जब सफ़दर की शहादत के 48 घंटे बाद उनकी पत्नी और साथियों ने किया था हल्ला बोल
आज 4 जनवरी है। आज के दिन भारतीय रंगमंच और खासकर नुक्कड़ नाटकों के इतिहास में एक अनोखी घटना हुई थी। 1 जनवरी , 1989 को ‘हल्लाबोल’ नाटक के प्रदर्शन के दौरान हमला और 2 जनवरी को सफ़दर हाशमी की मौत के तथ्य से हम सभी वाक़िफ़ हैं। लेकिन आज ही के दिन, 4 जनवरी को ‘जन नाट्य मंच’ (जनम) के साथियों ने, जहॉं उन पर हमला हुआ था, उसी स्थल पर, अपने अधूरे नाटक को पूरा किया था। हज़ारों लोग इस ऐतिहासिक पल के गवाह बने। इसकी अगुवाई नुक्कड़ नाटकों की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री और सफ़दर की पत्नी खुद माला हाशमी ने की थी। ‘हल्लाबोध’ के अधूरे प्रदर्शन को पूरा करने के कारण ही 4 जनवरी, 1989 का हिंदुस्तान के रंगमंच और खासकर नुक्कड़ नाटकों के इतिहास में तारीखी महत्व है।
1 जनवरी, 1989 को जब सारी दुनिया नए साल की पिकनिक मना रही थी, मौजमस्ती के मूड में थी, सफ़दर अपनी टीम ‘जन नाट्य मंच’ के साथियों के साथ दिल्ली से 15 किमी दूर साहिबाबाद के मज़दूरों की बस्ती में अपने नए नाटक ‘हल्ला बोल’ का मंचन कर रहे थे। ‘हल्लाबोल’ का यह प्रदर्शन सी.आई.टी.यू के उम्मीदवार रमानाथ झा के पक्ष में किया जा रहा था। तब यह इलाका मज़दूर आंदोलनों का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। ‘हल्लाबोल’ का प्रदर्शन उस आंदोलन के प्रति एकजुटता प्रकट करने गया था। उसी दौरान नाटक के प्रदर्शन के बीच उनकी हत्या कर दी गई थी।
साहिबाबाद में ‘जन नाट्य मंच’ की टीम पर हमला कांग्रेस पार्टी से जुड़े खुद एक छोटे कारखाने के मालिक मुकेश शर्मा के नेतृत्व में किया गया था। टीम की महिलाओं को इस हमले से बचाने के लिए सभी एक कमरे की आड़ में हो गए। हमलावर यहाँ भी आ धमके। सफ़दर ने अपने पुरूष साथियों को महिलाओं को सुरक्षित स्थान पर ले जाने का दबाव बनाया और खुद अकेले डटे रहे। रॉड से उनके माथे पर ताबड़-तोड़ हमले किए गए। उनके साथ सी.आई.टी.यू से जुड़े एक मज़दूर राम बहादुर की भी गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। 2 जनवरी को सफ़दर की मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय सफ़दर की उम्र मात्र 35 वर्ष से भी कम थी।
सफ़दर आज पूरे देश में मज़दूरों व कलाकारों की एकजुटता के प्रतीक तो हैं हीं, इसके साथ ही वे संस्कृति के क्षेत्र में परिवर्तनकामी चेतना के सबसे बड़े नायक बन के भी उभरे हैं। सफ़दर की हत्या इसलिए हुई क्योंकि उन्होंने मज़दूरों के संघर्ष के साथ खुद को जोड़ा और अपने नाटकों को वर्ग संघर्ष का हिस्सा बनाया। जैसा कि ‘हल्लाबोलः सफ़दर हाशमी की मौत और जिंदगी’ किताब लिखने वाले सुधन्वा देशपांडे बताते हैं ‘‘यह वर्ग संघर्ष था। सफ़दर को इसलिए मारा गया क्योंकि उसने इस वर्ग संघर्ष में अपने आपको और कॉमरेड्स और हत्यारों के बीच खड़ा कर दिया। उसने अपने आपको खतरे में डाल दिया ताकि दूसरों की जिंदगी बच सके। अगर ‘जनम’ परफॉमेंस तय समय के हिसाब से यानी एक घंटा पहले शुरू हो जाती तो हम उनके हाथ नहीं आते। कौन कह सकता है! मगर मज़दूर वर्ग के आंदोलन पर हमला तब भी होता। किसी और समय, किसी और जगह पर , किसी और को शिकार बनाता। सफ़दर की बहादुरी ने कई जिंदगियों को बचाया।’’
