Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

हम भारत के लोग: देश अपनी रूह की लड़ाई लड़ रहा है, हर वर्ग ज़ख़्मी, बेबस दिख रहा है

नफ़रत के माहौल में तराने बदल गए, जिस दौर में सवाल पूछना गुनाह बना दिया गया उस दौर में मुसलमानों से मुग़लों का बदला तो लिया जा रहा है। लेकिन रोटी, रोज़गार, महंगाई के लिए कौन ज़िम्मेदार है ये पूछना तो छोड़िए, सोचना भी गुनाह है।
hum bharat ke log

We The people of India ( हम, भारत के लोग) इन चार अल्फ़ाज़ में हमारा ख़ूबसूरत और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र समाया हुआ है। लेकिन जब एक दलित छात्र रोहित वेमुला ने अपनी ज़ख़्मी रूह की स्याही से ये लिखा था कि—

''मैं तो हमेशा लेखक बनना चाहता था। विज्ञान का लेखक, कार्ल सेगन की तरह और अंततः मैं सिर्फ़ यह एक पत्र लिख पा रहा हूं। मैंने विज्ञान, तारों और प्रकृति से प्रेम किया, फिर मैंने लोगों को चाहा, यह जाने बग़ैर कि लोग जाने कब से प्रकृति से दूर हो चुके। हमारी अनुभूतियां नक़ली हो गई हैं। हमारे प्रेम में बनावट है। हमारे विश्वासों में दुराग्रह है। इस घड़ी मैं आहत नहीं हूं, दुखी भी नहीं, बस अपने आपसे बेख़बर हूं।

एक इंसान की क़ीमत, उसकी पहचान एक वोट… एक संख्या… एक वस्तु तक सिमट कर रह गई है। कोई भी क्षेत्र हो, अध्ययन में, राजनीति में, मरने में, जीने में, कभी भी एक व्यक्ति को उसकी बुद्धिमत्ता से नहीं आंका गया। इस तरह का ख़त मैं पहली दफ़ा लिख रहा हूं। आख़िरी ख़त लिखने का यह मेरा पहला अनुभव है। अगर यह क़दम सार्थक न हो पाए तो मुझे माफ़ कीजिएगा।

हो सकता है इस दुनिया में प्यार, दर्द, ज़िन्दगी और मौत को समझ पाने में, मैं ग़लत था। कोई जल्दी नहीं थी, लेकिन मैं हमेशा जल्दबाज़ी में रहता था। एक ज़िन्दगी शुरू करने की हड़बड़ी में था। इसी क्षण में, कुछ लोगों के लिए ज़िन्दगी अभिशाप है। मेरा जन्म मेरे लिए एक घातक हादसा है। अपने बचपन के अकेलेपन से मैं कभी उबर नहीं सका। अतीत का एक क्षुद्र बच्चा''।

रोहित वेमुला का ये ख़त जितनी दफ़ा पढ़ती हूं उनकी मां की याद आ जाती है एक दो बार दूर से ही उन्हें देखा है। बेनूर हो चुकी एक मां की आंखों के सारे भाव उस आंखों के तारे के साथ चले गए जो लिख गया है कि मरने के बाद मैं दूर तारों में जा मिलूंगा। लोग कहते हैं कि सुसाइड एक Heat of the moment होता है लेकिन रोहित ने अपने आख़िरी पलों को भी दिल से बयां करते हुए लिखा था कि ''इस वक़्त मैं आहत नहीं हूं… दुखी नहीं हूं, मैं बस ख़ाली हो गया हूं''।

क्या हमारे देश में रोहित के धर्म ने, समाज और संस्थान ने एक होनहार छात्र को उस राह पर ले जाकर छोड़ दिया था जहां वो अंदर से इतना बिखर गया था कि हर एहसास ने भी उससे मुंह मोड़ लिया था। और उसके पास सिर्फ़ दुनिया से कूच करने का ही ऑप्शन रख छोड़ा था।

रोहित वेमुला के इस ख़त को पढ़ने वालों को एक बार नहीं बार-बार, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर संविधान के उस पहले पन्ने को पढ़ना चाहिए जिस पर लिखा है—

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी  पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता

और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए

दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई॰ (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

दुनिया के सबसे बड़े (और कभी महान कहे जाने वाले) लोकतंत्र के संविधान में लिखे ये अल्फ़ाज़ रोहित के लिए बेमानी हो गए। रोहित को किस बात की सज़ा मिली? रोहित, ना देश में पहला और ना ही आख़िर ऐसा शख़्स था जिसे उसके दलित होने की सज़ा मिली।

