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शराबबंदी के बाद भी क्यों सूख नहीं रहे बिहार की ग्रामीण महिलाओं के आंसू?

क्या बिहार में शराबबंदी फेल है? और फेल है तो क्या नीतीश कुमार का यह फैसला गलत था? इन दिनों मीडिया में ये सवाल हर तरफ हैं। मगर इस पूरे डिबेट से वे महिलाएं गायब हैं, जिनकी पहल पर राज्य में शराबबंदी लागू की गयी थी। 
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

बिहार के बेतिया जिले के नौतन का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। इस वीडियों में धान के पुआल पर बैठी एक महिला अपनी व्यथा सुनाते हुए रो रही है। वह कह रही है कि “दारुआ पियाइ के मारलक तहियो न ऐले परशासन’। मतलब यह कि दारू पिलाकर उसके परिजन को मार डाला गया, मगर तब भी प्रशासन के लोग उसकी सुधि लेने नहीं आये। 

दीपावली के आसपास बिहार में नकली और जहरीली शराब पीने से अब तक 33 लोगों की मौत हो गयी है और कई लोगों की आंखों की रोशनी चली गयी है। इस घटना पर इसलिए भी सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि बिहार में पिछले पांच साल से पूर्ण शराबबंदी है। इसके बावजूद लोग शराब पी भी रहे हैं और पीकर मर भी रहे हैं।

नौतन की उस महिला का विलाप इसलिए भी परेशान करने वाला है, क्योंकि ऐसी ही ग्रामीण महिलाओं की लगातार मांग और उनके द्वारा किये जाने वाले आंदोलनों की वजह से बिहार में शराबबंदी लागू की गयी थी। शराबबंदी लागू होने से पहले बिहार में खुद सरकार हर पंचायत में शराब की बिक्री करती थी, और जगह-जगह भट्ठियां भी खुली होती थीं। इनके खिलाफ पूरे राज्य में ग्रामीण महिलाएं लगातार आंदोलन किया करती थीं। एक सभा में ऐसी ही एक आंदोलनकारी महिला ने राज्य के सीएम नीतीश कुमार से शराबबंदी की मांग की थी और सीएम ने उसकी मांग को मानते हुए अप्रैल, 2016 में पूरे राज्य में शराबबंदी लागू कर दी गयी। मगर दुर्भाग्य है कि शराबबंदी लागू होने के पांच साल बाद भी इन महिलाओं की परेशानियां और विलाप खत्म नहीं हुआ है। पूरे राज्य में आसानी से शराब उपलब्ध है और आंकड़े बताते हैं कि राज्य में इस साल नकली शराब पीने से 70 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है।

तो क्या बिहार में शराबबंदी फेल है? और फेल है तो क्या नीतीश कुमार का यह फैसला गलत था? इन दिनों मीडिया में ये सवाल हर तरफ हैं। मगर इस पूरे डिबेट से वे महिलाएं गायब हैं, जिनकी पहल पर राज्य में शराबबंदी लागू की गयी थी। 

इन सवालों को समझने के लिए न्यूजक्लिक ने बिहार की ग्रामीण महिलाओं के बीच पिछले कई वर्षों से काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता शाहीना परवीन से बातचीत की तो वे कहती हैं, “बिहार में अगर शराबबंदी असफल साबित हो रही है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि शराबबंदी लागू करने का फैसला गलत था।”

वे आगे कहती हैं, “दरअसल इसके असफल होने की एक बड़ी वजह यह रही कि इसे ठीक से लागू नहीं किया गया। बिहार सरकार ने अंततः इसे कानून व्यवस्था का मसला मान लिया और इसे लागू कराने की पूरी जिम्मेदारी पुलिस विभाग को दे दी। यह नहीं सोचा गया कि शराबबंदी लागू होने के वक्त जो लोग बुरी तरह शराब पीने के आदी हैं, उन्हें कैसे सुधारा जाये। इसे लागू करने में व्यवहार परिवर्तन और इस लत के शिकार लोगों के इलाज की बड़ी भूमिका होनी थी। मगर नशामुक्ति के मसले पर न के बराबर काम किया गया। दूसरा काम जागरूकता का होना था, मगर वह काम भी औने-पौने तरीके से चला। सबसे बड़ी कमी यह हुई कि इस पूरी प्रक्रिया में उन महिलाओं को शामिल नहीं किया गया, जो लंबे समय से शराबबंदी के खिलाफ अभियान चला रही थीं, जो भट्ठियां तोड़ रही थीं, सरकार के खिलाफ आंदोलन चला रही थीं और कई बार पिट भी रही थीं। अगर उन महिलाओं को जोड़ा जाता, सूचना प्रदाता बनाया जाता तो शायद पुलिसिंग भी आसान होती।”

