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पड़ताल: कृषि क्षेत्र में निजी मंडियां बनाने से क्या ख़त्म हो जाएगी बिचौलियों की भूमिका?

प्रश्न है कि कृषि क्षेत्र में निजी कंपनियों के ज़्यादा से ज़्यादा निवेश करने से क्या बिचौलियों की भूमिका ख़त्म की जा सकती है और यदि हां तो कैसे?
एपीएमसी मंडियां किसानों को उनकी उपज बेचने के लिए एक अच्छा विकल्प साबित होती हैं। प्रतीकात्मक फोटो: गुजरात में थराद स्थित कृषि उपज मंडी। फोटो : गणेश चौधरी
एपीएमसी मंडियां किसानों को उनकी उपज बेचने के लिए एक अच्छा विकल्प साबित होती हैं। प्रतीकात्मक फोटो: गुजरात में थराद स्थित कृषि उपज मंडी। फोटो : गणेश चौधरी

बीती 9 मार्च को कृषि व किसान कल्याण मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने लोकसभा में बताया कि बीते तीन वर्षों में निजी कंपनियों ने तीन सौ करोड़ रुपए की लागत से 38 कृषि मंडियां विकसित की हैं। इनमें सबसे अधिक 18 निजी कृषि मंडियां महाराष्ट्र में विकसित की गई हैं। वे केंद्र के नए कृषि क़ानूनों से किसानों को होने वाले लाभ और कृषि बाज़ार में निजी कंपनियों की संभावनाओं पर पूछे गए एक प्रश्न के बारे में केंद्र सरकार का पक्ष रख रहे थे। तोमर ने आगे कहा कि नए कृषि क़ानूनों और कृषि क्षेत्र में निजी कंपनियों के निवेश को बढ़ावा देने के पीछे सरकार का उद्देश्य है कि किसान खेत से सीधे बाज़ार में अपनी उपज बेच सकें और बिचौलियों की भूमिका ख़त्म हो जिससे किसानों को उनकी उपज का उचित दाम मिल सके।

प्रश्न है कि कृषि क्षेत्र में निजी कंपनियों के ज़्यादा से ज़्यादा निवेश करने से क्या बिचौलियों की भूमिका ख़त्म की जा सकती है और यदि हां तो कैसे?

इस तर्क की व्याख्या में सरकार या उनके समर्थकों द्वारा स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा जा रहा है।

इसी से जुड़ा दूसरा प्रश्न है कि कृषि क्षेत्र के निजीकरण से कैसे किसान अपने खेत से सीधे बाज़ार में अपनी उपज बेचने लगेंगे और कैसे उन्हें उनकी अपनी उपज का उचित दाम मिलने लगेगा?

इस बारे में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस, मुंबई में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर रामकुमार कहते हैं कि सुनने में ये बातें अच्छी लगती हैं लेकिन इसी देश के अनुभव बताते हैं कि हक़ीक़त से ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं होता है। उनके मुताबिक़ पिछले तीन वर्षों में कृषि क्षेत्र के अंतर्गत निजी कंपनियों द्वारा किया गया निवेश न के बराबर है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें यह नहीं बताया जाता है कि क्या यह निवेश भारतीय गांवों के दूरदराज़ के क्षेत्रों में किया गया है।

वे कहते हैं, "भारतीय कृषि संरचना को देखते हुए निजी कंपनियों के बाज़ार में आने की कवायद आसान नहीं है। कारण यह है कि हमारे देश में ज़्यादातर किसान पांच एकड़ तक छोटी जोत वाले खेतों से जुड़े हैं। कोई कंपनी नहीं चाहेगी कि वह दूरदराज़ के गांवों में जाकर बड़ी संख्या में ऐसे छोटे-छोटे किसानों से सीधे सौदेबाज़ी करे और उनका माल ख़रीदे और फिर वहां से गोदामों या बड़ी फैक्ट्रियों में उस माल को ढोये। इससे कंपनी पर लेन-देन की कीमत अत्याधिक बढ़ जाएगी। ऐसे में देखा गया है कि आमतौर पर बड़ी से बड़ी कंपनियां भी शहरों से ही माल ख़रीदती हैं और दूरदराज़ के क्षेत्रों में जाकर सीधे किसानों से उनका माल ख़रीदने से बचती हैं।"