लंबे संघर्ष, तपस्या के बाद 1947 में आज़ादी मिली। लेकिन वो पूरी तरह से उस वक़्त हाथ में आई जब 26 जनवरी 1950 में देश ने अपना संविधान लागू किया। इस संविधान को बनाने में भी कम मशक़्क़त नहीं लगी थी। वैसे तो इस लंबी प्रक्रिया में कई लोग जुड़े थे लेकिन भीम राव अंबेडकर वो वाहिद शख़्स थे जिन्होंने उस वक़्त ख़ुद के दलित होने की सज़ा हर क़दम पर भोगी लेकिन बावजूद हार नहीं मानी। शायद इसी का नतीजा का था कि उन्होंने इतना शानदार संविधान तैयार किया।

क़रीब 100 अल्फ़ाज़ वाली संविधान की प्रस्तावना का हर ज़ेर-ओ-ज़बर देश के सशक्त लोकतंत्र का ऐलान करता है। लेकिन इस साल जब हमने गणतंत्र की 72वीं सालगिरह मनाई तो लगता है we the people of India से शुरू हुआ सफ़र I, Me, Myself  पर जा पहुंचा है। अब यहां से आगे की राह क्या होगी या होने वाली है कोई नहीं जानता।

रोहित वेमुला दुनिया से चला गया लेकिन नजीब, वो कहां है? नजीब दुनिया की सबसे बेहतरीन यूनिवर्सिटी में शुमार JNU ( जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी) का स्टूडेंट था लेकिन एक दिन रातो-रात वो अपने होस्टल के रूम से ग़ायब हो गया। नजीब को आसमान खा गया या फिर ज़मीन निगल गई कोई नहीं जानता। जिस वक़्त वो ग़ायब हुआ था उसकी यूनिवर्सिटी एक एजेंडा के तहत निशाने पर थी सो नजीब के लिंक भी जाने कहां-कहां जोड़ दिए गए जो बाद में कोरी बकवास साबित हुए। नजीब की अम्मी फ़ातिमा नफ़ीस अपने कलेजे के टुकड़े के लिए रोई, चिल्लाई, दिल्ली की सड़कों पर पुलिस की लाठी खाई पर नजीब नहीं मिला। फ़ातिमा अम्मी ने भी आस नहीं छोड़ी है वो अपनी आख़िरी सांस तक अपने बेटे नजीब की राह देखेंगी। वैसे नजीब की ही यूनिवर्सिटी से नाता रखने वाले उमर ख़ालिद और शरजील इमाम को शुक्र मनाना चाहिए कि वो गायब नहीं हुए बल्कि उनपर UAPA लगा कर जेल पहुंचा दिया गया। इन दोनों पर मैं ज़्यादा बात नहीं करने वाली क्योंकि वो इंग्लिश में कहते हैं न कि मामला sub judice  टाइप का है। लेकिन दुनिया भर में रिसर्च करने वालों को एक रिसर्च ये भी ज़रूर करनी चाहिए कि भारत की जेलों में बंद लोगों में कितने प्रतिशत वो लोग हैं जिनके नाम मुसलमान वाले हैं। वैसे हाल ही में आई मनीषा भल्ला और डॉ. अलीमुल्लाह ख़ान की किताब 'बाइज़्ज़त बरी' उन 16 बेगुनाह युवकों की कहानी है जिन्हें सिर्फ़ मुसलमान होने की सज़ा दी गई ।

जैसा कि मैंने कहा था कि मैं उमर ख़ालिद और शरजील इमाम की बात नहीं करूंगी लेकिन मैं CAA-NRC के विरोध में हुए उस आंदोलन की ज़रूर बात करूंगी जिसके स्टेज पर मैंने अक्सर संविधान की प्रस्तावना को पढ़ते देखा था। मैं इस आंदोलन को दबाने वाले उस दिल्ली दंगे की बात ज़रूर करूंगी जिसमें मुसलमानों को निशाना बनाया गया और उस फ़ैज़ान का ज़िक्र भी ज़रूर करूंगी जिसे चार और लड़कों के साथ सड़क पर बेरहमी से पीटते हुए राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत गाने को कहा गया और उसने टूटती सांसों के साथ जान बच जाने की हसरत में गाया भी।

दिल्ली दंगे के बारे में जितना कहें कम होगा। दंगा कराने वालों में मुसलमान का नाम, दंगे में मरने वालों में मुसलमान का नाम और तो और जो जेल गए वो भी मुसलमान। लेकिन इस मामले में जो पहला फैसला आया है उसमें कौन गुनहगार है उसका नाम मैं नहीं लिखने वाली आप ख़ुद गूगल करके देखिएगा।