उनकी शहादत के बाद पूरे देश में नुक्कड़ नाटक आंदोलन को आंदोलनात्मक आवेग मिला। हिंदुस्तान भर में सफ़दर हाशमी के नाम पर ढ़ेरों संगठन बने। खुद हमारे शहर पटना के ऐतिहासिक गॉंधी मैदान का उत्तरी-पूर्वी कोना पिछले तीन दशकों से ‘ सफ़दर हाशमी रंगभूमि’ के नाम से जाना जाता है। बिहार के छोट-छोटे शहरों में सफ़दर हाशमी पुस्तकालय, सफ़दर हाशमी रंगमंच, सफ़दर हाशमी लॉज मिल जाते हैं। जिस नुक्कड़ नाटक पर, रंगमंच के सत्ता प्रतिष्ठान एवं ‘ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ से जुड़े सूरमा नाक-भौं सिकोड़ा करते थे, उन सबको भी इसके व्यापक महत्व को स्वीकार करना पड़ा।
उनके लिखे नाटक ‘मशीन’, ‘समरथ के नहीं दोष गुसाई’ं, ‘राजा का बाजा’, ‘हल्ला बोल’ और ‘औरत’ का हिंदी इलाके के लगभग हर प्रमुख शहर में मंचन होता रहता है। सफ़दर द्वारा नुक्कड़ नाटकों में योगदान के महत्व का अंदाज़ा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि 12 अप्रैल सफ़दर के जन्म दिवस को आज ‘ राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस’ के रूप में सर्वत्र मान्यता मिल चुकी है।
मज़दूरों के साथ सफ़दर के जुड़ाव को उनके पहले नाटक ‘मशीन’ की रचना प्रक्रिया से समझा जा सकता है। नुक्कड़ नाटकों के इतिहास में ‘मशीन’ एक टर्निंग प्वाइंट की तरह आता है। मात्र 13-14 मिनट के इस नाटक को लिखने के लिए सफ़दर ने दिल्ली के औद्यौगिक इलाके की एक सच्ची घटना को आधार बनाया। एक फैक्ट्री में मालिकों के निजी सुरक्षा गार्डों द्वारा छह मज़दूरों को इस कारण मार डाला गया था क्योंकि उन लोगों की दो बहुत मामूली मांगें थीं— एक अपनी साईकिल खड़ी करने के लिए स्टैंड और दूसरी दोपहर का भोजन गर्म करने और एक प्याली चाय के लिए एक भट्ठी रखने की माँग। इस घटना की पृष्ठभूमि में रचित ‘मशीन’ ने अपनी काव्यात्मक भाषा से दर्शकों पर जादुई प्रभाव डाला।
सफ़दर ने 1973 में अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘जन नाट्य मंच’ की स्थापना की थी। लेकिन इमरजेंसी के पश्चात मज़दूर संगठन प्रोसेनियम नाटकों के मंचन का खर्च उठाने में असक्षम से थे। तब सफ़दर और उनके साथियों ने नाटक के एक ऐसे स्वरूप के संबंध में सोचा जिसे आम लोगों के मध्य ले जाकर पहुँचा जा सके। 'मशीन' नाटक इसी सोच की उपज था। सफ़दर ने संघर्षशील जनता, खासकर मज़दूरों, के सवालों को अपने नाटकों में उठाना प्रारंभ किया। अपने नाटकों के मंचन वे अधिकांशतः मज़दूरों की बस्ती में किया करते थे। मज़दूर आंदोलन आज कि तरह तब भी कई न्याय-विरुद्ध ताक़तों के हमलों की जकड़ में था। सफ़दर के पूर्व उस क्षेत्र में कई सी.आई.टी.यू के कई अन्य कार्यकर्ताओं व नेताओं की भी हत्या हुई थी।
सफ़दर और 'जनम' के नाटकों पर राजनीति से प्रेरित होने का आरोप लगता रहा। सफ़दर यह मानते थे कि रंगकर्मी को राजनीति से निरपेक्ष नहीं होना चाहिए। वे खुद भी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी ) के सदस्य थे। लेकिन साथ ही नुक्कड़ नाटक के सांदर्यात्मक रूप से कैसे समृद्ध किया जा सके यह भी उनकी चिंता का सबब था। नुक्कड़ नाटक में संगीत, स्पेस, वेशभूषा आदि के इस्तेमाल में नए-नए प्रयोग करते। बहुत कम खर्च में कलात्मक स्तर पर उन्नत प्रस्तुति कैसे दी जाए यह उनके प्रधान सरोकारों में था। यह एक तरह से, जिसे लेनिन की भाषा मे कहें तो, ‘एस्थेटिक्स ऑफ मिनिमम एक्सपेंडिचर’ को साकार करने जैसी बात थी। नुक्कड़ नाट्य विधा के वो सही मायनों में पहले सिद्धांतकार भी थे।
नाटकों के अलावा उनके द्वारा लिखा गया गीत
"पढ़ना-लिखना सीखो
ओ मेहनत करने वालों.....
