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महज़ मतदाता रह गए हैं हम भारत के लोग
लोगों के दिमाग में लोकतंत्र और गणतंत्र का यही अर्थ समा पाया है कि एक समय के अंतराल पर राजा का चयन वोटों से होना चाहिए और उन्हें अपना वोट देने की कुछ क़ीमत मिलनी चाहिए।
अरुण कुमार त्रिपाठी
23 Jan 2022
Hum Bharat Ke Log

आजादी के अमृत महोत्सव और 73वें गणतंत्र दिवस के मौके पर नजर दौड़ा कर देखें तो पाएंगे कि हम भारत के लोग या तो मतदाता बन कर रह गए हैं या उपभोक्ता। वे नागरिक नहीं बन पाए हैं। वे भारतीयता का अर्थ भूल गए हैं। लोगों के दिमाग में लोकतंत्र और गणतंत्र का यही अर्थ समा पाया है कि एक समय के अंतराल पर राजा का चयन वोटों से होना चाहिए और उन्हें अपना वोट देने की कुछ कीमत मिलनी चाहिए। इस तरह से हमने अधिकारों और दायित्वों पर नहीं लेन देन और रिश्वत पर आधारित एक लोकतांत्रिक गणतंत्र का विकास किया है। जहां लोग मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों को नहीं राज्य की कृपा को समझते हैं और उसके अहसान तले दबे रहना चाहते हैं।

राष्ट्र और उसकी नागरिकता की जो महान अवधारणा हमारे संविधान ने दुनिया के अन्य महान देशों की तरह से निर्मित करने की कोशिश की थी वह लोग समझ नहीं पाए। राष्ट्र बहुसंख्यवाद के धर्म और भावनाओं के आधार पर गढ़ी जाने वाली एक इमारत का रूप लेता जा रहा है। ऐसी इमारत जहां अल्पसंख्यकों के लिए स्थान नहीं होगा।

पांच राज्यों के चुनाव के बीच मनाए जा रहे गणतंत्र दिवस के मौके पर संविधान और उसकी उद्देशिका का स्मरण मौजूं हो जाता है। आखिर कौन हैं वह भारत के लोग जिन्होंने आजादी की लंबी लड़ाई के बाद अपने को आजाद घोषित किया और फिर अपने लिए एक संविधान बनाकर स्वयं अंगीकार किया?

अगर रामधारी सिंह दिनकर की नज़र से देखें तो यह वही जनता है जिसके बारे में उन्होंने 26 जनवरी 1950 को लिखा था-----

सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है

दो राह समय के रथ का घर-घर नाद सुनो

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

जनता हां मिट्टी की अबोध मूरतें वही

जाड़े पाले की कसक सदा सहने वाली

जब अंग अंग में लगे सांप हो चूस रहे

तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली

....

लेकिन होता भूडोल बवंडर उठते हैं

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती

सांसों के बल से ताज हवा में उड़ते हैं

जनता की रोके राह समय में ताव कहां

वह जिधर चाहती काल उधर मुड़ जाता है

शायद दिनकर जी ने उस जनता की कल्पना की थी जो अपने चेतना के उच्च स्तर पर थी और जिसने अंग्रेजों से लड़कर अपनी आजादी को हासिल किया था। उस जनता के दर्शन हमने 1977 में फिर किए थे जब उसने आपातकाल के जबड़े से अपने संविधान और लोकतंत्र को पूरी ताकत से निकाल लिया था। उसी की प्रशंसा में प्रसिद्ध संविधानविद नानाभाय पालखीवाला ने `वी द पीपुलः इंडिया द लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’  जैसी पुस्तक संकलित की थी। लेकिन सवाल यह है कि क्या आज की जनता उस रूप में तैयार है? वह जनता सिर्फ सबल ही नहीं दयनीय भी है और इसका वर्णन रघुवीर सहाय ने `राष्ट्रगीत’ नामक कविता में कुछ इस प्रकार किया था-----

राष्ट्रगीत में भला कौन वह

भारत भाग्यविधाता है

फटा सुथन्ना पहने जिसका

गुन हरचरना गाता है

मखमल टमटम तुरही

पगड़ी छत्र चंवर के साथ

तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर

जय जय कौन कराता है

पूरब पश्चिम से आते हैं नंगे बूचे नरकंकाल

सिंहासन पर बैठे उनके तमगे कौन लगाता है

दो बड़े कवियों की कल्पनाओं के बीच हम भारत के लोग झूल रहे हैं। रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि इस देश के 33 करोड़ देवता वास्तव में मंदिरों में नहीं खेतों और खलिहानों में बसते हैं। लेकिन सात आठ दशक बीतते बीतते जनता फिर लाचारी में फंस गई। जनता जो संविधान के माध्यम से अपना भाग्यविधाता बनना चाहती थी उसका भाग्य फिर मंदिरों- मस्जिदों और कुछ धार्मिक किताबों से बांधा जा रहा है।

