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रासायनिक खाद के बेजा इस्तेमाल को क्यों बढ़ावा दे रही है सरकार?

आपदा में अवसर तलाशने वाली हमारी सरकार आखिर भारत में रासायनिक उर्वरकों के अनियंत्रित इस्तेमाल से बचने का कोई उपाय क्यों नहीं ढूंढ़ रही है? जबकि इसके अनियंत्रित इस्तेमाल से होने वाला पर्यावरणीय संकट देश की खेतीबाड़ी के सामने एक बड़े ख़तरे के तौर पर उभरा है।
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फसलों में रासायनिक खाद का उपयोग करते हुए किसान-सूर्यकांत पाटिल।

कोरोना महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण साल 2021 और 2022 में वैश्विक कमी के चलते रासायनिक खाद, रासायनिक खाद के लिए कच्चे माल और घुलनशील उर्वरकों की कीमतें रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई थीं। लेकिन, फिलहाल उर्वरक का वैश्विक बाज़ार अपनी गति पर आ गया है। सवाल यह है कि ऐसी स्थिति में आपदा में अवसर तलाशने वाली हमारी सरकार आखिर भारत में रासायनिक उर्वरकों के अनियंत्रित इस्तेमाल से बचने का कोई उपाय क्यों नहीं ढूंढ़ रही है? जबकि इसके अनियंत्रित इस्तेमाल से होने वाला पर्यावरणीय संकट देश की खेतीबाड़ी के सामने एक बड़े खतरे के तौर पर उभरा है।

कोरोना के वैश्विक संकट के कारण सभी प्रकार के परिवहन बाधित रहे थे। नतीजा यह हुआ कि रासायनिक खाद का उत्पादन और परिवहन ठप हो गया था। रासायनिक खाद की दुनिया भर में कमी बनी हुई थी। कोरोना के बाद जैसे ही रासायनिक खाद की आपूर्ति के लिए आवश्यक कच्चे माल में सुधार होने लगा तो रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते दुनिया को रासायनिक खाद की आपूर्ति लगभग बंद हो गई। वैश्विक बाज़ार में रासायनिक खाद की भारी कमी के कारण इनकी कीमतें आसमान छू रही थीं। इसका असर पूरी दुनिया में देखा गया। अब पूरे विश्व में रासायनिक खाद और कच्चे माल की उपलब्धता अच्छी है। इसलिए रासायनिक खाद के दाम भी स्थिर हैं।

देश में बढ़ती ही जा रही है रासायनिक खाद की मांग

देश में खरीफ, रबी के साथ ही ग्रीष्मकालीन फसलों और अन्य बारहमासी नकदी फसलों को औसतन 350 लाख टन यूरिया, 100 लाख टन डीएपी (डाई अमोनियम फास्फेट), 25 लाख टन एमओपी (म्यूरेट ऑफ पोटाश), 115 लाख टन एनपीके (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम) की आवश्यकता होती है। इसी तरह, सालाना 56 लाख टन सल्फेट ऑफ पोटाश की भी ज़रूरत होती है। कुल उर्वरक उपयोग में यूरिया का हिस्सा 55 प्रतिशत से अधिक है। उसके बाद डीएपी खाद का उपयोग किया जाता है। केंद्र सरकार रासायनिक खाद के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए यूरिया और डीएपी उर्वरकों पर भारी सब्सिडी देती है। रासायनिक खाद के इस्तेमाल के बाद फसलों की पैदावार बढ़ने अपेक्षा रखी जाती है, इसलिए किसानों द्वारा यूरिया और डीएपी को प्राथमिकता दी जाती है।

राज्य स्तर पर देखें तो इसे महाराष्ट्र के उदाहरण से समझा जा सकता है। महाराष्ट्र को हर साल औसतन 42 से 45 लाख टन रासायनिक खाद की ज़रूरत होती है। इसमें 22 लाख टन तक यूरिया शामिल है। राज्य में अंगूर, अनार, अमरूद, संतरा, आम आदि फल और फसलों सहित अन्य नकदी फसलों के लिए रासायनिक खाद का उपयोग किया जाता है। यदि वर्षा और बुवाई समय पर की जाए तो रासायनिक खाद की मांग बढ़ जाती है। यह देखा गया है कि रासायनिक खाद की मांग साल भर बनी रहती है।