क, ख, ग, घ के पहचानो
अलिफ के पढ़ना सीखो
पढ़ना लिखना सीखो......."
आज साक्षरता आंदोलन का प्रतिनिधि गीत बन चुका है। इसके साथ ही उनका गीत
"किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबों में साइंस की आवाज़ हैं
किताबों में रॉकेट का राज है
क्या तुम नहीं सुनागे किताबों की बातें?"
भी काफी प्रसिद्ध हुआ।
देवराला सती कांड को लेकर सफ़दर रचित एक और गीत
"औरतें उठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा
जुल्म करने वाला सीनाज़ोर बनता जाएगा"
आज महिला आंदोलन में गाया जाने वाला काफी चर्चित गीत बन चुका है।
नाटकों के अलावा सफ़दर ने कुछ दिनों तक पश्चिम बंगाल इन्फॉर्मेशन ब्यूरो’ (पी.आई.बी) के लिए काम किया था। उस दौरान उन्होंने महान बांग्ला फ़िल्मकार ऋत्विक घटक की फ़िल्मों का पुनरावलोकन (रिट्रोस्पेक्टिव) भी आयोजित किया था। सफ़दर की मौत के कई सालों बाद ‘जनम’ ने अपनी पत्रिका ‘नुक्कड़ जनम संवाद’ का एक दुर्लभ विशेषांक ऋत्विक घटक पर निकाला था। ऋत्विक घटक पर हिंदी में उतनी बहुमूल्य सामग्री बहुत कम है।
सफ़दर की रंगमंच के क्षेत्र में आ रही तब्दीलियों पर काफ़ी पैनी निगाह थी। सत्तर के अंतिम व अस्सी के प्रारंभिक दशकों में थियेटर में ‘जड़ों की ओर लौटों’ की घूम मची हुई थी। चारों ओर पारंपरिक रूपों व शैलियों पर ज़ोर देने वाले प्रदर्शनों की बाढ़ आ गयी थी। कोई बंगाल में जात्रा, कनार्टक में यक्षगान, उत्तरप्रदेश में नौटंकी और बिहार में बिदेसिया कर रहा था। पारंपरिक कलारूपों को ही उस क्षेत्र व समाज की असली रंगमंचीय व सांस्कृतिक की पहचान के रूप में व्याख्यायित किया जा रहा था। सफ़दर ने इस परिघटना के खतरों की ओर इशारा करते हुए बताया था ‘‘दिल्ली के मुख्यधारा के प्रोसेनियम थियेटर का स्तर गिरता जा रहा है। यह बात भारत के अन्य भागों के बारे में भी सही है। इस गिरावट के लिए टेलीविज़न को ज़िम्मेदार ठहराना गलत होगा। उदाहरण के लिए, बंगाल में थियेटर की गिरावट का एक लंबा इतिहास है और उसकी वजह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नहीं ढ़ूंढ़ी जा सकती है। इस गिरावट का मुख्य कारण राजनीतिक है- संगीत नाटक अकादमी और फोर्ड फाउंडेशन ने ‘एथनिक’, तथाकथित ‘थियेटर ऑफ रूट्स’ पर अनावश्यक ज़ोर देकर थियेटर की दुनिया में रिवाइवलिज्म को बहुत जमकर बढ़ावा दिया है। यह थियेटर की स्वाभाविक अंदरूनी प्रक्रिया नहीं है, यह मुहिम निश्चित उद्देश्यों और बेहिसाब पैसों से लैस इन दोनों एजेंसियों के साधनों और प्रोत्साहन से चल रही है। इस मुहिम में केवल ‘ फॉर्म’ यानी स्वरूप पर ज़ोर दिया जाता है। हमारे जैसे सामाजिक रूप से सचेत थियेटर समूह को इस परिघटना का अध्ययन करना चाहिए और इसमें अपनी भूमिका को तय करना चाहिए। मूल प्रश्न यह है : परंपरा, देशी रूपों और आधुनिक विचारों के बीच संबंध कैसे हों’’