आजादी की लड़ाई और उससे जुड़े मूल्यों का रास्ता यही कहता था कि हमें धार्मिक जकड़बंदियों से मुक्त होना है और असली देवता उन्हें ही मानना है जो खेतों और खलिहानों में काम कर रहे हैं। निश्चित तौर पर हमारे संविधान निर्माताओं को इस बात का अहसास था कि उन्हें जब आजादी मिल रही है और उसकी सतत यात्रा के लिए वे एक संविधान दे रहे हैं तो बाहर कितना घनघोर सांप्रदायिक विभाजन है।

वह समय था जब ट्रेनों में लोगों का धर्म पूछा जाता था और तब उन्हें सुरक्षा दी जाती थी या उनका कत्ल किया जाता था। अगर हमलावरों को यकीन नहीं होता था तो वे लोगों के कपड़े उतरवाते थे और उनके धर्म का परीक्षण करते थे। उस परिवेश से निकलकर भारत ने ऐसा वातावरण निर्मित करने का संकल्प लिया था कि अब वैसा न हो और अगर संभव हो तो विभाजन की इस दीवार को ही तोड़ दिया जाए।

1948 में इसी महीने की 13 से 18 जनवरी के बीच महात्मा गांधी ने दिल्ली के बिड़ला भवन में अपना आखिरी आमरण अनशन करके जलती हुई दिल्ली को शांत किया था। उन्होंने अपने साथियों को पाकिस्तान भेज कर वहां भी जाने की इजाजत मांगी थी ताकि धरती पर पड़ी विभाजन रेखा भले बनी रहे लेकिन दिलों के विभाजन को मिटाया जा सके। लेकिन इजाजत मिले इससे पहले 30 जनवरी 1948 को सांप्रदायिकता का जहर उन्हें निगल गया।

इसीलिए भारत के नागरिकों ने अपने नाम से जो संविधान बनाया था उसके भीतर उन नागरिकों को भी बदलने का संकल्प दिखाई देता है जो जाति और धर्म की संकीर्णताओं में जकड़े हुए थे। ईर्ष्या द्वेष से भरे हुए थे। यह संकल्प धर्म, जाति, जन्मस्थान और भाषा के आधार पर किसी के साथ भेदभाव से मनाही करता है और यह भी कहता है कि राज्य की दृष्टि में सभी धर्म बराबर हैं। राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं है। यही भारत में सेक्युलर होने का अर्थ है।

संविधान ने अगर एक ओर आजादी और राष्ट्र की एकता अखंडता की रक्षा के लिए मजबूत राष्ट्र राज्य बनाने का इरादा जताया था तो दूसरी ओर समता और भाईचारे के लिए एक सामाजिक क्रांति का खाका भी पेश किया था।

लेकिन आज वे संकल्प खो गए से लगते हैं और यही वजह है कि विभाजन एक स्थायी घटना बनकर रह गया है। आज यह आशंका भी मंडरा रही है कि कहीं धर्म के आधार पर भारत का दूसरा विभाजन भी न हो। पिछले दिनों इंदौर के करीब ट्रेन से एक मुस्लिम व्यापारी और एक विवाहित हिंदू शिक्षिका यात्रा कर रहे थे। वे पारिवारिक मित्र थे। उन्हें हिंदू धर्म के कुछ ‘रक्षक’ जबरदस्ती ट्रेन से उतार ले गए। उन्होंने उस मुस्लिम व्यापारी पर आरोप लगाया कि वह लव जिहाद कर रहा है। उन्हें वे लोग थाने ले गए जहां तमाम तरह की पूछताछ और लिखा पढ़ी के बाद उन दो बालिग नागरिकों को छोड़ दिया गया। उन हिंदू धर्म रक्षकों को कुछ नहीं कहा गया जिन्होंने दो नागरिकों की गरिमा गिराने के लिए तमाम तरह के अपराध किए।

यह घटना और इस तरह की तमाम घटनाएं हम भारत के लोगों के निर्माण में बहुत बड़ी बाधा है। यह भारत की एकता और अखंडता में बाधा है। यह एक प्रकार का सांप्रदायिक विभाजन पैदा करती है। लेकिन उससे भी ज्यादा विभाजन पैदा करती है वह दृष्टि और उसके संचालन में बनने वाले कानून जो शास्त्रीय दृष्टि से लव और जिहाद जैसे दो पवित्र कामों को अपवित्र बनाते हैं।

