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झंझावातों के बीच भारतीय गणतंत्र की यात्रा: एक विहंगम दृष्टि

कारपोरेट ताकतों ने, गोदी मीडिया, इलेक्टोरल बॉन्ड समेत अनगिनत तिकड़मों से अपनी हितैषी ताकतों को राजनीतिक सत्ता में स्थापित कर तथा discourse को कंट्रोल कर एक तरह से चुनाव और लोकतन्त्र का अपहरण कर लिया है।
hum bharat ke log

(हम भारत के लोग-- विचार श्रृंखला के तहत प्रकाशित आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में हमारा गणतंत्र एक चौराहे पर खड़ा है का दूसरा भाग)

आपातकाल हमारे गणतंत्र के इतिहास में एक निर्णायक विभाजन रेखा है। उससे शुरू हुआ गणतंत्र के मूल्यों का तीव्र ह्रास एक chain reaction में निरंतर आगे बढ़ता गया।

आपातकाल के बाद हुए 1977 के चुनाव का सबसे अशुभ fall out , जिसका भारत की राजनीति पर दूरगामी असर पड़ने वाला था, वह संघ-जनसंघ का केंद्रीय सत्ता में हिस्सेदार बनना रहा। (इसकी शुरुआत राज्य सरकारों में लोहिया के गैरकांग्रेसवाद के चर्चित सिद्धांत के नाम पर 1967 में ही हो गयी थी। ) दरअसल इसके फलस्वरूप एक लोकतांत्रिक ताकत की छवि अर्जित करने के बाद फिर संघ-जनसंघ ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और भाजपा के अपने नए अवतार में केंद्रीय सत्ता की ओर अविराम बढ़ने लगी।

अपने अंतर्विरोधों के बोझ तले 3 साल के अंदर ही जनता पार्टी सरकार के बिखरने के बाद सत्ता में पुनर्वापसी करने के बाद इंदिरा गांधी किसी लोकतान्त्रिक सामाजिक-आर्थिक बदलाव के रास्ते पर बढ़ने की बजाय फिर अपने निरंकुश रास्ते पर लौटने लगीं और उसमें हिंदूकार्ड का एक बेहद खतरनाक आयाम जुड़ गया।

पंजाब में हरित क्रांति के पहले संकट से उभरते किसान आंदोलन और विपक्ष की चुनौती से निपटने के लिए उन्होंने जो रणनीति अपनाई, उसके फलस्वरूप पैदा आतंकवाद के दंश को देश ने दशकों तक झेला। उसी दौर में तमिलनाडु में विश्व हिंदू परिषद के हिन्दू एकात्मता यज्ञ में वह शरीक हुईं। सम्भव है इसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की उभरती चुनौती का anticipation भी रहा हो।

ऑपरेशन ब्लूस्टार और उसके बाद जिन दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में उनकी हत्या हुई, उसके बाद पैदा हालात को राजीव गांधी सरकार ने जिस तरह handle किया, उसमें साम्प्रदायिक अंधराष्ट्रवाद चरम पर पहुंच गया, हजारों मासूम सिख जिसके शिकार हुए। जाहिर है इस पूरे घटनाक्रम ने और बाद में हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपंथियों के आगे सरेंडर करते हुए राजीव गाँधी ने जो अवसरवादी कार्ड खेला, अंततः इस सब की sole beneficiary वह ताकत हुई जो हिन्दू राष्ट्रवाद की सबसे " authentic force " थी। देखते-देखते राम मंदिर आन्दोलन के उन्माद से संघ-भाजपा ने पूरा डिस्कोर्स बदल दिया और देश की भविष्य की पूरी राजनीति में एक paradigm shift कर दिया।

इसी दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं।

अनेक बहुजनविमर्शवादी यह तर्क देते हैं कि मंडल का मुकाबला करने के लिए कमंडल की राजनीति आयी। यह सच नहीं है। सच यह है कि संघ का राममन्दिर आंदोलन उसके पहले से चल रहा था और संघ के साम्प्रदायिक फासीवादी अभियान की तो अब सदी पूरी होने वाली है।