आगे आने वाले दशकों में हिंदुस्तान के समाज व राजनीति में इस रिवाइवलिज्म (पुनरुत्थानवाद) के रास्ते आए सांप्रदायिक फासीवादी खतरे को आज झेलने के लिए अभिशप्त हैं। सफ़दर ने इस खतरे की पहचान रंगमंच में उसके शुरूआती लक्षणों के आधार पर कर ली थी और उसकी ओर ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया था।
संभवतः इन्हीं वजहों से इसके विकल्पस्वरूप सफ़दर ने मज़दूर बस्ती में कई कलारूपों से लैस एक सांस्कृतिक केंद्र खोलने की योजना बनाई। जाए जहां अभिनेता सब्जी उगाएँ, हर किस्म का काम सीखें और नाटक सिर्फ संध्या समय की गतिविधि न होकर एक पूर्णकालिक कार्य बन सके। सफ़दर मज़दूरों के बीच ग्रीक और शेक्सपीरियन ट्रेजडी को मंचित करना चाहते थे। अपने इस आडिया को सफ़दर ने कुछ इस रूप में प्रकट किया था ‘‘अब हम एक ऐसी योजना पर काम कर रहे हैं जो बहुत महत्वाकांक्षी है। हम एक मेहनतकश इलाके में खुद अपना थियेटर करने की तरफ आगे बढ़ रहे हैं। हमें इसके लिए बहुत पैसा इकट्ठा करना है। दसियों लाख रूपए इकट्ठा करने होंगे। हमारी सोच है कि दिल्ली की किसी मेहनतकश बस्ती में हम अपना थियेटर बनाएँगे। 1990 के आसपास या उसके एक-दो साल बाद। वहाँ हर तरह के स्टेज का बंदोबस्त होगा- प्रोसेनियम स्टेज, थ्रसट स्टेज, थियेटर-इन-दि-राउंड वगैरह। फिर हम शौकिया तौर पर काम करना छोड़ कर पेशेवर’ या होलटाइमर- हो जाएंगे और थियेटर में हम एक रेपर्टरी तैयार करेंगे जो मुख्य रूप् से मज़दूर बस्तियों में ही काम करेगी। ये थियेटर लोगों के लिए प्रशिक्षण केंद्र भी होगा ताकि देश के दूसरे भागों से आने वाले जन रंगमंच के कार्यकर्ता, नुक्कड़ नाटक कार्यकर्ता यहाँ आएँ, सीखें, कार्याशालाएँ आयोजित करें। हम दूसरों को भी कार्यशालाएँ आयोजित करने के लिए आमंत्रित करेंगे। यहाँ तमाम तरह के नाटक हुआ करेंगे। हम मज़दूरों को ग्रीक ट्रेजेडी और शेक्सपीयर के नाटक भी दिखाएंगे।’’
इस योजना को उन्होंने वर्तमान सी.पी.आई (एम) महासचिव सीताराम येचुरी को एक लिखित नोट में भी भेजा था। उस वक्त सी.पी.आई (एम) का त्रिवेंद्रम में कांफ्रेंस चल रहा था। ब्रिन्दा करात भी सफ़दर के इस ' कल्पनाशील नोट' की तस्दीक करती हैं। येचुरी ने आश्वासन दिया था कि वहाँ से लौटकर इस योजना पर बात होगी परन्तु इसी दरम्यान सफ़दर की हत्या हो गयी थी।
उनकी हत्या के बाद कलकत्ता की दीवारों पर यह नारा लिखा रहता था :
"ज़ुल्म नया शब्द नहीं है,
उत्पीड़न और अन्याय
नई बात नहीं है
नया शब्द और नई बात है
सफ़दर हाशमी"
(अनीश अंकुर स्वतंत्र लेखक-पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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