हाल में जिनोसाइड वाच नामक संस्था के अध्यक्ष ग्रेगरी स्टेनटन ने चेतावनी दी है कि भारत में अगले साल नरसंहार होने की आशंका है। हाल में हरिद्वार में आयोजित घर्म संसद में जिस तरह हिंदू साधु संतों ने मुसलमानों के नरसंहार के लिए आधुनिक हथियार जमा करने की अपील की है उससे यह खतरा बढ़ गया है। ग्रेगरी स्टेनटन वही व्यक्ति और जिनोसाइड वाच वही संस्था है जिसने रवांडा में नरसंहार की भविष्य़वाणी की थी और वह घटित हुआ था। उन्होंने हरिद्वार वाली धर्म संसद पर भारतीय प्रधानमंत्री की चुप्पी पर हैरानी जताई है।

उनका कहना है कि यह कहना ठीक नहीं है कि नरसंहार शुरू हो चुका है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत में वे सारी स्थितियां निर्मित हो रही हैं जिनके कारण नरसंहार होता है। हम और वे का विभाजन, अन्य या वे को कपड़ों, पूजा पद्धतियों और शादी विवाह के अलग समारोहों के माध्यम से चिह्नित किया जाना और फिर राजनीतिक विमर्श का अमानवीयकरण। भारत पिछले सात सालों से इन सारी शर्तों को पूरा करने की दिशा में बढ़ता जा रहा है। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी जैसे प्रावधान जो धर्म के आधार पर नागरिकता में विभेद करते हैं और बांग्लादेशियों को दीमक और दंगों में मारे जाने वाले अल्पसंख्यकों को पिल्ले की संज्ञा देते हैं उन्हीं स्थितियों के द्योतक हैं। विडंबना है कि यह सब संविधान की शपथ लेकर किया जा रहा है।

दरअसल हम भारत के लोग की पूरी अवधारणा जिन तीन सार्वभौमिक मूल्यों पर आधारित है वे आपस में अविभाज्य हैं। वे त्रिदेव की तरह एक साथ ही चलते हैं उनमें से किसी एक को अलग करेंगे तो बाकी बिखर जाएगा। वे मूल्य हैं स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व। इन मूल्यों पर कोई राष्ट्र भी टिका होता है तो इन्हीं पर विश्व भी टिका होना चाहिए। इन्हें नकारा जाएगा तो आंतरिक उथल पुथल होगी, गृह युद्ध होगा या फिर दो राष्ट्रों के बीच युद्ध होगा।

इन मूल्यों के व्यावहारिक पक्ष को प्रस्तावना में थोड़ा और समझाया गया है। कहा गया है कि सभी को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलना चाहिए। सभी को सोचने, अभिव्यक्त करने, यकीन करने और उपासना यानी पूजा या इबादत करने की आजादी होनी चाहिए। सभी को स्तर और अवसर की समानता हासिल होनी चाहिए।

लेकिन चुनावी राजनीति ने भारतीय समाज और राजनीति के उस व्यापक रूपांतरण को विद्रूप कर दिया जिसका लक्ष्य संविधान ने निर्धारित किया था और जो नागरिकता पर आधारित एक आधुनिक राष्ट्र के निर्माण के लिए आवश्यक था। जनता की संप्रभुता को राष्ट्र राज्य ने हड़प लिया और राष्ट्र राज्य की संप्रभुता को पार्टियों और कुछ संगठनों ने अपहृत कर लिया। वह भी एक दो नेताओं और पूंजीपतियों की मुट्ठी में कैद हो गया।

अगर कभी दिनकर जैसे कवि, विवेकानंद जैसे संत और महात्मा गांधी जैसे राजनेता ने जनता को जनार्दन की संज्ञा दी थी और उन्हें दरिद्र नारायण कहा था तो आज वह स्थान संसद और विधानसभाओं के उन पांच हजार जनप्रतिनिधियों ने ले लिया है जिनमें कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अधिकतर लोग लोक कल्याण के नाम पर विद्वेष और झूठ फैलाते हुए अपने स्वार्थ को साधते हैं। वे स्वार्थ और परमार्थ का संतुलन ही भूल गए हैं।

