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भारत
राजनीति
पीएम मोदी को नेहरू से इतनी दिक़्क़त क्यों है?
यह हो सकता है कि आरएसएस के प्रचारक के रूप में उनके प्रशिक्षण में ही नेहरू के लिए अपार नफ़रत को समाहित कर दी गई हो। फिर भी देश के प्रधानमंत्री के रूप में किए गए कार्यों की जवाबदेही तो मोदी की है। अगर वे भारतीय मूल्यों को ख़त्म करते हैं तो इतिहास इनके लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहराएगा।
पार्थ एस घोष
19 May 2022
Modi
फाइल फोटो

पंडित जवाहरलाल नेहरू का 1964 में जब देहावसान हुआ, तब नरेंद्र मोदी मात्र 14 साल के थे। इसलिए, उनके पास यह समझने का कोई कारण नहीं था कि नेहरू के भारत पर किस तरह से शासन किया तथा उन्हें इसका भी भान नहीं था कि देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में उनके समक्ष किस तरह की मूलभूत चुनौतियां मौजूद थीं। एक व्यक्ति और एक राजनेता के रूप में नेहरू की प्रमुख शक्तियों एवं कमजोरियों की थाह तब मोदी को नहीं रही होगी।

प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू के शुरुआती वर्ष विभाजन के साये में गुजरे हैं। देश के बंटवारे के बाद भारत में पनाह लेने और पुनर्वास की मांग करने वाले पाकिस्तान से लाखों शरणार्थियों के आने वाले रेले ने पहले से ही लस्त-पस्त पड़े, गरीब और असुरक्षित देश की बेपनाह मुश्किलें बढ़ा दी थीं। तिस पर दूसरे वर्ल्ड वार के कारण, देश की अर्थव्यवस्था पहले से ही ध्वस्त पड़ी हुई थी। नेहरू ने इन चौतरफा चुनौतियों का मुकाबला किस तरह किया होगा? तब बिल्कुल किशोर रहे नरेंद्र मोदी को इसका कोई इलहाम भी नहीं रहा होगा।

देश को व्यवस्थित करने के नेहरू के कष्टसाध्य प्रयासों के बारे में मोदी की सराहना शायद उनकी विद्यालयी शिक्षा के बाधित होने की वजह से नहीं मिली। जैसा कि हम सब जानते हैं,खराब पारिवारिक परिस्थितियों के चलते मोदी को अपने पिता की रेलवे स्टेशन पर चाय की दुकान पर उनका हाथ बंटा कर जैसे-तैसे जीवनयापन के लिए मजबूर होना पड़ा था। 2011 में जब उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में राजनीतिक सत्ता हासिल हुआ, तो इसके 37 साल से नेहरू का भूत निष्क्रिय पड़ा हुआ था, और ऐसा मालूम होता है कि तब तक उनका प्रताप अतीत का विषय बन चुका था।

बेशक, एक भूत के लिए, 37 वर्ष शरारत करने वाले के रूप में अपना कैरियर शुरू करने के लिए पूरी तरह से एक अच्छी उम्र कही जाएगी। हमने बचपन में कोलकाता (तब कलकत्ता) की पुरानी हवेलियों में लार्ड क्लाइव और लार्ड वेलेजली के भूत-प्रेतों की कई कहानियाँ बंगाली में सुनी थीं। लेकिन सवाल यह है कि नेहरू का भूत नरेंद्र मोदी को क्यों चुना और किसी को क्यों नहीं चुना? आखिरकार, उसके शिकार के लिए कई प्रधानमंत्री एक लाइन में खड़े थे और उनमें से प्रत्येक अपने समय में एक प्रधानमंत्री के रूप में मोदी से कम अहम नहीं थे।

मोदी से पहले छह गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई प्रधानमंत्री भारत पर शासन कर चुके हैं। इनमें-मोरारजी भाई देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप (वीपी) सिंह, चंद्रशेखर, इंद्रकुमार (आइके) गुजराल और एचडी देवेगौड़ा। इस सूची में हम पीवी नरसिम्हा राव (1991-96) को भी शामिल कर सकते हैं। यद्यपि राव कांग्रेस के थे, लेकिन वे नेहरू की विरासत का दावा करने वालों की आंखों के कांटे के रूप में जाने जाते थे, विशेष रूप से वे उनके नाती एवं पूर्व प्रधानमंत्री (स्वर्गीय) राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी को एकदम नहीं सुहाते थे। तब सोनिया गांधी महान विरासत वाली पार्टी कांग्रेस की गॉडमदर के रूप में उभरने की तैयारी कर रही थीं।