यह पूछने पर कि अब लोग कहते हैं, शराबबंदी गलत फैसला था, इसलिए असफल हो रहा है। शाहीना कहती हैं, “इस तरह से तो दहेजप्रथा और बाल विवाह का कानून भी असफल है। क्या उसे भी हटा दिया जाये। अगर सरकार इसे लागू कराने में असफल है तो यह व्यवस्था की चूक है। इससे यह साबित नहीं होता कि कानून गलत था।”

आखिर शराबबंदी के बाद बिहार में क्यों नशामुक्ति और जागरूकता जैसे उपायों पर काम नहीं किया गया, यह जानने के लिए न्यूजक्लिक ने पटना स्थित दिशा नशामुक्ति केंद्र की संचालिका राखी सिंह के बातचीत की तो उन्होंने बताया, “शुरुआत में इसकी योजना बनी थी। राज्य के सभी 38 जिलों में नशामुक्ति के लिए बेड रिजर्व किये गये थे। पटना में एनएमसीएच और पीएमसीएच में विशेष केंद्र पहले से संचालित थे। हम खुद मरीजों को वहां भेजा करते थे। मगर धीरे-धीरे ये केंद्र बंद होने लगे। कोविड के दौरान तो पूरी तरह बंद हो गये। इसलिए जिस बड़े पैमाने पर राज्य में नशामुक्ति अभियान की जरूरत थी, वह हो नहीं पाया।”

राखी कहती हैं, “जब तक शराबबंदी को सिर्फ कानून व्यवस्था का मसला समझा जायेगा, समाधान नहीं निकलेगा। अभियान चलाकर लोगों को नशामुक्ति के लिए प्रेरित करना होगा। शराब के खिलाफ अभियान चलाना होगा और साथ ही इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि आखिर युवा क्यों नशे की गिरफ्त में आ रहे हैं। उनके खेलकूद, रोजगार और राज्य में ही बेहतर पढ़ाई के इंतजाम करने होंगे। यह सब एक दिन में नहीं होगा। मगर निरंतर प्रयास जारी रखना होगा।”

राखी आगे कहती हैं, “शराबबंदी के बाद हमने देखा है कि युवा शराब के बदले चरस, गांजा और भांग जैसे नशे की तरफ शिफ्ट हो रहे हैं। अगर युवाओं को नशे की लत से बचाना है तो पूर्ण नशाबंदी ही उपाय है।”

राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी नशाबंदी के अभियान से सहमत हैं। उनकी तरफ से 2017 में ही पूर्ण नशाबंदी की बात कही गयी थी। मगर वे अपनी प्रशासनिक कमजोरियों और दूसरे उलझनों की वजह से इसे लागू नहीं करा पाये हैं। इन दिनों नकली शराब से लोगों की मौत के बाद वे एक बार फिर नये सिरे मे शराबबंदी अभियान को मजबूत तरीके से लागू करने की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि छठ के बाद बड़े पैमाने पर अभियान चलाया जायेगा। मगर इस अभियान में भी वे नशामुक्ति की बात नहीं कर रहे।

बिहार में सबसे बड़ी दिक्कत स्वास्थ्य सुविधाओं में मैनपावर की कमी की है। राज्य में मनोचिकित्सकों की तो घोर कमी है, सरकारी अस्पताल में डॉक्टरों के आधे से अधिक पद अभी भी खाली हैं। ऐसे में राज्य सरकार कहने के लिए तो वादा कर देती है कि हर सदर अस्पताल में नशामुक्ति केंद्र संचालित होगा और बेड रिजर्व होंगे, मगर वह व्यावहरिक रूप से लागू हो नहीं पाता है। राज्य सरकार अभियान मोड में रहती है। नशामुक्ति से चमकी बुखार, चमकी बुखार से बाढ़, बाढ़ से कोरोना, जब-जब जो संकट आता है, उसका गोल शिफ्ट होता रहता है। इसलिए कोई भी काम स्थायी रूप से नहीं हो पाता। अब देखना है कि इस आपदा के बाद बिहार सरकार का गोल जब शराबबंदी और नशामुक्ति की तरफ शिफ्ट होता है तो वह कितनी देर तक सक्रिय रहता है।

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