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सशक्त हिंदू कहां हैं?

कहां है हिंदू एकता? भाजपा की पूरी की पूरी रणनीति, कि चाहे वे मुस्लिम हो या हिंदुओं के भीतर की जातियां, सब एक ही है – जो ठोस बहिष्कार की तुलना में प्रतीकात्मक समावेश की रणनीति है।
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जैसे-जैसे हम मई में होने अगले आम चुनाव की तरफ बढ़ रहे हैं, नरेंद्र मोदी सरकार दूसरा कार्यकाल पूरा करने जा रही है। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि भारत एक 'जातीय लोकतंत्र' बन गया है और यह केवल समय की बात है कि इसे औपचारिक रूप से हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया जाएगा। 

हिंदू राष्ट्र के मायने जो समझ में आता है वह एक धार्मिक बहुसंख्यकवाद है जो बहुसंख्यकों को सशक्त बनाता है और धार्मिक अल्पसंख्यकों को अशक्त या कमजोर करता है या दोयम दर्जे का नागरिक बनाता है। उदाहरण के लिए, दक्षिण अफ्रीका में, रंगभेदी निज़ाम की विशेषता बासकैप थी, जिसका शाब्दिक अर्थ दादागिरी जताना था जो यह सुनिश्चित करता था कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से, अल्पसंख्यक गोरे बहुसंख्यक काले समुदाय पर हावी रहेंगे और उन पर राज करेंगे। किसी को तरजीह देने वाला यह व्यवहार, अल्पसंख्यकों के अलगाव का जीवन जीने और भेदभावपूर्ण व्यवस्था की एक प्रणाली है।

जातीय लोकतंत्र का अर्थ, मूल जातीय समूह का निर्विवाद प्रभुत्व का होना भी है, जैसा कि उदाहरण के लिए इज़राइल में प्रचलित है।

हालांकि, भारत का मामला लोकतंत्र के बहुसंख्यक जातीय मॉडल या रंगभेद प्रणाली में फिट नहीं बैठता है। भारतीय बहुसंख्यकवाद एक अजीब मामला है, जहां एक अशक्त धार्मिक अल्पसंख्यक तो दिखाई देता है, लेकिन कोई सशक्त जातीय बहुसंख्यक दिखाई नहीं देता है। भेदभाव का शिकार मुस्लिम तो है लेकिन सशक्त हिन्दू बहुमत कहीं नज़र नहीं आता है?

इसके बजाय, भारतीय बहुसंख्यकवाद, 'वर्गीकृत असमानताओं' के जाति-आधारित मॉडल को दोहराता है। यह ठोस बहिष्करणों के जरिए से प्रतीकात्मक समावेशन का मामला है जिसके परिणामस्वरूप बहुसंख्यकों को श्रेणीबद्ध तरीके से बहिष्कृत किया जाता है। भारतीय बहुसंख्यकवाद केवल अल्पसंख्यक ही नहीं बल्कि बहुसंख्यकों के भी ख़िलाफ़ है। एक सशक्त हिंदू के बिना एक भेदभावपूर्ण, असुरक्षित और डरा हुआ मुसलमान है।

एक हिंदू केवल बहिष्कृत अल्पसंख्यक को 'देखने' में ही सशक्त महसूस कर सकता है और इससे परे, हिंदू भी, यदि अधिक नहीं, तो अल्पसंख्यक जितना ही असुरक्षित है। जब प्रवासी मजदूर हजारों किलोमीटर (महामारी-प्रेरित लॉकडाउन के दौरान) पैदल चले, तो उनमें से ज्यादातर हिंदू थे, जिनमें करीब 40 फीसदी बीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) थे, लेकिन क्या उनके साथ कोई तरजीह देने वाला व्यवहार किया गया था?

इसके अलावा, महामारी के दौरान, जबकि मुसलमानों और तब्लीगी जमात (एक सामूहिक इबादत वाला मुस्लिम समूह) को वायरस फैलाने के लिए दोषी ठहराया गया था, हिंदुओं के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं की गई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, मरने वालों में से अधिकांश, लगभग 50 लाख, हिंदू थे, लेकिन उन सभी मौतों को नकार दिया गया, झूठे आंकड़े जारी किए गए, और जब शवों को दफनाया गया तो पारंपरिक अनुष्ठानों का पालन करने वाले 'सशक्त' और 'सम्मानित' ‘हिंदुओं” की लाशों को गंगा नदी के किनारे तैरते हुए देखा गया।

महामारी और अर्थव्यवस्था सहित शासन के संकट के प्रबंधन में अफवाहों, झूठे दावों, संघर्ष की अतिशयोक्ति और फर्जी खबरों के माध्यम से अल्पसंख्यकों को दबाने के लिए समान तरीकों का इस्तेमाल किया गया था।

नीतिगत ढांचे में भी, कानून की पद्धति अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों दोनों के लिए कुछ हद तक समान रहती है।

तीन-तलाक के साथ, मुस्लिम पुरुषों को अपराधी बना दिया गया लेकिन मुस्लिम महिलाओं के लिए गुजारा भत्ता का प्रावधान नहीं किया गया। सरकार, स्पष्ट है कि, तीन तलाक और समान नागरिक संहिता के माध्यम से मुस्लिम महिलाओं तक पहुंचा, लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने बिलकिस बानो के बलात्कारियों को माला पहनाई।

बार-बार होने वाली छेड़छाड़ के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हरियाणा के पहलवानों के साथ भी ऐसा ही मामला हुआ था; जब सरकार 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' अभियान चलाने में व्यस्त थी, तब उन्हें दिल्ली की सड़कों पर तड़पते हुए छोड़ दिया गया था।

सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पसमांदा मुसलमानों और उनके लिए संभावित नीति प्रावधानों की वकालत की, जबकि आंकड़ों से पता चलता है कि मॉब लिंचिंग के अधिकांश पीड़ित पसमांदा मुसलमान थे।

कहा गया कि, इस पद्धति को ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) जैसी नीतियों में दोहराया जाता है, जो 8 लाख रुपये की आय सीमा प्रदान करती है और संभावित रूप से 90 फीसदी उच्च जातियों को इसमें शामिल कर सकती है (हालांकि हमारे पास इस पर कोई ठोस डेटा नहीं है) और इस प्रकार उसी वर्ग को रोजगार और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश मिलता है, जो उन्हें अन्यथा भी हासिल होता है।

लेकिन ईडब्ल्यूएस जो करता है वह सक्रिय रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी को ईडब्ल्यूएस में शामिल होने से बाहर कर देता है। यानि बहिष्कार सच्चाई है, समावेश प्रतीकात्मक है।

शुरू में जब किसान, कृषि कानूनों के खिलाफ और अब फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी सुरक्षा की लड़ाई के लिए सड़कों पर उतरे, तो प्रदर्शनकारी किसानों, क्योंकि बहुमत सिखों का था, को संभावित रूप से खालिस्तान की मांग से प्रेरित घोषित किया गया; उन्हें 'खालिस्तानी' कहा गया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि 'हिंदू' किसानों के लिए कोई अलग प्रावधान होगा। वास्तव में, 'हिंदू' किसान जाट बन गए और भाजपा ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट-बहुल इलाकों के लिए एक नई रणनीति तैयार की गई। उन्होंने जाटों की प्रमुख स्थिति के विपरीत, ओबीसी को मजबूत करने पर जोर देना शुरू कर दिया। हिंदू से वे जाट बन गए, जाट से वे ओबीसी के उत्पीड़क बन गए।

यहां हिंदू एकता कहां है? ओबीसी को प्रमुख और गैर-प्रमुख ओबीसी में विभाजित करके समेकित किया जा रहा है। निचले स्तर के ओबीसी को प्रमुख वर्गों के खिलाफ लामबंद किया जा रहा है और प्रमुख ओबीसी, जैसे यादवों को दलितों और मुसलमानों के खिलाफ लामबंद किया जा रहा है।

पूरी की पूरी इस किस्म की रणनीति कि, चाहे मुसलमान हों या हिंदुओं के भीतर की जातियां हों, एक ही रहती है। यह ठोस किस्म के बहिष्कारों की तुलना में प्रतीकात्मक/मनोवैज्ञानिक समावेशन या सशक्तीकरण है। इस सब की जो वास्तविकता है वह बहिष्कार है।

भारतीय बहुसंख्यकवाद बहुसंख्यक को बाहर रखता है। इसके बजाय यह कुलीनतंत्र की एक ऐसी व्यवस्था बना रहा है जहां सत्ता अपने सभी आयामों में बेहद केंद्रीकृत रहे। अर्थव्यवस्था में सत्ता चुनिंदा व्यापारिक घरानों के इर्द-गिर्द घूमती है, राजनीतिक सत्ता दो व्यक्तियों के इर्द-गिर्द केन्द्रित रहती है और सामाजिक एवं सांस्कृतिक सत्ता एक संगठन के इर्द-गिर्द केन्द्रित होती है।

भारत के जातीय लोकतंत्र में जातीय आधार पर कोई विशेषाधिकार नहीं है। इसके बजाय ऐसा लगता है कि बहुमत बनाने के लिए एक अशक्त बहुमत की आवश्यकता है। निर्मित या कल्पित बहुमत कानून और अर्थव्यवस्था में पाए जाने वाले ठोस बहिष्कार में ठोस हो जाता है। यह एक हिंसक राज्य पर एक प्रणालीगत भेद्यता और संस्थागत निर्भरता पैदा करता है। यह एक उसी इकाई पर निर्भर है जो आपको लक्षित कर रही है। विडंबना यह है कि यह खुद को बनाए रखने के लिए बहुसंख्यक होने की भावना को जन्म देती है।

लोकतंत्र में संदर्भ की शर्तें नाटकीय रूप से स्वतंत्रता के प्रगतिशील विस्तार और अनिवार्य रूप से बहिष्कार की मांग करने वाली सतत भेद्यता में से एक में बदल जाती हैं। बहिष्कार एक संरचनात्मक जरूरत बन जाता है जिसे राजनीतिक अभिव्यक्ति मिल जाती है। हिंसक अवस्था के अस्तित्व के लिए एक संरचनात्मक स्थिति बन जाती है। हिंसक राज्य सफल हो जाता है और सामाजिक समूहों के बीच लड़ाई कराकर, दक्षिणपंथी भाषा के माध्यम से अपने खिलाफ उठती मांगों को मोड़कर वैधता हासिल करता है। राज्य और नेता सर्वव्यापी बन जाते हैं और वे किसी भी वैधता के मसले से परे हो जाते हैं। नेता किसी भी अनुबंध से परे है, राज्य के 'मूल' दिव्य सिद्धांत के करीब जा रहा है।

असहमति की हर अभिव्यक्ति नाजायज हो जाती है क्योंकि यह निर्मित और काल्पनिक बहुमत की नींव को बिगाड़ देती है। नेता बहुमत का डिफ़ॉल्ट व्यक्तित्व बन जाता है। अशक्त बहुमत भी बहुमत के अस्तित्व, अस्तित्व में आने और खुद को कायम रखने के लिए एक आवश्यक शर्त बन जाता है।
 

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