यह काफी अजीब है कि नेहरू के भूत ने भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी नहीं बख्शा, जिन्होंने 1998 से 2004 तक देश पर शासन किया। मोदी के बनिस्बत वाजपेयी ने नेहरू के साथ अपने दिनों को याद करने का शायद ही कोई अवसर गंवाया हो। वाजपेयी तब जनसंघ (आज की भारतीय जनता पार्टी) के उदीयमान राजनीतिक थे, जो उत्तर प्रदेश के बलरामपुर निर्वाचन क्षेत्र से दूसरी लोकसभा (1957-63) में पार्टी के सांसद थे। 1962 में चीन से भारत की हार के बाद नेहरू की साख पर गहरा धक्का लगा था। इसके बाद तो वाजपेयी उनके कट्टर आलोचक बन गए। फिर भी, उनकी आलोचना राजनीतिक कार्यों तक ही सीमित थी, उनमें एक व्यक्ति के रूप में नेहरू के प्रति अनादर का लेश मात्र नहीं था।

वाजपेयी ने पंडित नेहरू के निधन पर कहा, “भारत माता आज दुख से तड़प रही है-उसने अपने लाड़ले राजकुमार को खो दिया है। मानवता आज दुखी है-इसने अपने भक्त को खो दिया है। शांति आज बेचैन है-इसलिए कि उसका रक्षक अब नहीं रहा। दलितों ने अपना आश्रय-सहारा खो दिया है। आम आदमी उम्मीद की रोशनी गंवा दी है। एक परदा गिर गया है… आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ में भगवान राम के बारे में कहा है कि उन्होंने असंभव को साध लिया था। पण्डितजी के जीवन में भी महाकवि के उस कथन की एक झलक मिलती है। नेहरू शांति के पुजारी थे तो क्रांति के अग्रदूत भी, वे अहिंसा के भक्त थे तो देश की स्वतंत्रता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार उठाने से भी उन्हें गुरेज नहीं था।”

इन सबसे स्वाभाविक रूप से एक आम जिज्ञासा होती है: तब मोदी क्यों विकृत उत्साह के साथ नेहरू को याद करते हैं? यह तो होगा नहीं कि मोदी हमें इस सवाल का जवाब दें। इसकी बजाय हम खुद ही उन वजहों के बारे में कुछ अनुमान ही लगाने का जोखिम ले सकते हैं।

सबसे पहली बात, नेहरू और मोदी के बीच बहुत लंबा वैचारिक फासला है। भले मोदी को नेहरू युग के भारत का कोई अकादमिक ज्ञान नहीं हो, लेकिन उन्हें अपने युवा दिनों से ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) प्रचारक के रूप में, कांग्रेस विरोध की घुट्टी पिलाई गई है। संघ कांग्रेस पार्टी को इस्लामिक पाकिस्तान की तर्ज पर भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने में एक महत्त्वपूर्ण बाधा मानता है। और, ज़ाहिर है कि पंडित नेहरू कांग्रेस की धुरी के रूप में इसमें सबसे बड़े बाधक थे, जिनके लिए धर्मनिरपेक्षता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता पर कोई समझौता नहीं हो सकता था। नेहरू के मन में यह प्रतिबद्धता इस कदर स्पष्ट थी कि उन्होंने भारत के संविधान में इसका औपचारिक उल्लेख करना भी जरूरी नहीं समझा। नेहरू को यकीन था कि संविधान के प्रारूप के हर्फ दर हर्फ में पूरा जोर इसी पर रहेगा।

दूसरी बात यह कि नेहरू और मोदी के बीच बौद्धिक असमानता काफी व्यापक है। मेरी समझ कहती है कि इसके चलते मोदी एक हीन भावना से ग्रस्त हैं। नहीं तो इसके अलावा, मोदी की विश्वविद्यालय शिक्षा या उसकी कमी के नाटक का कोई और क्या मायने समझा सकता है? इतने बड़े जनादेश के साथ, लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेता के लिए विश्वविद्यालय की डिग्री हासिल करने या न करने से शायद ही फर्क पड़ता है। फिर भी, दिल्ली विश्वविद्यालय से ‘एंटायर पॉलिटिकल साइंस’ में एमए की एक नकली डिग्री अपने नाम हासिल करने का एक ड्रामा पब्लिक डोमेन में देखने को मिला है। इस प्रहसन ने न केवल मोदी की शिक्षा-दीक्षा पर लोगों का बेवजह ध्यान खींचा बल्कि इससे उनकी छवि भी धूमिल हुई।