प्रोफ़ेसर रामकुमार कृषि क्षेत्र में निजी कंपनियों को प्रोत्साहित और एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समिति) मंडियों को हतोत्साहित करने से जुड़े ख़तरों से आगाह करते हुए बताते हैं कि बिहार जैसे राज्य में साल 2006 में एपीएमसी मंडियां समाप्त होने के बाद निजी मंडियां भी नहीं आईं जिससे किसानों के सामने विकल्पहीनता की स्थिति बनी हुई है। इसलिए वहां के किसान धान जैसी कई उपज एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) से करीब आधी कीमतों पर बिचौलियों को बेच रहे हैं। वहीं, दिल्ली में 'अपनी मंडी' की तर्ज़ पर अन्य कुछ राज्यों में भी मंडियां बनाई गई हैं तो वे सब सरकारी ही हैं। प्रोफ़ेसर रामकुमार कहते हैं, "हमें यह बात समझने की ज़रूरत है कि यदि एमएसपी सरकार किसानों को नहीं दे रही है तो कोई कंपनी उन्हें एमएसपी या उससे अधिक क्यों देना चाहेगी। इसलिए किसानों के लिए अच्छी उपज देने का यदि कोई प्रावधान कर सकती है तो वह सिर्फ़ सरकार। इसी तरह, यह भी समझने की ज़रूरत है कि देश के हर क्षेत्र तक मंडियां भी सिर्फ़ सरकार ही बना सकती है, न कि प्राइवेट। आज देश में करीब सात हज़ार मंडियां हैं, जबकि चाहिए कोई दस हज़ार। इतनी सारी मंडियां वह भी सब जगह बनाना बिना सरकार के संभव नहीं है। इसलिए कृषि बाज़ार को विकसित करने के लिए सरकार को ही आगे रहना पड़ेगा और उसके कारण ही अब तक यह विकसित भी हो सका है। अफ़सोस कुछ सालों से वह अपनी इस ज़िम्मेदारी से पीछे हट रही है।"

कृषि क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए तर्कों को उसी के अनुरूप गढ़ा जा रहा है। प्रतीकात्मक फोटो: राजस्थान में जयपुर स्थित जगतपुरा कृषि उपज मंडी। फोटो : शिरीष खरे

अब प्रश्न है कि कृषि क्षेत्र में निजीकरण से क्या किसानों और कंपनियों के बीच से बिचौलिए हट जाएंगे? इस बारे में कृषि नीतियों से जुड़ी रिपोर्टिंग कर रहे इंडियन एक्सप्रेस, दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हरीश दामोदरन एक उदाहरण देते हुए समझाते हैं, "दूध के लिए तो मंडी में बेचने की कोई व्यवस्था नहीं है। यदि सहकारी समितियां को छोड़ दें तो खुले बाज़ार में कितनी कंपनियां हैं जो सीधे किसान-पशुपालकों से दूध ख़रीदती हैं। वे भी सारा दूध बिचौलियों के ज़रिए ही ख़रीदती हैं। बिहार में भी पिछले 15 सालों से एपीएमसी मंडियां बंद हैं तो वहां भी बड़ी कंपनियां बिचौलियों के ज़रिए ही खाद्यान्न ख़रीदती हैं। असल में इसके पीछे कई कारण हैं जैसे कि हर छोटा किसान चाहता है उसे तुरंत कैश पेमेंट मिले। लेकिन, आमतौर पर बड़ी कंपनियां कैश पेमेंट नहीं करती हैं। इसलिए वे छोटे-छोटे किसानों का खाद्यान्न बिचौलिए के मार्फ़त लेना ही पसंद करती हैं। दूसरी बात यह है कि किसान ग्रामीण स्तर पर बिचौलियों से सीधे जुड़े होते हैं तो कंपनियों की बजाय वे बिचौलियों पर अधिक भरोसा करते हैं। यही कुछ वजह हैं कि आज भी किसानों से खाद्यान्न ख़रीदने के मामले में कई बड़ी नामी कंपनियां थर्ड-पार्टी या मिडिल-मैन से ही डील करती हैं।"

फिर एक बात यह भी है कि यदि कोई कंपनी किसान की उपज की सीधी ख़रीदी करना चाहे तो आज की परिस्थिति में ऐसा करने के लिए उन पर कोई पाबंदी भी नहीं है। एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समिति) अधिनियम में ऐसा प्रावधान नहीं है कि कोई कंपनी कृषि मंडी बनाने में निवेश नहीं कर सकती है या वह किसान से उसकी उपज की सीधी ख़रीदी नहीं कर सकती है। वहीं, निजी मंडियों को स्थापित करने के लिए वर्ष 2004-05 से ही महाराष्ट्र सहित कुछ राज्यों में लगातार प्रयास किए जाने के बावज़ूद यदि इस दिशा में ख़ास सफ़लता नहीं मिल पा रही है तो इसलिए कि ऐसी स्थिति में कंपनियों की सरकारों से कई मांगें होती हैं। उदाहरण के लिए वे सरकारों से कहती हैं कि निवेश के लिए उन्हें बैंक से क़र्ज़ दिलाओ, ज़मीने दिलाओ और अधोसंरचना आदि बनाकर भी दो। इसलिए निजीकरण से जुड़े कुछ थ्योरी और नैरेटिव सच्चाई से उलट और अव्यवहारिक होते हैं।

