाना चाहिए। सीधी खड़ी पहाड़ियों के बीच बड़े निर्माण नहीं करने चाहिए। जहां बांध नहीं बनाए जाने चाहिए, वहां भी बनाए गए हैं। अगर बांध नहीं होता तो नदी का पानी बढ़ता और फिर सामान्य हो जाता।
उच्च हिमालयी क्षेत्र में बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर के पक्ष में नहीं हैं वैज्ञानिक
सवाल: क्या हिमालयी ग्लेशियर का पर्याप्त अध्ययन किया जा रहा है?
डॉ. प्रदीप: चमोली हादसे में ग्लेशियर, रिवर हाइड्रोलॉजी, रॉक बर्स्ट जियोलॉजी सब शामिल है। गंगा बेसिन में ही करीब 968 ग्लेशियर हैं। वैज्ञानिकों ने यहां अब तक 15-20 ग्लेशियर पर ही अध्ययन किये हैं। किसी एक ग्लेशियर पर अध्ययन कर हम सभी हिमालयी ग्लेशियर को नहीं समझ सकते। पूरे गंगा बेसिन पर एक प्रोजेक्ट होना चाहिए। उसके सारे पैरामीटर्स की लॉन्ग टर्म मॉनीटरिंग करके डाटा तैयार करने की जरूरत है। इसमें एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद भी ली जा सकती है।
सवाल: पिछले वर्ष वाडिया संस्थान का सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी प्रोजेक्ट अचानक बंद कर दिया गया। क्या इससे ग्लेशियर से जुड़े अध्ययन प्रभावित हुए?
डॉ. प्रदीप: केंद्र सरकार ने नेशनल एक्शन प्लान ऑफ क्लाइमेट चेंज के तहत नेशनल हिमालयन इको सिस्टम स्टडीज़ को लेकर बड़ा प्रोजेक्ट शुरू किया था। जिसमें वाडिया समेत कई संस्थान में हिमालयी अध्ययन के प्रोजेक्ट शुरू किये गये। वर्ष 2009 में इसी कड़ी में वाडिया संस्थान में सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी प्रोजेक्ट शुरू किया गया। शुरू में पांच वर्ष के लिए ये प्रोजेक्ट था। फिर इसे एक-एक वर्ष की लीज़ पर आगे बढ़ाया जा रहा था। वर्ष 2020 में इसके अचानक बंद करने का फ़ैसला ले लिया गया। एक-एक वर्ष के लिए प्रोजेक्ट आगे बढ़ाने से भी वैज्ञानिकों को दिक्कत हो रही थी। एक वर्ष में ग्लेशियर पर आप क्या अध्ययन कर सकते हैं। एक पीएचडी का छात्र अपना शोध पूरा नहीं कर सकता।
ग्लेशियोलॉजी प्रोजेक्ट पर केंद्र सरकार को लगा होगा कि इससे हमारा उद्देश्य पूरा नहीं हो रहा है। तो उन्हें हमें दिशा-निर्देश देने की जरूरत थी, न कि प्रोजेक्ट बंद करना चाहिए। कोई भी हिमालयी आपदा एक दिन में नहीं आती। कई वर्षों तक इसकी धीमी प्रक्रिया चलती रहती है और एक दिन आपदा आ जाती है। इनका अध्ययन भी एक दिन या एक साल में नहीं हो सकता। हिमालयी क्षेत्र को समझना बेहद जरूरी है। इसकी उपेक्षा करना बुद्धिमानी नहीं हो सकती।
(अक्टूबर-2020 में उत्तराखंड सरकार ने भी पांच साल के लिए शुरू किए गए स्टेट क्लाइमेट चेंज सेंटर को इसका टर्म (वर्ष 2021) पूरा होने से एक वर्ष पहले ही बंद कर दिया। ये प्रोजेक्ट भी नेशनल मिशन फॉर सस्टेनबल हिमालयन इकोसिस्टम का हिस्सा था। जलवायु परिवर्तन के लिहाज से हिमालयी क्षेत्र अधिक संवेदनशील हैं और यहां बढ़ती प्राक़ृतिक आपदाओं के पीछे वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन को भी वजह माना है।)
सवाल: हिमालयी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने का क्या तरीका हो सकता है?