यह जरूर है कि मंडल लागू होने के बाद के charged माहौल में आडवाणी की उस रथयात्रा से मन्दिर आंदोलन को धार मिली। आडवाणी की रामरथ यात्रा तात्कालिक तौर पर मंडल के खिलाफ पैदा सवर्ण प्रतिक्रिया को अपने पक्ष में गोलबंद करने और हिंदुत्व का बड़ा वितान बनाकर पिछडावाद की काट करने की मंशा से प्रेरित थी।

उदारवादी बुद्धिजीवियों और आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के पुरोधाओं की यह जो थीसिस थी कि मंडल राजनीति से कमंडल राजनीति का मुकाबला किया जा सकता है और शिकस्त दी जा सकती है वह मृगमरीचिका साबित हुई।

दरअसल, पिछड़े समुदाय से आने वाले कल्याण सिंह के प्रयोग के माध्यम से( उन्हें उत्तरप्रदेश में सबसे बड़े नेता के रूप में प्रोजेक्ट कर और मुख्यमंत्री बनाकर) संघ ने संकेत दे दिया था कि उसके फ़ासिस्ट प्रोजेक्ट का मुकाबला जातियों के गठजोड़ से नहीं किया जा सकता, वह सवर्णों ही नहीं, पिछड़ों-दलितों का भी हिन्दुत्वकरण करने में समर्थ है। " कमंडल " राजनीति " मंडल " राजनीति को appropriate कर सकती है, जो कालान्तर में उसने नरेंद्र मोदी के माध्यम से, उनकी पिछड़ी पहचान को highlight कर और भी सफलतापूर्वक अंजाम दिया।
( प्रसंगवश, आज UP में भी इस तरह की कोई खुशफहमी विपक्ष के लिए आत्मघाती हो सकती है। )

मंडल-कमंडल की उसी अफरातफरी के बीच ( सम्भवतः उसका फायदा उठाते हुए ) एक तीसरी युगान्तकारी परिघटना अस्तित्व में आयी जो आने वाले लंबे दौर के लिए हमारी अर्थनीति और राजनीति को पूरी तरह बदल देने वाली थी। इसे भूमंडलीकरण और निजीकरण-उदारीकरण की नवउदारवादी अर्थनीति के रूप में जाना गया, नरसिम्हा राव के वित्तमंत्री मन मोहन सिंह, जो बाद में 10 वर्ष तक प्रधानमंत्री भी रहे, भारत में इन नीतियों के सूत्रधार बने।

कालांतर में सभी दलों की सरकारों ने, उनकी घोषित विचारधारा और social posturing जो भी रही हो, पिछले 3 दशक से इन्हीं नीतियों पर अमल किया है।

प्रो. प्रभात पटनायक के शब्दों में, "उदारीकरण के 3 दशक बाद भी विकास का लाभ गरीबों को नहीं मिला है। उदारवाद के समर्थक इस बात को भूल जाते हैं कि उससे भले ही एक दौर में GDP विकास दर बढ़ी हो,लेकिन उसने मेहनतकश तबकों के आर्थिक दोहन को और तेज कर दिया तथा उनकी जीवन स्थितियों को और बदतर बना दिया है, जबकि अमीर और अमीर हो गए हैं। ...इसने देश की अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर डाला है, जहाँ महामारी के पहले ही 2019 में बेरोजगारी दर 45 साल के सर्वोच्च मुकाम पर पहुंच गई थी। हाल में रोजगार तथा उपभोग में भारी गिरावट इसी की पुष्टि करती है। "

वे कहते हैं, " इसका दूसरा परिणाम यह हुआ कि नवउदारवाद जब संकटग्रस्त हो गया और एक अंधी गली में फंस गया, तब इसने कारपोरेट और फासीवादी हिंदुत्व की ताकतों के बीच एक गठजोड़ को जन्म दिया जिस पर मोदी सरकार टिकी है, ...ताकि ऐसी ताकतों की मदद से " The Other" के खिलाफ मिथ्या-अभियान द्वारा आर्थिक तबाही से जनता का ध्यान भटकाया जा सके। ...इसने उन बुनियादी उसूलों की अवहेलना ( undermine ) की है जिनकी बुनियाद पर ही एक आधुनिक भारतीय राष्ट्र का निर्माण हो सकता है। ...अपने मौजूदा संकटग्रस्त दौर में यह हमारे संविधान की बुनियादी प्रस्थापना- लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक बराबरी- के लिए घातक है। "