समाज के एक बड़े हिस्से में सांप्रदायिक जहर फैलने और राष्ट्र राज्य के उससे संक्रमित होने के पीछे एक बड़ा कारण सैद्धांतिक भी है। वास्तव में बराबरी की लड़ाई को कमजोर करने के लिए आर्थिक और राजनीतिक सत्ता से संपन्न लोगों ने भाईचारे पर कठोर प्रहार किया है। यह वही हथियार है जिसका इस्तेमाल औपनिवेशिक सत्ता को बनाए रखने के लिए अंग्रेज कर रहे थे। यह बात कई बार चर्चाओं में खुलेआम आ भी जाती है कि अगर आप जातिगत गैरबराबरी का सवाल उठाएंगे तो हम सांप्रदायिक टकराव पैदा करेंगे। उसको कहने का तरीका अलग होता है। कहा जाता है कि जब जाति की राजनीति करने में परेशानी नहीं है तो धर्म आधारित राजनीति करने में क्या परेशानी है। स्पष्ट तौर पर सामाजिक व्यवस्था में ऊंचे पायदान पर बैठे लोग न तो जातिगत भेदभाव मिटाना चाहते हैं और न ही आर्थिक भेदभाव। उनका मानना है कि एक व्यक्ति एक वोट की बराबरी मिल गई उतना बहुत है। यही वजह है कि जब मंडल आयोग की रपट लागू हुई और उत्तर भारत में सवर्ण और पिछड़ा द्वंद्व तेजी से उभरा तो मंदिर आंदोलन का रथ तेजी से चलने लगा। आज विधानसभा चुनावों में भी उभरते बहुजन समीकरणों की काट के लिए हिंदू मुस्लिम आख्यान का सहारा लिया ही जाता है।

सांप्रदायिकता किसी भी समाज और आधुनिक राष्ट्र राज्य और लोकतंत्र के लिए सबसे खतरनाक बीमारी है। इसका भुक्तभोगी भारत से ज्यादा और कौन देश रहा होगा। लेकिन सांप्रदायिकता की चालाकी यह है कि वह बाकी सारी कमियों को अपने से कहीं ज्यादा घातक सिद्ध करती रहती है। उसके लिए जातिवाद, परिवारवाद, भ्रष्टाचार सब महामारियां हैं। इन्हीं बुराइयों को ठीक करने के नाम पर सांप्रदायिकता अपना विस्तार करती है और धीरे धीरे पूरी व्यवस्था को पक्षपात करने के लिए मजबूर कर देती है।

सांप्रदायिकता का सबसे बड़ा हथियार हिंसा और झूठ है। यह सारे हथियार वह राष्ट्रवाद नाम के हवामहल में जमा करती है। जब मुस्लिम लीग ने भारत विभाजन की मांग की थी तो मुस्लिम समाज में बहुत सारे लोग ऐसे थे जो इस मांग से असहमत थे और मुस्लिम लीग का विरोध कर रहे थे। लेकिन हिंसा के माध्यम से उन्होंने सभी को आतंकित कर दिया। आज वही स्थिति व्यापक हिंदू समाज की है। हिंदू समाज का महत्त्वपूर्ण हिस्सा विभाजनकारी विचारों से सहमत नहीं है। लेकिन वह भय वश चुप है या फिर अन्य सेक्युलर दलों में जातिवाद, परिवारवाद और भ्रष्टाचार जैसी तमाम बुराइयां देखता है। उसे लगता है कि सांप्रदायिक दल भी तो संविधान की शपथ लेकर शासन कर रहे हैं और चुनकर आ रहे हैं। इसलिए वह कुटिल चालों को समझ नहीं पाता।

सांप्रदायिकता की जड़ में उन सारे मूल्यों का अपमान है जो आजादी की लड़ाई में गढ़े गए थे। इसीलिए वे कभी महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता मानने से इनकार करते हैं तो कभी गांधी को अन्यायी बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने सुभाष बाबू के साथ बड़ा अन्याय किया और इतिहास में सुभाष बाबू की बड़ी उपेक्षा की गई है। लेकिन ऐसा कहते हुए वे इस तथ्य की अनदेखी कर देते हैं कि सुभाष बाबू को पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का राष्ट्रपति महात्मा गांधी ने ही बनवाया था और छह जुलाई 1944 को आजाद हिंद रेडियो से नेताजी ने ही पहली बार महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कह कर संबोधित किया था और उनका आशीर्वाद लेना चाहा था।

23 जनवरी 1948 को यानी हत्या से एक हफ्ते पहले जब लोगों ने गांधी जी से सुभाष बाबू की जयंती पर कुछ बोलने के लिए कहा तो उन्होंने यही कहा कि मुझे तो उनका विरोधी बताया जाता है लेकिन लोग इस बात को नहीं समझते कि वे भी वही भारत बनाना चाहते थे जो मैं बनाना चाहता हूं। उनकी आजाद हिंद फौज में विभिन्न धर्मों, जातियों के लोग थे और हमारे भारत में भी वैसी ही विविधता होगी। आज जरूरत स्वतंत्रता संग्राम के उन्हीं मूल्यों की रोशनी में संवैधानिक मूल्यों की उदार और नवीन व्याख्या की है और यह बताने की आवश्यकता है कि वह उस स्वाधीनता संग्राम के मंथन से निकला हुआ अमृत है जिसका अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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