डॉ. प्रदीप: वर्ष 2010 में शंघाई में एक फोरम तैयार किया गया था। जिसका मकसद प्राकृतिक आपदाओं को कम करने के लिए कार्य करना था। भारत सरकार भी इसमें शामिल है। इसमें डिजास्टर मैनेजमेंट या डिजास्टर मिटिगेशन की जगह डिजास्टर रिस्क रिडक्शन पर काम करना था। हम इस दिशा में काम नहीं कर रहे। जबकि डिजास्टर मैनेजमेंट में हम अच्छा कर रहे हैं। लेकिन ये आपदा के बाद होता है। आपदा न आए इस पर कार्य करना होगा ताकि ये मौतें न हों।
क्या करदाता पूछेंगे सवाल
वाडिया संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. प्रदीप श्रीवास्तव से ये बातचीत और अन्य वैज्ञानिकों की राय पूरी तरह स्पष्ट है कि दो हज़ार मीटर से अधिक ऊंचाई पर बड़ी जल-विद्युत परियोजनाएं नहीं बनायी जानी चाहिए। चमोली के जोशीमठ क्षेत्र में प्रस्तावित और बन रही परियोजनाएं की सूची नदियों को बंधक बनाने की सूची सरीखी लगती है। मलारी-जेलम, जेलम-तमक, मरकुड़ा-लाता, लाता-तपोवन, तपोवन-विष्णुगाड, विष्णुगाड-पीपल कोटी आदि।
चमोली हादसे में अभी भी बड़ी संख्या में लोग लापता हैं। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आरके सिंह के मुताबिक सरकारी इन्फ्रास्ट्रक्चर के 1500 करोड़ रुपये के नुकसान का आकलन किया गया है। ये करदाताओं का पैसा था और उनके पास इससे जुड़ा सवाल होना चाहिए।
As Environment Minister, I came under sharp attack for stopping hydel projects on Alaknanda, Bhagirathi and other rivers in Uttarakhand on ecological grounds. We weren’t considering the cumulative impacts of these projects. I can't help but recall that now.
#UttarakhandDisaster pic.twitter.com/44Z1CZXRU3— Jairam Ramesh (@Jairam_Ramesh) February 9, 2021
चमोली आपदा पर पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने ट्वीट किया है कि अलकनंदा, भागीरथी समेत उत्तराखंड की अन्य नदियों पर पर्यावरणीय कारणों के चलते जल-विद्युत परियोजनाएं रोकने पर मैं गहरे सदमे में आ गया था। तब हम इन प्रोजेक्ट्स से पड़ने वाले असर पर ध्यान नहीं दे रहे थे। अब मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता लेकिन इसे याद कर सकता हूं।
चारधाम परियोजना पर भी हो बात
चमोली हादसे के बाद चारधाम सड़क परियोजना को भी फिर से देखना चाहिए। बेहद संवेदनशील हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं के बीच सड़क बनाने के लिए कुल 56,000 पेड़ों का कटान शामिल है। जिसमें 36,000 पेड़ काटे जा चुके हैं। टनकपुर से पिथौरागढ़ के बीच 6885 पेड़ अभी काटे जाने हैं। रुद्रप्रयाग और चमोली के माणा में 6291 पेड़ काटे जाने हैं। वहीं ऋषिकेश से रुद्रप्रयाग के बीच 3460 पेड़ कटने हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इतने बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई से हिमालयी पहाड़ियां अस्थिर हुई हैं। इसके चलते नए भूस्खलन ज़ोन सक्रिय हुई हैं।
हम इन मुद्दों पर तभी बात करते हैं जब कोई बड़ी आपदा आती है। हमने केदारनाथ आपदा से क्या सबक सीखा। हम चोमली आपदा से क्या सबक सीखेंगे?
(देहरादून स्थित वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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