नरेंद्र मोदी की तुलना में पंडित नेहरू जीनियस थे। उन्होंने पांच पुस्तकें लिखीं, लेटर्स फ्रॉम ए फादर टू हिज डॉटर (1929), गिलम्पस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री (1934), ए ऑटोबायोग्राफी (1936), डिस्कवरी ऑफ इंडिया (1946), और लेटर्स फॉर ए नेशनः फ्रॉम जवाहरलाल नेहरू टू हिज चीफ मिनिस्टर्स 1947-1963 (यह चार खंडों में उपलब्ध है, जिसका संपादन जी. पार्थसारथी ने किया है।) नेहरू में जो पांडित्य, बौद्धिक लचीलापन, और कैथोलिक मस्तिष्क समाहित है, वह बड़े-बड़े शिक्षाविदों के लिए भी डाह का विषय है। नेहरू की अपने जमाने के प्रायः तमाम दिग्गज बुद्धिजीवी जैसे रवीन्द्रनाथ टैगोर, अल्बर्ट आइंस्टीन, बर्ट्रेंड रसेल, रोम्यां रोलां सहित कई अन्य लोग से अच्छी बातचीत थी, जिनके दस्तावेजी सबूत हैं।

नेहरू के परिष्कृत व्यक्तित्व के विपरीत मोदी की ढिठाई विचलन का तीसरा बिंदु है। मोदी अपने सार्वजनिक भाषण में अक्सर उन लोगों पर तंज करते हैं और उनका उपहास उड़ाते हैं, जिन्होंने उनसे पहले भारत पर शासन किया था। वे एकबारगी ही अपने पूर्ववर्तियों को तुच्छ करार देते हैं, मानो कि पिछले सत्तर वर्षों के दौरान देश में किसी के भी दौर में कुछ भी सार्थक नहीं हुआ। दिलचस्प है कि उनके द्वारा सबको खारिज करते जाने की जद में वे वर्ष भी आ जाते हैं, जब वाजपेयी प्रधानमंत्री हुआ करते थे। हालांकि मोदी बहुत सावधान रहते हैं कि भूल से भी वे उनका नाम नहीं लेते।

मोदी के विपरीत, नेहरू को अपनी पार्टी और विपक्ष दोनों के भीतर सभी तरह की धुर राजनीतिक ताकतों से निपटना पड़ा था। ऐसा करते समय उनका समभाव-संतुलन लाजवाब होता था। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अस्थिर मिजाज वाले वीके कृष्ण मेनन से उनके निबटने के तरीके में दिखता है। जिस किसी ने भी जयराम रमेश की लिखी मेनन की जीवनी पढ़ी है, वे नेहरू के धैर्य और संतुलित दृष्टिकोण की सराहना किए बिना नहीं रहेंगे। यह भी याद रखना चाहिए कि नेहरू की पहली कैबिनेट में उनके राजनीतिक दृष्टिकोणों के एकदम धुर विरोधी लोग शामिल थे। उसमें एक तरफ हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे हिंदू अधिकार के संस्थापक व्यक्ति थे तो दूसरी तरफ अनुसूचित जाति महासंघ के नेता बीआर अंबेडकर जैसे व्यक्ति थे, जिनके हिंदू कानून सुधार पर विचार नेहरू से भी अधिक कट्टरपंथी थे।

नेहरू और मोदी में चौथी विसंगति विज्ञान और तर्कशीलता के संबंध में परस्पर विरोधी अभिविन्यास से संबंधित है। नेहरू ने देश के एक वैज्ञानिक स्वभाव बनाने पर जोर देने और उसे बढ़ावा देने के लिए बहुत कष्ट उठाए थे। लेकिन आज मोदी के शासन में, वे संदर्भ और जिन मूल्यों का उन्होंने प्रतिनिधित्व किया था, वह उनके लिए मजाक का विषय बन गए हैं। अतीत की उपलब्धियों पर गर्व करना स्वाभाविक है, लेकिन हर महान वैज्ञानिक उपलब्धि-चाहे वह प्लास्टिक सर्जरी हो, रिमोट सेंसिंग, कंप्यूटर तकनीक की या यहां तक कि पेन ड्राइव की-उसका श्रेय प्राचीन भारतीयों यानी हिन्दुओं को देना, काफी हद तक बेतुका है। इसका पता लगाना हो तो आप विदेश जाएं और देखें कि मोदी के इस तरह के दावों पर उनके एनआरआई चीयरलीडर्स को छोड़कर औरों को कैसे हंसी छूटती है।

पांचवां अंतर, नेहरू के उदारवाद और मोदी के उदारवाद का है। चूंकि प्रश्न व्यक्तिपरक है, इसलिए इसका उत्तर वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता है। इन दो युगों के दौरान बनने वाली फिल्मों के सबूत काफी विचारोत्तेजक हैं क्योंकि फिल्में मीडिया के अन्य रूपों की तुलना में देश के सामाजिक वातावरण को अक्सर बेहतर तरीके से दर्शाती हैं। मैंने 1950 और 1960 के दशक की फिल्मों की सामाजिक सामग्री पर कुछ काम किया है। उनके अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि नेहरू युग में राज्य सत्ता का दि कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म का समर्थन करना अकल्पनीय होता।