घुलनशील यानी पानी में घुल जाने वाले उर्वरकों का उपयोग बगीचों, फूलों की खेती, ग्रीनहाउस या शेड नेट फार्मिंग में बढ़ गया है। महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में ऐसे उर्वरकों की अच्छी मांग है। इज़राइल, कनाडा और चीन दुनिया में घुलनशील उर्वरकों और कच्चे माल के महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता हैं। देश को घुलनशील उर्वरकों के लिए चीन पर निर्भर रहना पड़ता है, क्योंकि इज़राइल से आने वाले उर्वरक और कच्चे माल उच्च गुणवत्ता वाले लेकिन महंगे होते हैं। कोरोना काल में चीन से आयात बाधित रहा। मांग के अनुरूप आपूर्ति नहीं हुई। कीमतों में भी भारी इज़ाफ़ा हुआ है। अब आपूर्ति और कीमतें स्थिर हैं। लिहाज़ा, इसका प्रचलन फिर से बढ़ता जा रहा है।

इसलिए बढ़ रहा है यूरिया का उपयोग :

यूरिया खाद की खपत देश की कुल उर्वरक खपत का 55 प्रतिशत तक है। देश के कोने-कोने के किसान आज भी यूरिया को मुख्य खाद मानते हैं। चावल और गेहूं की मुख्य फसलों के लिए यूरिया का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। केंद्रीय सब्सिडी के कारण यूरिया अन्य उर्वरकों की तुलना में सस्ता है। इसका उपयोग करना सुविधाजनक है। यूरिया में नाइट्रोजन की मात्रा 46 प्रतिशत होती है, इसलिए इसका फसलों पर तुरंत प्रभाव पड़ता है। इससे यूरिया की खपत सबसे ज़्यादा होती है और डीएपी का भी यही हाल है। सरकार से लगभग पचास हज़ार प्रति टन की भारी सब्सिडी के कारण अन्य मिश्रित उर्वरकों की तुलना में डीएपी की दरें कम हैं। इससे यूरिया का उपयोग बढ़ रहा है।

एक ओर केंद्र सरकार ही रासायनिक खादों को बढ़ावा दे रही है तो दूसरी ओर यही सरकार मृदा संरक्षण के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड जैसी महत्वाकांक्षी योजना चला रही है। लेकिन, अन्य योजनाओं की तरह यह योजना भी योजना प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पाई है। रासायनिक खाद का पारंपरिक रूप से उपयोग किया जाता है। मृदा संरक्षण के लिहाज़ से कहा गया था कि हमारे देश की मिट्टी में जिस तत्व की कमी है, उसी का उपयोग किया जाए तो भूमि का स्वास्थ्य तो अच्छा रहेगा ही साथ ही किसानों की उत्पादन लागत भी कम आएगी। मृदा परीक्षण योजना को मृदा परीक्षण में तकनीकी सुधार के साथ जन आंदोलन के रूप में लागू किया जाना चाहिए।

वहीं, यूरिया के अत्यधिक उपयोग को रोकने, पैसे बचाने और मिट्टी के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए नैनो यूरिया को बाज़ार में उतारा गया है। लेकिन, आमतौर पर दो साल बाद भी नैनो-यूरिया के इस्तेमाल में खासी बढ़ोतरी होने या यूरिया की जगह जानबूझकर नैनो-यूरिया का इस्तेमाल किए जाने का कोई संकेत नहीं मिल रहा है। अभी कुछ कंपनियां नैनो डीएपी का परीक्षण कर रही हैं। यह नई तकनीक किसानों तक पहुंचनी चाहिए।

मिट्टी संरक्षण के जानकारों का कहना है कि रासायनिक और घुलनशील उर्वरकों के उपयोग से बचें और जैविक खादों का उपयोग करें, हालांकि आवश्यकता के अनुसार जैविक खादों की उपलब्धता नहीं है, यह सूर्य के प्रकाश की तरह स्वच्छ है। लेकिन, केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित मापदंडों के अनुरूप जैविक खाद उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। इसमें अक्सर सरकारी तंत्र की मौन स्वीकृति के साथ, किसानों को धोखा देना शामिल होता है।

जैविक खादों, दवाओं, जैव उर्वरकों के गुणवत्तापूर्ण उत्पादन और बाज़ार में इसकी उपलब्धता बढ़ाने के लिए सुनियोजित कार्यक्रम की ज़रूरत है। इसके बिना रासायनिक खाद का संतुलित उपयोग नहीं हो पाएगा। सीधे शब्दों में कहें तो रासायनिक खाद का उपयोग कम नहीं होगा। लेकिन, स्थिति यह है कि सरकार इस दिशा में गंभीर नहीं दिख रही है। नई तकनीकों के प्रयोग से रासायनिक, जैविक एवं जैविक खादों का संतुलित एवं नियंत्रित उपयोग संभव है। इसके लिए सरकार और किसानों को सोच समझकर दो कदम आगे बढ़ाना चाहिए। 

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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