इस बारे में केंद्र के कृषि क़ानून और नीतियों को लेकर अध्ययन कर रहे शोधार्थी जिगीश एएम एक नया आयाम प्रस्तुत करते हुए बताते हैं, "भारत में करीब डेढ़ करोड़ लोग कृषि खाद्यान्न की ख़रीद से जुड़े हैं जिनमें से सारे बिचौलिए नहीं कहे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए पंजाब की मंडियों में देखें तो इनमें आधे से ज़्यादा तो ऐसे किसान हैं जो खेती के साथ-साथ खाद्यान्न क्षेत्र में थोड़ा-बहुत व्यापार भी करते हैं। यानी यह ऐसा सेक्टर है जिसमें एक बड़ी आबादी की आजीविका भी जुड़ी हुई है। करोड़ों परिवार की रोजीरोटी छीनने की बात करने वाली सरकार उनके रोज़गार का भी तो विकल्प रखे। फिर यह अडानी-अंबानी की तरह बड़े कोर्पोरेट भी नहीं हैं।"

छत्तीसगढ़ में मज़दूर-किसानों के नेता संजय पराते मानते हैं कि बिचौलिया कॉर्पोरेट से बड़ा शोषक तो नहीं हो सकता है। इसलिए होना यह था कि किसानों की उपज का अच्छा दाम दिलाने के लिए सरकार को ख़रीद की पूरी व्यवस्था में सुधार लाना चाहिए था, जबकि सरकार की तरफ़ से इन दिनों हो यह रहा है कि किसान के साथ ही बिचौलियों का मुनाफ़ा भी कॉर्पोरेट को देने की कवायद चल रही है। वे कहते हैं, "सभी जानते हैं कि बिचौलियों के बिना मार्केट चलेगा नहीं। ऐसे में हो यह सकता है कि कुछ कंपनियां कुछ बिचौलियों को ही अपना एम्प्लॉय बना लें। ऐसे में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसानों को शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए इन क़ानूनों में क्या प्रावधान हैं या इसे लेकर सरकार का क्या कोई विजन है।"

इसी से यह बात भी जुड़ी है कि यदि कॉर्पोरेट अपने कर्मचारियों के जरिए किसानों से सीधी ख़रीद करें भी तो ऐसी स्थिति में क्या गारंटी है कि किसानों को उनकी उपज का उचित दाम मिलने ही लगेगा। यानी यहां यह स्पष्ट नहीं हो रहा है कि यदि किसान कॉर्पोरेट के साथ सौदेबाज़ी करेगा तो किसान की सौदेबाज़ी की शक्ति बढ़ जाएगी। जाहिर है कि निजी मंडियां बनानी एक बात है और उनमें एमएसपी पर उपज की ख़रीदी होनी एकदम दूसरी बात है। सोचने वाली बात यह है कि जब सरकार संरक्षित व्यवस्था में ही किसानों को उनकी उपज का सही दाम नहीं मिल पा रहा है और कॉर्पोरेट भी किसानों से ख़रीदे टमाटर आदि चीज़ों को कई गुना अंतर पर बेचकर मुनाफ़ा कमा रहे हैं तो बाज़ार यदि कॉर्पोरेट के हाथों में पूरा चला गया तब क्या गारंटी है कि किसानों को मुनाफ़ा मिलना शुरू हो जाएगा। ऐसे में प्रमुख बिंदु यह है कि किसान अपनी उपज को खेत से बाज़ार में सीधे बेचें या नहीं, लेकिन उसे एमएसपी की सुनिश्चतता मिलनी चाहिए। यदि किसानों के लिए उनकी उपज पर एमएसपी की क़ानूनी गारंटी मिले तो बहुत सारे प्रश्न तो ख़ुद ही सुलझ जाएंगे।

राष्ट्रीय किसान आयोग, 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक़ हर 80 वर्ग किलोमीटर में एक मंडी होनी चाहिए, जबकि अभी 473 वर्ग किलोमीटर में एक मंडी है। इसलिए कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने लोकसभा में आयोग की इस रिपोर्ट से जुड़ा यह आंकड़ा रखते हुए कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। ज़ाहिर है कि केंद्र की मोदी सरकार तेज़ी से निजीकरण की तरफ़ बढ़ रही है और कृषि से जुड़ी हर समस्या का समाधान भी वह निजीकरण में ही ढूंढ़ रही है। इसे उचित ठहराने के लिए उनके तर्क हैं कि यदि कंपनियां खेती में आईं तो कृषि बाज़ार का ढांचा तैयार हो जाएगा, खाद्यान्न ख़रीदी में बिचौलियों की कड़ी टूट जाएगी और फिर किसान सीधे कॉर्पोरेट को उपज बेचकर अपना मुनाफ़ा लेने लगेंगे। लेकिन, बुनियादी बात यह है कि ये सब होंगे कैसे? तो ऐसे दावों को रखते हुए नीति निर्धारक के पास इस संबंध में न तो योजना का कोई खाका ही है और न ही इस बारे में वे किसी अध्ययन, रिपोर्ट या अनुभवों का ही हवाला दे पा रहे हैं।

(शिरीष खरे पुणे स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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