दंगे की अधिकतर स्थितियां, या कारक जिसके चलते लोगों का बड़े पैमाने पर पलायन होता है, वे भयानक कहानियों से भरी हुई हैं। फिक्शन विशेष रूप से एक शक्तिशाली माध्यम है,जिसके जरिए उस वेदना की स्मृति सुरक्षित रखी जाती है और उसे संसाधित किया जाता है, जैसा कि सआदत हसन मंटो, खुशवंत सिंह, भीष्म साहनी और कई अन्य लोगों ने हमें दिखाया है। फिल्मकार और इतिहासकार भी इन कहानियों को कहने का बोझ उठाते हैं। लेकिन राज्य को इन गतिविधियों से अपने को दूर ही रखनी चाहिए। इसकी बजाय, राज सत्ता को सामाजिक सद्भाव के हित में, पक्षपातपूर्ण राजनीति से ऊपर उठना चाहिए। उसे विशेष रूप से इस बात को लेकर सावधान रहना चाहिए कि वह लेखकों और फिल्म निर्माताओं के व्यावसायिक हितों को बढ़ावा न दे, चाहे उनका जो भी वैचारिक रंग हो।

उदाहरण के लिए, क्या राज्य को ऐसी कहानियों का प्रसार करना चाहिए कि सिलहट के बंगाली हिंदुओं को अपने जीवनकाल में किस तरह दो बार बहुसंख्यकवादी जातीय-धार्मिक संकट का सामना करना पड़ा था? अगर पहली बार सिलहटी मुसलमानों ने ऐसा किया था, जहां से वे भाग गए, तो दूसरी बार उन्हें शिलांग में बहुसंख्यक खासी समुदाय की हिंसा झेलनी पड़ी थी।

1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद, अखिल असम छात्र संघ (आसू /AASU) की मांग खासी छात्र संघ (KSU) की मांग बन गई कि सभी विदेशियों को उनके यहां से बाहर निकला जाए। यह उनकी आम मांग थी। लेकिन उनकी इस नफरत एक पदानुक्रम से जाहिर हुई थी: उन्होंने पहले बंगालियों को निशाने पर लिया, फिर भारतीय मूल के नेपालियों को, और आखिर में बिहारियों के प्रति घृणा का प्रदर्शन किया गया। इस तरह से शिलांग का महानगरीयवाद जल्द ही फटेहाल हो गया।

इतिहास हमें सिखाता है कि राजनेता किसी भी कीमत पर अपनी सत्ता बनाए रखने की कोशिश करते हैं। ज्यादतियों के क्षण में, ऐसी रणनीतियां राजनीतिक संस्था को महत्त्वपूर्ण नुकसान पहुंचा सकती हैं। मुझे डर है कि हम ऐसे मोड़ पर हैं। हम उस भारत के विचार को ही नष्ट कर रहे हैं, जिस पर भारतीय राज्य का पूरा तानाबाना टिका है। यह विचार उसकी संवैधानिक परिकल्पना में अंतर्निहित है, जिसके तीन मुख्य स्तंभ हैं: धर्मनिरपेक्षता, संघवाद और बहुलतावाद। अगर मोदी चाहते हैं कि भावी पीढ़ी उन्हें एक महान प्रधानमंत्री के तौर पर याद करे तो वे इस अनजान भारतीय की इस छोटी सी सलाह को नजरअंदाज नहीं कर सकते। उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि नेहरू विचारों के समागम थे। मोदी उस व्यक्ति पर हमला करके, प्रकारांतर से उस संयोजन पर हमला करते हैं, और ऐसा करने में, वह उस चीज को नष्ट हो जाने का जोखिम है, जिन पर हम सबको एक भारतीय होने का गर्व है।

नरेंद्र मोदी को यह समझना चाहिए कि इतिहास की किताबों में उन्हीं पर अध्याय लिखे जाएंगे, आरएसएस पर नहीं। संघ अपनी आगामी शताब्दी का समारोह धूमधाम से मना सकता है और वह अगले 100 वर्षों तक प्रभावशाली रह सकता है, फिर भी उनके लिए कोई अलग से कोई अध्याय नहीं लिखा जाएगा। उनका भारत के प्रधानमंत्रियों के संदर्भ में फुटकर उल्लेख होगा। इसलिए गेंद पूरी तरह से मोदी के पाले में है।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में सीनियर रिसर्च फेलो हैं। इसके पूर्व वे आईसीएसएसआर के नेशनल राष्ट्रीय फेलो और जेएनयू में दक्षिण एशियाई अध्ययन के प्रोफेसर थे। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में मूल रूप से लिखे आर्टिकल को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

Why Nehru’s Ghost Haunts Prime Minister Narendra Modi

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sonia gandhi

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