संविधान ने आंदोलन करने की आज़ादी दी, आंदोलन में अपनी मांगों को उठाने, अपनी आवाज़ बुलंद करने की आज़ादी दी लेकिन उसी आंदोलन को दबाने के लिए जब किसी एक कौम को टारगेट किया जाए तो संविधान की आत्मा पर क्या गुज़रती होगी कभी फ़ुर्सत मिले तो ज़रूर सोचिएगा।

दुनिया चीख़-चीख़ कर भारत के मुसलमानों के लिए बढ़ते ख़तरे की बात उठा रही है ( जेनोसाइड वॉच के संस्थापक प्रोफेसर ग्रेगरी स्टैंटन ने भारत में नरसंहार की चेतावनी दी है और कहा है कि मुस्लिम इसका शिकार हो सकते हैं) लेकिन ये ख़तरा भी एक या दो दिन में पैदा नहीं हुआ बल्कि पहलू, अख़लाक और तबरेज़ जैसे तमाम मुसलमानों की मौतों से होते हुए यहां तक पहुंचा है। मुसलमान आबादी तमाम उम्र अपनी देशभक्ति साबित करने के लिए झंडा उठाए, संविधान के पन्नों का हवाले देते हुए गुज़ार देती है। लेकिन हाल में हुई हरिद्वार में धर्म संसद में उनके नरसंहार का आह्वान तो साफ़ कर देता है कि अब उनके झंडा उठाने या संविधान की दलील देने से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला। भले ही वो अपने मदरसों में गाते रहें-

लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी

ज़िंदगी शमा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी!

दूर दुनिया का मेरे दम से अंधेरा हो जाए!

हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए!

हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत

नफ़रत के माहौल में तराने बदल गए, जिस दौर में सवाल पूछना गुनाह बना दिया गया उस दौर में मुसलमानों से मुग़लों का बदला तो लिया जा रहा है। लेकिन रोटी, रोज़गार, महंगाई के लिए कौन ज़िम्मेदार है ये पूछना तो छोड़िए, सोचना भी गुनाह है। क्योंकि आज हालात फ़ैज़ की इस नज़्म की मानिंद हो चले हैं।

निसार मैं तिरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ

चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले

नज़र चुरा के चले जिस्म ओ जाँ बचा के चले

देश में दलित और मुसलमान ही नहीं कुछ और 'बिरादरी' भी हैं जिन्हें संविधान तो बहुत कुछ देता है लेकिन उन्हें हासिल क्या होता है ये दुनिया देख रही है। और ये बिरादरी हैं—

महिलाओं की

छात्रों की

किसानों की

मज़दूरों की

आदिवासियों की

संसद से सड़क तक, घर के किचन से ऑफ़िस के टेबल तक हर जगह महिलाएं हैं लेकिन क्या वाक़ई संविधान में उन्हें जो अधिकार दिए हैं वो उनतक पहुंचे हैं? अपनी पंसद की पढ़ाई से लेकर अपनी पसंद के जीवन साथी को चुनने तक का उन्हें अधिकार नहीं ( कुछ बाग़ी उदाहरण ज़रूर मिलते हैं)। संविधान तो छोड़िए जिस देश की पांच हज़ार साल पुरानी सभ्यता-संस्कृति की दुहाई दी जाती है। जहां नारी के पूजने का हवाला दिया जाता है, वहां खुले आम सीना फुलाए महंत यति नरसिंहानंद सरस्वती महिला नेताओं को ''रखैल'' बोलकर मुस्कुराते हैं। यहां मुस्लिम महिलाएं की ऑनलाइन नीलामी होती है और हर तरफ़ डरा देने वाली ख़ामोशी पसरी है। क्लब हाउस में ग्रुप बनाकर मुसलमान लड़कियों पर ख़तरनाक तरीक़े से जोक बनाए जाते हैं लेकिन किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हाथरस में दलित बच्ची का गैंगरेप होता है तो पहले रेप की बात तो पुरज़ोर तरीक़े से ख़ारिज करने की कोशिश होती है और फिर लॉ एंड ऑर्डर की दलील देते हुए रात के अंधेरे में पेट्रोल डालकर उसकी लाश को जला दिया जाता है। 