आज राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के कोर सेक्टरर्स समेत सभी क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी और कारपोरेट का शिकंजा कसता जा रहा है, चहेते कारपोरेट घरानों के हाथों बहुमूल्य राष्ट्रीय सम्पदा का हस्तांतरण होता जा रहा है, उसी अनुपात में समाज में दरिद्रीकरण, असमानता, बेकारी बढ़ती जा रही है।

सरकारी क्षेत्र खत्म होता जा रहा है, नौकरियां खत्म होने और लैटरल entry जैसे कदमों से वंचित तबकों के सामाजिक न्याय के लिए बनी आरक्षण की व्यवस्था बेमानी होती जा रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य सभी क्षेत्रों से सरकार के पीछे हटते जाने, अंधाधुंध निजीकरण के फलस्वरूप आम जनता, कमजोर तबके जीवन की मूलभूत सुविधाओं, बुनियादी जरूरतों से वंचित होते जा रहे हैं।

यह विडम्बना identity politics के बारे में बहुत कुछ कहती है कि इसके प्रतिनिधियों ने सामाजिक लोकतन्त्र और न्याय की दुश्मन इन विनाशकारी अर्थनीति का न सिर्फ विरोध नहीं किया, वरन सरकारों में आने पर बढ़चढ़ कर लागू किया।

कारपोरेट ताकतों ने, गोदी मीडिया, इलेक्टोरल बॉन्ड समेत अनगिनत तिकड़मों से अपनी हितैषी ताकतों को राजनीतिक सत्ता में स्थापित कर तथा discourse को कंट्रोल कर एक तरह से चुनाव और लोकतन्त्र का अपहरण कर लिया है।

तमाम संस्थाओं के शीर्ष पदों पर loyal तथा एक खास विचारधारा के समर्थकों को बैठाकर पूरी political-administrative मशीनरी पर कब्जा एवं social-cultural स्पेस पर वर्चस्व कायम करने का अभियान जारी है।

इस दमनकारी निजाम के ख़िलाफ़ उठती आवाज़ों को कुचलने के लिए तमाम draconian कानूनों तथा पेगासस जैसी surviellance तकनीक से लैस होता राज्य अधिकाधिक अधिनायकवादी ( authoritarian ) होता जा रहा है।

हमारे गणतंत्र की यात्रा के सुनहरे अध्याय हैं-किसानों, मेहनतकशों, महिलाओं, छात्र-युवाओं, हाशिये के तबकों, नागरिकों, बुद्धिजीवियों के वे अनगिनत संघर्ष जिन्होंने हमारे गणतंत्र की आत्मा को ज़िंदा रखा। हाल हाल के निर्भया आंदोलन, शाहीन बागों और ऐतिहासिक किसान आंदोलन को कौन भूल सकता है ?

अतीत की इस गौरवशाली विरासत से प्रेरणा लेते हुए, आज हमारे गणतंत्र को reclaim करने के लिए जरूरत है एक विराट राष्ट्रीय आन्दोलन की- उत्पीड़ित वर्गों व तबकों तथा जागृत नागरिकों की व्यापकतम सम्भव एकता पर आधारित जनान्दोलन-कुछ कुछ आज़ादी की लड़ाई जैसा- जिसकी धुरी हो आर्थिक राष्ट्रवाद , सामाजिक लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता, रैडिकल राजनैतिक लोकतांत्रिक सुधार तथा सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में आधुनिक, वैज्ञानिक मूल्यों की स्थापना।

हमारे गणतंत्र के महान foundational values-न्याय, स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे-को फिर से retrieve करने के लिए नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और उसकी जुड़वां फासीवादी राजनीति को पलटना होगा। विश्व समुदाय के अनेक राष्ट्रों की जनता आज इस लड़ाई में लगी है और उनमें से कई कामयाबी की दास्तान भी लिख रहे हैं।

भारत को भी इस कठिन युद्ध को लड़ना ही होगा। हमारे गणतंत्र के मूल्यों को पुनः अर्जित करना है तो इस लड़ाई का कोई विकल्प नहीं है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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