छात्रों का हाल तो देख ही रहे हैं, गणतंत्र दिवस के एक दिन पहले यूपी-बिहार के छात्रों को हॉस्टल के रूम से लेकर सड़क तक पीटा गया। पीठ पर बस्ता लटकाए देश का नौजवान रोज़गार के लिए लाठी खा रहा है। हर साल शिक्षा बजट घट रहा है, लॉकडाउन के दौरान कितने बच्चों के स्कूल छूट गए वो एक अलग स्टोरी है। New Education Policy का क्या हासिल है वो भी एक बहस का मुद्दा है। महंगी होती शिक्षा गरीब, दलित, पिछड़े लोगों की पहुंच से दूर कर दी जा रही है। किसी तरह स्कॉलरशिप के सहारे उच्च शिक्षा तक पहुंचे रोहित वेमुला जैसे छात्रों की अपनी पीड़ा है। बात रोहित की हो या फिर कर्नाटक की उन बच्चियों की जिन्हें हिजाब पहन कर आने पर क्लास में नहीं घुसने दिया। समझ नहीं आता जहां का संविधान सबको समान मानता है वहां रंग-रूप, मज़हब कैसे अंतर पैदा कर देता है।

किसान, मज़दूर और आदिवासियों की तो कहानी ही कुछ अलग है। उनपर लिखने बैठे तो सालों लग जाएंगे। जंगल से जुड़े आदिवासी अगर अपनी ज़मीनों को बचाने के लिए आवाज़ उठाते हैं तो उन्हें नक्सली करार देने में ज़रा देर नहीं लगती। और तो और अगर कोई उनकी हक की लड़ाई में उनका साथ देने पहुंच जाए तो उसके अर्बन नक्सल साबित करने के लिए घर में मिली दो किताबें ही काफी हो सकती हैं।

बाबा साहब ने देश को मज़बूत करने के लिए एक प्यारा और मज़बूत संविधान दिया था लेकिन आज जब पलट कर देखते हैं तो ऐसा लगता है संविधान की आत्मा पर ज़रूर चोट लगी होगी।

देश अपनी रूह की लड़ाई लड़ रहा है। हर वर्ग ज़ख़्मी, बेबस दिख रहा है।

जिस दौरान बाबा साहब अंबेडकर संविधान को आख़िरी रूप दे रहे थे उसी दौरान बिहार के मोतिहारी में पैदा हुए जॉर्ज ऑर्वेल अपनी दो महान किताबों की नज़र से आने वाले भारत की तस्वीर को अपनी किताबों में उकेर रहे थे।

'1984' और 'एनिमल फार्म' दो ऐसी किताबें हैं जिनका एक-एक अल्फ़ाज़ सच साबित होता दिख रहा है। पेगसस आया तो साबित हो गया कि ''Big Brother is watching you''। सोशल मीडिया

 से लेकर आपके घर तक थॉट पुलिस का क़ब्ज़ा है। आपने ज़रा लीक से हटकर सोचने समझने की कोशिश की तो ये थॉट क्राइम की श्रेणी में आ सकते हैं। अल्फ़ाज़ और इतिहास को इतनी सफ़ाई से हटाया जा रहा है कि वो सिर्फ़ आपकी यादों का हिस्सा होंगे और आपके साथ ही चले जाएंगे। बात इतिहास की होगी तो किताब में लिखा है—

''अतीत को कौन नियंत्रित करता है पार्टी का नारा कहता है भविष्य जिसके क़ाबू में है जो वर्तमान को नियंत्रित करता है वह अतीत को भी नियंत्रित करता है'' - 1984

किताब में शासन करने वाली पार्टी का नारा था

युद्ध शांति है

स्वतंत्रता गुलामी है

अज्ञानता शक्ति है।

ज़रा नज़र उठाकर अपने आस-पास देखिए कुछ तो ज़रूर महसूस करेंगे। 'एनिमल फ़ार्म' में जब सत्ता जानवरों के हाथों में आई तो उन्होंने अपने सात धर्मादेश बड़े-बड़े अक्षरों में दीवार पर लिख दिए। उन्होंने अपनी एक धुन भी बनाई थी जिसे वो एक साथ सुर से सुर मिलाकर गुनगुनाते थे। लेकिन जब कॉमरेड नेपोलियन के सिर सत्ता का नशा चढ़ा तो ना सिर्फ़ जीत की धुन बदल गई बल्कि धीरे-धीरे सात धर्मादेशों को भी बहुत ही चतुराई से मिटा कर या बदल दिया गया। और जो दीवार पर रह गया वो था।

सभी पशु बराबर हैं

लेकिन कुछ पशु

दूसरे पशुओं से ज़्यादा बराबर हैं

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इसे भी पढ़े : हम भारत के लोग: समृद्धि ने बांटा मगर संकट ने किया एक

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest